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सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निम्भो निरासो य । वेगाभावियमणो झाणंमि सुनिच्चलो होई ।।३४।। _____ अर्थः - नैराग्य भावना से भावित मन वाला जगत के स्वभाव, को अच्छी तरह जानने वाला, निसंग, निर्भय और आशा रहित बन कर ध्यान में सुनिश्चल होता है।
ऐसी चारित्र भावना ध्यान की भूमिका किस तरह सर्जन करती है ? इसीलिए कि ध्यान में से मन को चंचल करने बाले इन्द्रिय विषय और कषाय तथा हिंसादि पापों के अधिरति स्वरूप आश्रव हैं। परन्तु ये आश्रव यहां चारित्र से रुक जाते हैं। पुनः चारित्र जीवन में मन वचन काया के शुभ योग सतत चालू हैं। विशेषत: मनोयोग स्वाध्याय, समिति, गुप्ति आदि में पकड़ा हुआ रहता है. इससे ध्यान को धक्का लगाने वाले अशुभ योगों में मनोयोग को अवकाश नहीं रहता। इसी तरह ध्यान से चलित करने वाली तन मन की सुकोमलता १२ प्रकार के तप से नष्ट हो जाती है और दृढता व मजबूती आती है। मन का सत्त्व खूब खूब विकसित होता है। अब यह सत्त्व मन को ध्यान में स्थिर रख सकता है । अत: चारित्र भावना से धर्मध्यान सुलभ बनता है, ध्यान में सुखपूर्वक चढ सकते हैं।
४. वैराग्य भावना अब वैराग्य भावना का स्वरूप तथा उसकी महिमा बताते हैंविवेचन :
पैराग्य भावना में ५ वस्तुएँ हैं:१, सुविदित जगत् स्वभाव । २. निस्तंगता।