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नहीं चलता। अत। वे नदी स्नान आदि हिंसा का प्रतिपादन करने वाले होते हैं। ऐसे दर्शनों को कांक्षा नहीं रखना चाहिये; अन्यथा सम्यक्त्व को ठेस पहुंचती है। मरीचि ने परिव्राजक वेश में धर्म है ऐसा कहा तो एक कोडाकोड़ी सागरोपम संसार बढ़ाया। ___कांक्षा का दूसरा अर्थ है:-इस लोक परलोक के फल की इच्छा । 'धर्म से मुझे पैसा मिले, प्रतिष्ठा मिले, देवलोक के सुख मिलें ।' यह निदान या नियाणा कांक्षा है । यह कांक्षा भी गलत है । क्योंकि इससे सम्यक्त्व में अतिचार लगता है । सम्यक्त्व का लक्षण तो 'सुरनर सुख जे दुख करी लेख वे, वंछे शिवसुख एक' (मनुष्यो तथा देवों के सुख का भी दुख के समान समझे और एक मात्र शिव सुख की इच्छा करे ।) मोक्ष में ही एकांत, शाश्वत तथा स्वाधीन सुख है। अत: उसे छोड़ कर हलके ठगने वाले संसारसुख की कांक्षा से सम्यक्त्व को हानि होती है, भव भ्रमण बढ़ता है। वीर प्रभु का जीव विश्वभूति मुनि यों ही भटक मरा।
३. विचिकित्सा का एक अर्थः- युक्ति और आगम से संगत क्रिया में भी, रोग की चिकित्सा की तरह, फल की शंका करे। 'फल मिलेगा या नहीं ? या रेत के निवाले की तरह उपवासादि निष्फल जावेगा?' यह शंका भी सम्यक्त्व में अतिचार है । यह तीसरा विचिकित्सा अतिचार ।
प्रश्न- 'शका' नामक प्रथम अतिचार में इसका समावेश नहीं हो जाता?
उत्तर- पहला 'शंका' अतिचार द्रव्यगुण के बारे में है, यह क्रिया के फल के बारे में है। यों तो सभी अतिचार मिथ्यात्वोदय वश होने वाले जीव-परिणाम हैं; परन्तु जीवों को समझाने और समय पर हटाने या बचाने के लिए भिन्न भिन्न रूप से अतिचार