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( ९६ ) बताये हैं। अत: पहला अतिचार तत्त्व में मजबूत श्रद्धा रखवाने के लिए कहा, तो मार्गसाधना में मजबूत श्रद्धा रखवाने के लिए इस अतिचार को अलग बताया। इससे बचने के लिए यह सोचना चाहिये कि 'सर्वज्ञ कथित और आचरित कल्याण अनुष्ठान निष्फल होते ही नहीं। अत: विचिकित्सा नहीं करना चाहिये ।' पुनः धर्मसाधना के फल के तौर पर सांसारिक सुख सन्मान पर दृष्टि जाती है, इससे फल को यह शंका उत्पन्न होती है । सचमुच तो साधना का आत्मिक फल ही इच्छनीय है। आत्मा के रागादि विकार दबें, जड़ के बारे मे अस्वस्थता कम हो, यह महान फल है। दानादि धर्म साधना से वह सिद्ध होती ही है। तब भी लौकिक फल के बारे में भी शंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि वह भी सर्वज्ञोन है। सर्वज्ञ ने लौकिक फल भी बताये हैं। वस्तुस्थिति जैसी हो वंसी तो वे कहे ही न?
एक श्रावक को उसके किसी मित्रदेव ने कोई एक विद्या दी। उसने कहा : 'श्मशान में चार पैरों वाला छींका खडा करके नीचे अग्नि रखकर छींके पर बैठ कर १०८-१०८ बार यह विद्या जपते जपते छ'के का १-१ पैर काटना। इस तरह चारों पैरों के काट देने पर आकाश में उडा जावेगा।' इतने में द्रव्य सहित एक चोर जिसके पीछे सिपाही लगे हए थे भागता हवा आया। सिपाही तो 'अब इसे सूबह ढूढ लेगे।' कह कर जंगल को घेर रहे थे। यहां चोर ने पूछा 'क्या करता है ? उसने कहा, 'विद्या साध रहा हूं।' चोर ने कहा : 'यह सब द्रव्य ले ले और विद्या मुझे दे।' श्रावक को फल की शंका ( विचिकित्सा ) हुई इससे धन ले कर विद्या दी। चोर ने सोचा, श्रावक तो चींटी मारने का भी पाप करना नहीं चाहता। अतः यह विद्या गलत नहीं होगी।' उसने श्रद्धा से उसे साधा और आकाश में उड़ा । सुबह सिपाही ढूढते हुए आये तो श्रावक को माल के साथ पकड़ कर मारने लगे। चोर ने आकाश में से सिपाहियों को भय