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३. प्रभावना याने इतरों में जैन शासन की प्रभावना हो, वाह वाह हो, आकर्षण हो ऐसे सुकृत, सुकृत्य करे ।
8. आयतन सेवा: - सम्यग्दर्शन के आयतन याने रक्षक स्थानों की सेवा करे तथा अनायतन का त्याग करे ।
५. भक्ति:- देव गुरु संघ तीर्थं शास्त्र की भक्ति आदर बहुमान करे ।
५ प्रशमादि लक्षणों का अभ्यास करे
१. प्रशन: 'अपराधी शुंपण नवि चित्तथकी चितवीए प्रतिकूल' य'ने 'अपराधी के प्रति भी चित्त से प्रतिकूल (याने बुरा) नहीं सोचना', ऐमा उपशम भाव रखे । कारण वह आस्तिक्यादि गुणों से यह देखता है कि 'चाहे सामने वाले ने हमारा बिगाड़ा ऐसा दिखता हो, परन्तु सचमुच तो अपने कर्म ही बिगाड़ने वाले हैं, अत: सामने वाले पर क्रोध करना गैर वाजिब है । सामने वाला तो करुणापात्र है कि विचारा पाप करके कर्म बांध कर भविष्य में दु:ख में गिरेगा। वैसे ही अपना जीव भी करुणा पात्र है कि कर्मों से तो दंड पा ही रहा है, उसमें फिर नये कषाय कर के दुष्कर्म क्यों खड़े करु ?' इस तरह सोच कर अपराधी पर उपशम रखे ।
२. संवेग अर्थात् मोक्षसुख का और उसके लिए देव, गुरु, धर्म का ऐसा रंग हो कि देव तथा मनुष्य भव के सुख भी दुःख रूप लगें, तथा सुख का रंग याने आकर्षण उतर जाय । वह यह समझे कि ये जड़ सुख निस्सार, नाशवंत तथा हानिकारक हैं तथा जीव उनमें परतन्त्र है, उनसे ठगा जा रहा है। अतः 'सुर नर सुखजे करी दुख लेखवे, वंछे शिव सुख एक' अर्थात् देव दुःख समझे और मात्र अकेले शिव सुख की ही इच्छा करे 1
तथा मनुष्य के सुखों को