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( ९७ ) प्राप्त करवा कर श्रावक को छुड़वा दिया। दोनों को श्रद्धा हुई। इस तरह धर्म के फल सम्बन्धी विचिकित्सा नहीं करना चाहिये ।
विचिकित्सा का दूसरा अर्थ 'साधु के मलिन गात्र व वस्त्र की दुगंछा' है। 'साधु उत्तम हैं, पर जरा अचित्त पानी से सफाई रखें तो क्या हर्ज है ?' यह दुगंछा नहीं करना चाहिये । क्योंकि साधु तो सुबुद्ध है, संसार के स्वभाव को जानने वाले हैं, और इसीलिए सर्व संग के त्यागी हैं। वे बालिश स्नानादि सफाई में नहीं पड़ते । यह 'बालिश' इसलिए है कि शरीर असल में अशुचिभरा ही है, उसमें से अशुचि बह रही है, उसे स्नान से स्वच्छ हुआ मानना एक भ्रम है। फिर स्नान तो काम का अग है। इसलिए भी स्नान नहीं करे तो उनकी दुगंछा नहीं करना चाहिये।
एक श्रावक की पुत्री के लग्न के समय साधु उनके घर आये। पिता ने कहा : 'पुत्री ! महाराज साहब को वहोराओ।' उसे साधु के मलिन गात्र देख कर मन में दुगंछा उत्पन्न हुई। 'कैसे मैले हैं ? भगवंत ने धर्म तो निरवद्य कहा है, पर उसमें जरा स्नान करने का कहा होता तो क्या दोष लग जाता?' इस दुगंछा से घोर कर्म बांध कर मरकर गणिका के पेट में उत्पन्न हई। गणिका को भारी उद्वग उत्पन्न होने से गर्भपात की दवाएं लीं। तब भी वह मरी नहीं। जन्म से ही उसके शरीर से भारी दुर्गंध निकलने लगी। इससे उसे जंगल में छोड़ा। राजा श्रेणिक ने प्रभु से पछा : भगवंत ! इस जंगल में से आते हुए बहुत खराव बदबू वाली कन्या देखी, बदबू क्यों ?' प्रभु ने सब अधिकार कहा । 'यह दुःख कब मिटेगा ?' प्रभु ने कहा : 'पाप भुगता जा चुका है। 'अब बड़ी होकर ८ वर्ष तेरी पट्टरानी बन कर रहेगी।'
४प्रशंसा:- सर्वज्ञ कथित व्रत, मार्ग, तत्त्व के अलावा