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( ८१ ) (६) वह जिस किसी दुष्कृत्य का सेवन करता हो, वह निरपेक्ष हृदय से अर्थात् इस लोक या परलोक में उसके कसे उपाय या अनर्थ होंगे उसका कुछ भय नहीं, परवाह नहीं है। उदा० वह कहे, आज साहूकारों में तो मृत्यु है, झूठ चोरी से ही जिया जा सकता है। इसमें कुछ हर्ज नहीं, पाप वाप क्या लगते थे ?
(७) जीवन जीते हुए जीवों पर दया न हो, उसके वचन तथा बर्ताव ही ऐसे निर्दय निष्ठुर दिल के दिखाई देते हों। उदा. वह कहे, 'भगवान ने ये दूसरे जीव अपने जीने के लिए ही बनाये हैं।' 'जीवो जीवस्य जीवनम्'.... अपने को हैरान करे उसे खतम करो' आदि । चलने में भी कीड़े मकोड़ों के मरने की परवाह न करे। खाने पीने में अभक्ष्य पदार्थों का खुशी से खुलकर उपयोग करे। इत्यादि आन्तरिक रौद्रध्यान का सूचक है।
(८) पुन: किसी को दुःख दिया, कोई पाप किया, अनुचित बर्ताव किया....इत्यादि का संताप पछतावा ही नहीं होता। मुख व मुद्रा ऐसे ही ढीठ दिखते हैं। या बोलेगा; 'इसमें क्या हो गया ? क्या बुरा कर दिया ?' कोई शिक्षा दे तो सामने उलटा बोलेगा 'ऐसा मैंने क्या किया है ? ये तुम ही मुझे हलका बताते हो...' यह क्या है ? आन्तरिक रौद्रध्यान का बाह्य स्वरूप-वचन में।
(९) पाप करके खुश होता है फिर बाहर अपना बड़प्पन गाता है। 'कैसा पीटा ?' उदा० त्रिपृष्ठवासुदेव ने सिंह को चीर डाला और शय्यापालक के कान में गरम किया हुआ सीसा डलवाकर आनन्द का अनुभव किया। पाप का भारी आनन्द दिखाई दे तो समझना चाहिये कि अन्तर में रौद्रध्यान प्रवतित है। . दूसरे का तो बाद में, पर अपने स्वयं के बारे में खास देखने का है कि ऐसा कोई लिंग तो नहीं है न ? मूढ मन रौद्रध्यान करता हो तब भी उसे नहीं लगता कि मैं रौद्रध्यान करता है। वहां उप