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( ८८ ) जीवाजीव के गुण पर्याय का सार ५. ज्ञानगुण ज्ञात सारः-इसके दो अर्थ हैं:-(१) ज्ञान से जीव अजीव के गुणपर्याय के परमार्थ को जाना हो अथवा (२) ज्ञान के प्रभाव से विश्व के सार को परमार्थ को जाना हो। यह जानने का तरीका यह है:
(i)नाणगुण मुणियसारो का अर्थ:-जीव के गुण दो प्रकार के हैं। १. ज्ञान, दर्शन, सद्वीर्य, चारित्र, त्यागतप, उपशम उदासीनता आदि तथा २. राग, द्वेष, कषाय, असद्वीर्य, आहारादि संज्ञा, सुख दुःख, मान अपमान, आदि। इसमें ज्ञानादि ये अपने स्वाभाविक गुण हैं और रागादि औपाधिक (उधार) गुण हैं। इसी तरह जीब के पर्याय भी दो प्रकार के हैं:-(१) मोक्ष अवस्था में होने वाले भिन्न भिन्न शुद्ध ज्ञानादि परिवर्तन के कारण उपस्थित होने वाली उस उस समय की स्थिति-वर्तना; ये स्वाभाविक पर्याय है और २. भिन्न भिन्न गति शरीर वय, आपत्ति सपत्ति की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ आदि । ये औपाधिक पर्याय हैं।
अब इन दोनों प्रकार के गुण व पर्यायों को जान कर उनमें से सार खींचना या परमार्थ पकड़ना। उसमें
स्वात्मा के गुणपर्याय का सार:-यह इस तरह है कि 'इन दोनों में स्वाभाविक गुण पर्याय ही मेरी सच्ची वस्तु है। औपाधिक गुण व पर्याय तो अज्ञान और कर्म की उपाधि से उत्पन्न होने से आये गये जैसे हैं । उन पर क्या आधार रखा जाय ? रागादि होते हैं आत्मा के अज्ञान के कारण। सुख दुःखादि होते हैं, वह कर्म की विडम्बना है। अज्ञान तथा कर्म की विडम्बना से किस लिए पीटा जाना ? इस तरह औपाधिक पर्याय भिन्न भिन्न भवादि भी कर्म की विडम्बना ही है। काल कर्म भवितव्यता का तो नाटक है।