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( ९२ ) संकाइदोसरहियो पसम-थेज्जाइगुणगणोवेरो । होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणंमि ॥३२॥
अर्थः-(सर्वज्ञ वचन में) शंका आदि दोष रहित तथा सर्वज्ञ शास्त्र परिचय, प्रशम, सम्यक्त्व में स्थिरता, गिरते हुए का स्थिरीकरण आदि गुण समूह से सम्पन्न (पुरुष, सम्यग्दर्शन की शुद्धि से संमोहरहित (स्थिर) चित्त वाला हो जाता है- बनता है।
गलत प्रवृत्ति नहीं होगी। साथ ही सन्मति में से चलविचलता (चलित होना ) नहीं होगा। इससे बुद्धि निर्मल और निश्चल रहेगी। इस तरह से ज्ञान भावना का यह पांचवा प्रकार 'नाणगुण मुणियसार' भी ध्यान की अच्छी भूमिका का सर्जन करता है। इसका यह ऐसा अभ्यास आत्मा को शुद्ध ज्ञान से भावित करता है, अतः उसका नाम ज्ञान भावना।
२. दर्शन भावना अब दर्शन भावना का स्वरूप तथा उसकी महिमा बताते हुए कहते हैं:विवेचन :
ध्यान के लिए दूसरी दर्शन भावना करना जरूरी है। इससे आत्मा सम्यग्दर्शन से ऐसा भावित हो जाता है कि यदि वैसा न हो तो उससे विपरीत दोषों के कारण ध्यान अशक्य ( असंभव ) हो जाता, वह अब इन गुणों के कारण स्थिर ध्यान कर सकता है।
इस दर्शन भावना के लिए इस प्रकार शंकादि ५ दोषों का निवारण तथा प्रश्रम, प्रशम आदि ५ गुणों का पालन जरूरी है.