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इसमें क्या परेशान होना ? ये गुण तो आत्मा के गिने जाते हैं और उलटे उसे ही विडम्बना करते हैं। अत: ये तो अपकारी हैं। हां, आराधना में ये मानव-शरीर आदि उपयोगी होते हैं सही, परन्तु उनको जाति तो औपाधिक की ही है। अत: अन्त में छोड़ने पड़ेंगे, छुटे तभी तो मोक्ष होगा। अतः उनका ममत्व तथा लालन-पालन नहीं करना चाहिये। ममता तो ज्ञानादि स्वाभाविक गुणों की ही करनी चाहिये, प्रयत्न भी उसी के लिए हों। वैसे ही पर्यायों के लिए झखन्न-इच्छा तो मोक्ष-पर्यायों की ही रखना चाहिये, 'कब वे प्रकट हो ?' इसका नाम जीव के गुण पर्याय का सार परमार्थ जानना। यह अपने जीव के बारे में गुणपर्याय का सार हुआ ।
दूसरे जीव के गुणपर्याय का सार-परमार्थः अब इस भी ध्यान में लेना चाहिये। इससे जीवों के साथ सम्बन्ध होने पर निमित्त वश या कल्पना मात्र से मन अशुभ भाव में जाता हुआ रुक जाय और ध्यान का भंग न हो। इसमें सार क्या ग्रहण करने का है ? यही कि, '(१)यदि ये जीव राग, मोह आदि करते हैं तो ये उनके औपाधिक गुण हैं। इससे न उनको लाभ है न मुझे लाभ है । अत: मुझे रागमूढ नहीं होना चाहिये । (२) तब यदि ये जीव ईर्षा द्वेष आदि करते हुए आते हैं तो ये बिचारे अपने असली गुण उपशम को ठेस पहुंचाते हैं। इससे मुझे उनकी करुणा का चिंतन करना चाहिये, जिससे मेरे असली गुणों को समर्थन मिले। फिर ये जीव ज्यादा सुखी संपत्तिवान यशस्वी दिखते हैं तो वह उनके पुण्य की लीला है, औपाधिक है, अतः मेरे लिए ईर्ष्या करने योग्य नहीं है। दुःखी दिखें तो करुणा पात्र हैं। जीवों में दोष दिखें वे उपेक्षा योग्य हैं । इत्यादि रूप में अन्य जीवों के गुणपर्याय का परमार्थ पकड़ना चाहिये।
यह जीव के गुणपर्याय का सार परमार्थ जानने की बात हुई।