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विवेचन :
अति क्रोध में आकर निर्दय हृदय से हिंसा का एकाग्र चिंतन किया जाय, वह हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है। हिंसा अनेक प्रकार से सोची जाती है। उदा० एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के किसी भी जीव के प्रति क्रोधान्ध बन कर यह सोचे कि, 'मैं इस हरामी को थप्पड़ घूसे लगाकर सीधा कर दूं।' चाबुक लगा दूं।' 'लातें मार कर सीधा कर डालू।' अथवा नाक कान बीन्ध दू।' 'रस्सी या बेड़ी से जकड़ लू।' 'अग्नि से जला दू, लाल जलता हुई सलाइयों से दाग लगा दूं।' 'कुत्ते या सियार के परों के नाखून से चिरवा दू, नोंच डाल, तलवार के झटके से या भाला चभाकर या खजर भौंककर जान से मार डालू अथवा खूब पोड़ा दू। चीर डालू, कुचल डालू, चटनी कर दू' आदि आदि जीव को पीड़ा देने वालो वस्तु पर मन को केन्द्रित करे । यह पहले प्रकार का रौद्रध्यान है। ___ भारी क्रोध किसी ग्रह या भूत की तरह लगा हुआ हो, और. दिल से दया तो बिलकुल ही खतम हो गई हो, अपना स्वार्थ बिगड़ता हो, स्वमान को हानि हुई हो, अथवा शत्रुता हो, वहां ऐसा होता है । सेठ को नौकर पर, माता पिता को पुत्र पर, पड़ौसी को पड़ोसी के प्रति इत्यादि में ऐसा होता है। देश परदेश के कुछ समाचार जान कर, कोर्ट के गुनहगार को छोड़ देने का सुनने पर इत्यादि कई प्रसंगों पर चिन्ता वाले का मन रौद्रध्यान तक पहुंच जाता है। जैसा क्रोध के आवेश में वैसा ही अभिमान मे चढकर भी वैसा ही होता है। उदा० रावण ने अभिमान से चक्र छोड़कर लक्ष्मण का मला काटने का सोचा। माया या लोभ के आवेश में भी वैसा हो सकता है। कोणिक ने राज्य के लोभ मे सगे बाप श्रेणिक को कैद में डलवाकर चाबुक लगवाने पर मन को केन्द्रित किया।