________________
.( ६३ )
पिसुणासम्भासन्भूयभूयघायाइ वयणपणिहाणं । मायाविणोऽइसंघणपरस्स पच्छन्नपावस्स ॥२०॥
अर्थः-चुगली खाना, अनिष्ट सूचक वचन, गाली इत्यादि असभ्य वचन, असत्य वचन, जीव घात का आदेश आदि का प्रणिधान ( एकाग्र मानसिक चिंतन ) रौद्रध्यान है। यह कपटी, ठगाई करने वाले या गुप्त पापी को होता है ॥२०॥
ध्यान में खूबी तो यह है कि स्वयं हिंसा आदि कर भो न सके, तब भी हिसा आदि करने (की इच्छा) में चित्त दृढ़तापूर्वक लग गया, तो वह रौद्र ध्यान हुआ। तो जीवन में ऐसा दृढ़ चित्त होने में कितनी देर लगती है ?
रौद्रध्यान से नरक इस रौद्रध्यान का परिणाम बहुत हलका (खराब) आता है। नरक आदि दुर्गति के दुःखों से पीड़ित होना पड़ता है। जीवन अच्छा धर्ममय चलता हो, पर कभी रौद्र ध्यान आया और कदाचित् उसी समय आयुष्य का बन्ध हुआ तो वह नरक का ही बंधेगा और एक बार तो नरक में जाना ही पड़ेगा। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि महा संयमी तपस्वी होते हुए भी मन ही मन लड़ाई तथा हिंसा के ध्यान में चढे और उसी समय श्रेणिक ने महावीर भगवान को उनकी गति पूछी तो प्रभु ने कहाः 'अभी मरे तो सातवीं नरक में जाय।' जीवन में बहुत हाय हो, लोभ लालच भरा हो या अहंकार में खिचा जाता हो, तो रौद्र ध्यान सुलभ होता है। इतनी रौद्रध्यान के पहले प्रकार की बात हुई।
२. दूसरा प्रकार : मृषानुबन्धी रौद्रध्यान ___ अब दूसरे प्रकार के मृषानुबन्धी रौद्रध्यान का वर्णन करते है: