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विचार बर्ताव के रूप में चलती रहे बिना नहीं रह सकती। इस तरह मद्य आदि व्यसन, निद्रा, निन्दा, विकथा, बेकार बातें आदि भी सुलभ (सरल) होते हैं। पुन: क्रिया के खेद उद्वेग आदि दोषों का भी सेवन होता रहता है। यह सब प्रमाद ही है। उसकी जड़ है आर्त ध्यान । आर्त्तध्यान से हृदय बिगड़ता है उससे प्रमाद सेवन चलता है।
इस तरह से आर्त्तध्यान चाहे राग द्वेष या मोह में से उठता है याने वहां रागादि प्रमाद कारण और आर्तध्यान उसका कारण हुआ। परन्तु जब आर्त्तध्यान बार-बार चलता है तब स्वाभाविक ही है कि इससे वह सब प्रमाद प्रवृत्तिये रहेंगी ही। इस तरह यहां आर्त्तध्यान को सर्व प्रमाद की जड़ कह कर उसे छोड़ने का कहा। आर्त्तध्यान बन्द करके धर्म-ध्यान चलाने से हृदय पवित्र रहने से प्रमाद सेवन रुक जाता हैं। इतना आत ध्यान के बारे में विचार हुआ।
रौद्र ध्यान रौद्र ध्यान भी ४ प्रकार का है:- १. हिसानुबन्धी, २ मृषानुबन्धी, ३. स्तेयानुबन्धी और ४. संरक्षणानुबन्धी। श्री उमास्वाति वाचकवर्य ने तत्त्वार्थ महाशास्त्र में (अ० ९ सू० ३६) कहा है 'हिंसाऽनृतस्तेय विषय संरक्षणेभ्यो रौद्रम्' अर्थात् हिंसा, जूठ, चोरी और इन्द्रिय विषयों के संरक्षण के लिए रौद्र ध्यान होता है। रौद्र याने भयानक अर्थात् आत से ज्यादा उग्र अति क्रूर। इन हिंसादि चार में से किसी भी एक पर चित्त क्रू र चिंतन में उतर जाय तो वहां रौद्रध्यान का प्रारम्भ कहा जायगा।
कर्म वन्ध का जजमेंट ध्यान पर यहां ध्यान में रहे कि इसमें हिंसादि क्रिया का आचरण करने