________________
( ५८ ) ऐसे अविरति वाले आत्मा मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि दोनों हो सकते हैं। सभी मिथ्यादृष्टि जीव अविरति में ही हैं; क्योंकि विरति तो सम्यक्त्व के बाद की भूमिका है। पहले जिनोक्त सर्व तत्त्व की श्रद्धा चाहिये। उसके बाद ही सच्चा विरति भाव आ सकता है। इसीलिए तो अभवी जैसे जीव जैन चारित्रदीक्षा लेने पर भी अविरति में ही हैं, प्रथम मिथ्यात्व गुण स्थानक वाले हैं। ___अब सम्यक्त्व प्राप्त अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव दो प्रकार के हैं विरतिधारी तथा विरतिरहित । इसमें जिन्हें थोड़े से पाप त्याग की भी उदा० मैं त्रस जीव की हिंसा नहीं करूंगा', इत्यादि प्रतिज्ञा नहीं हैं, वह अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है। 'पाप का त्याग करना चाहिये' ऐसी उन्हें श्रद्धा है, तब भी वह करने की हिम्मत नहीं हैं; वे अविरति वाले हैं । यह सूचित करता है कि हिंसा, परिग्रह आदि पापों की ओर आकर्षण अभी भी खड़ा है। ऐसी अविरति भी आतध्यान की प्रेरणा दे इसमें क्या आश्चर्य ?
इसी तरह देशविरति अर्थात् जिसने देश से याने अंश से विरति का स्वीकार किया है, उसे भी शेष अविरति बाकी है। इससे आर्त्त ध्यान होता रहता है।
प्रश्न- तो इसका अर्थ यह हुआ कि सर्वांश में (सर्व से याने संपूर्ण) विरति कर ले तो फिर आर्त ध्यान नहीं रहे न ?
उत्तर- नहीं। उसमें भी प्रमाद हो तो आत ध्यान सुलभ है। सर्वविरतिधर भी दो प्रकार की स्थिति में होते हैं।
१. प्रमाद वाले और २. प्रमाद रहित । इसमें राग, द्वेष, निद्रा विकथा, धर्म में उत्साह-रहितता व अज्ञानादि प्रमाद अवस्था में आतं ध्यान होता है, जरा सा भी प्रमाद, आर्त ध्यान को सुलभ (सरलता से होने वाला) बना देता है। क्योंकि यह प्रमाद किसी न किसी