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( ५७ ) तदविरय देसविरय पमायपरसंजयाणुगं झाणं । सबप्पमायमूलं वज्जेयव्यं जइजणेणं ।।१८।।
अर्थः- यह आर्त ध्यान अविरति वाले को, देश विरतिधर को और प्रमादनिष्ठ संयमधर को होता है। उसे सर्व प्रमाद का मूल समझ कर साधुजनों के द्वारा उसका त्याग कराना चाहिये। क्यों न करें ? इसके सेवन में कुछ भी हर्ज नहीं।' ऐसा ऐसा मानेगा तथा बोलेगा। इस तरह वह आदरणीय तत्त्व के बारे में विरुद्ध मानेगा, बोलेगा। इन दोनों के कारण आगे व पीछे ढेरों आर्तध्यान चलता है उसमें आश्चर्य नहीं।
आर्त ध्यान किसे ? अब 'आर्त ध्यान के स्वामी कौन' इसका विचार करते हुए कहते हैं- 'तदविरय ...' विवेचन :
आर्त ध्यान अविरतिधर मिथ्यादृष्टि आत्मा को, सम्यगदृष्टि आत्मा को तथा देशविरतिधर श्रावक को भी होता है और सर्व विरतिधर प्रमत्त मुनि को भी होता है। - अविरति याने प्रतिज्ञापूर्वक हिंसादि पाप से विराम का न होना, या पाप का प्रतिज्ञाबद्ध त्याग न होना। प्रतिज्ञा न हो तथा हिंसादि नहीं करता हो, वह तो केवल पाप की अप्रवृत्ति है, पर विरति नहीं है, पाप विराम नहीं है। क्योंकि दिल में पाप की अपेक्षा बैठी हुई है कि 'मौका आने पर पाप करने की छूट', इसीलिए तो वह प्रतिज्ञा नहीं करता। ऐसी अपेक्षा ही अविरति है। वह अपेक्षा जब तक है, तब तक पाप का आचरण न हो ऐसे वक्त भी इष्टसंयोग अनिष्ट वियोग आदि का आर्त ध्यान होता रहे यह स्वाभाविक है।