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( ५९ ) इष्टसंयोग के आकर्षण या अनिष्ट वियोग की चिन्ता या वेदना के साथ संकलित होता है, तो फिर आर्त ध्यान क्यों नहीं आवेगा? ___ बस, इस हिसाब से प्रमाद रहित याने अप्रमत्त अवस्था हो, तभी आर्त ध्यान से छुटकारा मिलता है । अत: कहा है कि 'अप्रमत्त मुनि जो सातवें और उससे ऊपर के गुणस्थानक पर होता है, उन्हें आर्त ध्यान नहीं होता।' यह देखने से पता चलता है कि आर्तध्यान की कितनी ज्यादा सूक्ष्मता है कि मिथ्यात्व तथा अविरति वाले को तो क्या किन्तु जरा भी प्रमाद वाले को भी यह आर्त ध्यान हो जाते देर नहीं लगती। पूरा संसार छोड़, सर्वविरतिधर मुनि हुए तो भी यह निश्चित नियम नहीं कि आर्त ध्यान नहीं ही आवेगा। अतः इस गाथा में कहा है कि 'आर्त्तध्यान यह सर्व प्रमाद की जड़ होने से उन्हें उसका त्याग करना चाहिये।' यदि आर्त्तध्यान रहता है, तो प्रमाद आते देर नहीं । स्वरूप से आध्यान समस्त प्रमाद का कारण है । अतः साधु तथा श्रावक दोनों ने उसमें से दूर रहना आवश्यक है।
__ प्रश्न - पहले जो यह कहा कि प्रमाद वाले को आर्त्तध्यान होता है, उसका अर्थ तो यह है कि प्रमाद कारण है और आर्त्तध्यान उसका का कार्य है। तो फिर यहां आर्तध्यान को सर्व प्रमाद की जड़ याने कारण कहा, यह कैसे घटित होगा?
उत्तर- बात बिलकुल सच है कि अन्तर में (मन के अन्दर) रागादि हों, उससे आर्त्तध्यान उठता है। परन्तु जीव को मन मिला है, इससे उसे कुछ न कुछ उथल पुथल करने को, सोचने को चाहिये ही। इससे 'किसी इष्ट का संयोग हो', या 'वियोग न हो', या 'हाय वेदना बहुत सता रही है, शान्त हो जाय' ऐसा कुछ न कुछ आतध्यान चलता ही रहता है । फिर उसको चिन्ता या व्याकुलता मन में उठने पर जीव शान्त कैसे रह सकता है ?' इस आर्त ध्यान के जोश च प्रवाह के कारण विषय-कषाय की विविध प्रवृत्ति, वाणी,