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रागो दोसो मोहो य जेण संसार हेयवो भणिया ।
यि ते तिणित्रि, तो तं संसार तरुबीयं ॥ १३ ॥
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अर्थ :- राग द्वेष तथा मोह को संसार का कारण कहा है
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और आर्त्तध्यान में ये तोनों हैं, इसलिए
(उस कारण से) आर्त्तध्यान
संसार वृक्ष का बीज है ।
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अवकाश जरूर है । क्योंकि मुनि को रोग होता है और उस रोग को मिटाने के लिए औषधोपचार भी किया जाता है। तो वहां शंका स्वाभाविक रूप से ही होती है कि मुनि को तब दूसरे प्रकार का वेदना संबंधी आर्त्तध्यान क्यों नहीं ? अतः इस 'शंका के निवारण के लिए अर्थात् मुनि को रोग में वेदना सम्बंधी दूसरे प्रकार का आर्तध्यान क्यों नहीं होता, यह बताने के लिए ये दो गाथाएं कही हैं' यह व्याख्या सुसंगत है ।
अब प्रश्न यह है कि आपने आर्त्तध्यान से संसार बढ़ने का कहा तो वह किस तरह से ? उसकी स्पष्टता यह है कि आर्त्तध्यान संसार का बीज होने से उसमें से स्वत: संसार उत्पन्न होता है, संसार बढ़ता है। अब आर्त्तध्यान संसार का बीज है, इस बात को स्पष्ट तथा दृढ करने के लिए कहते हैं:
प्रार्थयान संसार वृक्ष का बीज:
विवेचन :
भगवान श्री तीर्थंकर देव कहते हैं: - रागद्व ेष तथा मोह मे संसार के कारण हैं और आर्त्तध्यान में ये तीनों ही काम करते हैं; अतः प्रविष्ट ( अन्दर समाये हुए) हैं, तो फिर आर्त्तध्यान भी संसार का कारण क्यों नहीं ?