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१३३ गुणस्थानक तक ही होती है । १४वें में अयोगी अवस्था होने से वहां कोई लेश्या नहीं होती, वह अलेश्य अवस्था है। तब भी लेश्या मुख्यत: कर्मपरिणाम से उत्पन्न होती है। कर्म के आधीन है। फिर इसमें मन वचन काया के योग याने आत्मा का पुरुषार्थ जिस प्रमाण में मिलता है, वैसी ही शुभ अशुभ मन्द या तीव्र लेश्या होती है।
शुभ योगों का महत्वः- इसीलिए जिन भक्ति आदि शुभ योगों में रहने से शुभ लेश्या का लाभ मिलता है। परन्तु विषय, आरम्भ, परिग्रह आदि के पुरुषार्थ से लेश्या बिगड़ जाती है। लेश्या के जरा भी बिगड़ने पर आर्त ध्यान आता है और उसका फल पहले कहा जा चुका है। इसीलिए जैन शास्त्र मानव जीवन में अनेक प्रकार के शुभयोगमय कर्तव्य बताते हैं । यदि कोई उनमें रक्त रहे, तो वह अशुभ लेश्या से बचता है, आर्त ध्यान से तथा संसारवृद्धि से बचता है। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि इन्द्रिय विषय संपर्क, परिग्रह आदि अशुभ योगों में अशुभ लेश्या और आर्त्त ध्यान ही होंगे। नहीं ऐसा नहीं है। यदि कोई उस समय भी अपनी विचारधारा अच्छी रखे, अच्छी वाणी बोले तो शुभ लेश्या भी आ सकती है। इसमें एक अन्य विशिष्टता यह भी है कि काययोग अशुभ होने पर भो मनोयोग तथा वचनयोग शुभ रहने से लेश्या शुभ बनती है, ध्यान भी शुभ आता है। त्याग वैराग्य के ऐसे उत्कट शुभ मनोयोग के पुरुषार्थ में चढे हुए गुणसागर श्रेष्ठी पुत्र आठ कन्याओं के साथ पाणिग्रहण के अशुभ काययोग के समय भी शुक्ल भावनारूप मनोयोग, शुक्ल लेश्या, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में चढकर वीतराग सर्वज्ञ बन गये। तात्पर्य कि पहले तो काययोग ही शुभ रखना चाहिये और दूसरे वह न हो सके तो भी वचनयोग, मनोयोग याने वाणी विचार तो शुभ रखना जरूरी ही है।