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कि दिन भर किसी एक या दूसरे पदार्थ के बारे में, किसी बात के बारे में घृणा, प्रशंसा, अभिलाषा, राग-रक्तता और प्राप्ति या निवारण के लिए कितनो ज्यादा मेहनत चालू रहता है, इस पर से भी प्रत्येक दिन भर में भी कितना ढेरों आर्त ध्यान होता रहता है ?
इसके अलावा भी आर्त्त ध्यान के अन्य लक्षण इस प्रकार उपस्थित रहते हैं।
६. इन्द्रियों के इष्ट विषयों पर गृद्धिअर्थात् शब्द रूप रस गन्ध या स्पर्श के बारे में जो गृद्ध हो आसक्त हो, मूर्छित हो, जिसे उसकी कांक्षा (इच्छा) अपेक्षा रहती हो, वह भी आर्त ध्यान में ही रक्त है । ऐसी एक भी वस्तु मन में घुसी उतनी ही देर, आर्त ध्यान शुरू ही है। फिर अनिष्ट होगा तो वह मन को कुदेरता रहेगा। जीव को विषयासक्ति कहां कम है ? फिर आसक्ति के कारण मन में विषयों के विकल्प, विचार, कल्पनाएं इतने ज्यादा चलते हैं कि उसमें क्षण भर भी कहीं मन स्थिर या तन्मय होने से आर्त्त ध्यान का रूप पकड़ता है। इसमें कुछ भी मिलने या भोगने का न होने पर भी दिन में ऐसे आर्त्त ध्यान भी कितने ?
विषयगृद्धि रखना है और आर्त ध्यान नहीं करना ऐसा कैसे हो सकता है ?
१०. सद्धर्म याने शुद्धधर्म से पराङ्मुख होता है उसे भी आर्त ध्यान ही है । जीवन में यदि धर्म की स्थापना नहीं है, अथवा वह गौण है, बहुत मामूली तथा वह भी रिवाज के अनुसार अमुक क्रिया ही कर देने के रूप में हो, तो उसके मनमें दूसरा क्या चलेगा ? इधर उधर के फालतू विचार, इसमें किसी इष्ट अनिष्ट के बारे में मन जरा भी स्थिर हुआ कि आर्त ध्यान आ कर खड़ा ही है। शुद्ध धर्म क्षमा मृदुता आदि १० प्रकार के चारित्रधर्म