________________
( ४७ ) कावोय नील गालालेस्साश्रो नाइसंकिलिट्ठाओ। अट्टज्माणोवगयम्म कम्मपरिणामणियारो ॥१४॥
अर्ध: - आर्त्त ध्यान करने वाले को अति संक्लिष्ट नहीं वैसी कापं.त, नील या कृष्ण लेश्याएं होती हैं । ये लेश्याएं कर्म परिणाम से उत्पन्न होती हैं।
अवसर्पिणी है। अत: यहां सिर्फ तिर्यंचगति में 'संसार' शब्द का उपचार किया। वैसे तो संसार चार गति का है; पर यहां उपचार से कहा कि आर्त ध्यान तिर्यंचगति का कारण है इसीलिए संसार का कारण है।
श्रा ध्यान में लेश्या अब आत ध्यान करने वाले की लेश्या कौन-सी है सो कहते हैंविवेचन :
लेश्या मन वचन काया के योगों के समय वैसे वैसे कृष्ण नील आदि द्रव्य के सहारे होने वाले आत्मपरिणाम हैं । सराग जीव को वह प्रशस्त अप्रशस्त कषाय में बल देती है । धन्ना शालिभद्र मुनि को तप संयम के राग में उच्च तेजो, पद्म, शुक्ल लेश्या का बल रहता था, जिससे उच्च भावोल्लास का वे अनुभव करते थे। ____यह लेश्या दो प्रकार की है १. द्रव्य लेश्या व २. भाव लेण्या। जीव की लेश्या कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म, शुक्ल, वर्ण स्वरूप है। शास्त्र उसे कर्मान्तर्गत द्रव्यस्वरूप या स्वतन्त्र पुद्गल स्वरूप कहते हैं । जीव उसे ग्रहण करता है अत: कृष्णादि द्रव्य के सहयोग से आत्मा में उस प्रकार का एक परिणाम खड़ा होता है, उसे भाव लेश्या कहते हैं । कहा है कि:- .