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होने से वह चित्त में से संग को-सांसारिक संग को-दूर करता रहता है। इससे चित्त निमल बनता जाता है। भौतिक सुख के संग के कारण ही चित्त रागादि से मलिन रहता है। नि:संगता की बलवान इच्छा से स्वतः ही ये रागादि मल दूर होते जाते हैं। सारांश मोक्ष की ताव इच्छा से ही चित्त शुद्धि और मार्ग प्रवृत्ति प्रबल होती जाती है । अत: वसा इच्छा वह पापरूप नियाणा या निदान नहीं है।
इस ११वीं और १२वीं गाथा में मुनि को आर्त्त ध्यान क्यों नहीं होता, कैसे नहीं होता, दवा उपचार करे तब भी उन्हें आर्त्त ध्यान का तीसरा प्रकार क्यों नहीं गिना जाता; ५ सका विचार हुआ।
यहां टीकाकार महर्षि कहते हैं, 'दूसरे इन दो गाथाओं की व्याख्या मुनि को चारों प्रकार के आर्त्त ध्यान का निषेध करने के लिए करते हैं।' अर्थात् उनके अभिप्राय से इन दो गाथाओं में यह बताया गया है कि मुनि को चारों प्रकार का आर्त ध्यान क्यों नहीं होता। पर यह व्याख्या, यह अभिप्राय अत्यन्त सुन्दर नहीं है। क्योंकि मुनि को आत ध्यान का पहला प्रकार 'इष्ट संयोग अवियोग आर्त ध्यान' तथा तीसरा प्रकार 'अनिष्ट वियोग असंयोग का आर्त्तः ध्यान' होने का अवकाश ही नहीं है। इससे यह शंका होती है कि तो फिर 'मुनि को कैसे इष्ट संयोग, अनिष्ट वियोग की प्रवृत्ति करने पर भी आर्त्त ध्यान क्यों नहीं ?' इस शंका के निवारण के लिए हेतुदशंक ये दो गाथाएं कहनी पड़ती हैं। मुनि को असल में ही सांसारिक इष्ट अनिष्ट कुछ रहा ही नहीं, तो उसके आर्त ध्यान की शंका ही किस बात पर होती है कि जिसके समाधान के लिए इस गाथा से हेतु बताना पड़े। अत: शंका बराबर संगत न होने से इन गाथाओं को उनके निवारण के लिए नहीं लगाया जा सकता। .
हां, दूसरे प्रकार की वेदना के आर्त्तध्यान की शंका उठने का