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कारण उत्तम मुनि मोक्ष तथा संसार दोनों की ओर निःस्पृहता वाला होता है। मुनि 'अहिंसादि महाव्रत, समिति, गुप्ति और क्षमा दि यतिधर्म तो मेरा आत्मस्वभाव ही है' ऐसा संपूर्णत: लक्ष्य में रखकर उसका स्वाभाविक वृत्ति रूप सतत और एकसा सेवन करता रहता है । तो दृष्टि उस पर ही होने से तथा भावना याने सतत अभ्यास से आत्मा उससे भावित हो चुका होने से आत्मा में उसी की रमणता रहती है । अत: उस स्थिति में उस महामुनि को कोई भी स्पृहा नहीं रहती । यावत् संसार की भी नहीं और मोक्ष को भी नहीं । पर यह तो निश्चयतय की बात हुई ।
मोच की इच्छा से चित्त शुद्धि-मार्ग प्रवृतिः
परन्तु व्यवहार नय से बात बिलकुल जुदी है। ऐसे आत्माओं के लिए जिन्हें अभी तक ऐसी भावना नहीं हुई अर्थात् सतत अभ्यास से होने वाली अहिंसा क्षमा आदि तथा समिति गुप्ति की आत्मसातसा या भावितता प्राप्त नहीं हुई, वे मोक्ष की कांक्षा रखें, इसमें उन्हें 'निदान' का दोष नहीं है । क्योंकि उनका उसी तरह से (१) चित्त शुद्ध बनता जाता है तथा (२) मोक्षोपयोगी क्रिया में जोरदार प्रवृत्ति होती है। कर्मक्षय मोक्ष की ही उत्कट इच्छा रहने से ही अन्य सांसारिक भौतिक इच्छाएं कि जो चित्त को बिगाड़ने वाली हैं, वे मरने लगती हैं और इससे चित्त शुद्ध बनता जाता है यह स्वाभाविक है । मोक्षेच्छा मोक्षोपयोगी क्रिया में जोरदार प्रवृत्ति होती रहने से मन उसमें तन्मय बनता जाता है अत: अहिंसा, क्षमा आदि से भावित होता जाता है । इसके फलस्वरूप उत्कृष्ट चित्तशुद्धि और पूर्ण अहिंसादि भावितता खड़ी होने से पूर्वोक्त सर्वथा निस्पृह भाव प्रकट होता है, जिसमें मोक्ष की भी स्पृहा (इच्छा) नहीं रहती । प्रश्न- तब भी मोक्ष की इच्छा क्यों जरूरी है ?