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आलंबन से प्रतीकार करते हुए तथा (३) तप संयम का आचरण करते हुए मुनि को धर्म ध्यान ही होता है । यह बताया जाता है । - मुनि कौन ?-(१) 'मन्यते जगत्रिकालावस्थामिति मुनि:' । मुनि अर्थात् जगत की तीनों काल को अवस्था का विचार करने वाला अर्थात् साधू । 'जगत' याने जीवन में अनुभव में आने वाले जगत के जड़ चेतन पदार्थ तथा प्रसंग। उनमें राग द्वेष या हर्ष शोक न हो, उसके लिए उसकी भूत, वर्तमान तथा भविष्य की स्थिति का मनन करे वही मुनि ।
भूतकाल को अवस्था का मनन इस तरह करते हैं कि वर्तमान में यह पदार्थ या प्रसंग जिस स्वरूप में दिखता है वह आकस्मिक है या मेरी इच्छा से खड़ा नहीं हुआ। किन्तु उसके पीछे निश्चित कारण काम कर रहे हैं। उदा० किसी अनिष्ट वस्तु का आना। वह उसके कारण से बनी है। सम्भव है कि वह अच्छे पुद्गलों में से बनी हो जैसे पेड़े में से विष्टा। वैसे ही यह मेरे कर्म, काल, भवितव्यतादि के कारण यहां उपस्थित हुई है। तो मैं क्यों दुर्ध्यान करूं ? कोई जीव मेरा कुछ खराब करता दिखता हो, तो वह अपने पूर्वोपाजित मोहनीय कर्म के उदय से तथा अपने ही स्वाधीन असत् पुरुषार्थ से गैसा करता है। उसमें मेरे कर्म भी जिम्मेदार हैं। तो मैं नाहक दुर्ध्यान क्यों करु ? यदि बीमारी आती है, आई तो वह मेरे पूर्वोपार्जित अशाता वेदनीय कर्म के कारण आती हैं, आई है। इसमें मैं क्यों दुर्ध्यान करु ? यह भूतकाल की अवस्था का विचार हुआ।
अब वर्तमान का विचार-उदा. (१). यह इष्ट या अनिष्ट वस्तु या व्यक्ति मेरे शुद्ध अनन्त ज्ञानादि असंख्य प्रदेशमय मौलिक आत्मस्वरूप में लेश भी कमीबेशो नहीं कर सकता, तो मुझे क्या चिंता ? या हर्ण क्यों ? उलटे राग या द्वेष, खेद या हर्ण