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विवेचन :
पहले हम देख चुके हैं कि आतंध्यान के चारों प्रकारों में से कोई दोष के कारण तो कोई राग या मोह के कारण उत्पन्न होते हैं। अत: आतंध्यान का स्वामी कौन है ? रागद्वेष मोह से जो कलुषित जीव होता है वह। रागादि का जोर है तो आर्तध्यान आ जायगा।
आतध्यान का फल है संसार वृद्धि।
संसार कर्मबन्धन के कारण खड़ा होता है । आर्तध्यान से कोई कर्म क्षय नहीं होता, पर कर्मबंध बढ़ता है। अत: स्वभाविक ही है कि उससे संसार वृद्धि होती है। भव का चक्कर बढ़ता है, यह सामान्य फल हुआ। उसका विशेष फल है तिर्य चगति । आर्तध्यान एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय चौरिन्द्रय और पंचेन्द्रिय तियंचगति के योग्य कर्म बंध करवाता है।
प्रश्न-इस कथन पर से क्या यह फलित होता है कि जीवनभर में परभव का आयुष्य तो मात्र एक बार हो और अमुक निश्चित समय तक ही बांधा जाता है। तो आयुष्य-बंध के समय यदि जीव आर्तध्यान में हो तो तिर्य चगति का आयुष्य बांधे पर उसके अलावा के समय में यह दंड नहीं ? .. उत्तर - नहीं। दंड तो है ही। यदि जीव आयुष्य बांधते समय आर्तध्यान में हो, तब तो वह तिर्य च का आयुष्य बांधेगा, उसके साथ उसके योग्य अन्य कर्म भी साथ साथ बांधेगा, परन्तु उसके सिवाय के समय में भी तिर्य चगति के योग्य आयुष्य के सिवाय के अन्य अशुभ कर्म अवश्य बांधेगा। इसीलिए वेदना होने पर भी आर्तध्यान से बचने जैसा है। अन्यथा यहां भी पीड़ा है और आर्तध्यान से बन्धे हुए अशुभ कर्मों के कारण बाद में भी पीड़ा होगी।