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इष्ट हैं ? तो मन तो काम करता ही रहता है। इसमें फिर यह आर्त ध्यान डग डग पर, कदम कदम पर कितना ही चलता है। यह तीसरे प्रकार की बात हुई।
४. निदानुबंधो पात ध्यान अब आर्त ध्यान का चौथा प्रकार कहते हैं: - विवेचन :
निदान याने नियाणा चौथे प्रकार का आर्त ध्यान है । वह भी मानसिक गाढ चिंतन है। इसमें 'मेरे त्याग तप आदि के प्रभाव से मुझे देवलोक मिले, इन्द्रपन मिले या चक्रवर्तित्व मिले, वासुदेव, बलदेव बनू, देवेन्द्र, नरेन्द्र का बल, सौन्दर्य या समृद्धि प्राप्त हो', ऐसी उत्कट अभिलाषा से उसकी निश्चित मांग की जाती है। 'बस, मुझे यही चाहिये, यही मुझे मिले', ऐसा निश्चय होता है। यह नियाणा का चिंतन अधम है। यही आर्त्त ध्यान है। सांसारिक सुख सुखाभास है:
प्रश्न- कैसे जीव को यह आर्त्त ध्यान होता है ?
उत्तर- अत्यन्त अज्ञान पीड़ित जीव को यह आर्त्त ध्यान होता है, क्योंकि अज्ञानी के सिवाय दूसरों को सांसारिक सुखों की अभिलाषा नहीं होती। अज्ञानता यही है कि ये सुख सुखाभास है, दुःखरूप है, दुःख का प्रतिकार मात्र हैं, परसंयोगसापेक्ष हैं। परन्तु पर का संयोग तो विनश्वर है, तरतमता वाला है, इससे उसके सुख में शांति नहीं है, कायमी स्वस्थता नहीं है, बल्कि काल, संयोग, परि स्थिति में परिवर्तन होने से वह महा दु:खद बनता है। मोह के कारण यह समझ में नहीं आता इसलिए उसकी झंखना, आशंसा, आकर्षण रहता है। अन्यथा असल में तो सांसारिक सुख के विषयों में ऐसा तत्त्व ही क्या है कि जिससे उसके सुख की कामना हो!