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देविंदचक्कवट्टित्तणाई गुणरिद्धिपत्थण मईयं । ग्रहमं नियाणचिंतण, मण्णाणाणुगयमच्चतं ॥ ९ ॥ अर्थ - देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि के सौन्दर्यादि गुणों की तथा ममृद्धि की याचना स्वरूप नियारणा करने का चितन होता है, वह अधम है, अत्यन्त अज्ञानता भरा है। (यह चौथे प्रकार का आत ध्यान है ।)
पड़े, उसका दृढ चितन रहा करे; इसी तरह कोई वेदना या पीड़ा भी उत्पन्न होने पर पसंद आ गई, उदा० देवराना को घर में बहुत काम खींचना पड़ता है, उसमें उसे बुखार या अन्य बीमारी आ गई । उसे तीव्र चिंतन हो कि 'यह बीमारी न जाय तो अच्छा, जिससे काम से बच्चू ं ।' तो यह सब आर्त ध्यान है । यह वर्तमान की बात हुई ।
इसी तरह भविष्य के बारे में, 'भविष्य में ऐसे इष्ट विषय, पदार्थ या वेदना कैसे प्राप्त हो, उसका क्षरण भर भी तन्मय चिंतन आर्त ध्यान है ।
तो भूतकाल के बारे में भी पहले प्राप्त, रहे हुए या मिले हुए विषय वस्तु या वेदना के बारे में एकाग्र विचार हो कि 'वे अच्छे मिले थे, रहे तो अच्छा था, बहुत अनुकूल आ गये', तो वह अतीत सम्बन्धी आर्त ध्यान हुआ ।
प्रश्न - कैसे जीव को ऐसा आर्त ध्यान होता है ? उत्तर - जो रागरक्त हो, राग-स्नेह आसक्ति से भावित हो, उसे इससे ऐसा आर्त ध्यान होता है। असल में राग आकर्षण होने में मन राग के विषय में ऐसा लग जाता है कि 'यह विषय प्राप्त हुआ हो तो कैसे नहीं जाय, खर्च न हो', इत्यादि चिता में तन्मय बने; और न मिला हो तो 'कैसे मिले, कैसे बढ़े' आदि चिंतन में मशगूल होता है । जीव को राग कहां नहीं है ? कितनी ढेरों वस्तुएं