________________
( ३१
मज्झत्थम्स उ मुणिणो सकम्मपरिणाम जणिय मेयंति । वत्थुस्मभावचिंतण परस्स संमं सहतस्य ॥ ११ ॥ कुणओ व पत्थालवणम्स पडियारमऽप्पसावज्जं । तवसंजम पडियारं च सेवयो धम्ममणियाणं ॥ १२ ॥
अर्थ :- किन्तु (१) 'यह पीड़ा मेरे कर्म विपाक से खड़ी हुई है' ऐसे वस्तु स्वभाव के चिंतन में तत्पर तथा सम्यक् सहन करते हुए. मध्यस्थ ( राग द्व ेष रहित ) मुनि को, (२) अथवा ( रत्नत्रयी की साधना का ) प्रशस्त आलंबन रखकर निरवद्य या अल्प सावद्य (सपाप) उपाय करने वाले मुनि को तथा (३) निराशंस भाव से तप और संयम को ही प्रतीकार के रूप में सेवन करते हुए मुनि को धर्म ध्यान ही है, आर्त्त ध्यान नहीं ।
मुनि को वेदना में
ध्यान क्यों नहीं ? :
प्रश्न - यों तो साधु को भी शूल, रोग आदि वेदना आती है और उसे सभी सहन नहीं कर लेते, पर उसके निवारण के लिए दवा चिकित्सा आदि करवाते हैं; तो क्या उन्हें भी वेदना- वियोग का आर्तध्यान लगता है ? तथा दूसरे जब वे तप और संयम का पालन करते हैं उसमें सांसारिक दुःख के वियोग का जब ध्यान रहता है, जैसे 'इस तप संयम से अब संसार के दुःख नहीं आवेंगे' ऐसा होता हैं, तो इससे क्या उन्हें आर्तध्यान हुआ ?
उत्तर - साधु होने पर भी रागादि के वश हों, तो उन्हें जरूर आर्तध्यान होता है, पर ऐसे नहीं, उन्हें नहीं । इसीलिए ग्रन्थकार महर्षि कहते हैं 'मज्झत्थस्स....':
विवेचन :
(१) सम्यक् सहन करने वाले, (२) सहन न करके भी पुष्ट