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करता है तो वह दुःख से त्रस्त होकर नहीं, पर ज्ञानादि के प्रशस्त आलंबन से करता है । 'आलंबन' अर्थात् प्रवृत्ति का निमित्त दवा, औषध आदि के सेवन की प्रवृत्ति का उद्देश्य यहां उद्देश्य है केवल पवित्र ज्ञानादि के संरक्षण तथा संवर्धन करने का। इससे उसे कर्म बंध नहीं है । कहा है कि -
प्रशस्त आलंबन कैसे रखे ?
मुनि देखता है कि रोगादि की वेदना के समय अपने कमजोर शरीर-संघयण ( रचना की शक्ति १० ) और कमजोर मन के कारण अपने ज्ञानादि आराधना के कर्तव्य का बराबर पालन नहीं कर सकता, उसमें त्रुटि होगी, विराधना होगी आदि। यह न होने देने के लिए ही 'अच्छा, औषध का सेवन कर लूं ।' यह सोचकर औषधादि का सेवन करे । तो वह उद्देश्य प्रशस्त है, पवित्र है । मन का लक्ष्य इस प्रशस्त कर्तव्य के पालन में है । अत: मन आर्त्त ध्यान में नहीं है ।
ये प्रशस्त आलंबन कौन से १
१. 'पूर्वं पुरुषों ने भगवान के श्रुत यानी आगम को दूसरों को ढाकर आगम परम्परा को अविच्छिन्न रखा। यह उत्तराधिकार आज मुझ तक पहुँचाया है, वह मैं रोगादि की पीड़ा के कारण दूसरे को नहीं दे सकता । अत: मैं औषधोपचार करके यदि शरीर से स्वस्थ बनूं तो उसे दूसरे को दे सकूंगा । इस तरह श्रुत का उत्तराधिकार मेरे बाद भी आगे चालू रहेगा । अन्यथा मेरी बीमारी में मेरे पास के इस उत्तराधिकार का विच्छेद हो जावेगा । अतः औषधोपचार कर लूं ।' यह श्रुत टिकाने का आलंबन है, उद्देश्य है 1
(२) 'मेरे से वेदना में श्रु ताभ्यास, अध्ययन या परावर्तन नहीं हो सकता, अत: औषधादि सेवन करके उसमें लग जाऊ ।' यह श्रु तस्वाध्याय का दूसरा उद्देश्य हुआ ।