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'काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तबोवहाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं च नीति अणुमार वेस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं ॥ ____ अर्थ - 'मैं ( परम्परा से प्राप्त श्रुत तथा आगम की ) परम्परा को सम्हाल कर रखूगा अथवा मैं पढू गा या तप और योगोद्वहन मे उद्यम कर सकूगा अथवा मुनिगणों को शास्त्र नीति अनुसार सम्हाल सकूगा।'- ऐसा उद्देश्य रखकर दवादि उपचार करे अर्थात् सालंब सेवी बने। वह ( बाद में इस उद्देश्य की ही प्रवृत्ति रखने से ) मोक्ष प्राप्त करता है।' इससे पता चलता है दवादि उपचार के सेवन में उद्देश्य ऐसा प्रशस्त व पवित्र हो तो ही आर्त ध्यान नहीं होता।
(१) पीड़ा से आत्मा के शुद्ध स्वरूप का कुछ नहीं बिगड़ता। वैसे ही पूर्व का दुष्कृतकारी अपराधी आत्मा दंड भुगत ले यही योग्य है। इसमे नाराजगी क्या?
(२) मैं पसन्द करूं या न करूं, कर्म अपना फल दे कर ही रवाना होंगे । तथा वे पीडा दे कर जाते हैं तो यह तो कचरा साफ हुआ। फिर इसमें खेद या नाराजी किस बात की ? जितनी पीड़ा उतनी ही कर्म की सफाई।
(३) बाह्य निमित्त तो मात्र कुल्हाड़ी के हाथे की तरह हैं । कुल्हाड़ी में काटने वाला तो उसका आगे का हिस्सा या लोहा है, हाथ नहीं। इसी तरह पीड़ा देने वाले तो असल में कर्म ही हैं, निमित्त नहीं। ...... इस प्रकार की समझ या बुद्धि से आर्तध्यान न हो कर धर्म ध्यान होता है । यह सम्यक् सहन करने वाले की बात हुई।
२. मुनि का दवा करने में विशिष्ट उद्देश्य मुनि वेदना आदि मिटाने के लिए यदि औषध आदि उपचार