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इठाण विमयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स । अधियागऽज्झत्रमाणं तह संजोगाभिलासो य ।।८॥
अर्थ:- इष्ट वियोगों आदि में या इष्ट वेदना में रागरक्त जीव को उसके अवियोग पर मन की इच्छा तथा (अप्राप्त के लिए) संयोग की इच्छा रूप दृढ अध्यवसाय (प्रणिधान) हो, यह तीसरा प्रकार है।
उत्तर - पहले में कितनी ही बार अनिष्ट निवारक उपायों का पता नहीं चलता, या वे दिखते नहीं। उदा. पड़ोसी खराब मिला है, पुत्र स्वच्छंदी तथा उद्धत मिला है, अपना शरीर या अंग कुबड़ा मिला है । इत्यादि में कोई उपाय नहीं दिखता, तब भी उनको अरुचि से आर्त ध्यान चलता रहता है । 'यह कहां मिला? कितना दुःखदायक' इत्यादि। तब दूसरे प्रकार में वैद्य, दवा, पथ्यादि उपाय या प्रतीकार प्राप्त हैं। चिकित्सा आदि के बारे में जो व्याकुलता होती है, उसके कारण आर्त ध्यान होता रहता है। यह विशेषता है। यह आर्त ध्यान के दूसरे प्रकार के बारे में बात हुई। . ३, आर्त ध्यान, इष्टसंयोग, अवियोगानुबंधी .. अब आर्त ध्यान का तीसरा प्रकार कहते हैं:विवेचन :
इष्ट, मनपसंद शब्द, रूप, रस आदि विषय या वैसे विषय वाले पदार्थ अथवा मन से चाह कर इष्ट लगती हुई पीड़ा, 'किस तरह न जाय' या न हो तो 'कैसे मिले', उसका दृढ चिंतन'- यही तीसरे प्रकार का आर्त ध्यान है। सगे स्नेही जनों के अच्छे मानयुक्त शब्द सुनने को मिलने पर, 'नौकर या सेठ या ग्राहक, आड़तिया आदि मनपसंद मिले हैं, व्यापार ठीक चलता है, कुटुम्बी अच्छा बर्ताव करते हैं', इत्यादि इष्ट प्राप्त किस तरह चलता रहे और उसमें फर्क नहीं