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तह मूलसीसरोगाइ वेयणाए विजोगपणिहाणं । तदसंपयोगचिंता तप्पडिआराउलमणस्स ॥७॥
अर्थ:-तथा शूल, सिर दर्द आदि पीड़ा में उसके निवारण के उपाय में व्याकुल मन वाले को यह वेदना कैसे जावे या भविष्य में न आवे उसको दृढ़ चिंता ( होना यह आर्त ध्यान है।)
प्रश्न- जगत में रहते हुए अनिष्ट संपर्क तो रहेंगे ही। तो आर्त ध्यान से कैसे बचा जाय ? . .
उत्तर- पहले तो यह पहचानने के लिए ही यह 'ध्यानशतक' प्रकरण है। फिर उससे बचने के लिए इसमें आगे धर्म ध्यान का विस्तृत विचार किया गया है। यह देखने से पता चलेगा कि यदि हम.बचना चाहें तो आर्त रौद्र मिटाने के लिए संपूर्ण साधन सामग्री प्राप्त है। मात्र जीवन में उसका उपयोग प्रधान हो जाना चाहिये। उपरान्त, आर्त ध्यान का पहला प्रकार तो वष मलिनता में से उठता है अर्थात् अनिष्ट के प्रति अरुचि, अभाव, अप्रीति रहने से होने से आर्त ध्यान खड़ा होता है। इसी तरह आगे कहेंगे उसमें राग भी जिम्मेदार है। अत: असल में तो ये राग द्वेष ही गलत हैं। अत: उनका निग्रह करने से रोकने से आर्त ध्यान से बचा जा सकता है । यह पहले प्रकार की बात हुई।
२. आर्त ध्यान : वेदनानुबन्धी : अब आर्त ध्यान का दूसरा प्रकार कहते हैं:विवेचन : ... पेट, छाती, दांत, आंख, कान आदि में शूल (पीड़ा), तीव्र होने पर पुन: चिंतादि आते हैं। पुन: अन्तर के बाद तीसरी बार भी