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होती है । फिर चित्त 'वह कैसे हटे ?' ऐसे उसके वियोग के विचारों में चढ जाता है । इसमें क्षण भर भी यदि चित स्थिर बनाया अत्यन्त तन्मय हुआ तो वह अनिष्ट वियोग स्वरूप का आर्त ध्यान हुआ। आर्त ध्यान तीनों काल के बारे में हो सकता है ।
तीनों काल के बारे में आर्त ध्यान
(१) यह वर्तमान काल के 'अनिष्ट वियोग' की बात हुई । (२) भविष्य के बारे में आर्त ध्यान इस तरह होता है कि 'भविष्य में अनिष्ट किस तरह न आवे', 'न आवे तो अच्छा', ऐसे अनिष्ट वियोग पर मन लग जाता है । (३) इसी तरह अतीत विषय के बारे में आर्त ध्यान इस तरह होगा कि पूर्व में अनिष्ट संयोग या विषयों के य पदार्थ के बारे में या पूर्व में जिनका वियोग हो चुका है ऐसे अनिष्ट वियोग के बारे में मन में याद आ जाय । जैसे 'अरे ! वह कैस. दु:खद प्रसंग था या ! दुःखद पदार्थ था ! सो गया अच्छा हुआ ।' अथवा 'वह प्रसंग न आया, बच गये, अच्छा हुआ ।' यह अतीत याने पूर्व में व्यतीत हो चुकी वस्तु के बारे में हुआ जिसका अभी कोई सम्बंध नहीं है, तब भी उस पर मन जाने से वह बिगड़ जाता है। वैसे ही भविष्य में भी इच्छित बात हो या न हो, वह किसे मालुम है । पर अभी से उस का एकाग्र चिंतन यह आर्त ध्यान है । इसी तरह इसके बाद के तीन प्रकार के आर्तध्यान में भी वर्तमान विषय की तरह ही अतीत तथा भविष्य के वैसे ही विषयों के बारे में भी आर्त ध्यान हो सकता है ।
विषय - आर्त ध्यान का मूल कारण
इस आर्त ध्यान के होने का मूल कारण इन्द्रियों के विषय हैं । 'विषय' शब्द का अर्थ ही यह है कि जीव किसी पदार्थ में आसक्त होकर विषाद प्राप्त करे। इष्ट विषय या इष्ट संयोग में एक बार चाहे