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इस प्रकरण में आर्त और रौद्र ध्यान का विचार ५-५ द्वार से तथा धर्म व शुक्ल ध्यान का विचार १२-१३ द्वार से किया है। द्वार अर्थात् खास पदार्थ । किसी भी विषय पर विचार करना हो तो उसके खास पदार्थ · प्रधान अंग-निश्चित कर लेने से फिर प्रत्येक पदार्थ लेकर उस विषय पर विस्तृत विचार किया जा सकता है। व्यवस्थित व्याख्याता इस प्रकार अपने दिमाग में मुख्य पदार्थ को सोचकर फिर क्रमश: एकेक पदार्थ को लेकर उस विषय का प्रतिपादन करते हैं। श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भगवन्त समर्थ व्याख्याता हैं। अत: यहां भी उनके दूसरे शास्त्रों की तरह मन में प्रत्येक ध्यान के खास पदार्थ निश्चित करके फिर उसमें से एकेक पदार्थ लेकर उसका वर्णन करते हैं। यहां आर्त तथा रौद्र ध्यान के विचार के लिए ५-५ पदार्थ इस प्रकार हैं :- १. स्वरूप २. स्वामी ३. फल ४..लेश्या तथा ५. लिंग। अर्थात् १ आर्त ध्यान (तथा उसके प्रकारों का प्रत्येक) का स्वरूप क्या है ? (२) आर्त ध्यान कसे जीवों को होता है ? (३) आर्त ध्यान का फल क्या ? (४) इस ध्यान वाले की मानसिक लेश्या. कैसी होती है ? तथा (५) अंतर में (मन के भीतर) आर्त ध्यान चल रहा है तो उसके ज्ञापक चिन्ह क्या होते हैं. ? ..........
अब इन प्रत्येक पदार्थ को क्रमशः एकेक लेकर उस पर विचार किया जाता है।
....... स्वरूप टीकाकार आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज लिखते हैं कि आर्त ध्यान अपने चार प्रकार के विषयों में बांटा जा सकता है अत: ४ प्रकार का होता है। भगवान वाचक मुख्य उमास्वातिजी महाराज ने आतं ध्यान के ४ प्रकार बताते हुए श्री तत्त्वार्थ महाशास्त्र में कहा है :- ..
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