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अमणुण्णाणं सदाइविसय वत्थूणं दोसमइलस्स । अणियं वियोगचिंतणमसंपोगाणुपरणं च ॥६॥
अर्थ : द्वष से मलिन जीव को अनिच्छित शब्दादि विषय तथा ऐसी वस्तु के वियोग का गाढ चिंतन या असंयोग का गाढ ध्यान रहे । (यह आर्त ध्यान का पहला प्रकार है।)
(१) अमनोज्ञानां संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारो, (२) वेदनायाश्च, (३.) विपरीतं मनोज्ञानां, (४) निदानं चा (अध्याय ९ सू० ३१ से. ३४) इत्यादि।
अर्थात् आर्त ध्यान के चार प्रकार इस तरह हैं:
१. अनिष्ट संयोग - मन को अनिच्छित विषयों के संयोग में उनका वियोग कैसे हो उसका निश्चल चिंतन । - २ रोगादि घेदना में उनके वारक उपायों का निश्चल चिंतन ।
३. इष्ट योग-प्रथम से विपरीत अर्थात् मन का इच्छित संयोग या मनपसन्द विषयों की प्राप्ति के बारे में निश्चलपन ।
४. नियाणा-अर्थात् पौद्गलिक सुखों की दृढ़ आशंसा या प्रणिधान।
ध्यान के इन चार प्रकारों में से कोई भी ध्यान चलता हो तो यह आर्त ध्यान है। अब यहां पहले भेद का स्वरूप बताते हुए कहते हैं:विवेचन : - जीव को इन्द्रियों के अमनोज्ञ शब्दरूप, रस, गंध, स्पर्श या.. वैसे शब्दादि वाला पदार्थ, जैसे कि भौंकता हुआ गधा या कुत्ता आदि संपर्क में आवे तो वह पसंद नहीं आता। उस पर द्वेष तथा अरुचि