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मनुष्य लकड़ी के सहारे चलता है, वैसे इस शरीर के सहारे से आत्मा में वीर्य परिणाम की स्फुरणा से शरीर क्रिया होती है । इस आमपरिणाम को काययोग कहते हैं । तब वचनयोग तथा मनोयोग क्या है ? काय योग से भाषावरणा तथा मनोवर्गरणा के पुद्गल लेकर उन्हें वचन व मन के रूप में परिवर्तित करके उसके सहारे जीव बोलने तथा विचारने का जो वीर्य स्फुरण करता है वह वचनयोग तथा मनोयोग है ।
योग निरोध आवश्यक क्यों ?
आत्मा जब सर्वज्ञ बन जाता है, तब कर्म बन्ध के कारणस्वरूप मिथ्याल, अविरति प्रमाद तथा कषाय तो नष्ट हो चुक हैं, परन्तु आहार, विहार, विहार व उपदेश आदि में उक्त विध योग' रूप बन्ध का अन्तिम कारण चालू रहता है । यह यदि मोक्ष में जाने के अन्तिम समय तक चालू रहे तो उससे बांधे हुए कर्म को कब छोड़ा जाय, कहां छोड़ा जाय ? उन्हें छोड़े बिना सर्व कर्म मुक्ति या मोक्ष कंसा ? अतः मोक्ष जाने से पहले अन्तिम आयुष्य की पूर्णाहुति के वक्त पांच ह्रस्वाक्षर अ इ उ ऋ लृ के उच्चारण में लगन वाले काल तक जीव योगरहित, अयोगी होता है । इस काल में अब कर्मबन्ध बिलकुल नहीं होता और बचे हुए बाकी कर्मों का केवल क्षय किया जाता है । यह योग रहित अवस्था बनाने के लिए जीव मन वचन काया के योगों का पूर्णरूप से निरोध ( रोक) करता है । इन कायादि तीनों का अब कोई सम्बन्ध या सहारा नहीं | तब आत्मद्रव्य शैलेश याने मेरु जैसा निश्चल बनता है । इस अवस्था को शैलेशी कहते हैं । यह १४वें गुणस्थानक पर होती है । इसके लिए १३ वें गुणस्थानक के अन्त में संपूर्ण योग निरोध करना पड़ता है । इस योग निरोध की क्रिया में काया को अब सुनिश्चल कर दिया ।