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अट्ट रुई धम्म सुक्कं झाणाइ तत्थ अंताई। निव्वाण माहणाई, भवकारणमट्टरुदाई ।।५।।
अर्थ: । आर्त, रौद्र, धर्म तथा शुकर नाम से चार ध्यान हैं । इसमें अन्तिम दो (धर्म तथा शुक्ल) ध्यान (निर्वाण) सुख के साधन है और आर्त रौद्र ध्यान संसार के कारण हैं।
ध्यान प्रारम्भ हो सकता है । इस तरह ही चले ऐसा कोई नियम नहीं हैं । नयाँ ध्यान प्रारम्भ होने के बजाय चितादि में ही कितना ही काल निकल जाय । परन्तु हां तुरना नया ध्यान, फिर अन्तर, पुन: नया ध्यान इस तरह दीर्घकाल तक चल सकता है। इसे ध्यान धारा या ध्यान प्रवाह कहते हैं। यह भगवान या दूसरे ऐसे महात्माओं को अच्छा होता है, दीर्घ होता है। इस नये नये ध्यान में चित्त एक पदार्थ से दूसरे पर और दूसरे से तीसरे पर एकाग्र अवस्थान करता जाता है। :: ..
प्रश्न- ध्यान की वस्तु कौन सी ? ... - उत्तर ध्यान की वस्तु (Subject) के तौर पर आत्मा में या पर में रहे हुए द्रव्यादि आ सकते हैं। आत्मा में रहे हुए पदार्थ मनोद्रव्य आदि पर भी ध्यान हो सकता है। अथवा पर में रहे हए किसी भी द्रव्य गुण या पर्याय पर ध्यान हो सकता है। उदा० आत्मा का ग्रहण किया हुआ मनोद्रव्य कैसा है ? भावाद्रव्य कैसा है ? या आत्मा का अगुरु लघु गुण कैसा है ? इस पर ध्यान किया जाय अथवा बाहर के किसी पर द्रव्य, वर्गगा पुद्गल या उत्पनि व्यय आदि पर मन केन्द्रित हो सकता है । .... यहां तक प्रसंग प्राप्त वस्तु के साथ ध्यान का सामान्य लक्षण कहा। अब विशेष लक्षण कहने की इच्छा से ध्यान के प्रकारों के