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उन्हें भाषा रूप में परिवर्तित करता है। ) फिर इन पुनलों के सहारे जीव में जो वीर्य स्फुरण होता है वह वचनयोग कहलाता है। इस तरह औदारिकादि काया के व्यापार से मनोद्रव्य याने मनोवर्गणा के पुद्गल लेकर ( मन रूप में परिवर्तित करके) मनोद्रव्य समूह के सहारे जीव में जो वीर्य स्फुरणा होती है वह मनोयोग है।'
__आठ पुद्गल वर्गणाएं जगत में जीव के उपयोग में आने लायक जड़ पुद्गल अणुसमूह ८ प्रकार के हैं। १ से ४, औदारिक, वैक्रिय, आहारक व तैजस तथा ५ से ८, भाषा, श्वासोच्छ वास, मानस तथा कार्मरण । इम प्रत्येक समूह को वर्गणा. कहते हैं। (१) एकेन्द्रिय से लगाकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक के सब के शरीर अर्थात् पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा अनेक प्रकार के कीड़े, मकोड़े, मक्खी और पशु पक्षी के शरीर तथा मनुष्य के शरीर औदारिक वर्गणा से बनते हैं। (२) देव तथा नारकी के शरीर जिस पुद्गल समूह से बनते हैं वह वैक्रिय वर्गणा है । (३) चौदह पूर्वी महामुनि विचरते हुए भगवान के पास भेजने के लिए उन्हें स्वयं को प्रकट हुई आहारक लब्धि (शक्ति) से जो शरीर बनाते हैं, उसके पुद्गल को आहारक वर्गणा कहते हैं। (४) शरीर में आहार का पाचन कराने की शक्ति जिस पुद्गल में है वह तैजस वर्गणा का है । (५) शब्द बोलने के लिए जिस पुद्गल से शब्द बनता है वह भाषा वर्गणा। (६) श्वासोच्छ वास के लिए उपयुक्त पुद्गल श्वासोच्छ वास वर्गणा है। (७) विचार करने के लिए मन जिस पुद्गल से बनता है वह मनोवर्गणा है। तथा (८) आत्मा पर चिपकते हुए कर्म जिसमें से बनते हैं वह कार्मण वर्गणा है। *. इसमें औदारिकादि काया की जो प्रवृत्ति होती है अर्थात् जो शरीरक्रिया होती है वह स्वतः नहीं होती। परन्तु जैसे बीमार