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तो मुहुत्तमेतं वित्त वत्थाणमेघवत्थु मि । छउमत्थाएं कारण जोगनिगेहो जिणाणं तु ॥ ३॥
अर्थ - एक वस्तु में चित की स्थिरता सिर्फ एक अन्तर्मुहूर्त रही है । यह ध्यान छद्मस्थों को होता है। वीतराग सर्वज्ञ के लिए योगनिरोध ही ध्यान है ।
ऐसे तीन प्रकार के चित से भिन्न मन की स्थिर अवस्था 'ध्यान' वहलाती है । ऐसा सामान्य स्वरूप बता कर अब ध्यान का काल ( समय ) तथा स्वामी कौन है, यह बता कर उसका विशेष रूप से वर्णन करते हैं ।
विवेचन :
एक ध्यान ज्यादा से ज्यादा अन्तर्मुहूर्त तक टिकता है । इसका नाप इस तरह है: - परम सूक्ष्म अविभाज्य काल को एक 'समय' कहते हैं । केवलज्ञानी की दृष्टि से भी इसके हिस्से नहीं हो सकते । क्षरण या पल तथा विपल के हिस्से हो सकते हैं; पर समय के नहीं । अत: सबसे छोटा या सूक्ष्म काल 'समय' है । ऐसे असंख्य समय का एक श्वासोच्छ् वास काल होता है । हृष्ट पुष्ट तन्दुरुस्त और निश्चित
तव के मन वाले उम्मर लायक मनुष्य के हृदय की एक धड़कन में जो समय लगता है उसे प्रारण कहते हैं । ऐसे ७ प्राण = १ स्तोक । ९ स्तोक (४९ प्राण) = १ लव । और ७७ लव (३७७३ प्राण) = १ मुहूर्त अथवा २ घड़ी ( ४८ मिनिट) इससे कम काल को अन्तमुहूतं कहते
हैं । उसे भिन्नमुहूर्त भी कहते हैं ।
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मात्र इतने समय तक ही चित्त एक वस्तु पर एकाग्र स्थिर रह सकता है, निष्कम्प अवस्थान कर सकता है । फिर साधारण मात्र
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भी चलित होकर पुनः ध्यान लग सकता है । पर अन्तर्मुहूर्त बाद,