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योगीसर (या योगीस्मर्य) अर्थात् प्रभु योगियों के लिए स्मर्य अर्थात् स्मरणीय, स्मरण चिंतन व ध्यान करने योग्य हैं।
'शरण्य' हैं प्रभु; आंतर शत्रु रागादि से पीटे गये जो जीव प्रभु का शरण लेते हैं, उनके प्रति वे अति वत्सल हैं, वात्सल्य धारण करने वाले अथवा रक्षण देने वाले हैं।
प्रश्न- भगवान शुक्लध्यानाग्नि से कर्म को जला डालने वाले हैं, अत: वे योगीश्वर व शरप्य तो हैं ही। फिर ये दो विशेषण लगाने का क्या प्रयोजन ? यह अर्थ पहले शब्द में ही गतार्थ (समाया हुआ) है।
उत्तर - शुक्ल ध्यान से कर्मनाश करने वाले तो दूसरे सामान्य (अतीर्थंकर) केवल ज्ञानी भी होते हैं किन्तु वे योगेश्वर नहीं होते। क्योंकि उन्हें प्रभु के जैसे वचन तथा काया के अतिशय नहीं होते। वैसे ही उन्हें भी केवलज्ञान प्राप्ति में प्रभु ही शरण्य बने हुए हैं अत: वस्तुत: अन्तिम शरण्य प्रभु ही हैं। अत: इन दो विशेषणों से प्रभु की अधिकता बताने का प्रयोजन है।
प्रश्न- तो फिर मात्र 'योगेश्वर' विशेषण लगाने से 'शुक्लध्यानाग्नि से कर्मनाशक' विशेषण गतार्थ हो जाता है न ? अलग क्यों कहा जाय ? .. उत्तर- नहीं, यों तो योगेश्वर के रूप में अणिमादि लन्धि वाले भी गिने जाते हैं। उनसे भी प्रभु को ज्यादा बताने के लिए 'शुक्ल ध्यानाग्नि से कर्मनाशक' कहना जरूरी है।
___ अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो एक विशेषण कह देने से दूसरे विशेषणों का भाव उसमें समा जाता हो तब भी अल्पज्ञ शिष्य उसे