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करी है जिसमें छ के पाठका पांचका अर्थ तो किसी जगह देखनेमें नहीं आया तथापि विनय विजयजीने तथा वर्तमानिक तपगच्छवाडे विद्वान कहलाते हुए भी सत्रकार महाराषके तथा इत्तिकार महाराजोंके विरुद्धार्थ में प्रत्यक्षपने उलटा अर्थ किया तथा करते हैं सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वक अथवा विध्वताको अजीर्णताके सिवाय और क्या होगा क्योंकि उपरके शब्दसे पांचका अर्थ किसी भी पूर्वाचार्य्यने किसी जगह पर भी नहीं लिखा है तथा प्रत्यक्ष युक्तिके विरुद्ध होनेसे होभी नहीं सकताहै और 'पंच हत्थत्तरे साइणा परि निव्वुडे' इससे पांचका अर्थ करके सत्रकार महाराजका वाक्यार्य भंग भी नहीं हो सकता है इसलिये सूत्रकार महाराजके अपेक्षा सम्बन्धी अभिप्रायको समके बिना अपनी कल्पना मुखब अर्थ मान लेना या लिख देना संसार वृद्धिका हेतु है सो ही करनेका कारण सपरके विद्वानोंने किया मालूम होता इसलिये जो अपरके पदको सूत्रकार महाराजका वाक्यार्थपूक वर्तमानिक तप गच्छ के विद्वान लोग सत्य मानते होवे तबतो पांचका अर्थ करें जिसका मिच्छामिदुक्कड देना चाहिये क्योंकि जब बहों कल्याणकोंकी पथक पृथक व्याख्याकरके साकारनेखुलासा दिखा दी तो फिर पांचका अर्थ करके साकारके वाक्पार्थका भंग करना कौन बुद्धिमान मान्य करेगा अपितु कोई भी नहीं और राज्याभिषेकको कल्याणकत्वपना प्राप्त नहीं हो सकता है जिसके कारण भी उपर में लिखे गये है तथा खास विनयविजयजीके ही परम पूज्य श्रीतपगच्छीय श्रीहीरविजयसरिजीके सन्तानीय श्रीशांतिचन्द्रगणिजीने श्रीधीर प्रभु
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