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और न्यायांभोनिधिजी श्रीआत्मारामजीके ऊपरके लेखसे यह भी सुस्पष्टता पूर्वक अच्छी तरहसे प्रगटपने सिद्ध होता है कि श्रीजगच्चंद्रसूरिजीके ३।४ पेढियोंके पहलेसेही अपने बडगच्छकी परम्परामें शिथिलाचार चला आता होगा इसलिये श्रीजगच्चंद्रसूरिजी जैसे सुप्रसिद्ध विवेकी विद्वन् आत्म कल्याण और श्रीजिनाज्ञाके अभिलाषी महाराजने अपने वडगच्छके तथा अपने शिथिला चारी पूर्वजोंके ( श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध ) दृष्टिरागके पक्षपातको न रखके अपने शिथिलाचारके आचार्य पदके अभिमानको भी छोड़कर श्रीजिनाज्ञानुसार श्रीचैत्रवालगच्छके वैराग्य समुद्र शुद्ध क्रियापात्र शुद्ध संयमी श्रीदेवभद्रजी उपाध्यायजीके पास क्रिया उद्धार किया, याने-फिरसे दूसरी बेर दीक्षा धारण करी और इन्हीं महाराजको गुरु मान्य करके श्रीचैत्रवाल गच्छकी इन्होंके शुद्ध संयमियोंकी परम्परामे मिल गये इसलिये इन्हीं श्रीजगत् चन्द्रसूरिजी महाराजके सुप्रसिद्ध विवेकी विद्वान् शिष्य श्रीदेवेन्द्र सूरिजीने अपने गुरुजी की पहिलेकी शिथिलाचारकी श्री वडगच्छकी परम्परा न लिखके पीछे दूसरी वारकी शुद्ध संयमियोंकी श्रीचैत्रवालगच्छकी शुद्ध परम्परा श्रीधर्मरत्नप्रकरण की उत्तिके अन्त में प्रशस्तिके लेख में लिखी सो पाठ भी न्यायांभोनिधिजीने अपने ऊपरके लेखमें लिख दिखाया है ( और अब तो श्रीधर्मरत्न प्रकरण वृत्ति गुजराती भाषा सहित श्रीपालीताणासे श्रीविद्याप्रसारक मण्डलकी तरफसे छप करके प्रसिद्ध भी होगयी है इसलिये यह उपरका पाठ तो प्रसिद्धही है) इसलिये न्यायांभोनिधिजीके उपरोक्त लेख मुजब तो श्रीजगच्चंद्र सूरिजी महाराजको श्रीचैत्रवालगच्छके मानने तथा इसी गच्छसे उन्होंकी. परम्परा भी मिलाना सोही शास्त्र मर्यादा पूर्वक श्रीजिनाज्ञा मुजब परम उचित है सो ऐसे ही करनेसे न्यायांभोनिधिजीको
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