________________ [ 739 ] अपना गच्छ नहीं लिखा है ऐसे बहुतही अन्य दृष्टिगोचर आते हैं तो या उन सबी ग्रन्थकारोंको उनके गच्छके न मानोगे सो तो कदापि नहीं तो फिर व्यर्थका हठ बादमें क्या सार निकलेगा सो विवेक बुद्धि हृदय, लाकरके स्थिर चित्त पूर्वक न्याय दृष्टिसे विचारनेकी बात है। ___ और जैसे श्रीजगच्चन्द्रसूरिजीको तपाविरुद मिला था सो श्रीदेवेन्द्रसूरिजी तथा श्रीक्षेमकीर्तिपूरिजी जानते थे, तो भी (इन महाराजको इसी ग्रन्थके पृष्ठ 656 से 676 तकमें छपेमुजब बड़गच्छको छोड़कर चैत्र वालगच्छसे ही परम्परा मिलाई) तपाविरुदको नहीं लिखा। तैसेही श्रीनवाड़ी वृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी भी अपने गुरुजी श्रीजिनेश्वरसूरिजीको खरतर विरुदकी प्राप्ति और चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ वगैरह सब बाते जानते थे तो भी खरतर विरुद न लिखा और चन्द्रकुलादिसे अपनी श्रीजिनेश्वरसूरिजीकी परम्परा मिलाई है। ___और श्रीअभयदेवसूरिजी, श्रीजिनवल्लभसूरिजी, श्रीजिनदत्त. सूरिजी, श्रीजिनचन्द्रसूरिजी, श्रीजिनपतिसूरिजी, मीनुमतिगणी श्रीजयन्तविजयंत:काव्यकर्ता वादीसिंह विरुद धारक नीअभयदेव सूरिजी वगैरह इन महाराजोंको तो खरतर विरुदका आग्रह नहीं था इसलिये वर्तमानिक समयवत् आप लोगोंकी तरह अपने गुरुको लम्बी चौड़ी पदधी लिखते चले जावे परन्तु इन महा. राजोंको तो अशुद्ध प्रतिको हटाके, शुद्ध मार्ग प्रकाश करनेका आग्रह था, इसलिये 'मागम अठोत्तरी' “संघ पहक" सन्देह दोला वली, संघ पहककी और इसीकी रहत् तथा लघु दोनों बत्ति, गणधर सार्धशतक बहत तथा लघु दोनों मृत्ति, षट्स्थामकप्रकरणत्ति वगैरह शास्त्रों में द्रव्यलिङ्गी शिपिलाचारी उत्सूत्रShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com