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[८०९] मर्धाष्टमदिनाग्रेषु मासेषु नवसूच्चकैः ॥ ५०॥ शुक्लचैत्रत्रयोदश्यां चन्द्रहस्तोतरागते। सिंहाङ्क काचमरुचिं स्वामिनी सुषुबे सतं ॥५१॥
॥ विभिविशेषकम बट्पञ्चायष्टिक मार्योग्भ्येत्य भोग करादयः । स्वामिनः स्वामि मातुश्च सूसकर्माणि चकिरे ॥५२॥ शक्रोप्यासनकंपेन तत्कालं सपरिच्छदः । विज्ञाय स्वामिनो जन्म सूतिका गृहमाययौ ॥ ५३॥ महंत महदम्बा च दूरतोपि प्रणम्य सः। उपसृत्यागतो देवा श्वावस्वापनिका ददौ ॥ ५४॥ देव्याःपाखेंच भगवत्प्रतिरूपं निधायसः। विचक पंचधारमान मतप्तो भक्तिकर्मणि ॥ ५५॥ एकः शक्रः स्वपाणिभ्यां भगवन्तमुपाददे। उपरि स्वामिनश्छ। द्वितीयोकस्त्व धारयत्॥ ५६ ॥
इत्यादि इसके आगे जन्म उत्सवादिका वर्णन है।
देखिये अपरके दोनों पाठो में भगवान् जब देवानन्दाके गर्भन माकर उत्पन्न हुए तब देवानन्दाने १४ महा स्वप्न देखे सो अपने पतिको कहे पतिने उत्तम पुत्र प्राप्तिको कहा देवामन्दाके गर्भमें रहते हुए भगवानको ८२ दिन व्यतित हुए बाद इन्द्रका मासन चलायमान हुमा जब इन्द्रने अवधि जामसे भगवानको देखा तब हर्ष सहित सिंहासनसे उठकर विधिपूर्वक नमस्कार याने नमोत्थुगां किया और मीच गौत्रके उदयसे ब्राह्मण कुल आये इसलिये सिद्धार्थ राजाको त्रिशला रानीकी कुक्षि हरगमेवीदेवताको कहकर स्थापित कराये उस समय भासोबदौ १३ हस्तोतरा नक्षत्र में त्रिशला माताने १४ महा सन देखे पिहार्य राजाको को राजाने महान् गुणवान उत्तम उक्षण युक पुत्र होनेका कहा और मारु देवामाता गर्भ मादिनाप आकर उत्पन्न हुए थे तब मारु देवामाताने १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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