Book Title: Ath Shatkalyanak Nirnay
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T निबंध 77 26 905 MA आलू पर्वत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 9029 www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिवन 77 ओम्॥ ॥ नमः श्रीवईमानाया ॥ अथ षट् कल्याणक निर्णय अब श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकोंका निर्णय करके तत्वाभिलाषी पुरुषोंकोदिखातांहूं सो जैसे हरवर्षपर्युषणाके व्याख्यान में वर्तमानिक श्रीनपग इके अनेक महाशय अधिकमामकी गिनती निषेध करने के लिये उत्सूत्रमाषणोंसे कुयुक्तियों करके भेजीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरनेका परिश्रम करतेहुवे संसारमद्धिका प्रय नही रखते हैं और मिथ्या बातको सत्य ठहराने के लिये खंडन मंटन करके वादविवादसे धर्मकार्यों में विघ्नकारक झगठा बढ़ाकर कर्मबंधकेहेतु करते है तैसेही श्री वीरमभुके छ कल्याण कोंका निषेध करनेके लिये भी पंचांगीके अनेक शास्त्रोंके पाठोंको प्रत्यक्षपने उत्थापन करके उत्सूत्र भाषणांसे कुयुक्तियोंका संग्रहकरके बालजीवाको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरनेका कार्यकरके संसारद्विकाहेतु भूत महान् अनर्थ करते हैं और धर्मकार्यों में विघ्नकारक खंडनमंहन करके अपनी कल्पित बातकेजमाने के लिये पर्युषणाके ध्याख्यानमें शासन नायक श्रीवीरप्रभुकीखास अवज्ञाकरके शासनप्रेमियोकंदिलमें वहा रंज उत्पन्न करते हुये अपना तथा अपने गच्छकदाग्रहियांका सम्यकत्वको नष्ट करनेका उद्यम करते जिन्हों के उपगारकेडिये तथा भव्यजीवों को सत्यबातम निःसंदेह होनेके लिये और पौजिनाज्ञा इच्छुक तत्वाभिलाषी पुरुषोको सत्या सत्यका निर्णय दिखानेके लिये पंचांगीके अनेक शास्त्रप्रमाणपूर्वक न्यायकी युक्तियांके अनुसार श्रीवीरप्रभुके छ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५४ कल्याणकों संबंधी संक्षिप्से इसजगह लिखके दिखाताहूं जिसमें प्रथमतो इसीहीग्रन्थके पृष्ठ २४१ वेमें न्यायरत्नजीको तरफके (श्रीवीरप्रभुके कल्यणकोंके) लेख संबंधी जो सपना करीथी जिसका निर्णय यहां दिखाताहूं सो न्यायरत्न वि. द्यासागरकाविशेषणको धारणकरनेवाले पोशांतिविजयजीने अपलेगच्छ का पक्षपातसे शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में सन १९०८ के सप्टेम्बरमासकी७ वी तारीख वोरसंवत् २४३४ आश्विनशुदी २ का जैनपत्रके २४ वा अंकके चौथेपृष्ठ में कल्याणक संबं. धी जो लेख लिखा है सो मीचेमुजब जानो: [पंचाशक सूत्रके मूलपाठमें पांच कल्याणक तीर्थंकर महावीर स्वामीके फरमाये है, पंचाशक सूत्र पूर्वधारी हरि भद्रसरिजीका बनाया हुवा है और अभयदेव-सरिजीने उसपर टीका किइ है खरतर गछवालोंको पुछना चाहिये, गापहारको अगर कल्याणिक मानते हो अछेरा किसको मानते हो ? दश अछेरेमें गर्मापहारको एकतरहका अछेरा कहा फिर कल्याणक कैसे हो सकता है:-पांच कल्याणककी सबुतीका पाठ पंचाशक सूत्रका नीचे मुजय है। आसाढ सुद्धछठी-चेतेतहसुद्धतेरसीचेव, मगसिरकिन्हेदसमी वइसाहेसुद्ध दसमीय, कत्तियकिन्ह चरिमा-गमाइदिणा जहक्कमएते, हथ्थु तर जाएणं-चउरोतहसातिणाचरिमा ॥ यहपाठपूर्वधारी आचार्यमहाराज हरिभद्रसूरिजीका फरमाया हुवा है। अब अभयदेव स रिजीकी फरमाई हुइ टीक का पाठ सुनिये ( व्याख्या ) भाषाढमासे शक्लपक्षस्य षष्टि तिथिरेक दिनंएव चैत्रमासेतथेति समुच्चये शुक्ल त्रयोदश्येवेति द्वितीयं, चेत्य वधारणे-तथा मार्गशीर्षकृष्ण दशमीति-तृतीShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५५ ] यं, वैशाख शुद्ध दशमीति चतुर्थं च शब्दशमुच्चयार्थः - कार्तिक कृष्णेचर्मा पंचदशोति पंचमं एतानि इति आह-गर्भादिदिनानि ९ गर्भ २ जन्म ३ निःक्रमण ४ ज्ञान ५ निर्वाणदिवसा यथाक्रमं क्रमेणैव तान्यनंतरोक्ता न्येषां च मध्ये हस्तात्तरयोगेन हस्त उत्तरोयासां हस्तापलक्षिता वा उत्तरा इस्तात्तरा फाल्गुनन्येताभिःयोगः सबंधश्चेति हस्तात्तरा यागस्तेन कर्णभुत्तेन चत्वारि आद्यानिदिनानि भवंति तथेतिसमुच्चये स्वातिना स्वाति नक्षत्रेणयुक्तञ्चरमेाति धर्म कल्याणिकं दिनं, इति गाथा द्वयार्थः- देखिये ! इसमें अभयदेवसरिजीने खास तीर्थंकर महावीरस्वामी पांच कल्याणक फरमाये अगर जैन शास्त्रो में & कल्याणक होते तो नव अंगशास्त्रको टीका करने वाले महाराज अभयदेवसूरिजी खुद पांच कल्याणक क बयान करते ] - न्यायरत्नजी श्रीशांतिविजयजी के उपर केलेखको समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हसज्जन पुरुषोदेखो न्याय रत्नजीने उपरकेलख में सूत्रकार तथा वृत्तिकार महाराजके अभिप्रायके विरुद्धार्थमें बालजीवोंको भ्रममें गेरनेके लिये पूर्वा परके सविस्तारवाले पाठको छोड़कर बिनासंबधका अधूरा पाठ भोले जीवोको दिखाकर श्रीवीरप्रभुके पांचकल्याणकों को स्थापन करके अच्छेरेकी भांति छ कल्याणकों का निषेध किया सो उत्सूत्रमाषणरूपहै क्योंकि अच्छे है तो भी कल्याणकत्वमें गिनकरके श्री वीरप्रभुके छ कल्याणक श्री तीर्थंकर गणधर - पूर्वधरादि महाराजांने अनेकशास्त्रों में खुलासापूर्वक कहे हैं सोही दिखाता हूं यथा; -- - श्री सीमन्धरस्वामीजी भगवान् ने श्रीआचारांगजी सूत्रकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५६ 1 चूलिका १, श्रीशीटांगाचार्यजी कृत श्रीआचारांगनी सूत्रके चूलिकाकी वहत्तिमें २, श्रीजिनहंस सूरिजीकृत तद् दीपिका वृत्ति, ३, श्रीगणधर महाराजकृत श्रीस्थानांगलीसूत्र में ४, श्रीखरतरगच्छनायक श्रीनवांगी वृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजीत श्रीस्थानांगजीकीवृत्ति, ५, तथा श्रीपूवाचार्य. जीकृत दूसरी वृत्ति ६, श्रीभद्रबाहुस्वामीजीकृत श्रीदशा अतस्कंध में 9, श्रीपूर्वधर पूर्वाचायंजीकृत श्रीदशातस्कंधको (पर्युषणाकल्प की) चूर्ण में ८, श्रीब्रह्मर्षिजीकृत उपरोक्त सूत्र को वृत्ति र श्रीभद्रबाहुस्वामीजी कृत श्रीआवश्यकसूत्रकी नियुक्तिमें १०, श्रीजिनदासगणिमहत्तराचायचो कृत श्रीमा. वश्यक चूर्णिमें ११, श्रीहरिभद्रसूरिजी कृत तत्सूत्रको बृहद्वत्ति १२ तथा श्रीतिलकाचार्यजीकृत लवत्ति, १३, श्री भद्रबाहुखामीजी कृत श्रीकल्पसत्र, १४, श्रीजैनतत्वादशंके बारहवें परिच्छदमें श्रीतपगच्छकी पहावली लिखी है जि. समें ४० वें पहमें श्रीनेमिचंद्रमरिजीको लिखे हैं जिन्हों के शिष्य श्रीमुनिचंद्रसूरिजीहुए इनके शिष्य श्रीरत्नसिंहसूरिजो हुवे और इनके शिष्य नीविनयचंद्रजी कत श्रीकल्पसत्रके निरुक्त में १५, श्रीचंद्रगच्छके श्रीदेवसेनगणिजीके शिष्य श्रीपथ्वीचंद्रजीकृत श्रीकल्पसूत्रके टिप्पणाने १६, श्रीखरतरगच्छके श्रीजिनप्रभमरिजीकृत श्रीकल्पमत्रकी सदेह विषौषधि कृत्ति में १७, तथा श्रीलक्ष्मीबल्लभगणिजी कृत श्री कल्पद्रुम कलिका बृत्तिमें १८, और श्रीसमयसुन्दरजी कत श्रीकल्पकल्पलता बृत्ति में १८, मल्ल धारी श्रीहेमचंद्रमरिजीके शिष्य श्री विजय सिंहस दिजो कत श्रीकल्पावबोधिनी बत्तिौ २१, श्री तपगच्छके श्रीकुलमडनस रिजीकत श्रीकल्पावचूरिम २२, तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५७ ] श्रीसोमसुंदर मरिजीकत श्रीकल्पांतर वाच्यमें २३-तथा प्रसिद्ध तीनो महाशयोंकत (श्रीकल्पकिरणावली दीपिका मुखबोधिका इम) तीनों बत्तिओंमें २६, श्रीअंचलगच्छके श्रीउदयसा. गरजी रुत श्रीकल्पावचूरिरूप वृधि २७, कलिकाल सर्वज्ञ विरुदधारक श्री हेमचंद्राचार्यजी कृत श्रीत्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्रके दशवा पर्व श्रोषीरचरित्रमें २८, श्रीचंद्रतिलकोपा. ध्यायजी कृत श्रीअभयकुमार चरित्रमे २९, श्रीपूर्वाचार्योंके. बमाये श्रीवीरप्रभुके प्राकृत तीनों चरित्रों में ३२, श्रीजयतिलक सरिजी कृत श्रीसुलसाचरित्रमें ३३, श्रीजिनपति स रिजी कृत श्रीसंघहक वृहशाति३४, तथा श्रीसमाचारोमें ३५, श्रीसमयदरजी कृत श्रीसमाचारीशतकमें ३६, श्रीतपगच्छ के श्रीपर्वाचार्यों के बनाये श्रीकल्पन के चारों बालावबोधों में ४०, श्रीसंघविजयजी कृत श्रीकल्पप्रदीपिका नामा वृत्ति में ४१, श्रीसहजको तिजोकत श्रीकल्पमंजरीत्ति में ४२, श्री हीरविजय स रिजी के संतानिय श्री शांतिचंद्रगणिजी कृत श्री बूद्वीपप्रज्ञप्ति सत्र की वृत्ति में ४३, इत्यादि अनेक शास्त्रों में श्रीतीर्थंकर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंने तथा श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छादिके पूर्वाचार्योने श्रीवीर. प्रभुके छ कल्याणकों की खुलासा पूर्वक व्याख्याकरी हैं सो छ कल्याणक संबंधी सब पाठ यहां लिखनेसे बहुत विस्तार हो जावेगा इसलिये थोडेसे शास्त्रोंके पाठ इस जगह पाठक गणको निःसंदेह होनेके लिये लिखकर दिखाताहूं। १-श्रीचौदहपूर्व घर त केवलि श्रीभद्रवाहुस्वामीजीने श्रीकल्पस त्रकी आदिमेंही श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों की व्याख्याकी है जिसको श्रीखरतरगच्छ वाले तथा श्रीतपग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५८ ] च्छादि वाले सब कोई वार्षिक पर्व श्रीपर्युषणामें वचते हैं सो पाठ नीचे मुसब जानो यथा तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंच ह. त्युत्तरे होत्था,तंजहा; हत्युत्तराहिं च ए चइत्ता गम्भवकते ॥१॥ हत्युत्तराहिं गभ्भाओगम्भं साहरिए ॥२॥ हत्यत्तराहि जाए॥३॥ हत्यत्तराहिं मुडेभवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए ॥४॥ हत्थत्तराहिं अण ते अणतारे निवाघाए नि रावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवल वर नाण दसणे समुपन्ने ॥५॥ • साइणा परिनिवडे भयवं ॥६॥ भावार्थ:-तिमकाल तिस समयके विषे श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामीके पांच कल्याणक हस्तोतरा (उत्तराफाल्गुनी) नक्षत्र हुवे वही दिखाते है-दशमें देवलोकके पुष्पोतर नामा विमानसे चवकरके जंबूद्वीपके दक्षिण भरतक्षेत्र में माहण कुंड ग्रामके ऋषभदत ब्राह्मणकी देवान दानामा स्त्रीको कूक्षिमें हस्तोतरा नक्षत्र, आषाढशुदी ६ को उत्पन्न हुवे सो प्रथम च्यवन कल्याणक ॥ तथा हस्तोत्तरानक्षत्र की आज्ञासे हरिनैगमेंषिदेवने देवानदाकी कूक्षिसे सहरण करके सत्रियकुंड नगरके सिद्धार्थराजाकी त्रिशला देवीपहराणीकी कूक्षिमें आश्विन वदी १३ को स्थापित किये सो गर्भापहार रूप दूसरा च्यवन कल्याणक॥तथा हत्तोतरा नक्षत्रमें चैत्र दी १३ को त्रिशला देवीकी कुक्षिसे जन्महुवा सो तीसरा जन्म कल्याणक ॥ तथा हस्तोतरा नक्षत्र में मार्गशीर्ष सदी १० के दिन गृहस्थावास छोड़कर द्रव्यभावसे मुडहुवे अणगार पणापाये अर्थात् श्रीवीरप्रभूने दीक्षाली सो चौथा दीक्षा कल्याणक ॥ तथा हस्तोत्तरा नक्षतमें वैशाख शुदी के दिन अनन्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५९ ] · अर्थ के विषयरूप अनु तर प्रधान निर्व्याघात सर्वप्रकार के अवरण रहित संपूर्ण वर (प्रधान) केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्तहुआ सो पंचम ज्ञान कल्याणक || और स्वाति नक्षत्र मे कार्तिक अमावस्याको श्रीवीरप्रभु निर्वाण पायें अर्थात् भोक्ष पधारे सो छठा मोक्ष कल्याणक ॥। अत्र देखिये चौदह पूर्वधर श्रुत केवी श्रीभद्रबाहुस्वामीजीने श्रीवोरप्रभके छः कल्याणक खुलामा पूर्वक कहे हैं जिसको नही मानने तथा मानने वालों को दूषित ठहरानासोतो मिथ्यात्व के क रणसे भेलजीव को सत्यबातपर से श्रद्धा भ्रष्टकर के मूलमंत्ररूपशास्त्र पाठकों प्रत्यक्ष उत्थापन करना सो उत्सूत्र भाषण करनेवालांही का काम है । २ - तथा श्रीवडग व्ळके श्रीविनय चंद्रसूरिजी कृत श्रीकल्पसूत्रके निरुक्त का छ कल्याणक सम्बन्धी पाठ नोचे म जब है यथा तेणं कालेणं मित्यादि, ते पंत्ति प्राकृत शैलीवशात् तस्मिन् काले, तस्मिन् समये, यः पूव तीर्थंकरैः श्री वीरस्य च्यवनादि हेतुर्ज्ञातः कथितश्च यस्मिन् समये तीर्थंकर च्यवनं स एव समय उच्यते । समयः कालनिर्द्वारणार्थे यतः कालो वर्णोपि, तथा हस्तउत्तरो यासां ता हस्तातरा उत्तराफाल्गुन्यो, बहुवचनं बहुकल्याणकापेक्षं तस्यां विभोश्च्यवनं, गर्भाद्गभे संक्रांतिः, जन्म, व्रतं, केवलं, चाभवत्, निर्वृतिः स्वातौ, इति ॥ ३-और श्रीखरतरगच्छ के श्रीजिनप्रभसूरिजी कृत श्री कल्पसूत्रकी सदेहविधि वृतिका पाठ नीचे मुजब जानो यथा;तोयोधिपतित्वेनासन्नोपकारित्वात् प्रथमं वर्त्तमान श्रीवर्द्धमानखामिनश्चरितमाहुः ॥ श्रीभद्रबाहु स्वामी पादाः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६. ] तेणं कालेणमित्यादि । तेणंति प्राकृत शैली वशात् तस्मिनकाल वर्तमानावसर्पिण्य.श्चतुर्थारक लक्षणे, एवं तस्मिन् समये तद्विशेषे, यत्रासौ भगवान् देवानंदायाः कुक्षौदशम देव लोकगत पुष्पोत्तर विमानादवतीणः,णशब्दो वाक्यालकारे, अथवा सप्तम्यर्थ आर्षत्वात् तृतीया एवं हतौवा । ततस्तेन कालेन तेनच समय न हेतुभूतेने तिव्याख्येय, अय तच्छब्दस्य पूर्वपरामर्शित्वादत्र किं परा मश्यते, इतिचेत् उच्यते। यौका. लसमयौ भगवता श्रीऋषभस्वामिनाउन्यैश्च तीथः श्रीवर्द्धमानस्य षसां च्यवनादिनां कल्याणकानां हेतुत्वेन कथितौ तावेवेतिब्रमः । श्रमणस्तपस्वी भगवान् समग्रेश्वर्ययुक्तःमहावीरः कर्म शत्रुविजयादन्वर्थनामा चरमजिनः पच हत्थत्तरेति,हस्तस्यैवोत्तरस्यां दिशिवत्तमानत्वात् हस्तोत्तरा, हस्तउत्तरोयासां ता स्तोत्तरा उत्तराफाल्गुन्यः । बहुवचनं बहुकल्याणकापेक्ष, पंचसु च्यवन,गर्मापहार,जन्म,दीक्षा, ज्ञानकल्याणकेषु,हस्ता. तरा यस्य स,तथा च्यवनादीनि पंचोत्तराफाल्गुनी जातान, निर्वाणस्य स्वातौ संभूतत्वादिति भावः, होत्थति अमवन ४-और श्रीतपग के श्रीकुलमंडनमूरिजी कृत श्रीकल्पावचूरिकापाठ नीचे म जब जानो यथा वर्तमान तीर्थाधिपतित्वेनासान्नोपकारित्वात्प्रथमं श्रीवद्धमानस्वामिनश्चरितमचुः।श्रीभद्रबाहुस्वामिपादाः। तेणंकालेमित्यादि तेणति प्राकृतशैलीवशात् तस्मिन्काले वर्तमानावसर्पिण्या श्चतुर्थारक लक्षणे, एव, तस्मिन् समये तद्विशेषे, यत्रासौ भगवान् देवानन्दायाःकुक्ष दशमदेवलोकगतपुष्पोत्तरविनानादवतीर्णः । ण शब्दोवाक्यालंकारे। अथवा सप्तम्यर्थं आर्षत्वात् तृतीय! एवं हतौवा, ततस्तन कालेन तेन च समये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ ] न हेतुभूतेनेति व्याख्येयं । अथ तच्छब्दस्य पूर्व परामर्शित्वादा किं पराम श्यते, इतिचेत् उच्यते यौकालसमयौ भगवताश्रीऋषभदेवस्वामीना अन्यैश्च तीर्थंकरैःश्रीवर्द्धमानस्य षमा च्यवनादीनां कल्याणकानां हेतुत्वेन कथितो तावेवेति ब्रूमः। श्रमणस्त पस्वी समप्रैश्वर्ययुक्तः भगवान् महावीरः कम्म शत्रु विजयादन्वर्थनामा परमजिनः । पंचहत्थुत्तरेत्ति, हस्तस्येवोत्त. रस्यां दिशिवर्तमानत्वात् हस्तोत्तरा, हस्त उत्तरो यासां ता हस्तोत्तरा उत्तराफाल्गुन्यः । बहुबचनं बहुकल्याणकापेक्ष, पंचसु च्यवन १, गर्भापहार २, जन्म ३, दीक्षा ४, ज्ञान ५ कल्याणकेषु, हस्तोत्तरा यस्य स । तथा च्यवनादीनि पंचोत्तराफाल्गुनीषु जातानि । निर्वाणस्य स्वाती।सं जात त्वादिति भावः होत्थत्ति अभवन् ॥ ५-औरभी श्रीतपगच्छके श्रीसोमसुदरसूरिजी वा अन्या चार्यजी कृत श्रीकल्पांतराच्यका पाठ नीचे मजब जानो यथा रोणकालेणमित्यादि, तेण ति-प्राकृत शैलीवशात् तस्मिन् काले चतुर्थारकलक्षण, तस्मिन् समये,यत्रासौ श्रमणो भगवान् महावीरः देवानंदायाः कुक्षौ दशमदेवलोकगत प्रधान पुष्योत्तर विमानादवतीर्णः ॥ पंचकल्याणकानि उत्तरा फाल्गुनि नक्षत्रे जातानि, तद्यथा,श्रीवद्धमानस्वामी हस्तोत्रायां उत्तरा फाल्गुन्यां च्यतः आगतः समुत्पन्नः ।। हस्तोत्तरायां उत्तरा फाल्गुन्यां देवानन्दायाः गर्भात कुक्षेः शक्रादेशात त्रिशला कुक्षौ संक्रामितः ।। हस्तोत्तरायां उत्तरा फाल्गुन्यां भगवान् जातः, ३॥ हस्तोत्तरायां उत्तराफाल्गुन्यां द्रव्यभाव मुंडितो भूत्वा, आगारात गृहवासात निष्क्रम्य अनगारिता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६२ ] साधुनां प्रत्रजनः प्रकर्षेण गतः ॥४। हस्तोत्तरायां उत्तरा फाल्गु न्यां अनंतं अनंतार्थं विषयत्वात्, अनुत्तमं सर्वोत्तमत्वात्, निर्व्याघात कटकुड्य दिष्वप्रतिहतत्वात् निरावरणं क्षायिकत्वात्, कृत्स्न ं सकलार्थग्राहकत्वात्, प्रतिपूर्ण सकल' स्वांश समन्वितं पूर्ण चंद्रमंडलमित्र, केवलमसहायं, अतएव वर ज्ञान ܬ , दर्शनं चेति । तत्रज्ञान विशेषावबोधकरूप, दर्शन सामान्यावबोधक रूपं, समुत्पन्न ं समुत्पन्न || स्वाति नक्षत्रेण परि निर्ऋतः निर्वाण प्राप्तो भगवान् मोक्षगत इत्यर्थः । ६ । एतानि भगवतो वर्द्धमानस्य षट् कल्याणकानि कथितानि ॥ ६- औरभी श्रीत पगच्छ के श्रीविनयविजयजीकृत श्रीकल्पमूत्र को सुखबोधिका वृत्तिका पाठ नीचे मुजब है - यथा, - तत्र प्रथनाधिकारे जिनमरित्रेषु आसन्नोपकारितया प्रथमं श्रीवीरचरितं वर्णयन्तः, श्रीभद्रबाहु स्वामिनो जघन्य मध्यम वाचनात्मकं प्रथमं मूत्रं रचयंति, 'तेणंका लेणमित्यः दितः परिनिव्वडे भयवमिति पर्यन्तं तेणं काले ति, तस्मिन्काले अवसर्पिणी चतुर्धारक पर्यंत लक्षणे, णंइति सर्वत्र वाक्यालंकारार्थः । तेणं समयेणंत्ति, विशिष्टः कालविभागः समयो यः श्रीवर्द्धमानस्वामिनः वसां च्यवनादि वस्तूनां कारणं बभूव, तस्मिन् समये, समणे भगवं महावोरेरित, श्रमणस्तपोनिरतः भगवति भगवान्, अर्कयोनि वर्जित द्वादश भगशब्दार्थवान्, यदाहुः ॥ भगोर्क ज्ञान महात्म्यं, यशो वैराग्य मुक्तिषु ॥ रूप वयं प्रयत्न च्छा, श्री धम्मैश्वर्ययोनिषु ॥ १ ॥ अत्र आद्यंत्यौ अर्थो वर्जनीयो, ननु अत्योर्थस्तु व एव परं अर्कः कथं बयः सत्यं उपमानतया अर्को भवति परं वत्प्रत्ययां तत्वन अर्कवान् इत्यर्थो न लगतीति वर्जितः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६३ ] महावीरेत्ति,कमवैरि पराभव समर्थः,श्रीवर्द्धमान स्वामीत्यर्थः स, पचहत्युत्तरेरित, हस्तोत्तरा उत्तराफाल्गुनयः गण नया ताभ्यो हस्तस्य उत्तरत्वात् ताः, पंचसु स्थानेषु यस्य स पंच हस्तोत्तरो भगवान् होत्थरित अभवत् ॥ पच हस्तो. तरत्व भगवतो मध्यम वाचनया दर्शयति॥ हत्थत्तराहिं चुएत्ति, उत्तरा फाल्गुनीषु च्यतः प्राणतामिधान दशम देवलोकात्, चहरतागम्भं वक्वतेत्ति, च्यत्वाग) उत्पन्नः । १। इत्युत्तराहिं गम्भाओगम्भंसा. हरिएत्ति, उत्तरा फाल्गुनीषु गर्भात गळे महतः, देवा नदागर्भातत्रिशलागः मुक्त इत्यर्थः ।। हत्थ तराहि जाएत्ति, उत्तराफाल्गुनीषु जातः । हत्थःतराहिं मुंडे भविता अगारा ओ अणगारि पठवइएत्ति, उत्तराफाल्गुनीघु मुंडोभत्वा, तद्रव्यतो मुंडः केशलु चमेन, भावतो मुडो रागद्वषाभावेन, आगारात् गृहात् निष्क्रम्येति शेषः अनगारित्तां साधुतां, पव्वइएत्ति, प्रतिपन्नः ॥४॥ तथा उत्तराफाल्गुनीषु (अण तेत्ति, अनतवस्तू विषयं, अनुत्तरेत्ति, अनुपम, निव्वाघाएति, निर्व्याघातं भित्तिकटादिभिरस्खलितं, निरावरणेरित, समस्तावरणरहितं, कसिणेत्ति, कृत्स्न सर्व पर्यायोपेत, सर्ववस्तू ज्ञापक, पडिपुणेति, परिपूर्ण सर्वावयव संपन्न, एवं विधं यत् वरं प्रधान केवलज्ञान केवल दर्शन च तत् समुपन स्ति, तत्पन्न उत्तरा फाल्गुनीषु प्राप्तं ॥५॥ सारणापरिनिवडे भयवं इति स्वाति नक्षत्र मोक्षागतो भगवान् ॥६॥ ७-औरमी श्रीपाश्चंद्रगच्छके श्रीब्रह्मर्षिजो कृत श्रीदशाश्रुत स्कंध सूत्रको वृत्तिका पाठ नीचे मुजन है: वर्तमान तीर्थाधिपतित्वनासन्नोपकारित्वात आदौ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६४ ] श्रीवीरचरितम च्यते तच्चसूत्रानुगमेसति भवति तच्छेद, तेण कालेण इत्यादि, तेणंत्ति प्राकृत् शैली वशात तस्मिन् काले वर्तमानावसपिण्याश्वतारकडक्षणे, एवं तस्मिन् समये तद्विशेषे, यत्रासौ भगवान् देवान दायाः कुक्षौ दशमदेवलोकागत पष्पोत्तर नाम्नो विमानादवतीर्णः, णमिति शब्दो वाक्यालकारार्थो, यथा इमाणं पढवी इत्यादा वितिद्वितीयोपिण शब्दो एवमेव, अथवा सप्तम्यर्थे आषत्वात् तृतीया एवं हेतौवा, ततस्तन कालेन तेन च समयेन हेतु भूते नेतिव्याख्येयम्, अथतच्छब्दस्य पर्वपरामर्शितत्वादन किं परामश्यते, इतिचेत, उच्यते, यौकालसमयौ भगवता श्रीऋषभस्वामिना उन्यैश्च तीर्थंकरैः श्रीवर्द्धमानस्य षगणां धवनादीना हेतुत्वेन कथितौ तावेवेतिब्र मः, प्रमणमतपस्वी भगवान् समग्रैश्वर्यादिगुणयुक्तो महावीरः कर्म शत्र जयाद न्वर्थनामा चरम जिनः, पंच हत्थत्तरेत्ति हस्तस्यैवोत्तरस्यां दिशिवर्तमानत्वातहस्तोतरा हस्तउतरोयासांता हस्तोत्तरा उत्तराफलगुन्यः, बहुबचन बहुकल्याणकापेक्ष,पंचसु च्यवन, गर्मा पहार, जन्म, दीक्षा, ज्ञान कल्याणकेषु, हस्तोत्तरायस्य स तथा च्यवनादीनि पंचोत्तरा फाल्गुनीषु जातानि,निर्वाणस्यच स्वातौ संभूतत्वा दितिभावः होत्थति अभवन् । अव उपरोक्त चारोंही गच्छोंके विद्वानों कृत ६ पाठों का संक्षिप्त भावार्थः-कहते हैं सो पर्वाधिराज श्रीपर्युषण पर्वमें मांगलिक के लिये श्रीजिनेश्वर महाराजोंके चरित्र कथन करने में आते हैं जिसमें प्रथम वर्तमान शासन नायक नजीक उपकारी जानकर श्रीभद्रबाहुस्वामीजीने श्रीकल्पस त्रकी मादिही, तेणं कालेणं तेणं समयेणं इत्यादि, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६५ ] व्याख्यासे जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट वाचना पूर्वक श्रीवर्द्धमान स्वामिका चरित्र कथन कियाहै सोही यहां दिखाते हैं कि-तिसकाउके विषे याने-वर्तमान अवसर्पिणीके चौथे आरेमें, ऐसेही तिस समय के विषे सो समय कालमें विशेष भेद नहीं है और इसमें 'तेणं' शब्द के णं शब्द को प्राकृत शैली मुमब वाक्यालङ्कार, शोभा रूप समझना अथवा सप्तमीके अर्थ में या-आर्षत्वात् तृतीया, अर्थात् चौदह पूर्वधरतके. वलि महाराज की सूत्र रचना होने से तृतीयाका भी अर्थ किया जाता है इसलिये तिसकाल और तिस समयको कहा है सो हेतु भूत करके है ऐसा समझना और 'तत्' 'यत्' इन दोनों शब्दों का पर्वा परमें आने का नित्य नियम है सो 'तत्, शब्दकी तो उपर में व्याख्या होगइ है इसलिये अब यहां 'यत्' शब्दकी व्य ख्या करते ह कि जिसकाल और जिप्त समयको भगवान् श्रीऋषभदेवस्वामि आदि तीर्थंकर महाराजोंने श्रीवर्द्धमान स्वामी के च्यवनादि छ कल्याण कोंके होने का हेत रूप कहा है उमीकाल और उसी समयको यहां भी कहा है सी उसीकाल और उसी समयमें 'समणे भगवं महावीरे' सो श्रमण भगवान् नहावीर,याने सर्वप्रकार के कर्माको क्षय करनेके लिये हमेसा तपश्चर्या करने वाले, तथा सर्व प्रकारके ऐश्वर्यसें युक्त,और भगवान् सो 'भग' शब्दके ज्ञान महात्म्यादि उपरके लोकमे कहे हुये १२ अर्थ गुणयुक्त भगवान् श्रीमहावीरस्वामी सो कर्मरूपी शत्रुओंके विजय करने वाले होनेसे गुण निष्पन्न सार्थक नामके चरम तीर्थंकर हुए हैं इनहीं महा. राजके पांच कल्याणक हस्तोत्ता नक्षत्र में हुए हैं, याने हस्त नक्षत्रहीहै उत्तरमे जिसके ऐसा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र समझना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६६ ] क्योंकि चौथे आरेमें जैनपञ्चाङ्ग की रीति मुजब युगका ३१ वा महिना अर्थात् तीसरा अभिवर्द्धितसंवत्सर में आषाढ़ सुदी ६ के दिन सूर्यके उदय में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था सो सूर्योदय से ३२) घटीका पर्यंत व्यतीत होजाने बाद रात्रिको भगवान्‌ के च्यवन समय हस्तनक्षत्र आगया था इसलिये हस्तोत्तरा कहा गया परन्तु सूर्योदय के व्यवहारसे उत्तराफाल्गुनी कहा जाता है इसलिये व्याख्याकारोंने हस्तोत्तराके तात्पर्यार्थसे उत्तराफाल्गुनीके नामसे खुलासा पूर्वक व्याख्या करी है सो 'उत्तराफाल्गुन्यः' इसमें बहुवचन है सो है सो बहुत कल्याणकों की अपेक्षासे दिया गया है, सोही बहुत कल्याणक दिखाते है - प्रथम च्यवन, तथा गर्भापहाररूप दूसरा च्यवन, तीसरा जन्म, चौथा दीक्षा, पांचवा ज्ञान इन पांचों कल्या णोंमे हस्तोत्तरा (उत्तराफाल्गुनी) नक्षत्र समझना और इठा स्वातिनक्षत्र में भगवान्का मोक्ष पधारना हुआ यही श्रीवर्द्धमान स्वामिजीके छ कल्याणक कहे जाते है सो बिवेक बुद्धिसे समझने चाहिये । और उपरकी व्याख्याओंके पाठों में श्री वीरप्रभके व्यवनादि छः कल्याणकों की खुलासा पूर्वक व्याख्या करी है जिसमें श्री विनय विजयजीने च्यवनादि छःकल्याणकों के शब्द की जगह पर च्यवनादि छः वस्तु लिखी, तथा उपरकी व्याख्याओं में च्यवन गर्भापहारादिसे केवल पर्यंत पांच कल्याणकों कों उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें कहेहैं उसी जगह परमो विनय विजयजीने च्यवन गर्भापहारादिसै केवल पर्यंत पांच कल्याणकोंके शब्दकी जगह पर पांच स्थान लिखे हैं सो उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में श्रीवीरप्रभुके पांच वस्तु हुइ कहो, या, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] पांच स्थान हुये कहो अथवा पांच कल्याणक हुये कहो, ईन तीनों शब्दों का तात्पर्यार्थ एकही होता है इस बातका विशेष निर्णय आगे करमेमें आवेगा ॥ और स्वाति नक्षत्र में भगवान् का मोक्षहुवा इस तरह से गिनती मुजब श्री वीरप्रभु के छः कल्याणक पंचांगी के अनेक शास्त्रानुसार प्रत्यक्षपने सिद्धहै इस लिये छः कल्याणकों को निषेध करने वाले गच्छकदाग्रही उत्सूत्र भाषण से और कुयु क्तियों से बाल जीवों की सत्य बातपर से श्रद्धाभ्रष्ट करके मिथ्यात्व बढ़ाते हुये संसार वृद्धिका हेतु करते है सो न्याय दृष्टि से विवेकी पुरुषों को विचार करना चाहिये, तथा गर्भापहारको कल्याणकत्वपनेसे निषेध करनेके लिये कुयुक्तियों करके भोले जीवोंको भ्रमाने में आते है जिसका भी निर्णय आगे करने में आवेगा । } और गणधर महाराज श्रीसुधर्मस्वामीजीने श्रीस्थानां गजी सूत्रके पंचमें स्थानांग के प्रथम उद्देशमें श्रीपद्म प्रभु जी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी आदि १४ तीर्थं कर महाराजों के व्यवनादि पांच पांच कल्यणकों की व्याख्या करीहै उसीमें भी श्री वीरप्रभुके कल्याणकाधिकारे गर्भापहार को कल्याणकत्वपने में खुलासा पूर्वक गिना है जिसका भी पाठ यहां पाठक वर्गको निःसंदेह होने के लिये दिखाता हूं, सो सूत्र वृत्ति सहित (जैनागम संग्रह के भाग तीसरे में ) रूपाहुवा श्रीस्थानांगजी सूत्र के पृष्ठ ३६३ । ३६४ का पाठ नीचे मुजब जानो यथा; - पठमप्पभेण भरहा पंचचित होत्या, तंजा, चित्ता हि जुए चहत्ता गर्भवकुंते, वित्ताहिं जाए, चित्ताहिं मु'डे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [C] भवि अगाराओ अणगारियं पवइए, चित्ताहिं अणं ते अणुत्तरे शिवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुन केवल वर नाण दंसणं समुत्पन्न े, चित्ताहिं परिनिव्वुए |१| पुष्कदं तेणं अरहा पंच मले होत्या, मूलेण चरा चहत्ता गर्भवकते, एवं चेव एएणं अभिलावेण इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ पउमप्पभस्स चित्ता, मूले पुणहोइ पुष्कदंतस्स । पुर्वासा - ढा सीयलस्स, उत्तरा विमलस्स भट्टवया ॥१॥ रेवइय अनंतजिणो, पूसो धम्मस्स - संतिणी भरणी । कुंथुस कत्तियाओ, अरस्त तहा रेवई मोय ॥ २ ॥ मुणिवयस्स सवणो, आसिणि ममिणो तह नेमिणो चित्ता । पासस्स बिसाहाओ, पंच इत्थुत्तरे बीरो || ३ || समणे भगवं महावीरे पंच हत्युत्तरे होत्या, तंग हाइत्युत्तराहि चुचइत्ता गर्भवकते, हम्थुत्तराहिं गम्भाओ गम्भं साहरइए, इत्युत्तराहिं जाए, हस्थुत्तराहि मु डेभविता लाव पवइए, इत्युत्तराहिं अण ते अणुत्तरे जाव केवल वर नाण दंसणे समुपने ॥ इति ।। , ܘ भावार्थ:- छठे श्रीपद्द्मप्रभु अरिहंत के पांच कल्याणक चित्रा नक्षत्र में हुए सो कहते है । चित्रा नक्षत्र में देवलोक से च्यव करके माताको कुक्षिमें उत्पन्न हुवे, चित्रा नत्र में जन्म लिया, चित्रा नक्षत्र में गृहस्थावास त्यागके अणगार पणापाये दीक्षाली, चित्रा नक्षत्र में अनन्त, सर्वसे उत्तम उत्कृष्ट, व्याघात रहित, आवरणरहित, कृत्स्न - सर्व अर्थके जानने वाला, प्रतिपूर्ण सम्पूर्ण चंद्रमंडल की तरह प्रकाशमान, प्रधान केवल ज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुवा, चित्रा नक्षत्र में मोक्ष पधारे १, तथा नवमें श्रीब्रुविधिनाथजी अरिहंत के पांच कल्याणक मूल नक्षत्र में हुए, हो मूल नक्षत्र में देवलोक से च्यव करके माताकी कुक्षिमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४ ] उत्पन्न हुए। इसी तरहसे श्रीपद्मप्रभुजीके पांच कल्याणकों के सूत्र मुजवही श्रीसुविधनाथजी आदि सबी तीर्थकर महाराजोंके पांच पांच कल्याणकोंकी खलासा पूर्वक व्या. ख्या समझ लेना सो श्रीतीर्थंकर महाराजोंके नाम पूर्वक कल्याण कों के नक्षत्र मात्रही यहां दिखातेहै। उठे श्रीपदम् प्रक्षजी महाराजके पांच कल्याणक चित्रा नक्षत्र में हुए १, और श्रीसुविधीनाय तोके पांच कल्याणक मल नक्षत्र में हुए २, श्रीशीतलनाथजो के पांच कल्याणक पूर्वाषाढा नक्षत्र में हुए ३, श्रीविमलनाथजीके पांच कल्याणक उत्तराभाद्रपदमें हुए ४, श्रीअनत नाथजीके पांच कल्याणक रेवती नक्षत में हुए ५, श्रीधर्मनाथ नीके पांच कल्याणक पुष्प नक्षत्रमैं हुए ६, श्रीशांतिनाथ जीके पांच कल्याणक भरणी नक्षत्र में हुए ७, श्रीकुथुनाथजीके पांच कल्याणक कतिका नक्षत्रमंहुए ८, श्री अरनाथ जी के पांच कल्याण करेवती नक्षत्र में हुए ए, श्रीमुनि सुब्रत स्वामी नीके पांचकल्याणक श्रवणनक्षतमेंहुए १०,श्रीनमिनाथजीके पांच कल्याणक अश्विनी नक्षतमें हुए १९, श्रीनेमनाथजीके पांच कल्याणक चित्रा नक्षतमें हुए १२, श्रीपार्श्वना. चजी के पत्र कल्याणक विशाखा नक्षतमें हुए १३, श्री महावीर स्वमीज.के पांच कल्याणक उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में हुए १४, सोफिरभी मत्रकार खुलासे कहते है कि, अमण भगवान् श्री महावीर स्वामी के पांच कल्याणक उत्तरा फाल्गुनी में हुए सो उत्तराफाल्गुनी में देवलोक ध्यत्र कर के देवानदा माताकी कुक्षिमें उत्पन्न हुए १, उत्सराफाल्गुनीमें त्रिशला माताकी कुक्षि स्थापन हुवा २, उसी नक्षत्र में जन्महुवा ३, उसी नसत्रम दीक्षा ली ४, उसो नक्षत्र में अनंन्त सबसे उत्तम उत्कृष्ट यावन कंबल घर जान दर्शन उत्पन्न हुवा ५, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 30] और श्रीअभयदेवसूरिजी कृत उपरोक्त सूत्रकी वृत्तिका पाठ नीचे मुजब है, यथा,-- केवल्यधिकारातीर्थकर सूत्राणि चतुर्दश कण्ठ्यानि चैतानि, नवरं पद्मप्रभ ऋषभादिषु षष्टः पंचसु च्यवनादि दिनेषु चित्रा नक्षत्र विशेष। यस्यम पंचचित्र चित्राभिरिति रुढ्या बहुवचन च्यूताऽवतीर्णः, उपरिमोपरिमग्रेवेयकादेकत्रिंशत् सागरोपमस्थितिकात् च्युतः च्युत्वाच 'गम्भंति' गर्ने कक्षौव्युतक्रांत उत्पन्नः, कौशांब्यां धराभिधान महाराज भार्यायाः मुसीमा नामिकायाः माघमासबहुल षष्टयो, जातो गर्भ निर्गमन कार्तिक बहुलद्वादश्यां चेति, तया मूडो भूत्वा केश कषायाधपेक्षया आगारानिष्क्रम्यानगारितां अमणतां प्रत्रजितो गतोऽनगारतयाच प्रव्रजितः कार्तिक शुद्ध त्रयोदशयां, तथा अनत पर्यायान तत्वादनुत्तरं, सर्वज्ञा नीत्तमत्वात्, निर्व्याघातमप्रतिपातितत्वान्निरावरण सर्वथा स्वावरणक्षयात्, कटकुड्याद्यावरणाभावाद्वा, कृत्स्न सकल पदार्थ विषयत्वात्, परिपूर्ण स्वावयवापेक्षयाऽखंडपैर्णिमासी चंद्रबिम्नवत्, किमित्याह केवलं ज्ञानांतर.सहायत्वात् संशुदुत्वाद्वा, अतएव वरं प्रधान केवल वर ज्ञानच विशेषाव भास, दर्शनच सामान्यावभास, ज्ञानदर्शन तच्चतच्चेति के. बलवर जानदर्शन समुत्पन्न जात चैत्रशुद्ध पंचदश्यां, सपा परिनिवतो निर्वाण गतः मार्गशीर्षवहुलैकादश्यां, मादेशांतरेण फाल्गुन बहुल चतुर्ष्यामिति। एव चेवेति पनप्रभसूत्रमिव पुष्यदंतसूत्रमप्यध्येत्तव्यमेवमन तरोत स्वरूपेण एतेनामतरत्वात्प्रत्यक्षणाभिलापेन सूत्रपाठनेमास्तिमः सत्र माणिगापा अनुगतच्या, अनुसतं व्याः, शेष नाभि . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१ ] लाप निष्पादनार्थ ॥ पउमप्पभस्सेत्यादि ॥ तत्र पदम प्रभस्य चित्रा नक्षत्रे च्यवनादिषु पंचसुस्थानकेषु भवतीत्यादि गायाक्षरार्थो वक्तव्यः सूत्राभिलापस्त्वाद्य सूत्रद्वयस्य साक्षाद्दर्शितएव इतरेषांत्वेवं । सोयलेण अरहा पंच पडवा साढ़े होत्या, तंजहा,पवासाढाहिंचुएचइत्ता गम्भं वक्कते,पुत्वासाढाहिं जाए, इत्यादि ॥ एवं सर्वाग्यपीति, व्याख्यात्वेव, पुष्यदंतो नवम तीर्थंकर आनतकल्पादेकोनविंशतिसागरोपम स्थितिकात् फाल्गुन बहुलनवम्यां मूडनक्षत्रेच्युतः व्युत्वाच काकंदीन गया सु. ग्रोवराजमार्यायाः रामाभिधानायाः गर्ने व्युत्क्रांता, मूल नक्षत्रे मागशीर्ष बहुल पंचम्यां जातस्तथा मूलएव ज्येष्टशुद्धप्रतिपदि गततरेण मार्गशीर्षबहुलषष्ट यांनिष्क्रांतःतथा मूलएव कार्तिक शुद्धतृतीयायां केवलज्ञानं उत्पन्नं,तयाश्वयूजःशुद्ध नवम्यामादे. शांतरेण वैशाख बहुलषष्ट्यां निईतइति, तथा शीतलो दशम जिनः प्राणतकल्पाविंशति स.गरोपमस्थितिकात् वैशाख बहुल षष्ट्यां पूर्वाषाढानक्षत्रे च्युतः च्युरवाच भद्दिष्टपुरे दृढरपनरपति भार्यायानन्दायाःगर्भतया व्युत्क्रांतः तथा पूर्वाषाढा स्वेव. माघ बहुलद्वादश्यांजातः तथा पूर्वाषाढ़ा स्वेवमाघ बहुल द्वाद. श्यां निष्क्रांतः तथा पूर्वाषाढा स्वेव पोषस्य शुद्ध मतांतरण बहुलपक्षे चतुर्दश्यां ज्ञानमत्पन्न तथा तत्रैव नक्षत्रे श्रावण शुद्ध पंचम्यां मतांतरेण श्रावण बहुल द्वितोयायां नि त इति, एवं गायत्रयोक्तानां शेषाणा मपि स त्राणां प्रथमानुयोगपदानुमा सरेणोपयुज्य व्याख्याकार्या नवरं चतुर्दश स त्रे मिलाप विशेषोस्तीति तदर्शनार्थमाह ॥समणे इत्यादिह तोपलक्षिता उत्तरा हस्तोतरा हस्तो वा उत्तरो यासता हरतोत्तरा उत्तराफाल्गुन्यः पंच च्यवन गर्भ हरणादिषु हस्तोत्तरा यस्य स तथा गर्भात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१२] गर्भस्थानात् 'गम्भ'ति' गर्भे गर्भ स्थानांतरे संहृतो नीतो, निर्वृतस्तु स्वाति नक्षत्रे कार्तिकामावास्यामिति ॥ अब देखिये उपरके पोठमें वृत्तिकार महाराजने केवडी के अधिकार में १४ तीर्थंकर महाराजां के कल्याणों को संबंधी जो सूत्र हैं सो सरलता पूर्वक खुलासा कह दिये है, जिसमें विशेष करके श्री ऋषभदेवस्वामि अ दि तीर्थंकर महाराजों में छठे श्रीपद्मप्रभुजी है तो इन्हीं महाराजके च्यवनादि पांच क ल्याणक चित्रानक्षत्र में हुवे हैं सो चित्रानक्षेत्र में उपर के ग्रैवक से, ३१ सागरोपमका देव संम्बन्धी आयुपूर्ण करके वहांसे च्यवे और व्यव करके कौशंदी नगरी के धरनामा राजाकी सुसीमा नामा पहराणीकी कुक्षिमें माघवदी ६ को उत्पन्न हुवे १, और कार्तिक वदी १२ को चित्रानक्षत्र में जन्म लिया २ तथा इसके वाद कार्तिक शुदी १३ के दिन चित्रानक्षत्र में दीक्षाली ३, तथा चैत्रीपर्ण को मित्रानक्षत्र में केवलज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुवा ४, और मार्गशीर्ष वदी ११ को वा मतांतर करके फाल्गुन वदी ४ को चित्रानक्षत्र में मोक्षहुवा ५, इसही तरह से श्रीपद्मप्रभुजी के पांच कल्याणको की व्याख्या के अनुसार ही उपरोक्त मूलपाठकी तीन गाथाओं में कहे मुजब सबी (१४) तीर्थकर महाराजों के पांच पांच कल्याणकों संबंधी भिन्न भिन्न तिथि माम नक्षत्र पूर्वक खुलासा व्याख्या समझ लेगो सो उपर सूत्र के मूलपाठका भावार्थ में सबो तीर्थंकर महाराजों के नाम कल्याणक नक्षत्र पूर्वक लिखेगये है इस लिये यहां दूसरी वेर नही लिखते है परन्तु चौदहवें सूत्र में इतना विशेष है कि श्री वीरप्रभुके पांच कल्याणक हस्ते त्तरा नक्षत्रमें कहे हैं सो हस्तके उपलक्षित, याने उत्तरा फाल्गुनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ४१३ ] नक्षत्रके हस्त नक्षत्र उपलक्षित नजीक समीपमें है इसलिये हस्तोत्तरा अथवा हस्त नक्षत्र उत्तर में है जिसके एसा हस्तो. तरा सो उतराफाल्गुनी नक्षत्र समझना सो च्यवन गर्भाप.. हारादि श्रीवीरप्रभुके पांचोंकल्याणकों में हस्तोत्तरा उतराफाल्गुनी न क्षआयाहै और छठा मोक्ष कल्याणक स्वाति नक्षत्र में कार्तिक अमावस्या को हुआ है। उपरोक्त पाठमें चौदह (१४ ) तीर्थंकर महाराजोंके पांच पांच कल्याणकों की व्याख्या करते श्रीअभयदेव सूरिजी महाराजने श्रीतीर्थंकर महाराजों के पूर्व भवका देव लोकस्थान, आयुस्थिति, तथा च्यवनादि कल्याणकोंके मास तिथि नक्षत्र और नगरीस्थान मातापिताके नामादि विस्तार पूर्वक खुलासा करके दिखाया है, तैसेही श्रीमहावीरस्वामीके पांचों कल्याणकोंकी खुलासा पर्वक व्याख्याके साथ छठा मोक्ष कल्याणक भी कार्तिक अमावस्याको स्वातिनक्षत्र में होने का खुलासा लिख दिया है, और कल्याणक, तथा 'स्थान, यह दोनों शब्द पर्यायवाची एकार्थके सूचक है इसका विशेष निर्णय शास्त्रों के प्रमाण पूर्वक तथा युक्तिसहित आगे कर. नेमें आवेगा। और भी श्रीसीमंदर स्वामिजी भगवान्ने भी खास श्रीमहावीर प्रभुके केवल ज्ञान पर्यंत पांच कल्याणक हस्तोत्तरामें तथा छठा मोक्ष कल्याणक स्वाति नक्षत्र में खुलासा पूर्वक कहा है जिसका पाठ भी तो छपा हुआ श्रीआचारांगणी सत्रकी चूलिका में प्रसिद्ध है सो श्रीकल्पसूत्रका मूलपाठ ऊपरमें छपा है उसीतरहका श्रीसीमंधर स्वामिजी का भी कथन करा हुआ पाठ समझ लेना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७४ ] अब इस जगह श्रीजिनाज्ञाके इच्छक सत्यबातको ग्रहण करनेवाले निष्पक्षपाती सज्जन पुरुषों को न्याय पूर्वक विवेक बुद्धिसे विचार करना चाहिये कि उपरोक्त शास्त्रों के पाठों मुजब श्रीऋषभदेवस्वामि आदि तीर्थकर महाराज तथा वर्तमान काले विद्यमान श्रीसीमंधरस्वामिजी महाराज और गणधर महाराज श्रीमुधर्मस्वामिजी तथा चौदह पूर्वधर श्रीभ. द्रबाहुस्वामिजी आदि पूर्वधर महाराज और श्रीवडगच्छ, श्रीचन्द्रगच्छ,श्रीखरतरगच्छ श्रीतपगच्छादिसबीगच्छों के विद्वान् पुरुषोंने अनेक शास्त्रों में श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों की खुलासा पूर्वक व्याख्या करी हैं सोतो उपरोक्त शास्त्रोंके प्रमाणोंसे प्रगट दिखती है तथापि बड़ेही अफसोसकी बात है कि विद्यासागर जैनश्वेतांबर धर्मोपदेष्टाकी उपाधि धारण करने वाले न्यायरत्नजी श्रीशांतिविजयजी तथा और भी वर्तमानिक गच्छकदाग्रही विद्वान् नाम धराते भी श्रीवीर प्रभुके छ कल्याणकोंका निषेध करते हैं सोतो पंचांगी के अनेक शास्त्रों के पाठों को प्रत्यक्षपने उत्थापन करके गच्छ कदाग्रही दूष्टिरागी तथा विवेक शून्यहोकर अंध परंपरामें चलनेवाले बालजीवोंकी श्रीतीर्थंकर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंकी कही हुई छ कल्याणकोंकी सत्य शत परसे श्रद्धा भष्ट करनेका कारण करते हुए उपरोक्त महाराजोंकी आजा उत्पापनरूप उत्सत्रभाषणसे कितना संसार बढ़ावेंगे सोतो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने। और अनेकशास्त्रों में खलासा पूर्वक छ कल्याणक लिखे हैं तिसपर भी उसीका न्यायरत्नजी निषेध करते हैं सोनी कलयुगी विद्वत्ताका नमूना मालूम होता है सोविवेकी पाठक गा स्वयं विचार लेवेगें:Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७५ ] और फिर न्यायरत्नजीने छ कल्याणकांका निषेध करके पांच कल्याणकोंको स्थापन करने के लिये श्री हरिभद्रसरिजी कृत श्रीपंचाशकजी सूत्रके मूल पाठका तथा श्रीखरतरगच्छ नायक सुप्रसिद्ध श्री अभयदेव सरिजी कृत तद्वतिके पाठका पूर्वापरके संबंध वाला सविस्तार युक्त सब पाठको छोड़ करके दोनों शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्रायके विरुद्धार्थमैं तथा पूर्वापरके संबंध रहित बिचमें का अधरा पाठ लिखकर बाल जीवो कोदिखाके अभिनिवेशिक मिथ्यात्ववाली अपनीविद्वत्ता की चातुराईसे मुग्धजीवों को भममें गेरे है, और शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमें बिना सबंधका अधरा पाठ मोलेजीवों को दिखानेसै उत्सूत्रभाषणरूप मिथ्यात्वका कारण किया है उसीका निवारण करनेके लिये दोनों शास्त्रकार महाराजों के अभिप्राय सहित पूर्वापरके सबंधवाले सब पाठोंको इस जगह दिखाता हूं सो श्रीहरिभद्रसूरिजीकृत उपरोक्त श्रीपंचाशकजी सूत्र में तीर्थ यात्राधिकार संबंधीपृष्ठ १३५११३६ का पाठ नीचे मुजन है. यथा पंच महाकल्लाणा सव्वेसिं जिणाणं होंति णियमेण । भवणच्छेरय भूया, कल्लाण फलाय जीवाणं ॥३०॥ गझसे जम्मेय तहा णिक्व मणेचेव णाण णिवाणे। भवण गुरूण जिणाणं, कल्लाणा होति णायवा ॥३१॥ तेसुय दिसधरणा देविंदाइ करिति भ त्तिणया जिण जत्ताइ विहाणा कल्लाणं अप्पणो चेव।३२॥ इयते दिणा पसत्या तासैसेहिंपितेसु कायक्वं। जिण जत्ताइ सहरिसं तेय इमेण वद्धमाणस्स ॥३३॥ आसाढसुद्धछट्ठीचेत्तेतहसु द्धतेरसी चेव । मगसिर किणह दशमी वसाहे सुद्धदसमीय ॥३४॥ কমিক্ষি অৰিল মান্থলি সম্ভাবনা Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१६ ] चउरो तह सातिणा चरिमो ॥ ३५ ॥ अहिगय तित्थ विहाया भवंति णिदंसिया इमे तस्स । सेसाणवि एवंबिय णियणिय ति त्थेषु विण्णेया ॥३६॥ तित्थगरे बहुमाणे अभ्मासो तहय जीय क पस्स । देविं दाइ अणुगिती गंभीर परूवणालोए ॥३१॥ व गणोय पवयणस्स इयजत्ताएजिलाण जियमेण । मग्गाणुसारि भावो जायइ एत्तोच्चय विसुद्धो ॥ ३८ ॥ अब श्री अभयदेव मूरिजी कृत उपरोक्त सूत्रकी वृत्तिका पाठ दिखाता हूं सो पृष्ठ १३५ से १३६ तक का पाठ नीचे मुजव है, यथा, - निज समये स्वकीयावसरे रूढिगम्ये अनुरूपम् औचित्येन कर्तव्या विधेयाः कदेत्याह जिनानामर्हतां कल्याण दिवसेषु, पंच महाकल्याणी प्रतिवद्ध दिनेष्वपीति ॥ कल्याणान्येव स्वरूपतः फलत चाह, पंच गाहा, गम्भेगाहा, व्याख्या पंचेति पंचैव महा कल्याणानि परमश्रेयांसि सर्वेषां सकल कालनिखिल नर लोक भाविनां जिनानामर्हतां भवंति नियमे - नावश्यं भावेन, तथा वस्तु स्वभावत्वात् भुवनाश्चर्य भूतानि निखिल भुवनाद्भत भूतानि त्रिभुवनजनानंद हेतुत्वात्, तथा कल्याणफलानि च निश्रेयस साधनानि च समुच्चये, जीवानांप्राणिनामिति, गर्भे, गर्भाधाने, जन्म, उत्पत्तौ च शब्दः समुचये, तथेति वाक्योपक्षपे निष्क्रमणे अगारवासान्निर्गमे, चेवेति समुच्चयावधारणार्थावुत्तरत्र सम्भत्स्येते ज्ञान निर्वाणे समाहारद्वंद्वत्वात् केवलज्ञान निर्वृत्योरेवच, केषां गर्भादिष्वीत्याह, भुवनगुरुणां जगज्ज्येष्ठानां जिनानामईतां किमित्याह, कल्याणानि स्वनिःश्रेयांसि भवन्ति वर्त्तन्ते ज्ञातव्याति यानीति गाथाद्वयार्थः । ३० ३१ । ततश्चतेसु गाहा, , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - · Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७७ ] , व्याख्या- तेसुयत्ति तेषुच, तेषुपुनर्दिनेषु दिवसेषु येषु गर्भादयो बभूवुर्धन्या, धर्मधनलकधारः पुण्यभाज इत्यर्थः । देवेन्द्रादयः सुराः सुरेन्द्र प्रभृतयः कुर्वेति विदद्धति भक्तिमतो बहुमाननम्राः किमित्याह, जिनयात्राद्यर्हदुत्सवपूजा स्नात्र प्रभृतीनि कुत इत्याह विधानाद्विधिना वा जिनयात्रादि विधानानि किं भूतानि जिनयात्रादीनीत्याह, कल्याणं स्वश्रेयस ं कस्येत्याह, आत्मनः स्वस्य चैव शब्दस्य समुच्चयार्थत्वेन परेषां चेति गाथार्थः । ३२ । यत एवं इयंग (हा, व्याख्या- इत्यतो हेतोः पूर्वोक्तजीवानां कल्याण फलत्वादि लक्षणात्तेयइति येषुजिन गर्भाधानादयो भत्रन्ति, दिना दिवसाः दिनशब्दः पुल्लि ंगोस्ति प्रशस्तः श्रेयांस्ततः किमित्याह, ता इति यस्मादेवं तस्मात् शेषैरपि देवेन्द्रादि व्यतिरिक्तैर्मनुष्यैरपि न केवलमिन्द्रादिभिरेवेत्यपि शब्दार्थः, तेषु गर्भादि कल्याणक दिनेषु कर्त्तव्यं विधेयं जिनयात्रादि वीतरागोत्सव पूजाप्रभृतिकं वस्तु सहर्षं सप्रमोदं यथा भवति, कानि च तानि दिनानीत्यस्यां जिज्ञासायां, सर्वजिन सम्बन्धिनां तेषां वक्तु मशक्यत्वाद्वर्त्तमान तीर्थाधिपतित्वेन प्रत्यासन्नत्वादेकस्यैव महावीरस्य तानि विवक्षुराह, तेयत्ति तानि पुनर्गर्भादि दिनानिइमान, इमानिवक्षमाणानि वर्द्धमानस्य महावीर जिनस्य भवन्तीति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ तान्येवाह, आसाढ़ गाहा, कत्तिय गाहा, व्याख्या - आषाढ़ शुद्धषष्ठी आषाढ़ मासे शुक्लपक्ष स्यषष्ठी तिथिरित्येकं दिनमेवचैत्रैमासे तथेति समुच्चये, शुद्ध त्रयोदश्यामेवेति द्वितीयं चैवेत्यऽवधारणे, तथा मार्गशीर्ष कृष्ण दशमीति तृतीयं वैशाखशुद्वदशमीति चतुर्थं च शब्दः समुचयार्थः, कार्त्तिक कृष्णेचरमापंचदशीति पंचमं एतानि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat , www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१८ ] किमित्याह गर्भादि दिनानि । गर्भ, जन्म, निष्क्रमण, ज्ञान, निर्वाण दिवसा, यथाक्रमं क्रमेणैवेतान्यन्तरोक्ता न्येषांचमध्ये हस्तोत्तर योगेन हस्त उत्तरोयासां हस्तोप लक्षिता वा उत्तरा हस्तोत्तर उत्तर फाल्गुन्यः ताभिर्योगः सम्बन्धश्चेति इस्तोत्तरा योगस्तेन करणभुतेन चत्वार्याद्यानि दिनानि भवंति, तथेति समुच्चये, स्वातिना स्वाति नक्षत्रेण युक्तश्चरमोत्त चरम कल्याणक दिनमिति प्राकृतत्वादिति गाथाद्वयार्थः ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ अथ किमिति महावीरस्यैवैतानि दर्शितानी त्यन्नाह, अहिगय गाहा, व्याख्या - अधिकृत तीर्थ विधाता वर्द्धमान प्रवचन कर्ता भगवान्महावीर इति हेतो र्निदर्शिता न्युक्तानि इमानि कल्याणक दिनानि तस्यवर्द्धमान जिनस्य, अथ शेषाणांतान्यतिदिशन्नाह, शेषाणामपि वर्द्ध मानस्यैवऋषभादीनामपि वर्तमानावसर्पिणी भरत क्षेत्रापेक्षया एवमेवेह तीर्थे वटु मानस्यैव निज निज तीर्थेष स्वकीय स्वकीय प्रवचना वसरेषु विज्ञेयानि ज्ञातव्यानि मुख्यवृत्या विधेयतयेति, इह च यान्येव गर्भादि दिनानि जिनानां तान्येव सर्व जम्बूद्वीप भारतानामृषभादिजिनानां ताभ्येव सर्व भारतानां सर्वैरावतानांच यान्येवच एतेषामस्यामपसर्पिण्याम् तान्येवच व्यत्ययेनोत्सर्पिण्यामपीति गाथार्थः । । ३६ ॥ अथ किमेवं कल्याणकेष जिनयात्राविधीयते, इत्याह, तित्थ गाहा, वर गोय गाहा, व्याख्या - तीर्थकरे जिनविषये बहुमानं पक्षपातस्तदिदं दिनं यत्र भगवान् अजनीत्यादिविकल्पतः कृतोभवतीति, सर्वत्र गम्य इति यात्रये इत्यनेन योगः, तथेति वाक्पोपक्ष पार्थोऽत्रद्रष्टव्य अभ्यासोभ्यसनं चशब्दः समुच्चये, गीतकल्पस्य पूर्व पुरुषाच रेत्रलक्षणा वारस्य, तथा देवेन्द्रा ૧ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ ] द्यनुकृति देवाधिप देवदानवविभव प्रअत्याचारानुकरणं, तथा गंभीर प्ररूपणा, गंभीरंसाभिप्रायमिदं यात्राविधान तथा विध मित्यस्यार्थस्य प्ररूपणा प्रकासना गंभीर प्ररूपणा कृता भवतीति तथा लोकेजनमध्य वर्णःप्रसिद्विर्जायत इतियोगः,शब्दः समुच्चये कस्य प्रवचनस्य जिनशासनस्य दीर्घत्वं प्राकृतत्वादिति यात्रया अनंतरोक्त विधानोत्सवेन क्रियमाणयेति गम्यं, केषां जिनानां वीतरागाणां नियमेन नियोगेन एत्तोच्चियत्ति यतएव कल्याणक यात्राया तीर्थकर बहुमानादिकं कृतं भवत्यत एव हेतोः मार्गानुसारिभावो मोक्षपथानुकुलाध्यवसाय आगमानुसारी वा जायते भवत्य सन् किंभूतो विशुद्धोग्नवद्यः सत्वाविसुद्धोऽसौ जायते विशद्धपतीत्यर्थः । इति गाथा द्वयार्थः ॥३७ ॥३॥ उपरके दोनों पाठों का संक्षिप्त भावार्थ कहते हैं किसब १५ कर्मभभी मनुष्य क्षेत्र में सर्व काल में होनेवाले सर्व श्रीतीर्थकर महाराजों के परम मंगलकारी पांच पांच महाकल्याणक होते हैं सो अनादि कालसे श्रीतीर्थकर महाराजोंके पांच पांच वस्तु, याने-कल्याणक होने का स्वभाव होनेसे नियम करके अवश्य होते हैं सो सर्व भुवने, याने-१४ राज लोकमें सबको अदभुत आश्चर्य उत्पन्न करने वाले तथा तीन जगतके सर्वजीवोंको सुखरूप आनंद उत्प न कारक होनेसे विशेष श्रेयके साधनरूप कल्याण फटके देनेवाले हैं सो तीन भुवनके गुरु जगत् पज्य श्रीजिनेश्वर भगवान् तीर्थंकर महाराजोंके च्यवन, जन्म, दीक्षा, ज्ञानो त्पत्ति, और निर्वाण इस तरह से पांच पांच कल्याणक होते हैं सो अपने आराधन करनेवाले जनोंको श्रेय कारीहै ऐसा जानना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८० ] और अपनी. आत्माको पुण्यके भंडाररूप धन्य माननेवाले तथा धर्मरूप धनको प्राप्त करनेवाले और भक्तिवत बहुमान पूर्वक नम्रहुएहै शरीर जिन्हों के ऐमै देवता मनुष्य और इंद्रादिकोंके जैसे पढते भावहोवे वैसे हर्ष सहित विधिप. वंक श्रीजिनेश्वर भगवानों के च्यवनादि होनेवाले पांचों कल्याणकोंके दिनों में जिन यात्रा सो श्रीवीतराग भगवान् का सत्सव तथा पजाआदि कार्य अपनी तथा दूसरोंकीआत्मा कल्या के लिये करते हैं उन्हीकल्याणकों के दिनोंको जाननेकी इच्छा वालोंके लिये सबी श्रीजिनेश्वर महाराजों के पांच पांच कल्याणकोंके दिनोंको यहां दिखानेको महान कार्य करने में तो अन्धकार समर्थ नहीं होनेसे उसीका नमनारूप वर्तमान शासनके नायक तथा नजीक उपगारी तीर्थकर होनेसे इन्हीं एक श्रीवर्द्धमान स्वामीजीके पांच कलयाणकोंके दिनों को दिखातेहै यथा-प्रथम आषाढ शुदी ६ को च्यवन, दूसरा चैत्रशुदी १३ को जन्म, तीसरा मार्गशीर्ष वदी १० को दीक्षा, चौथा वैशाखशदी १३ को केवड, और पांचमा कार्तिक अमावश्याको मोक्ष सो इसही तरहके श्रीमहावीर स्वामीके पांच कल्याणकों के मुजबही दर्तमान अवसर्पिणी की अपेक्षासे श्रीऋषभदेव स्वामि आदि २३ श्रीतीर्थ कर महाराजों के भी पांच पांच कल्याणक समझलेना सो मुख्य वृत्ति करके एक तीर्थकर महाराजके च्यवनादि पांच कल्या. णक दिखाये, उसी मुजबही पांचों भरतक्षेम तथा पांचों ऐरा वर्त क्षेत्रोंमें और पांचों महाविदेह क्षेत्रोंमें सर्व तीर्थंकर महाराजों के निज निज तीर्थ, याने अपने अपने शासनमें पांच पांच कल्याणक समझलेना औरऐसाही उत्सर्पिनिमें अवसShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८१ ] र्पिणी में होनेवाले सबी तीर्थंकर महाराजोके पांच पांच कल्याणक समझ लेने और उन्हीं कल्याणकोंके दिनोंमें विशेष करके तीर्थयात्रा करनी उसीमें जिन दिने भगवान् के जन्मादि कल्याणक हुए होवे उसीकी भावमासै अनुराग पूर्वक निजको हितकारी होनेसे वारंवार स्तुति वगैरह करना सो इन्द्रादिकों की तरह आत्मार्थियों का मुख्य कर्तव्य है और उसी यात्रा बिधानका उपदेश करना तथा पूर्वोक्त कल्याकोंको यात्रामें श्रीतीर्थ कर महाराजोंकी भक्ति करनेसे मोक्ष प्राप्तिका कारण रूप सम्यक्त्व निर्मल होता है। अब इस जगह नयगर्भित जैन शास्त्रोंके तात्पर्यार्थको जानने वाले तत्वज्ञ पुरुषों को न्याय पर्वक विवेक बुद्धिसे विचार करना चाहिये कि सबी कर्मभूमी १५ मनुष्य क्षेत्रों में सब कालके सबी तीर्थंकर महाराजों के पांच पांच कल्याणकोंके दिनोंकी अपेक्षा संबंधी व्यवहारनय करके श्रीमहावीर स्वामीके पांच कल्याणक दिखाकरके उसी मजब ही व्यवहार नयसै सबी तीर्थंकरों के पांच पांच कल्याणकोंको समझ लेनेकी ऊपरके पाठमें सूचना दी है इसलिये सबो तीर्थ कर महाराजो के पांच पांच कल्याणकों के बहुत अपेक्षा संबन्धी व्यवहारनयके आगे पीछेके सब पाठको छोड़ करके शास्त्रकार महाराजों के अभिप्रायके विरुद्धार्थमैं पर्वापरके सम्बन्ध बिनाके अधूरे पाठसे बाल जीवीको श्रीमहावीर स्वामीके पांच कल्याणक दिखा करके निश्चयनयके छ कल्याणकांका निषेध किया सो कदापि नहीं हो सकता है तथापि न्यायरत्नजीने किया सो अज्ञानता या अभिनिवेशिक मिथ्यात्वताका कारण मालूम होता है क्योंकि श्रीजैन शास्त्रो में बहुत अपेक्षा संबंधी व्यवहार नयकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८२ ] बातें लिखनेके समय उसीमें निश्चय नय करके अल्प बातकी भिन्नता होवे उसीको नहीं लिखते हैं इसलिये बहुत अपेक्षा संबंधी व्यवहार नयकी बातको पकड़ करके कदाग्रहसे अन्य शास्त्रोम अल्प सिन्नता वाली निश्चय नयकी बातको खुलासे लिखी होते भी उसीका निषेध करनेसे उत्सूत्र भाषणरूप मिथ्यात्वके दूषणकी प्राप्ति होती है, जैसे कि नीतीर्थंकर भगवानकी माता प्रथम स्वप्नमें हस्थी देखे १,पुरुष तीर्थंकर होवे २, श्रीतीर्थंकर महाराजका ९ मास और ॥ दिने जन्म होवे ३, मनुष्य गतिसे फिर मनुष्य होकर चक्रवर्ती नहीं होवे ४, तथा चक्रवर्तीसे तीर्थंकर के सिवाय अधिक बल अन्य मनुष्यमै नहीं होवे ५, दीक्षा समय तीर्थंकर महाराज पांच मुष्ठी लोच करे ६,पांच सौ धनुष्यके शरीरवाले दोमुनिओंसे अधिक १ समयमें मोक्ष नहीं जावे , श्रीतीर्थकर महाराजके केवल ज्ञानकी प्राप्तिके समय प्रथम देशनाम चतुर्विध संघकी स्थापना होवे ८, तथा सुमेरु कदापि चलायमान नहीं होवे , और पर्याप्ता अपर्याप्ता एकेन्द्रिय जीव मिथ्यात्वी होवे १० इत्यादि अनेक बातें बहुत अपेक्षा संबंधी व्यवहार नयसे शास्त्रकारों ने लिखी हैं परन्तु श्रीमहावीर स्वामीकी माताने प्रथम स्वप्नमें सिंहको देखा तथा श्रीआदिनाथस्वामिकी माताने प्रथम स्वप्ने उषाको देखा १, श्रीमल्लीनाथजी स्त्री पने तीर्थंकर हुए २, बारहवे भगवान्का ८ भास और २० दिने तपासातवें भगवान्का मास और १९ दिने जन्म हुआ ३,श्रीवीर प्रभुका जीव २२ वेसवे मनुष्य होकर फिर २३ वें भवे महाविदेह क्षेत्र मनुष्यपनमें चक्रवर्ति हुआ ४,श्रीबाहुबलनीमें भरत चक्रवर्तिसे अधिक बल हुआ ५, श्रीआदिनाथ स्वामिजीने दीक्षा समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८३ ] चार मुष्टी लोच किया ६, श्रीआदिनाथ स्वामी पांचसी धनुष्यके शरीर वाले १ समयमें १०८ मुनि मोंके साथ मोक्ष पधारे ७, श्रीवीर प्रभुकी दूसरी देशनामें संघस्थापना हुई ८, तथा जन्म समय श्रीमहावीर स्वामीने मेरुको कंपाया , और अपर्याप्तऐकेंद्रिय जीवों को श्रीकर्मग्रंथमें सम्यकत्वी कहें १० इत्यादि अनेक बातें अल्प अपेक्षा सं. बंधी भी निश्चय नय करके शास्त्रों में प्रगट पने देखने में आती हैं जिस पर भी कोई अज्ञानी कदाग्रहसे बहुत अपेज्ञा वाली व्यवहार नयकी बातो के पाठों को बाल जीवों के आगे दिखाकर अल्प अपेक्षा वाली निश्चय नयकी उपरोक्त बातों को निषेध करके भोले जीवों को भ्रममें गेरनेका उद्यम करे तो उसीको श्रीजिनाज्ञा भंगके दूषण की प्राप्ति अवश्यमेव होगी तैसेही श्रीतीर्थकर गणधर पूर्व धरादि महाराजों ने और सबीगच्छो के पर्वाचार्योंने अनेक शास्त्रों में श्रीवीरप्रभुके निश्चय नय करके छ कल्याणकोंको खुलासे कथन किये हैं सो प्रत्यक्ष दिखता है तो मी न्यायरत्नजी सबी तीर्थंकर महाराजो के पांच पांच कल्याणकोके बहुत अपेक्षा वाले व्यवहार नयके पाठसै निश्चय नयके श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों को निषेध करते हैं सो श्रीजिनाज्ञाके अंगका दूषणकी प्राप्ति के सिवाय और क्या लाभ संपादन करेंगे सो विवेकी पाठकगण स्वयं विचार सकते हैं,-- और ( अगर जैन शास्त्रो में छ कल्याणक होते तो नय अंग शास्त्रकी टीका करने वाले महाराज अभयदेवसूरिजी खुद पांच कल्याणक क्यों बयान करते) यह अक्षर भी न्याय रत्नजीके विद्यासागरादि विशषणों को लज्जाके कराने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८४ ] वाले प्रत्यक्ष अज्ञानताके सचक हैं क्योंकि श्रीअभयदेवसूरिजी ( इन्हीं) महाराजने श्रीस्थानांगजी सूत्रकी वृत्तिम तथा और भी अनेक महाराजोंने श्रीमहावीर स्वामीके छ कल्याणकोंको खुलासे लिखे हैं तो तो मैने उपरमें ही अनेक शास्त्रोंके प्रमाण लिख दिखाये हैं और पांच कल्याणकोंका कारण भी उपरमें लिख दिखाया है इस लिये छ कल्याणक निषेध नहीं हो सकते हैं और श्रीपंचाशकजीके सूत्र तथा वृत्तिमें श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक लिखनेसे सबी तीर्थंकर महाराजो के छ छ कल्याणक ठहर जावे सो तो होते नहीं इस लिये वहां छ कल्याणक न लिखते बहुत अपेक्षासे पांच ही लिखे सो सबी तीर्थंकर महाराजोंके होते हैं इसलिये व्यवहार नयके उपरके पाठसे अनेक शास्त्रोंके प्रमाण युक्त निश्चय नय वाले छ कल्याणक निषेध नहीं हो सकते हैं और न्यायरत्नजीको शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में उत्सत्र भाषण रूप प्ररूपणा करनेसे संसार वृद्धिका भय लगता होवे तथा शास्त्रकार महाराजोंके वचनोंपर श्रद्धा रखने वाले सम्यक्त्व धारी होवे तब तो सबी तीर्थंकर महाराजोंके संबंध वाले व्यवहार नयके पूर्वापरके सब पाठको छोड़ करके गच्छ कदाग्रहके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे मध्यका अधरा पाठ लिखके भोले जीवोंको भ्रमानेका कारण किया तथा अनेक शास्त्रों में खुलासे छ कल्याणक लिखे हैं जिसपर से बाल जीवों की श्रद्धा भ्रष्ट करनेका उद्यम किया जिसका मिच्छामि दुक्कडं देना चाहिये। ___और इन्हीं श्रीपंचाशकजी सत्रकी वृत्तिमें श्रीअभय देवसरिजी महाराजने तथा चर्णिमें श्रीयशोदेवसरिजी म. हाराजने सामायिकाधिकार प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५ ] खुलासे लिखी है जिसको तो मंजूर न करते हुए इन्हीं महाराजके विरुद्धार्थ में इन बातका निषेध करके मुग्ध जीवोंको अपने गच्छ कदाग्रहकी भ्रमजाल में फसानेका उद्यम करते हैं और इन्हीं महाराजके अभिप्राय विरुद्ध कल्याणकाधिकारे अधरा पाठ लिखके फिर इन्हीं महाराजके वचनोंको सत्य मानने वाले बनते हैं सो भी न्याय रत्नजीकी कलयुगी विद्यासागरादि विशेषणों की अपूर्व विद्वत्ताकी चतुराईका नमूना मालूम होता है सो विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे,-- और ( खरतर गच्छवालोंको पूछना चाहिये गर्भापहारको अगर कल्याणिक मानते हो तो अच्छेरा किसको मानते हो दश अच्छेरेमें गर्भापहारको एक तरहका अच्छेरा कहा फिर कल्याणक कैसे हो सकता है) न्याय रत्नजीके इस लेख पर भी मेरेको इतना ही कहना है कि जैसे श्री आदिनाथ स्वामी १०८ मुनिओं के साथ मोक्ष पधारें उसीको अच्छेरा कहते हैं और उसीकोही मोक्ष कल्याणक भी मानते है तथा श्रीमल्लीनाथ स्वामीके स्त्रीत्व पने में उत्पन्न होने को अच्छेरा कहते हैं और स्त्रीत्वपने में ही जन्म दीक्षादि कार्य हुए उन्होंको स्त्रीत्वपने सहित तीर्थकरके कल्याणकभी मानते हैं तैसे ही श्रीमहावीर स्वामोके गर्भापहारको अछेरा कहते हैं और उसी गर्मापहारसे त्रिशला माताकी कूक्षिमें अवतार लेनेको दूसरा च्यवनरूप कल्याणक भी मानते हैं सो खरतर गच्छवालोंका कल्याणक मानना श्रीस्थानांगजी श्रीसमवायांगजी श्रीआचारांगजी और श्रीकल्पसूत्रादि पंचांगीके अनेक शास्त्रानुसार और युक्ति सहित होनेसे उसीका निषेध कदापि नहीं हो सकता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८६ ] तथापि आपने किया सो उत्सना भाषण से संसार वृद्धिका हेतु भूत मिथ्यात्वका कारण है और आप जैसे तपगच्छवालोंसे इस अवसर पर हम भी पूछते हैं कि श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोने श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक खुलासे कहे है तिसपर भी आप लोग निषेध करनेके लिये शास्त्रों के उलटे अर्थ करके उत्सूत्र भाषणोंसे बाल जोवोंका मिथ्यात्व के भ्रम में गेरनेका कार्य्य करते हो और नय गर्भित श्रीजैन शास्त्रोंके तात्पर्यार्थको गुरुगम्यसे बिना समझे गच्छ कदाग्रहकी विद्वताके अभिमानस श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजों के विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषण के फल विपाकसे संसार में परिभ्रमण का किंचित् मात्र भी हृदयमें भय छाते नहीं हो जिसका .. कारण है सो प्रगट करना चाहिये, · और श्री महावीर स्वामीके अच्छेरेको कल्याणकत्व - पनेसे निषेध करते हो तो श्रीआदिनाथ स्वामीके तथा श्री मल्लीनाथ स्वामीके अच्छेरों को भी कल्याणकत्वपनेसे आपको निषेध करना चाहिये सो तो करते नहीं हो और उन अच्छरोको कल्याणकत्वपने में मानते हो फिर श्रीमहा-वीरस्वामीके अच्छेरेको कल्याणकत्वपने से निषेध करते हो सो तो प्रत्यक्षपने गच्छ कदाग्रह के अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से भोले जीवोंको भ्रमानेका कारण हो मालूम होता है इस बातको विवेकी पाठक गण स्वयं विचार लेवेगे । और न्याय रत्नजी श्रीशांति विजयजीको धर्म्मबन्धुकी प्रीति से मेरा तो यही कहना है कि आप निज गच्छके हठवादसळे अनेक शास्त्रों के प्रमाण युक्त श्रीवीरमभुके छ कल्याणकों की सत्य बातका निषेध करनेके लिये शास्त्र विरुड प्ररूपणाका परिश्रम करके कुयुक्तियों के विकल्पों से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ yes ] अपने विद्यासागर न्यायरत्नादि विशेषणों को लज्जनीय करनेका कारण न करते यदि आप जिनाज्ञा प्रतिपालनके अभिलाषी, आत्मार्थी, विवेकी, तत्त्वज्ञ, भवभीरू हो तो आपके लेखकी मेरी लिखी हुई उपरकी समीक्षाके लेखकों परम हितकारी समझ के आपने श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणको का निषेध किया जिसका प्रगटपने श्रीसंघ समक्ष या जैन पत्र में मिथ्यादुष्कृत दे करके उपरको छ कल्याणकोंकी सत्य बात को अंगीकार करोंगे और अन्य भव्यजनों को भी कराओगे वोही श्रीमद्भगवत् आशा के आराधनका कारण होनेसे निजपरके आत्म हितका कारण तथा आपके विशेषणों की सफलता है नतु सत्य बातका निषेध करने के लिये गच्छ पक्ष के पण्डितानिमानस उत्सूत्र प्ररूपणा में आगे इच्छा आपकी ॥ इति श्रीशांति विजयाख्यन्यायरत्नोपाधिधारकस्य कल्याणक संबन्धिनोलेख समीक्षा समाप्ता जाता ॥ और अब श्रीतपगच्छके सबकोई मुनिमण्डल वगैरह प्राय करके श्रीपर्युषण पर्वके धर्म ध्यान के दिनों में श्रीकल्व सूत्र के व्याख्यानाधिकारे श्रीविनयविजयजी कत सुखबोधिका वृत्तिको बांचते हैं उसीमें छ कल्याणककोंका निषेध सम्बंधी वृत्तिकारने निज तथा परको दुःखका कारण उत्सूत्र भाषण रूप जो व्याख्याकरी हे उसीको वर्तमानकाले गच्छ कदाग्रही लोग हर वर्षे बांचकर आपस में खंडन मंडनका झगड़ा पर्युषणामें ले कर बैठते हैं तथा गच्छ कदाग्रहके कुसंपको बढ़ाकर के उत्सूत्र भाषणोंसे निज परको संसार वृद्धिका तथा दुर्लभ बोधीका कारण करते हैं उसीका निवारण करनेके लिये और सत्यग्राही आत्मार्थी पुरुषोंके आगे श्रीजिना - जाकी शास्त्रानुसार सत्य बातका प्रकाश करने के लिये श्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] विनय विजयजी कृत सुखबोधिकावृत्तिके छ कल्याणक का निषेध सम्वन्धी लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं-सो प्रथम तो उनका पाठ नीचे सुजब है यथा- [अथ षट् कल्याणक वादीआह ननु " पंच हत्थुत्तरे साइणा परिनिवु हे” इति बचनेन महाबीरस्य षट्कल्याणकत्वं संपन्न मेव, मैवं एवं उच्यमाने "उसभेणं अरहा कोसलिए पंचउत्तरासाढ़े अभिइ उठे होत्यत्ति" जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति बचनात् श्री ऋषभस्यापि षट्कल्याणकानि वक्तव्यानिस्युः नच तानि त्वयापि तथोच्यते तस्माद्यथा 'पंच उत्तरासाढे' इत्यत्र नक्षत्र साम्यात् राज्याभिषेको मध्ये गणितः परं कल्याणकानि तु अभिइ छठे इत्यनेन सहपचैव, तथात्रापि 'पंचहत्युत्तरे' इत्यत्र नक्षत्र साम्यात् गर्भापहारी मध्ये गणितः परं कल्याणकानितु "साइणा परिणिहुड़े" इत्यनेन सह पंचैव, तथा श्रीआचारांग टीका प्रभृतिषु पंचहत्युत्तरे इत्यत्र पंच वस्तुन्येव व्याख्यातानि नतु कल्याणकानि । किंच श्रीहरिभद्रसूरि कृत यात्रा पंचाशकस्य श्री अभय देवसरिकतायां टीकायामपि 'आषाढशुद्ध षष्टयां गर्भसंक्रमः १ चैत्र शुद्ध त्रयोदश्यां जन्म २ मार्गशीर्षशितदशम्यां दीक्षा ३ वैशाख शुद्धदशम्यां केवल ४ कर्तिकामावस्यां मोक्षः ५, एवं श्रोवीरस्य पंच कल्याणकानि उकतानि, अथ यदिषष्टः स्यात्तदा तस्यापि दिनं उक्तं स्यात अन्यच्च नीचैर्गोत्र विपाकरूपस्य अतिनिंद्यस्य आश्चर्यरूपस्य गर्भापहारस्यापि कल्याणकत्व कथमं अनुचितं । अथ पंच हत्थुत्तरे इत्यत्र गर्भीपहरणं कथं चक्रं इतिचेत्सत्यं अत्रहि भगवान् देवानन्दा कुक्षौ अवतीर्णः प्रस्तवती चत्रिशलेति असंगतिः स्यात्तन्निवारणाय पंच इत्युत्तरेति वचनं इत्यलं प्रस ंगेन । ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ Ye ] उपरके लेखकी समीक्षा करके पाठक वर्गको दिखाता हूं कि-हे सज्जन पुरुषों उपरके लेखको देख कर मेरेको बड़े ही खेदके साथ लिखना पड़ता है कि-उपरके लेखम श्रीविनयविजयजीने अपने संसार सद्धिका हृदयमें कुछ भी भय न करके कुयुक्तियों के विकल्पोंसे उत्सूत्रभाषणोंका संग्रह करके भोले जीवों को भी संसार यद्धिका हेतुभूत हरवर्षे श्रीपर्युषणापर्वमें बांधने के लिये दुर्लभबोधिका कारण रूप महान् अनर्ष कारक माढ मिथ्यात्वका कारण कियाहैबोंकि उपर के लेखकी आदिम ही "अध षट् कल्याणक वादी आह इन अक्षरों करके श्रीमहावीर स्वामीके छ कल्याणको को माननेवाले श्रीखरतरगच्छवालों को शास्त्रविरुद्धवादी ठहरा कर उसीको निषेध करनेके लिये आप शास्त्रानुसार शुद्ध प्ररूपक प्रतिवादी बने सो निष्केवल उत्सूत्र भाषण है क्यों कि श्रीतीर्थंकर, गणधर, पूर्वघरादि, महाराणों ने खुलासा पर्वक छ कल्याणकोंका वर्णन किया है उसीके ही अनुसार श्रीखरतर गच्छवाले ( कल्याणक ) मानते हैं इस लिये उनको शाख विरुद्ध वादी ठहरा करके छ कल्याणकांका निबध करनेका श्रीविनयविजयजीने उद्यम किया हो तो श्रीतीर्थंकर मगधरादि महाराजो को ही शास्त्र विरुद्ध वादी ठहराने जैसा महान् अनर्थ कारक उत्सूत्र भाषण हो गया सो विवेकी पाठक गण स्वयं विचार लेवेंगे। ___और ननु शब्दसे प्रश्न उठाकर 'पंचहत्युतरे साइणा परिनिव्वुड़े इस श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठका वचन करके मोमहावीरस्वामीके गर्भापहार सहित पाँच कल्यामक हस्तोत्तरा नक्षत्र तथा छठा कल्याणक स्वाति नक्षत्र यह कल्याणक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] विनय विजयजीने सिद्ध किये और फिर उसीका निषेध करनेके लिखे 'उसभेणं अरहा कोसलीए पंच उत्तरासाढ़े अभीइ छठे होत्पत्ति' इस श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र के वचन से श्री आदिनाथ स्वामी के भी राज्याभिषेक सहित पांच कल्याणक उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में तथा अमोजित में छठा यह छ कल्याणक कहनेका दिखा करके फिर नक्षत्र सामान्यता से राज्याभिषेककी तरह गर्भापहारको भी नक्षत्र सामान्यतासे अन्दर गिननेका ठहराकर श्रीवीर प्रभुके छठे कल्याणकका अभाव सिद्ध किया हैं सो तो शास्त्रकार महाराजोंका अभिप्राय को समझे बिना भोले जीवों को गच्छ कदाग्रहमें फसाने के लिये उत्सूत्र भाषण रूप संसार वृद्धिका हेतु है क्योंकि प्रथमतो श्रीआदिनाथ स्वामीके राज्याभिषेकको कल्याणकत्व पने में कोई भी पूर्व - धरादि महाराजने मान्य करके किसीभी शास्त्र में नहीं लिखा है और श्रीमहावीर स्वामीके गर्भापहारको तो कल्याणकत्व पने में श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंने मान्य करके अनेक शास्त्रों में प्रगटपने कथन किया है इसलिये श्रीआदिनाथ स्वामीके राज्याभिषेक के पाठसे श्रोवीर प्रभुके छठे कल्याणकका निषेध कदापि नहीं हो सकता है तथा दूसरा यह कि श्री आदिनाथ स्वामीके राज्याभिषेक के मास, पक्ष, तिथिका नाम मात्रभी कोई शास्त्र में देखने में नहीं आता है इसलिये राज्याभिषेकको कल्याणकत्वपन में मास, पक्ष, तिथि पूर्वक आराधन भी नहीं हो सकता है परन्तु श्री चीरप्रमुके गर्भापहारके तो मास, पक्ष, तिथिका, नाम पूर्वक खुलासा अधिकार अनेक शास्त्रों में देखने में आता है इसलिये वर्मापहारको तो कल्याणकत्वपने में मास, पक्ष, तिथि, पूर्व क Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४ ] मारापन हो सकता है इसलिये भी राज्याभिषेकके बहाने गर्भापहारका छठा कल्याणक निषेध नहीं हो सकता है और तीसरा यह है कि-राज्याभिषेक तो श्रीअजितनाथ स्वामी आदि बहुत तीर्थ कर महाराजोंका हुआ है इसलिये जो राज्याभिषेकको कल्याणकत्वपना प्राप्त हो सकता तो शास्त्रकार महाराज लिखने में कदापि विलन्ब नहीं करते और गर्भापहारको तो श्रीसमवायांगजी सूत्र वृत्तिके अनुसार पूर्वभवों की गिनतीसे तथा त्रिशला माताने चौदह खप्न देखे और शास्त्रकारोंने भी स्वप्नोंके अर्थ तथा फल वगैरहका वहांहो वर्णन किया है तथा देवताओं नेऋद्धि समृद्धिकी भी वृद्धि करी इत्यादि कारणों से उसीको तौ दूसरा च्यवन रूप कल्याणकत्वपना प्रगटपने प्राप्त होता है इसलिये सर्व जगह शास्त्र कारोंने श्रीवीर प्रभुके गर्मापहार पूर्वक छ कल्याणकोंकी व्याख्या लिखने में किसी जगह भी प्रमाद नहीं किया है जिससे राज्याभिषेकके सहारे गर्मापहारको कल्याणकत्व पनेसे विनयविजयजीने निषेध किया सो अज्ञानतासे या अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे उत्सूत्र भाषणही मालूम होता है और चौथा यह है कि राज्याभिषेक तथा राज्य व्यवहार संसारिक कार्य होनेसे और उसीकी भावना भी संसारिक.कार्यो की होनेसे इसीको कल्याणकत्वपना प्राप्त नहीं हो सकता है परन्तु गर्भापहार तथा अनन्तबल्ली घरम तीर्थंकर मोक्ष सार्थवाहीका भी गर्भापहार व्यवहार अत्मार्थी भव्य जीवोंको कुलमद हटानेवाला और उसीकी भावना भी मिर्जराकी हेतु होनेसे उसीको तो प्रगटपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] पल्याणकरवपना प्राप्त हो सकताई तथापि विनयविजयजीने राज्याभिषेककी तरह नक्षाकी गिनतीके बहाने गर्मापहारके छठे कल्याणकको निषथ करनेका परिश्रम किया सो तो गच्छकदाग्रहके मिथ्यात्वको बढ़ाकर बालजीवको उसीके भ्रममें गेरनेके सिवाय और क्या लाभ उठाया होगा सोन्याय दृष्टिवाले विवेकी पाठकगण स्वयं विचार ठेवेंगे। और पांचवां यह है कि-श्री आदिनाथ स्वामीका तो युगलाधर्म निवारण रूप भारतमें प्रथम राज्याभिषेक उसी नक्षत्र में होनेसे तथा राज्यव्यवहारके प्रगङ्गसे नक्षत्रका नाम मात्रही गिनाया है और श्रीकल्प सूत्रके 'घउ उत्तरासाढ़े अभीह पंच, इस पाठसे श्रीआदिनाथ स्वामीके पांच कल्याणकों की व्याख्या भी प्रगटपने है तैसेही 'चर हत्युत्तरे साईणा पंचम' ऐसा पाठसे श्रीवीरमभुके चरित्राधिकारे पांच कल्याणकोंकी व्याख्या किसी भी शाखमें नहीं है किन्तु 'पंच हत्युत्तरे सारणा परि निब डे' इस तरहके पाठसे उ कल्याणक तो अनेक शास्त्रों में प्रगटपने कहे हैं इसलिये राज्याभिषेकके नक्षत्रका नाम ले करके श्रीवीरमभुके छ कल्याणकोंका निषेध विनयविजयजीने किया सोतो गच्छ ममत्वके भाग्रहका कारसके सिवाय और क्या होगा सो विवेकी सजन स्वयं विचार ठेवेंगे:-- और अब छठा यह है कि-श्रीस्थानांगली सूत्रमें जिन भगवानोंके जिस जिस एक नक्षत्र में पांच पांच कल्याणक हुए थे उन्ही भगवानों में श्रीपद्मप्रमुजी मादि १४ तीर्थंकर महाराजोंके नाम सथानक्षत्रपूर्वक पांचपांचकल्याणकोंकी गिनती दिखाई है वहां जैसे श्रीवीरप्रभुके गर्भापहारकी गिनती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४९३ ] सहित पांच कल्याणक हस्तोत्तरा नक्षत्र में कहे हैं वैसेही जी - श्री आदिनाथ स्वामीका राज्याभिषेक कल्याणकरब पने में होता तो श्रीस्थानांग जीसूत्रमें भी श्रीगणधर महाराजको राज्याभिषेक सहित श्रीमादिनाथ स्वामीके भी पांच कल्याणक उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें होनेका दिखाना पड़ता सो तो दिखाया नहीं है और गर्भापहारको तो खुलासापूर्वक दो वैर दिखाया है इसलिये भी राज्याभिषेकके पाठका तात्पयर्थको समझे बिना बालजीवोंके आगे राज्याभिषेकका पाठ दिखाकरके अनेक शास्त्रोंमें प्रगटपने गर्भापहारके कल्याणकको कथन किया होते भी उसीका निषेधकरना सो हठवादकी अज्ञानता के कारण उत्सूत्र भाषणके विपाक सो भवांतर में भोगे बिना नहीं छुट सकेंगे इसको भी मिष्पक्षपाती पाठकगण स्वयं विचार लेना और अब सातवी वैरमें तत्वाभिलाषी सत्यग्राही सज्जन पुरुषों से मेरा यही कहना है कि- विनय विजयजी ने (पंचरान्तरा साढ़े इत्यत्र नक्षत्र साम्यत् राज्याभिषेको मध्येगणितः परं कल्याणकानितु अभिइ छठे इत्यनेन सहपंचैव, तथात्रापि पंचहत्युत्तरे इत्यत्र नक्षत्र साम्यात् गर्भापहारो मध्येगणितः परं कल्याणका नितु साइणा परि निघुडे इत्यनेन सहपंचैव ) इन अक्षरोंको लिखके इसका मतलब ऐसे लाये हैं कि- 'पंचतत्तरा साढ़े इस शब्द से यहां नक्षत्र के सामान्यता से राज्याभिषेकको अन्दर गिना है परंतु 'अभिइ छठे' इस शब्दसे श्रीमदिनाथ स्वामीके कल्याणक तो पांचही कहने तैसेही 'पंचइत्युत्तरे' इस शब्द से यहां भी नक्षत्र सामान्यतासे गर्भापहार को अन्दर गिना है परंतु 'साइणा परिनिब्बु डे' इस शब्द से श्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४९४ ] महावीर स्वामी के भी कल्याणक तो पांचही कहने इसतरहका लेख विवेकशून्य मुग्धजीवों को दिखाकर श्रीकल्प सूत्र के सूड पाठसे श्रीवीरप्रभुके पांच कल्याणक स्थापन करके छठे कल्याएकका निषेध किया सोतो निष्केबल मायाचारीको धूर्ततासे अथवा विद्वत्ताको अजीर्णतासे विवेकी तत्वज्ञ विद्वानों के सामने अपनीहासी करनेका विनय विजयजीने वृथाही परिश्रम किया है क्योंकि राज्याभिषेकके पाठकी तरहसे श्रीवीर प्रमुके गर्भापहाररूप दूसराच्यवन कल्याणककी गिनतीपूर्वक शासनपतिके छ कल्याणक कदापि निषेध नहीं हो सकते हैं जिसका खुलासा तो उपर मेंही लिखा गया है परंतु यहां तो विनय विजयजीकी विद्वत्ताकी उल्लंठाईको प्रगट करके पाठकगणको दिखाता हूं कि देखो 'पंचहृत्युत्तरे साइणा परिनिवु डे' इस शब्द से पांचका अर्थ विनय विजयजीने किया सो कदापि नहीं हो सकता है क्योंकि 'पंचइत्युत्तरे साइणा परिनिवडे' इस शब्द से पांचकाही अर्थ किया जावे तो यह शब्दही शास्त्रकारका लिखना वृथा होजावे इसलिये जो विनय विजयजी तथा उन्होंके पक्षको ग्रहण करनेवाले वर्तमानिक तपगच्छके विद्वान् लोग जो शास्त्रकार महाराजके लिखनेको वृथा ठहरा करके अपनी इच्छानुसार अर्थ बनालेवे तबतो ढ ढक तथा तेरहापंथियों की तरह प्रत्यक्ष उठाई सिद्ध होने में कोई बाकी नही है क्योंकि ढूंढिये तथा तेरहा पंथी लोग गणधर महाराज कृत मूलसत्रों को मानने का पुकार पुकारके लोगों के आगे कहते हैं परंतु जगह जगह पर गणघर महाराज के विरुद्धार्थमें अपनी मति कल्पनासे प्रत्यक्ष असंगत अर्थकरके बालजीवोंको अपने कदग्राहकी भ्रमजालमै Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com ܘ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४९५ ] फंसाने के लिये उठाई करने में कुछ कमती नहीं करते हैं तैसे ही 'पंचहत्युत्तरे साइणा परि निधुडे' इस पदका गणधरमहाराजके विरुद्धार्थमें विनय विजयजीने अपनीमति कल्पना प्रत्यक्ष असंगत पांचका अर्थकरके बालजीवोंको अपने कदाग्रहको भ्रम जाल में फंसाने के लिये खूबही उलंठाइकरी है तथा वर्तमानिक तपगच्छवाले विद्वान् नाम धराते भी ऐसी उलंठा इसे प्रत्यक्ष असंगत अर्थकरते कुछ लज्जाभी नही पाते हैं यहभी पाखंडपूजा नामक अच्छेरेका कलयुगी प्रभाव ही मालूम होता है क्योंकि विवेकी विद्वान् तो उपरके शब्द से पांचका अर्थ कदापि नही करेंगे और न कोई मान्य करे परंतु अंध परंपराका हठवादको तो अलौकिक आश्चर्य कारक महिमा जुदीही होती है इसमें कोई विशेषता नही है, और बड़ेही खेद की बात है कि उपरके शब्द में (पाँच हस्तोत्तरायें तथा छठा स्वातिमें यह छहीं कल्याणकोंका प्रगटपने खुलासा अर्थ होते भी विद्वताके अभिमान से अपनी कल्पनामुजब पांचका अर्थ करके भोले लोगोंमें दिखानेवाल विनयविजयजीको तथा वर्तमानिक तपगच्छके विद्वानोंको इतने वर्षों में कोई भी समझाने वाला नहीं मिला या तपगच्छके उन्होंकी समुदाय में कोईभी विवेकी, तत्त्वज्ञ, आत्मार्थी, इस अनर्थको हठाने वाला बुद्धिमान नहीं हुआ जिससे वर्तमान में हरबर्षे गांवगांवमें इतना अनर्थ कारक अंध परंपरा के मिथ्यात्वको पुष्ट करते परभववका 'किंचित् मात्र भी हृदयमें भय कोईभी नहीं बाते हैं, क्या बड़ी आश्चर्य की बात है कि श्रीकल्पसूत्र की पूर्व चार्यों ने अनेक टीकाओं बनाई है उसीमें उपर के पदको भी व्याख्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] करी है जिसमें छ के पाठका पांचका अर्थ तो किसी जगह देखनेमें नहीं आया तथापि विनय विजयजीने तथा वर्तमानिक तपगच्छवाडे विद्वान कहलाते हुए भी सत्रकार महाराषके तथा इत्तिकार महाराजोंके विरुद्धार्थ में प्रत्यक्षपने उलटा अर्थ किया तथा करते हैं सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वक अथवा विध्वताको अजीर्णताके सिवाय और क्या होगा क्योंकि उपरके शब्दसे पांचका अर्थ किसी भी पूर्वाचार्य्यने किसी जगह पर भी नहीं लिखा है तथा प्रत्यक्ष युक्तिके विरुद्ध होनेसे होभी नहीं सकताहै और 'पंच हत्थत्तरे साइणा परि निव्वुडे' इससे पांचका अर्थ करके सत्रकार महाराजका वाक्यार्य भंग भी नहीं हो सकता है इसलिये सूत्रकार महाराजके अपेक्षा सम्बन्धी अभिप्रायको समके बिना अपनी कल्पना मुखब अर्थ मान लेना या लिख देना संसार वृद्धिका हेतु है सो ही करनेका कारण सपरके विद्वानोंने किया मालूम होता इसलिये जो अपरके पदको सूत्रकार महाराजका वाक्यार्थपूक वर्तमानिक तप गच्छ के विद्वान लोग सत्य मानते होवे तबतो पांचका अर्थ करें जिसका मिच्छामिदुक्कड देना चाहिये क्योंकि जब बहों कल्याणकोंकी पथक पृथक व्याख्याकरके साकारनेखुलासा दिखा दी तो फिर पांचका अर्थ करके साकारके वाक्पार्थका भंग करना कौन बुद्धिमान मान्य करेगा अपितु कोई भी नहीं और राज्याभिषेकको कल्याणकत्वपना प्राप्त नहीं हो सकता है जिसके कारण भी उपर में लिखे गये है तथा खास विनयविजयजीके ही परम पूज्य श्रीतपगच्छीय श्रीहीरविजयसरिजीके सन्तानीय श्रीशांतिचन्द्रगणिजीने श्रीधीर प्रभु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४ ] पोपहारके कल्याणककी तरहराज्याभिषेक कल्याणक नहीं हो सकता है इसका खुलासाके साथ श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्रकी सुत्तिने व्याख्य.करीहै जिसका सब पाठ भी न्यायामोनिधिजीके छ कल्याण निषेध सम्बन्धी लेखकी समीक्षा आगे डिखंगा वहां दिखाने में आवेगा। __और (श्रीआचारांग टोका प्रभृतिषु पंच हत्थुत्तरे इत्यत्र पंच वस्तून्येव व्याख्यातानि नतु कल्याणकानि) इन अ. क्षरों करके श्रीआचारांगजी सत्र की वृत्ति वगैरह शास्त्रों में 'पंच हत्थुत्तरे' शब्दको ब्याख्या करते वृत्तिकारने पांच वस्तु कहो हैं परन्तु पांच कल्याणकनहीं कहे। इस तरहका लिखके विनयविजयजीने श्रीवीर प्रभुके चरित्राकीआदिमें ही कल्याणकाधिकारे पांचों कल्याणकों का अभाव दिखाया सो वो अपने गच्छ कदाग्रहका हठवाद स्थापन करनेके लिये अभिनिवेशिक मिथ्यात्व करके भोले जीवों को भी उसीके चम में गेरने के लिये विचित्र मायाचारीका नमूना प्रगट पने मालूम होता है क्योंकि देखो खास आपनेही श्रीकल्पसूत्रकी सुबोधिकात्ति में वर्तमानिक. शासनमें मंगलिकके लिये जधन्य मध्यम उत्कृष्ट वाचना पूर्वक श्रीवीरप्रभुका चरित्रकबन करते उसीकी आदिमेंही "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे हुत्या ॥ तथा साइणा परिमिछुढे प्रयवं" इस मूल सत्रके पंक्तिकी व्याख्या करते श्रीव मानवामिनः घण्णां च्यवनादि वस्तूनां कारणं बभूव इत्यादि तथा॥ पंच हत्थुत्तरेत्ति, हस्तोत्तरा उत्तरा फाल्गुन्यः गणन्या ताभ्यो हस्तस्यउत्तरत्वात् ताः पंचम स्थानेषु ..बस्य त पंच हस्तोत्तो भगवान्, होत्थत्ति, अभवत् ॥और॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] 'साइणा परिनिव्वुडे मयवंत्ति' स्वाति नक्षत्रे मोक्ष गतो भगखान् ॥ इस तरहकी व्याख्या करो है और इसी तरह से मध्यम वाचनामै सी- च्यवन, गतवहार, जन्म, दीक्षा, ज्ञान, मोक्ष, इन छहों वस्तु तथा स्थानोंके छहों नक्षत्रोंका खुलासा लिखा है जिसका सब पाठ तो इसी ग्रन्थ के पृष्ठ ४६२ ४६३ मैं छप गया है और उत्कृष्ट वाचनायें तो व्यवन, गर्भापहार, जन्मादिकके मास, पक्ष, तिथिपूर्वक विस्तार से व्याख्याकरी है सो व्यवमादि पांच हस्तोत्तरा नक्षत्रमें और छठा मोक्ष स्वाति नक्षत्र में यह द वस्तु तथा स्थान शब्दका श्रीतीर्थं कर महाराज के चरित्र की आदिमेंही प्रसंगसे तथा तात्पर्यार्थ से कल्याणकका ही अर्थ निकडनेसे तो श्रीवोरप्रभुके छ कल्याएक सिद्ध होगये जिससे अपने मंतव्य में विरोध आने लगा तब विनयत्रिजयजीने ( ननु पंच हत्थुत्तरे साइया परिनिघुडे इत्यनेन श्रीमहावीरस्य षट् कल्याणकत्व सम्पन्नमेव ) इस तरहका प्रश्न बनाकर के उसीका निषेध करनेके लिये 'मैत्र' एवं उच्यमाने उसमेगं अरहा इत्यादि' वाक्य लिखके शास्त्राकार महाराजों के विरुद्धार्थ में उत्सूत्र भाषणों का तथा कुयुक्तियों के विकल्पों का संग्रह करके श्रीवीरप्रभुको अवज्ञा करते हुए निजपरको दुर्लभबोधिका कारणरूप अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे भोले जीवोंको गच्छ कदाग्रहका भ्रम में फसाने के लिये इतना परिश्रम किया क्योंकि वस्तु तथा स्थान शब्द कल्याणकका अर्थवाला जो विनयविजयजी मान्य नहीं करते तो छ कल्याणकों की सिद्धिसे उसीके निवेध करने की चर्चाका प्रसंग कदापि नहीं लाते परन्तु लाये इसीसे ही विवेकी तत्वज्ञ तो स्वयं विचार सकते है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] सास विनयविजय मोने ही वस्तु तथा स्थान शब्दका कल्या. णक अर्थ अपने दिलमै मंजूर करलिया तबही तो अपने मंतव्य में विरोधके भयो उसीके निषेधकी चर्चाम “पंच हत्थुसरे, इत्यत्र पंच वस्तून्येव व्याख्यातानि नतु कल्याणकानि इस तरह के अक्षर लिखके गच्छ कदाग्रहकी मायाचारीसे उत्सन भाषण करके भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरनेका उद्यम करते ससार वृद्धिका कुछभी अपने हृदयमें भय न किया सो बड़ा ही आश्चर्य सहित अफसोस है और अब फिर भी सत्यग्राही पाठक वर्गसे मेरा यहो कहना है कि-वस्तु शब्दका तथा स्थान शब्दकामी संबन्ध मैं कल्याणक अर्थ खुलासा पूर्वक सिद्ध होता है इसलिये इसमें कोई तरहका सन्देह नहीं करना क्योंकि देखो वस्तु शब्दका (उत्तममें मध्यममें अधममें इष्ट, अनीष्टमें धर्मम अध ममें लोकमें अलोकमें और जीव अजीवादि) सब पदाथों में तथा सर्वलिङ्गों में और सर्व अर्थों में व्यवहार किया जाता है इसलिये जैसे-ज्ञान दर्शन चारिता वस्तु, धर्म वस्तु, साश्वत चैत्य प्रतिमा वस्तु, और मोक्ष देवलोक आदि सबको वस्तु शब्दसे व्यवहार करते हैं तैसे ही मंगलिकके लिये श्रीतीर्थंकर महाराजके चरित्रका वर्णन करते श्रीवीरप्रभुके च्यवन गर्भापहार जन्मादिकों कोभी वस्तु शब्दसे व्यवहार करके श्रीदशातस्कन्धकी चूर्णि वगैरह शास्त्रों में व्याख्या करी सोही च्यवन गर्मापहार जन्मादिकोंको कल्याणक समझने चाहिये क्योंकि यद्यपि वस्तु शब्दका अर्थ सम्बन्धपूर्वक प्रसंगसे किया जाता है सो यहां च्यवनादि कल्याणकोंका सम्बन्ध होनेसे ..श्रीवीरप्रभुके चरित्रकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५० ] आदिमें च्यवनादिकों को वस्तु कही वही च्यवनादिकों को कल्याणकही माने गये क्योंकि वस्तु शब्द पर्यायवाची गुण युक्त भावनावाला होता है और श्रीवीरप्रभुके च्यवनादि छहों वस्तुओं में पर्यायवाचीत्व तथा गुण युक्त पनेसे और भावनासे भी छहों कल्याणकोंका अर्थके सिवाय दूसरा कोई भी अर्थको सङ्गति कदापि नहीं हो सकती है इसलिये यहां च्यवनादिक कल्याणक शब्दके च्यवनादिक वस्तु शब्द पर्यायवाची एकार्थ सचक सिद्ध होगया सो विवेकी तत्वज्ञ पाठकगण वयं विचार लेवेंगे। और 'वत्थु सहावो धम्मो' याने 'वस्तु स्वभावो धर्मः'। इस शब्दके न्यायानुसारभी जैसे च्यवनादि वस्तुओंमें श्रीतीर्थंकर महाराजकी माताके चौदह स्वप्न देखने वगैरहका तथा छपन्न दिककुमारी चौसठ इन्द्रों के जन्ममहोत्सव करने वगैरहका नियमीत अनादि मर्यादा रूप धर्म हैं तैसेही च्यवनादि वस्तुओंमें कल्याणकत्वपनेकाही अनादिधर्म होनेसे च्यवमादि वस्तुओं का च्यवनादि कल्याणकही अर्थसिद्धहोता है इसमें कोई बाधानहींहोसकती है इसबातकोसी निष्पक्षपाती विवेकी तत्वज्ञ पाठकजन अपनीबुद्धिसे विचार डेना, देखिये बड़ेही आश्चर्यकी बात है कि-शासन नायक परमसपकारी श्रीवर्द्धमान स्वामीका चरित्र वर्णन करते भग. वान्के च्यवनादिकोंको वस्तु कहके कल्याणकका अभाव दिखानेवाले विनयविजयजीको तो अपने गच्छकदाग्रहके हठवादकी कल्पित बातको जमाने के लिये शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में उलटा अर्थ करके बालजीवोंको दिखाते उत्सू. प्रभाषणसे मात्मविराधनाका कुछ भी विचार नहीं आयाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०१ होगा परन्तु वर्तमानिक तपगच्छके विद्वानों को भगवान के ध्यवनादिकोंको वस्तुकहके कल्याणकत्वपनेसे निषेध करते अपनी आत्मविराधनाका कभी भय क्यों नहीं आता है क्योंकि च्यवनादिकोंको ही शास्त्र कारोंने कल्याणककहे हैं तथा च्यवनादिकोकों ही वस्तु भी कही है और वस्तु शब्द कल्याणकका अर्थवाला है जिसका निर्णयतो उपरमही लिखा गया है इसलिये वस्तु कहके कल्याणकका निषेध करना सो अधपरंपराके हठवादका आग्रहसे अपने तथा दूसरे भोले जीवोंके सम्यक्त्यरत्नको हाणी पहुंचानेवाला उत्सव भाषण करना आत्मार्थियों को उचित नहीं है और आत्मा अध्यजीवोंके उपकारके लिये श्री.तीर्थं कर महाराजका चरित्र वर्णन करते च्यवनादिकोंको वस्तु कहके कल्याणकत्वपनेसे निषेध करनेवाले च्यवनादिकों के बिना अन्य कल्याणक किसको बतलाते होवेंगे क्योंकि च्य. धनादिक वस्तु सोही कल्याणकों के सिवाय अन्य कल्याणक तो किसी भी शास्त्रमें देखने में नहीं आते हैं तथा सुनने में भी नहीं आये हैं और च्यवनादिकों के बिना दूसरे कल्याणक होभी नहीं सकते हैं इसलिये जो च्यवनादिकों को ही कल्याणक कहने तथा उन्हीं च्यवनादिकोंको वस्तु भी कहना और फिर च्यवनादिकों को वस्तु कहके कल्याणकत्वपनेसे निषेध भी करनेका परिश्रम करना सो यह तो बाल ली. लावत् युक्ति विरुद्ध होतेभी इसका हठ नहीं छोड़नेवालोंकों दीर्घसंसारी अन्तर मिथ्यात्वी कहने में कोई हाणी होती होवे तो विवेकी तत्वज्ञोंको अच्छीतहरसे विचार करना चाहिये और इसी तरहसे पांच स्थान शब्दकाभी पांच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५२ ] पल्याणक अर्थ होता है, जैसे-किसीको, तीन आदमियों मन पहिलेने पूछा-श्रीमादिनाथ स्वामीका मोक्ष स्थान किस जगह पर तथा दूसरेने पूछा-मोक्ष कल्याणक किस जगह पर और तीसरेने पूछा-मोक्ष गमन किस जगह पर इस तरह के तीनों प्रश्नों के तीनों शब्दों का तात्पर्यार्थ एक होनेसे सबके उत्तर में श्रीअष्टापदजी पर कहना होगा सो इसी मुजेश ही सभी तीर्थंकर महाराजों के च्यवनादि पांच पांच स्थान कहो अथवा पांच पांच कल्याणक कहो दोनों शब्द पर्यायवाची एकार्थ सूचक है 'यति मुनि साधू वत्' इसी कारण श्रीस्य:नांगजी सूत्रके पञ्चम स्थानके प्रथम उद्देशमें श्रीगणधर महाराज श्रीतीर्थ कर महाराजों के कल्याणकाधिकारे १४ भगवानोंके पांच पांच कल्याणकों के नक्षत्र गिनाये हैं उसीकी व्याख्या करते श्रीअभयदेवमूरिजी महाराजने श्रीपद्मप्रभुजी आदि १४ तीर्थंकर महाराजोंके च्यवनादिकल्याणकों के मास, पक्ष,तिथि,नक्षत्र,नगरीस्थान,वगैरहका खुलासाकी व्याख्यामें ध्य बनादिपांच पांच स्थान कहके यहां स्थान शब्दका व्यव. हार किया सो उपरके न्यायानुसार कल्याणकका ही कथन समझना चाहिये और इस बातका विशेष निर्णय न्यायांशी निधिजीके लेख की समीक्षा आगे लिखने में आवेगा और श्रीहरिभद्रसूरिजी कृत श्रीपंचाशकजी सूत्रके तथा नीअभय देवसरिजी कृत तत्तिके अभिप्रायको समझे बिना ही श्रीवीरप्रभुके पांच कल्याणकों के दिन दिखाकर जो छठा कल्याणक होता तो उसीका भो दिन कहते, इस तरहका लिखा सोझी अज्ञानताका कारण है क्योंकि वहां तो भरत क्षेत्रको तथा ऐरवर्त क्षेत्र की उत्सर्पिणी और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०३ ] अवसर्पिणी में हो गई तथा होनेवाली सबी चौबीसी भों के सभी तीर्थंकर महाराजों की बहुत अपेक्षा सम्बंधी लिखने में आया है और सभी तीर्थकर महाराजोंके छ छ कल्याणक नहीं होते हैं इसलिये उस प्रसंग में छठे कल्याणकका दिन नहीं कहा है परन्तु खास श्रीमहावीर स्वामीके चरित्राधिकारे तो अनेक शास्त्रां में छठे कल्याणकका दिन खुलासे लिखा हैं तथा उपरकी बातका विशेष विस्तार पहिलेही न्यायरत्नजीके लेखकी समीक्षा में लिखने में आगया है । और उपरोक्त सुखबोधिका में खास विनयविजयजीने ही चौदह स्वप्नाधिकारे [ त्रिशला क्षत्रियाणी 'तप्पढमया एत्ति, तत्प्रथमतया प्रथमं इत्यर्थः । इमं स्वप्नं पश्यतीति संबंधः, अत्र प्रथम इमं पश्यतीति बहुभिर्जिनजननी भिस्तथा दृष्टत्वात्पाठानुक्रममपेक्षयेाक्तं अन्यथा ऋषभदेव माता प्रथम वृषभं वीर माता च सिंहं ददर्शेति ] इस तरहका पाठ लिखा है इसका मतलब यह है कि त्रिशला माताने प्रथम स्वप्न में हस्थी देखा ऐसा स त्रकारने लिखा सो बहुत तीर्थंकरो के माताकी अपेक्षा से लिखा है, नहींतो श्रीआदिनाथ स्वामीको मरुदेवी माताने ती प्रथम स्वप्ने वृषभको और श्रीवीरप्रभुकी त्रिशला माताने प्रथम स्वप्ने सिंहको देखा है परन्तु शेष बहुत तीर्थंकर महाराजों की माताने प्रथम स्वप्न में हरतीको देखा इसलिये बहुत अपेक्षा से श्रीवीर प्रभुकी माता के सम्बन्धमें भी प्रथम स्वप्न में हस्ती देखनेका सूत्रकारने लिखा है— ܬ अब इस जगह भी विवेकी पाठकगणको विचार करना चाहिये कि जैसे श्री वीरप्रभुको माताने प्रथम स्वप्न में सि F Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४] हको देखा तिसपरमी बहुत अपेक्षा शाबकारने हस्ती लिखा, तैसेही श्रीवीरप्रभुके उ कल्याणों के दिवसों को अनेक शास्त्राने खुलासे लिखे होतेभी श्रीपंचाशकजीम तथा उसीकी बत्ति बहुत तीर्थकर महाराजोंके पांच पांच कल्यापकोंकी अपेक्षासे श्रीवीर प्रभुकेभी पांच कल्याणक लिखे उससे छठा कल्याणक कदापि निषेध नहीं हो सकता है सीतो निष्पक्षपाती विवेकी तत्वज्ञ पुरुषों को अच्छी तरहसे विचार लेना चाहिये । • तथा औरभी पाठक वर्गको विनयविजयजीकी प्रत्यक्ष मायाचारीका नमूना दिखाता हूं कि-देखो विनय विजयजी बड़े विद्वान् तथा विशेष करके श्रीजैन शास्त्रोके जानकार प्रसिद्ध कहलाते थे इसलिये श्रीआवश्यक नियुक्रिमे तथाचूर्णिमें २, श्रीअभयकुमार चरित्रमें ३, श्रोमुलसा चरित्रमें ४, श्रीदशाश्रुतस्कंध सूत्र में ५, तथा तवृत्तिमै ६, श्रीशिषठिशलाकापुरुष चरित्र में 9, तथा श्रीवीरमभुके वीनों चरित्रोंमें १०, और श्रीकल्पसूत्र में १९, तथा इन्हीं सूत्रको ९ (नौ) व्याख्याओंमें २०, इत्यादि अनेक शास्त्रों में खुलासा पूर्वक श्रीवीरप्रभुके छठे कल्याणकके दिवसको प्रगटपने लिखा हुआहै जिसको जानते होतेमी बाल जीवोंको अपने गच्छ कदाग्रह के भ्रम, नेरनेके लिये श्रीपंचाशकजी सत्र वृत्तिके अभिप्रायको समझे बिना 'यदि षष्ट स्यात्तदातस्यापिदिन उतस्यात्' 'जो छठा कल्याणक होता तो उसीकासी दिवस कहते' इसतरहका लिखके भोलेजीवोंको दिखाया सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको मायाचारीके सिवाय और क्या होगा सो विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] भोर बरस जगह पाठक वर्गको विशेष निःसन्देह होनेके लिये प्रोवीरप्रभुके छठेकल्याण दिवसको दिखानेके लिये यहां श्रीआवश्यकचूर्णिका पाठ दिखाता हूं सो पष्ट४वे में प्रथम च्यवन कल्याणकका पाठ नीचे मुजव है यथा तेणकाउणं तेणंसमएणं समणे भगवं महावीरे जेसे गिम्हाणं चउत्येमासे अटुमेपख्खे आसाढसुद्ध तस्सणं आसाढ़ सुद्धस्स छठी दिवसेणं महाविजय पुप्फुत्तर पवर पुंडरोयातो महाविमाणातो वीसंसागरोधम ठितीयातो अणंतरं चयं घहत्ता इहेव जंबूद्दीवेदीवे भारेहे वासे इमीसे उस प्पिणीए सुसमसुममाए समाए विइक्वंताए, एवं सुममाए, सुसम दुसमाएं, दुसम सुसमाए, बहु वितिक्कंताए सागरोवमकोड़ा कोडीए बायालोस वास सहस्सेहिं अणिआये पंचहत्तरियासे हिं अद्धनअमेहिय मासैहिं सेसाएहिं एकत्रीसाए तित्वगरेहिं इक्खाग कुल समुपत्र हिं कासवगुत्तहिं दोहिय हरिवंस कुलसमुपने हिं गोतमस्म गोत्तेहिं तेवीसाए तित्य गरेहिं वितिक्कतेहिं समणे. भगवंमहावीरे चरमतित्थगरे पुवतित्थगर निदिढे माहण कुंडग्गामे गरे उसमदत्तस्स माहणस्स कोडालस गोत्तस्स भारियाए देवाणदाए महाणोए जालंधरस गोत्ताए पुखरता परत्तकाल समयंमि हत्थुत्तराए णक्षतेण जोगमुवागण आहार वकंतीए भववक्कंतीए सरीरवक्तीए कुच्छिंसि गम्भ. ताए बकते समणेभगवमहावोरे त्तिमाणोवगते आविहुत्यापास्तामित्ति जाणइ, चयमाणे न जाणई चुएमित्ति जागह, और इसके आगे चौदह स्वप्न तथा नमुत्थुणं वगैरहका अधिकार है पिर आगे पृष्ठ ९६ वे में गर्भहरणसे गर्भसंक्रमणरुप दूसरा च्यवन कल्याणकका पाठ नीचे मुजब है यथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०६ ] तणंकालेणं तेणंसमएणं समणे भगवं महावीर तिणाणोव नते आविहोत्था साहरिज्जस्सामिति जाणति साहरिज्जमाणे ण जाणति साहरितेमिति जागति ॥ तेणं कालेणं २ समणे प्रग महावीरे जेसे वासाण तच्चे मासे पंचमेपक्स आस्सोय बहुले तेरसीय पक्रण बासीतिराइन्दिएहिं वितिक्कतेहि तेसीतिमस्स रातिदिवस अंतरावहमाणेहिं आणुकंपएण देवेण महाण कुडगामाओ । जाव। अद्धरत्तकाल समयसि हत्थुत्तराहिं णक्वं तेण अब्वाबाहं अब्वा बाहेण देवाणंदाए कुच्छोउति तिसलाए कुच्छिंसि साहरिते ॥इत्यादि। इसके आगे फिर चौदह स्वप्नादिकका और जन्मादिका वर्णन है और अब हरवर्षे बंचाता हुआ सुप्रसिद्ध श्रीकल्पसूत्रका पाठ दिखाता हूँ सो नीचे मुजब है यथा तेण कालेण तेण समएण समणे भगवं महावीरे जैसे गिलाण चतत्थे मासे अढमे पख्खे आसाढसुद्धे तस्सणं आसाढसुद्धस्स बट्ठी पख्खेण महाविजय पुप्फुत्तर पवर पुंडरी याओ महा विमाणाओवीसंसा गरोवम द्विइयाओ आउरुख एणं भवरूखएणं ठिइरुखएण' अणतरं चयं च इत्ता इहेव जंबुद्दोवे दीवे भारहेवासे दाहिणढ्ढ मरहे इमीसे उसप्पि णीए, सुसम ससमाए समाए विरकंताए, सुसमाए समाए विताए, सुसम दुसमाए समाए विद्रकंताए, दूसम सुसमाए समाए बहु विक्वंताए, सागरोवम कोडा कोडीए बायालीस वास सहस्से हिं कणिआए पंचहत्तरि वासेहिं अद्ध नवमेहिय मासेहिसेसेहि-इकवीसाए तित्थयरेहि इरूखाग कुल.. समुप्पनहिं कासव गुत्तेहिं, दोहिय हरिवंसकुल समुप्पनहिं गोयमस्सगुत्तेहिं तेवीसाए तित्थयरेहि विन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०७ ] तेहिं, समणे भगवं महाबीरे चरम तित्थयरे पुव्वतिरथयर निट्ठेि, माहणं कुङग्गामे नयरे उसमदत्तस्स माहास्स कोडree गुत्तस्स भारिआए देवाणं दाए माहणीए जालधरसगुताए पुरता वरत्तकाल समयंसि हत्थत्तराहिं णरूखशेण जोग मुखागएवं आहारवक्कतीए भववकुंतीए सरीर वक्तीए कुच्छिंसि गम्भत्ताए वक्कते ॥ समणे भगवं महाबीरे तित्राणोब गए आबिहुत्या-चइस्तामिति जाराइ, चयमाणे न जाणई चुएभित्ति जाइ, इसके आगे चौदह स्वप्न नमुत्थुणं वगैरह की व्याख्या है और फिर देवानंदाकी कुक्षिसे त्रिशलाकी कुक्षिमें स्थापन करनेको गर्भ हरणसे गर्भ संक्रमण रूप दूसरा च्यवन कल्या एकका पाठ नोचे मुजब हैं यथा तेणं. कालेणं तेणं समएणं समो भगवं महावीरे तिबालोधगए आविहुत्था- साहरिज्जिसामित्ति जावई, संहरिएम माणे न जाणइ, साहरिएमित्ति जाणइ ॥ तेण कालेण ते समएण समणे भगव महावीरे जेसे वासाणं तच्चे मासे पंचमे परखे आसोअ बहुले, तस्वणं आस्तोय बहुलस्स तेरसीपख्खेण बातोइइन्दिएहि विइकु तेहि तेसीइमस्स राइदिअस्स अंतरावहमाणेहिं, आणुकंपएण देवेा हरिणेगमे सिणा सक्कश्यण संदिट्ठ ेणं माहण कुङग्गानाम नयराओ उस प्रदत्तस्व माहणस्स को डालस गुत्तस्स भारिमाए देवाण' दाए माइणीए जालंधरस गुप्ताए कुच्छीओ खत्तिय कुंडग्गामे नयरे नायाणं खत्तियां' सिद्धत्थस्स 'खत्तिमस्स कासव गुत्तस्स भारिभाए तिसलाए खन्ति मानीए वासिस गुप्ताए पुरता वरप्तकाल समयंसि इत्युत्तराहि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] मरखत्तण जोग मुवागएणं अव्वाबाई अवाबाहेण कुच्छिसि ममताए साहरिए, ॥ इत्यादि । इसके आगे चौदह स्वप्न वगैरहका तथा जन्मादिका वर्णन है उपरके दोनों पाठोंका संक्षिप्त पवार्थ:-तिसका और तिससमये अमण भगवन् श्रीमहावीर स्वामी आषाढ़ शुदी ६ को दशम देवलोकके सबसे श्रेष्ट पुष्पोत्तर नामा विमानसे देवत्वपनेके परिपूर्ण वीससागरोपमका आयुष्यकी स्थितिको तथा देवसम्बन्धी भवको क्षयकरके सरलगतिसे इसी जम्बूद्वीपके दक्षिण भरतक्षेत्रे इसी अवसर्पिणीमें दुःखम मुखमा नामा एककोडाकोडी सागरोपमसे ४२ हजार वर्ष न्युनके प्रमा. णवाला चौथा आराके अन्त में उसीके १५ वर्ष और । महि. मे शेष रहते तथा २३ तीर्थकर हुए बाद चरम तीर्थंकर अमगा भगवन् श्रीमहावीर स्वामी माहणकुड ग्रामनगर, कोडाल गौत्रके ऋषमदत्तनामा ब्राह्मणकी जालंधरनामा गौत्राकी देवानन्दा मामा ब्राह्मणीको कुक्षिमें उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र चन्द्र के योगर्म गर्भपने उत्पन्न हुए सो देवसम्बन्धो माहारका शरीरका और भवका त्यागकरके जय उत्पन्न हुए तब भगवान्को मति श्रुति और अवधि यह तीन ज्ञानये इसलिये ज्ञानसे मैं यहां देवलोकसे व्यवकरके माताकी कुक्षिमें उत्पन होगा ऐसा जानते थे परन्तु च्यवनका काल १ सय मात्रका होनेसे उसी वगतको नहीं जाना और उत्पा हुए बाद फिर जानस जान डिया और इसीतरह तिसकाल तिस समय यहांस माखिम बदी १३ को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रा इन्द्रके कथनानुसार हरिणेगमेषिदेवने देवानन्दाकी कक्षिसे संहरसकरके क्षत्रिय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५०% ग्राम नगरके काश्यप गौसके सिद्धार्थराजाकी बासीट गौत्रकी त्रिशलाराणीको कुक्षिमें बाधा रहित भक्तिपूर्वक देवशक्तीस स्थापित किये उसी समयमभी भगवान्को तीन ज्ञानये इसलिये देवानन्दा माताकी कुक्षिसे संहरण होकरके मेरा त्रिशला माताकी कुक्षिमें आना होगा ऐसा नामतेथे परन्तु उसी समयको अल्पकालके कारणसे नहीं जान सके और त्रिशलामाताकी कुतिमें आये बाद फिर जान लिया यहां पाठकवर्गसे मेरा यही कहना है कि उपरके श्रीकल्पसूत्रके मूलपाठकी नौ (९) टीकाओं में ही उपरके भावार्थ वाली ही विस्तारपूर्वक व्याख्या है परन्तु सबके पाठ इहाँ लिखने से बहुत विस्तार होजावे तथा कितनीही टीकायेतो हरव श्रीपर्युषणपर्वमें गांव गाँवमें बांधने में मातीशी है इसलिये उन्होंके पाठ और भावार्थ प्रसिद्ध होनेसे यहां नहीं लिखता हूं और उपर मुजबही खास विनय विजय जीने ही अपनी बनाई मुबोधिकातिमें भी विस्तारसे व्याख्या करी है जिसमें ब्राह्मण कुलमें देवामन्दामाताकी कुक्षिसे क्षत्रिय कुलमें त्रिशला माताकी कुक्षि मानेकी व्याख्या करते १ झोक विशेष करके कहा है उसीकोही यहां दिखाता हूं यथासिद्धार्थ पार्थिव कुलास गृहप्रवेश, मोहरी भागमयमान इवक्षण यः । राविर्दिवान्युषितवान् वृणीति লিলাগা বিভব ও অলী জিলা তুলার ॥ इस झोकका मतलब ऐसा है कि भगवान् भव्य जीवों के उपकारके लिये मानो सिद्धार्थ राजाके उत्तम कुड में प्रवेश करनेके लिये अच्छा मुहूर्त देखने के लिये ८२ दिवसतक अष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१० ] भदत्त ब्राह्मणके घर में ठहर गये ऐसे वो भगवान् घरम जिनेश्वर महाराज श्रीवीरप्रभु भव्यजीवोंका कल्याण करो अब देखिये उपयुक्त शशस्त्र प्रमाणानुसार श्री वीरप्रभुके देवलोकका च्यवन से देवानन्दा माताको कुक्षिमें उत्पन्न होना सो आषाढ़ खुदी ६ के प्रथम च्यवन कल्याणक की तरह ही देवानन्दा माताको कुक्षिसे गर्भं संहरणसे त्रिशला माताकी किक्ष में संक्रमण हुआ सो आश्विनबदी १३ को गर्भापहाररूप दूसरा च्यवन कल्याणकका भी खुलासा पूर्वक वर्णन है और जन्म, दीक्षा, ज्ञान, मोक्ष, तो प्रगट है इसलिये अपने गच्छ पक्षका आग्रह छोड़करके श्रीवीरप्रभुके छहों कल्याणकोंको आत्मार्थियोंको मान्य करने चाहिये क्योंकि 'समणे भगव महावीरे तिन्नाणोवगए आविहुत्या च इस्सामिप्ति जाणइ मान जागड़ चुएमित्तिजाराइ' इस पाठकी तरह ही 'समणे भगव' महावीरे तिन्नाणोवगए आविहुत्था साहरिज्जिहसामित्ति जागद सहरिज्ज माणेन कण साहरिएमत्ति जाणइ' यहमी पाठ समान होनेसे तथा मास पक्ष तिथि नक्षत्रका और चौदहस्वप्न देखने वगैरहका खुलासा भी दोनों वैर प्रगटपने होते भी एकको कल्याणक मानना और दूसरेको कल्याणक नहीं मानना यह तो प्रत्यक्ष करके अन्यायकी बात झूठे पक्षके हठवादियोंके सिवाय आत्मार्थी न्यायवान् पुरुषतो कदापि मान्य नहीं कर सकते हैं तथा न कर सकेंगे इस बातको विवेकी तत्वज्ञ जनतो स्वयं विचार लेवेंगे, - और अब फिरमी पाठकगणको विशेष निःसन्देह होनेके लिये श्रीवीरप्रभुके छहों कल्याणकों की पृथक् पृथक् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९] व्याख्यासम्बन्धी शाख पाठ दिखाताहूं श्रीचन्द्रतिलको पाध्यायनी त श्रीमनयकुमार चरित्रके पृष्ठ १८९ में षट् कल्याणक विषयिक खुलासा पूर्वक पाठ है सो नीचे मुजब है यथा नाथ प्राणत कल्पीय, पुष्पोत्सरविमानतः ॥ देवान. न्दग्दरांभोजे, राजहंसइवस्वयं १॥ यदीयश्वेतषष्ठ्यांत्वा मवतारो सदाशुचिः ॥ तस्याषाढस्यमासस्य, शुचितासङ्ग. तैव हि ॥ २॥ आश्विनाद्यत्रयोदश्यां, देवानन्दो दरात्तथा। विशलाया:प्रितेकुक्षौ, त्वयिचित्त विधायिनी ॥३॥ यदभवतरामेषा,सिद्धसर्वमनोरथा । तन्मन्ये तट्टिनानी, सर्वसिद्धात्रयोदशी ॥४॥ यस्यशुक्लायोदश्यां, जातमात्रोपिसन्प्रभो ॥ स्तानक्षणे सुराधीश, शङ्कोद्धरण हेतवे ॥५॥ लीलयाचालयेन्मेरु, यच्चित्रमकृथास्तरां मासोयमावच्चैत्री, मन्महेतस्सयोगतः॥६॥ जिननाथयदीयार्य माद्यायांदशमी तिथौ । निर्वाणमार्गमूर्धानं, सर्वचारित्रलक्षण ॥७॥ दुर्गमप्यसहायोऽपि, त्वमुच्चैः प्रतिपनवान् । तस्यमासस्य युक्तव, विद्यतेमार्गशीर्षता ॥८॥ दशम्यांयस्यशुक्लायां, घातिकर्ममहोदधि ॥ विलोड्य शक्लध्यानेन, वैशाखेनगरीयसा ॥९॥ केवलज्ञानपीयषं, जराम. रणहारकं ॥ अग्रहीस्तस्यमासस्य, युक्तावैशाखताप्रभो ॥१०॥ कल्याणकानि पञ्चापि,समजायन्ततेप्रभो॥ उत्तराफाल्गुनीवेव, लभ्य येनल मेतमः ॥१९॥ तव निर्वाणकल्याणं, यत्पवित्रयिता प्रभो । त तिथ्यादि न जानामि, मादृशोध्यक्षवेदिनः ॥ १२॥ षडमिकल्याणकैरेवं, स्तुतवीरजिनेश्वरः यथाजयामितावारि षटकं सद्यस्तयाकुरु ॥ १३ ॥ ___ और श्रीजयतिलकसूरिजीकृत श्रीमुलसाचरित्र में छ कल्याणक सम्बरधी व्याख्याहे नसीका पाठ नीचे मुजब है यथाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] देवामन्दोदर श्रीमान् खेतषण्यां सदा शुचिः॥ भवती. गोसिमाससा पाहस शुचिता ततः॥१॥ शिवाला सर्व सिद्धपछा, अयोदश्यांमभूद्यतः ॥ तवापतारस्तेनेषा, सवं सिद्धा त्रयोदशी ॥२॥ शुक्लत्रयोदश्यांयश्चा चउमेरुप्रचालयन् ॥ चित्रं कृतवानद्योगा च्चैत्रमासोऽपि कथ्यते ॥३॥ यस्याद्य दशम्यांदुर्ग मोक्षमार्गस्यशीर्षकं ॥ चारित्रमादूतं युक्ता, मा. सोऽस्यमार्गशीर्षता ॥४॥ दशम्यांयस्यशुक्लायर्या, केवड पीरहोत्वया॥ह्यादत्तातेनमासोग्य, युक्तामाधवता प्रभो॥५॥ तवनिर्माण कल्याण, यद्दिनं पावयिष्यति । तन्नवेमियतोनाथ, मादृशोग्यक्षवेदिनः ॥६॥ सिद्धार्थ राजांगन देवराज, कल्याणकैषभिरितिस्तुतस्त्वम् ॥ तथाविधेयांतरवैरिषटकं पपा जयाम्याशु तवप्रसादात् ॥७॥ उपरके दोनों पाठोंका भावार्थ कहते हैं कि, हे-नाय प्रावत कल्पनामा दशवें देवलोकके पुष्योत्तर विमानसे देवानन्दा माताके उदर रूपी कमलमें राजहंसको सरह जिस भाषाढ़ मासकी शुक्ल षष्ठीको तीर्थ करत्व पनेकी उधमी करके युक्त आपने अवतार लिया सो आप सदा (हमेसां) पवित्र है वो आपके पवित्र अवतारसे भव्य जीवोंको पवित्रता प्राप्त होवे इसमें तो कोई आश्चर्य नहीं है परन्तु आपके अवतारसे मासको भी पवित्रता प्राप्त हो गई यह बड़ा आश्चर्य हुआ इसीही कारणसे आषाढको शाओंमें शुधि नाम पवित्र कहा है सो युक्तही है, तथा मा. श्विन कृष्ण त्रयोदशीको देवानन्दा माताके उदरसे मनको आनन्दके उत्पन्न करनेवाले ऐसे भाप त्रिशला माताके उदर में विराजमान हुए सो आपके यहां पधारनेके कारणसे ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी दिन त्रिशलामाता सर्व प्रकारके मनोथे वांच्छित कार्यो को पूर्ण करने वाले महामङ्गलीक कल्याणकारी. चौदह स्वनाम आनन्दित हुई उसीस. उसीका सर्व सिद्धा-त्रयोदशी ऐसा नाम प्रसिद्ध हुआ सोही. मैं भी मानता हूं। और हे प्रभो जिस चैत्र महिनेकी शुक्ल त्रयोदशी में आपका जन्म हुआ. तिस समवे याने मेरुपर जन्म महोत्सवके अवसरमें इन्द्रको शङ्का दूर करने के लिये आपने लीलारूपसे मेरुको कंपाय मान किया उसी में तो चित्र नाम कोई आश्चर्य नहीं हैक्योंकि तीर्थकरत्वपनेकी अनन्त शक्तिको दिखानेके लिये बायें पैरके अंगुठेको नीचा करके उसीको दबायाथा इसलिये उसी में तो आश्चर्य नहीं परन्तु आपके जन्म योगस मासको चित्रता आश्चर्य्यता प्राप्त हुई उसोस मासका नाम भी चत्र हो गया। अथवा अचल मेरुको चलाया ससीस पथव्यादि कंपने लगे जिससे लोगोंकों अश्चिर्य हैस्पन्म हुआ तिससे उसी मासको चैत्र कहते है। और है परमातम मीजिमेश्वर जिस मार्गशीर्ष मासकी कृष्ण दशमौके दिन सम्पूर्ण चारित्रके लक्षणोवाला तथा अति कठिण और उत्तम मोक्ष मार्गको किसीकीभी साह्यताबिना आपने उच्चत्वपने करके प्राप्तकिया अर्थात् अनेक तरहके बड़े बड़े उपसों को सहन करनेके लिये बहुत ही कठिण वृत्तिको आपने अंगीकार करी उसीके कारणसे महिनेकी कठिणता (मार्गशीर्षता) दुनिया में कही जातीहै सो युक्कहो है ॥ और हे प्रभो अहो. इति आश्चर्य जिस उत्सम वैशाख महिनेकी शुक्ल दशमी के दिन आपने शुद्ध ध्यानरूपी वनदण्ड करके.घाति कर्मरूपी समुद्रको मथन किया और.जन्म जरा मरणरूपी. रोगको नष्ट करनेवाला केवलज्ञान सपी उत्तम अमृतको आपने प्राप्त क्रिया, याने शुक्र ध्यान पातिकमों का नाश करके केवल . ज्ञान. पाये इसलिये तिने . .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] महिनेकी वैशाखता याने श्रेष्ठतायुक्तही हैं। और हे स्वामी आपके पांच कल्याणक तो हस्तोत्तरा नक्षत्र में जिन जिन मास पक्ष तिथिको हुए उन उन मास पक्ष तिथियोंको तो आपके पांचों कल्याणकोंने पवित्र किये जिससे उन्होंके नामभी सार्थक हो गये परन्तु आपका छठा निर्वाण कल्याणक किस मास पक्ष तिथि नक्षत्रको कब पवित्र करके उसीका गुणयन सार्थक माम क्या रख्खेगा सोतो परोक्ष तथा भावी वस्तु के जानने वाला ज्ञान रहित और चरमचक्ष से प्रत्यक्ष वस्तुके जानने वाला ऐसा मैं नहीं जान सकता हूं तथापि इतना तो जानता हूं कि आपके पांच कल्याणकतो होगये और छठा मोक्ष कल्याणक होगा इसलिये इन छही कल्याणकों करके सिद्धार्थ राजाके पुत्र, हे जगत पूज्य मैंने आपकी भक्ति पूर्वक स्तुति करी है सो अब आप मेरेपर ऐसी जलदिसै कृपा करो कि जिससे आपके प्रसादसे में, मेरे अन्तरके छ भाव शत्रओंको तत्काल जीत लेऊ अर्थात् आपके छहों कल्याणकोकी मने स्तुति करी है उसासे मेरे अन्तरके ( पांच इन्द्रिय तथा छठा मन, या-पांच प्रमाद और छठा मन ॥ अथवा ॥ क्रोध मान माया लोभ और राग देष यह ) ६ वैरियोंका शीघु नाश हो॥ ___ अब देखिये उपयुक शास्त्रानुसार भगवान्के विद्यमान समय समोवसरण ही छहों कल्याणकोंकी स्तुति होती थी तथा वर्तमानमें भी अनेक शास्त्रोंमें प्रगटपने लिखे है तिस परभी विनयविजयजीने उसोका निषेध किया तथा वर्तमानिक तपगच्छीय विहान् नाम धरातेभी उसोका निषेध करते हैं सो थाही कदाग्रहसे उत्सत्र भाषण करके मिथ्यात्वके कितने विपाक भवान्तरमें भोगेंगे जिसकोतो श्रीजानोजी महाराजके सिवाय कोईभी कहनेको समर्थ नहीं है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१५ ] और इतने परभी श्रीपंचाशकजी में छठे कल्याणकको न लिखने से न माननेके आग्रह करनेवाले विद्वत्ताभास विवेक शून्योंकों तो श्रीस्थानांगजी सूत्रके पाठानुसार मोक्ष कल्याणक भी नहीं मानना पड़ेगा क्योंकि वहां पंचम उट्ट शेके पाठ तो केवलज्ञान पर्यन्त पांचकल्याणक लिखकर मोक्षको नहीं लिखा है तो क्या तपगच्छीय विद्वान् लोग केवलज्ञान पर्यन्त श्रीवीर प्रभुके पांच कल्याणक मान्यकर के छठे मोक्षको नहीं मानेगे तो क्या अभीतक वीर प्रभुको विद्यमान, तपगच्छवाले मानते हैं यदि विद्यमान मानते होवे तबतो हम लोगों को भी प्रभुकै दर्शन कराने चाहिये और दूसरे शास्त्रों में चौथे आरके अन्त में श्रीवीर प्रभुका मोक्ष लिखा है सो वृथा हो जावेंगा और यदि श्रीस्थानांगजी सूत्रके बिना दूसरे शास्त्रानुसार श्रीवीर प्रभका मोक्ष कल्याणकका लिखना तपगच्छीय लोग सत्य मानते होवे तब तो श्रीपंचाशकजीके बिना दूसरे शास्त्रानुसार छठे कल्याणक कोभी मानना पड़ेगा और दूसरे शास्त्रोंके प्रमाण मुजब छठे कल्याणकको मान्य करेंगें तो श्रीपंचाशकजीके नामसे छठे कल्याणकका निषेध किया सो प्रत्यक्ष मायाचारीको धर्मध तई सिद्ध हो जावेगी इसलिये तपगच्छीय आत्मार्थो विवेकी पुरुषों से मेरा यही कहना है कि पक्षपातका मिथ्या हठवाद छोड़कर के न्यायकी सत्य बातको प्रमाण करने में तत्पर होना चाहिये और नय गर्भित अपेक्षा सम्बन्धी शास्त्रकारोंके वाक्योंका तात्पपर्थ गुरुगम्यसे बिना समझे या समझते हुए भी अपने पक्ष में भोले जीवोंको गैरनेके लिये हठवादसे बातको विपरीत खेचना सोतो संसारपरिभ्रमणका हेतु भवभीरुओंको करना उचित नहीं है क्योंकि जैसे श्रीस्थानांगजी सूत्र में छठे मोक्ष कल्याणक के लिखनेका पंचमस्थान में सम्प्रन्ध नहीं होने से नहीं लिखा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [We] मोभी अन्य शास्त्रानुसार मोक्ष माननेमें आता है तैसेही श्री पंचाशकजी में बहुत तीर्थंकर महाराजोंके सम्बन्धसे छठे कल्याणकको नहीं लिखा तोभी उपर्युक्त शास्त्रानुसार जिनाचा के आराधक आत्मार्थियों को तो छठा कल्याणक अवश्यमेव मानना पड़ेगा परन्तु जिनाज्ञा के विराधक दीर्घसंसारी दुर्लभबोधि की वो बातही जदी है इसको विवेकी जन स्वयं विचार लेवेंगे,-- और आगे फिर भी विनय विजयजीने लिखा है कि (अन्य寄 चनीचैर्गो विपाकरूपस्य अतिनिद्यस्य आश्चर्यरूपस्य गर्भापहारस्यापि कल्याणकत्व कथनं अनुचितं ) इन अक्षरों करके श्रीवरप्रभुके गर्भापहाररूप छठे कल्याणकको निषेध करनेके लिये विनयविजयजीने नीच गौत्रका विपाकरूप अतिनिंदनीक आश्चर्यरूप गर्भापहारको कल्याणक कहना भी अनुचित है ॥ इस तरहका दिखाया सो इस तरहका उनका लेखको देखकर सूझे बड़े ही खेदके साथ बहुतही लाचारीसे लिखना पड़ता है कि विनयविजयजीने गुरुगम्य से श्रीजैमशास्त्रोंका तात्पर्यार्थको समझे बिनाही श्रीवीरप्रभुके गर्भापहाररूप छठे कल्याणकको निषेध करनेके लिये ऊपर के शब्द लिखके बृधाही अनन्त भव भ्रमणका हेतूभूत तथा अपने और दूसरोंके सम्यक्त्व रत्नरूपी कल्पवृक्षके मूल में दावानल लगाने जैसा महान् अनर्थकारक गाढ़ मिथ्यात्वका कारण करने को और शासनपति श्रीवीर प्रभुकी निन्दा करने को ही मानों विद्वान् नाम धरा करके श्रीपर्य ुषणा पर्व वांचनेके लिये ऊपर के शब्द लिखके सुबोधिका बनानेका परिभ्रम किया मालूम होता है क्योंकि देखो प्रथम तो श्रीतीध कर गणधर पूर्वरादि पूर्वाचार्यों ने श्रीवीरप्रभुके छठी करयासकको खुलासा पूर्वक कथन किया हैं तथापि विनयविजयजी ने उपरके अनुचित शब्दोंसे निषेध किया सो प्रत्यक्ष दीर्घशंसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोपनेका लक्षण है क्योंकि दीर्घससारीक सिवाय तीकर गणधरादि महाराजोंके कथनका आत्मार्थी कोईभी उपरक अनुचीत शब्दोंसे कदापि निषेध नहीं करेगा इस बातको विशेष करके पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे और दूसरा यह है कि-चौदह पूर्वधर भुतकेवली श्रीभद्र बाहुस्वामीजीने श्रीकल्पसूत्र में माहणकुडनगरके ऋषभदत ब्राह्मणकी देवानन्दा ब्राह्मणीकी कूक्षिमें भीवीरप्रभु भाकर उत्पन्न हुए उसीकोही कुल मदके कारणसे अच्छेरा कहा और उसीकोही आषाढ़ शुदी ६का च्यवन कल्याणकभी शास्त्रकारोंने माना है तथा सब कोई मानते भी हैं इसलिये नीच गौत्रका विपाक रूप कह करके अच्छेरेके बहाने गर्भापहारको कल्याराकरवपनेसे विनय विजयजीने निषेध किया सो भोले जीवोंको भ्रमानेके लिये अजामतासे या अभिनिवेशिक मिथ्याविसे उत्सूत्रभाषख करके अपनो विद्वत्ताकी वृथा ही हासी कराई है तो विवेकी तत्वजन स्वयं विचार लेवेगे। __ और अब पाठक वर्मको निःसन्देह होनेके लिये उपरकी बात सम्बन्धी श्रीकल्पसूत्रका पाठभी दिखाता हूं-लपाहि। • तएणं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो, अयमेआसवे अभस्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए सकप्पे समुप्पज्जित्था-न एयंभू,नएयंभवं,नएयंभविस्संति,जन्नं अरिहन्तावा,चक्कवरी वा,बलदेवावा,वासुदेवावा । अतकुलेमुवा पंतकुलेमुवा, तुच्छकु. लेडवा, दरिदकुलेगुवा, किविण कुलेगुवा, भिख्खाग कुलेखवा मारणकुलेखुबा, आयामुवा,माया तिवा,आयाइसन्तिवा, एवं खन् । अरिह बावा, चक्कवहीवा, बलदेवावा, वासुदेवावा, सग कुलेसुवा, भोग कुलेसुवा, राइम्न कुलेसुवा, इस्खागु कुलेसुवा, खत्तिय कुलेसुवा, हरिवंस कुलेखवा, अग्नयरहवा, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५ ] तह पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेमुवा, आयाईसुवा (३) अस्थिपुण एसेविभावे लोगच्छेरयभूए, अणंताहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणी हिं विइक्कंताहिं समुप्पज्यइ, नामगुत्तस्स कम्मस्स अख्खीणस्स अवेइअस्स अणिजिन्नस्स उदएगां, जन्नं ॥ अरिहन्तावा चक्कवट्टीवा बलदेवावा वासुदेवावा, अंत. कुलेसुवा पंतकुलेसुवा तुच्छक० दरिदृ० भिख्खाग० किविण माहग आयाईसुवा (३) कुच्छिंसि गभ्भत्ताए । वक्कमिंसुवा, वक्कमंतिवा, वक्कमिसत्तिवा, नो चेव जोणी जम्मण निख्ख मणेणं-निख्खमंसुवा, निरुखमिंतिवा, निख्खमिस्स तिवा ॥ अयंचणं समर्ण भगवं महावीरे जम्बट्टीवे दीवे भारहे वासे माहण कंडग्गामे नयरे उस्समदत्तस्स माहणस्स कोडालस गुत्तस्स भारियाए देवाणदा माहणीए जालंधरस्स गुत्ताए कृच्छिसि गम्भत्ताए वक्कन्ते। तं जीअमेयं तीअपञ्च पन्न मणागयाण सक्काण देविंदाण देवरायाण, अरिहन्ते भगवन्ते तहप्पगारेहिन्तो अंत कुलेहिंतो पंतकुलेहितो तुच्छकु० दरिद भिख्खाग० किविण कुलेहितो माहणक तहप्पगारेसु उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसुवा रायन्न नाय खत्तिय० हरिवंस कुलेमुवा अन्नयरसुवा तहप्पगारेसु विसुद्धजाइ कुल वंसेमुवा साहरावित्तए। तं सेयं खलु ममवि समण भगवं महावीरं चरम तित्थयरं पुवतित्थयरनिट्टि माहण कुडग्गामाओ नयराओ उसमदत्त समाहणस्स कोडालस्स गुत्तस्स भारियाए देवानंदाए माहणीए बालंधरस्मगुत्ताए कुछछीओ खत्तिा 'कुडग्गामे नयरे नायाण खत्तिाण सिद्वस्थस्स खत्तिमस्त कासवगुत्तस्स भारियाए तिमलाए खत्तियाणीए वासिठस्सगुलाए कुच्छिसि गम्भताए साहरावित्तए ॥ इत्यादि । और यद्यपि श्रीकल्पसूत्रका उपरके पाठकी अनेक व्याख्या. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५९ ] ओंके पाठ मौजूद हैं तथापि इस अवसरपरतो खास विनम विजयजी की बनाई सुबोधिका वृत्तिमेंसे उपरके पाठको टीका पाठकवर्गको दिखाता हूं तथाचतत्पाठः ॥ I तणमित्यादि ततः शक्रस्य देवेंद्रस्य देवानां राशः । अय मेावेत्ति, अयं एतद्र पः । अम्मतिथएत्ति, आत्मविषय इत्यर्थः । चिंतिएत्ति, चिंतात्मकः। पत्थिएत्ति, प्रार्थितोऽभिलाषरूपः। मणीगएति, मनोगतो नतु वचनेन प्रकाशितः ईदृशः । संकष्पेति, संकल्पो विचारः । समुप्पजिजत्र्थात्त, समुत्पन्नः कोऽसौ इत्याह ॥ नखवित्यादि, एतत् न भूतं अतीतकाले । न एवं भव्वंत्ति, न भवति एतत् वर्त्तमानकाले । न एयंभविस्संत्ति, एतत् न भविष्यति आगामिनिकाले । किंतदित्याह । अन्नंति, यत् अर्हतश्चक्रवर्तिनो बलदेवा वासुदेवाय । अन्तकुले सुवति, अन्तकुलेषु शूद्र कुलेषु इत्यर्थः। पंतकुलेसुवत्ति, प्रान्त कुलेषु अधम कुलेषु । तुच्छ कुलेखवत्ति, अल्पकुटम्बेषु । दरिद्द कुलेसुवत्ति निर्द्ध नकुलेषु । किविणकुले सुवत्ति, कृपण कुलेषु अदातृ कुलेषु इत्यर्थः । भिखखागु कुलेमुवत्ति, भिक्षाकास्तालाचरास्तेषां कुलेषुः ॥ तथा ॥ माहा कुले सुवत्ति, ब्राह्मण कुलेषु तेषां भिक्षुकत्वात्, एतेषु कुलेषु । आयाई 'सुवत्ति, आयाता अतीतकाले । आयाइ तिवत्ति, आगच्छति वर्त्तमानकाले । आयाइस्सन्तिवत्ति, आगमिष्यन्ति अनागत काले । एतन्नभूत मित्यादि, योगः तर्हि अर्हदादयः केषु कुलेषु उत्पद्यन्ते इत्याह एवं खल्वित्यादि, एवं अमेन प्रकारेण खलु निश्चय अर्हदादयः । उग्गकुले सुवत्ति, उग्राः श्रीआदिनाथेन आरक्षकतयास्थापिताजनाः तेषां कुलेषु । भोगकुले सुवत्त, भोगा गुरुतया स्थापिताः तेषां कुलेषु । रायन्नकुले सुवति, राजन्याः श्री ऋषभ देवेन मित्रस्थाने स्थापिताः तेषां कुलेषु । इख्खा गत्ति, इक्ष्वाकाः श्रीऋषभ देव वंशोद्भवा स्तेषां कुलेषु । खत्तिअति, क्षत्रियाः श्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५० ] आदिदेवेन प्रजालोकतया स्थापिता स्तेषां कुलेषु हरिवंसत्ति तत्र हरिति पूर्वभव वैरि सुरानीत हरिवर्ष क्षेत्र युगलं तस्य वंशो हरि वंशस्तत कुलेषु । अन्नवरे सुवत्ति, अन्यतरेषु विशुद्ध जाति कुलेषु यत्र एवं विधेषु वंशेषु तत्र जाति र्मातृपक्ष कुलं पितृपक्षः ईशेषु कुठेच आगता आगच्छन्ति आगमिष्यतिच मतु पूर्वपक्ष तर्हि भगवान् कथं उत्पन्न इत्याह । अस्थिपुर त्यादि, अस्ति पुनः एषोपिभावो भवितव्यताख्य लोके आश्चार्य्यभूत । अताहिंति, अनन्तासु उत्सर्पिण्यवस खीषु व्यतिक्रांतासु ईदृशः कथित, पदार्थ उत्पद्यते तत्रास्यां refoot ईशान (यहां दश अछरोंका वर्णन है सो ग्रन्थसे देखो ) अश्वार्याणि जात्तानि ॥ नाम गुतस्सेत्यादि, एकंतावत. आश्चर्यमिदं । नामगुत्तस्स, नाना गोत्र' इति प्रसिद्ध ं यत् कर्क्स गोत्राभिधानं कर्मेत्यर्थः । तस्य किंविशिष्टस्य । अख्खीस पत्ति, अक्षीरास्थिते अक्षयेण । अवेइयस्सत्ति, अवेदितस्य रसस्व अपरि भोगेन । अणिजिणस्सत्ति, अनिजीणस्य जीव प्रदेश भ्यो अपरि शटितस्य । ईदृशस्य गोत्रस्य नीचस्य नीचे गोत्रस्य उदयेन भगवान् ब्राह्मणी कुक्षौ उत्पन्न इति योगः (यहां नीच गौत्रके कर्म बंधका कारण और २७ भवोंका वर्णन है सो ग्रन्यसे देखो ) ततः शक्र एवं चिंतयति यत् एवं नीचे गोत्रोदयेन अर्ड दादयः ४ अन्तादिकुलेषु आगता आगच्छति आगमिष्यन्तिच परं नो चेवणप्ति नैव, ओणी जन्मण निरूख मम पत्ति, योन्या यत जम्मार्थ निष्क्रमण तेन निष्क्रान्ता निष्क्रामन्ति निष्क्र मिष्यन्तिय । अयमर्थः । यद्यपि कदाचित कर्मोदयेन आवयभूत तुच्छादि कुलेषु अर्हदादिनां अवतारो भवति पर जम्मत कदाचित्र भतं न भवति न भविष्यति च । अयचणमित्यादितः नम्माता पृथक्कंतेति यावत, चुगनं । तंजीअमेयन्ति, सतनाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ~ www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९] जीत एतत् आचार एषः । इत्यर्थः । केषां इत्याह । सक्कान्ति, शक्राणां देवेन्द्राणां देवराजानां, किं विशिष्टानां । तीअपच्च - प्पन्नमणागयाणन्ति,अतीत वर्तमानानागतांनां । कोऽसौ इत्याह यत, अरिहंतेत्ति, अर्हतो भगवंतः। तहप्पगारोहिंतीत्ति, तथा प्रकारेभ्यः पूर्वोक्त स्वरूपेभ्य अतादि कुलेभ्यस्तथा प्रकारेषु, उनादीनां अन्यतरेषु कुलेषु । सहारावित्तएत्ति मौयितु ॥ तं सेयं खल्वत्ति, तत्वे यः खलु निश्चय युक्तमेतन्ममापि अमण भगवंतं श्रीमहावीरं देवानंदाकुक्षाः। नायाणंत्ति, राज्ञां श्रीऋषभदेव स्वामि वश्यानां क्षत्रिय विशेषाणां मध्ये सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य भार्याश्त्रिशला क्षत्रियाण्याः कुक्षौगर्भतयामोचयितुं ॥इत्यादि। उपरके पाठका संक्षिप्त भावार्थः कहते हैं कि-सौधर्मइन्द्रने भगवान्को नमस्कार करके सिंहासनपर बैठे बाद मन में विचारा कि-अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव यह चारों ही तरह के उत्तम पुरुष होते हैं सो क्षुद्र के कुल में, अधर्मी के कुलमें, अल्प कुटम्बवालेके कुलमें,कृपणके कुलमें, निर्द्धनकेकुलमें,भिक्षारोकेकुल में और ब्राह्मणके कुलमें, पहिले आये होवें, अबी आते होवे, और आगे आवेगे, ऐसा हुआ नहीं, होगा नहीं, और हो सकताभी नहीं, परन्तु उग्रकुलमें, भोग कुल में, राज्यकुलमें, आदिनाथस्वामीके कुलमें, क्षत्रियकुलमें, हरिवंस कुलमें, इस तरहसे उत्तमजाति और उत्तमकुल दोनों तरहकी शुद्धतावाले कुलोंमें अरिहंतादि चारोंही तरहके उत्तम पुरुष पहिले उत्पन्न हो गये, आगे होवे गे, वर्तमानकाले होते हैं, तथापि अनन्ती उत्सर्पिणी और अनन्ती अवसर्पिणी व्यतीत हो जानेस भवितव्यताके योगसे कुलमदादि कारणसे अरिहंतादिकोंके क्ष द्रादिकुलों में उत्पन्न होने वगैरहकी लोकमें आश्चर्य्यभूत एसी बातें आगे बनी है फिर बनेंगे और वर्तमानमें बनती भी है परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] निश्चय करके अरिहंतादिकोका क्षुद्रादिकुलॉमें जन्मतो हुआ नहीं होगानहीं और होताभी नहीं क्योंकि पहिले होगये, आगे होवेगे और वर्तमानमें है उन सब इन्द्रोंका यह आचाररूप धर्म है, कि अरिहंतादि अशुभकर्मयोगसे क्षु दादिकुलोमें आकर उत्पन्न होवे उन्होंको उग्रादि उत्तमकुलोंमें स्थापन करावे इसलिये सौधर्म इन्द्रने विचारा कि मैंरेकोभी प्रमण भगवंत, श्री महावीर स्वामीको ब्राह्मण कुलसे देवानंदाके उदरसे क्षत्रिय कुलमें त्रिशलाकेउदरमें स्थापन कराना सोकल्याणकारी निश्चय करके योग्यही है इसतरहका विचारके अपना आज्ञाकारी हरिणैगमेषिदेवको बुलाकर, उपर मुजब कहकरके समझाया और श्रीवीरप्रभुको ब्राह्मणकुलस क्षत्रियकुलमें पधराये ___ अब इस जगह आत्मार्थी विवेकी पुरुषोंको पक्षपात रहित होकरके न्याय दृष्टि से विचार करना चाहिये कि, सूत्रकार महा. राजकै कथनानुसार खास आप विनयविजयजीने ही श्रीवीर प्रभु ब्राह्मण कुलमें आषाढ़ शुदी ६ को देवानंदा माताके उदरने उत्पन्न हुए उसीकोही नीचगौत्रका विपाक और आश्चर्य कहा तथा उसीकोही च्यवन कल्याणक भाप भी मानते हैं और नीच गौत्रका विपाक तथा आश्चर्य यह दोनों जपरके विशेषण भी ब्राह्मण कुल में भगवान्के उत्पन्न होनेको ?लगते हैं इसलिये ब्राह्मण कुलसे क्षत्रिय कुलमें सिद्धार्थ राजाके यहाँ भगवान् गये उसीसे गर्भापहार रूप दूसरे च्यवन कल्याणकको विनय विजयजीने ऊपरके विशेषण लगाके कल्याणकत्वपमेसे निषेध किया सो कदापि नहीं हो सकता है क्योंकि यद्यपि कारण कार्य भावसे ऊपरके विशेषण ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होनेरूप देवलोकसे आनेके प्रथम च्यवन कल्याणकको तथा उत्तम कुलमें प्रवेश करने रूप गर्भापहारके दूसरे च्यवन कल्याणकको भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ } लगते हैं परन्तु कल्याण करवपनेसे तो कोई भी निषेध नहीं हो सकता है क्योंकि कारण भावसे ब्राह्मण कुलमें भगवान्के उत्पन्न होने में उपरके विशेषण लगते भी प्रथम च्यवन कल्याणकत्वपना माना जाता है तैमे हो कार्य भावसे त्रिशलामाताके उदर में पधारने रूप गर्भापहारको भी ऊपरके विशेषण लगते भी दूसरा च्यवन कल्याणकत्वपना मानने में कुछ भी वितंडावाद नहीं चल सकता है तथापि गच्छकदाग्रहके हठवादसे जपरके विशेषण त्रिशलामाताके उदरमें पधारनेको लगाके कल्याणकत्वपनेसे निषेध करनेसे तो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होमेको भी उपरके विशेषण लगके कल्याणकत्वपना निषेध हो जावेगा तबतो प्रथम च्यवन और गर्भापहार रूप दूसरा च्यवन यह दोनों कल्याणक निषेध होनेसे बाकी श्रीवीरप्रभुके च्यारही कल्याणक रह जानेका तपगच्छीय विद्वत्ताभास कदाहियोंकी कल्पनाका ११ वा एक अपूर्व आश्चर्य पंचमकालमें भी होजा. वेगा उसीको श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाके आराधक विवेकीतत्वज्ञ तो (ऐसी कदाग्रहकी कल्पित बातको) कदापि नहीं मान सकते हैं परन्तु श्रीजिन आज्ञा विराधक गड्डरीह प्रवाही विवेक शून्योंकी तो बात ही जूदी है और उपरके विशेषणोंका कारण कार्यभाव दोनों में विद्यमान होते भी एकको कल्याणक मानना और दूसरेको कल्याणकत्वपनेसे निषेध करना सो गच्छ कदाग्रहका प्रत्यक्ष अन्याय अंध परंपरा वालोंके सिवाय विवेकी तत्वज्ञोंका तो कदापि न होगा सो भी पाठकगण स्वयं विचार लेना और तीसरा यह है कि-मोक्षाभिलाषी आत्मार्थी भव्य जीवोंको कुल मदादि कर्मविटंबनाने छोड़ा करके प्रमाद रहित वासे मोक्ष मार्ग प्रवर्तानेवाला गर्भापहारनप श्रीवीरमभका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२४ ] अतिउत्तम दूसरा च्यवन कल्याणकको अति निंदनीक लिख करके और कहकरके श्रीजिन आज्ञाके विराधक गडडरीहप्रवाही विवेकशून्य साध्वाभासोंसे हरवर्षे पर्युषणामें वंचानेका कारण करके भोले जीवोंको शासनपति तीर्थंकर महाराज श्रीवर्द्धमान स्वामिकी निन्दा करने करानेके कार्यमें फसाकर संसारमें परिभ्रमणका रस्ता दिखाना सोतो मोक्षाभिलाषी आत्मार्थी प्राणियोंके आत्मसाधनमें विघ्न कारक प्रत्यक्ष अनन्त संसारीपनेका लक्षण है क्योंकि-देखो-श्रीवीरप्रभुके गर्भापहारको दूसरा च्यवन कल्याणक मान्य करके तपश्चर्यादि धर्मकृत्यों करके आराधन करनेसे मरीचिके भवमें नीचगोत्र बांधनेकी तथा अनेक भवों में उसीको भोगनेकी और अन्तमें ब्राह्मणकुलमें अवतार होकरके गर्भापहारके होनेसे कर्मों की विचित्रगतिकी भावनासे कुलमद रहित होकरके आत्मार्थी प्राणी अपने दिलमें ऐसा विचारेगा कि, देखो अनन्त सकती वाले श्रीवीर प्रभुको भी पूर्व भवके कुल मदका कर्म भोगना पड़ा तो अल्प सकती वाला मेरे जैसा तुच्छ जीवकी तो कौन गिनती है इत्यादि भावनासे उसीको कोई बातका अभिमान नहीं हो सकेगा और विनय नम्रतादिगुणोंकी प्राप्ति होवेगी सोतो श्री वीरप्रभुके दूसरा च्यवन कल्याणकको माननेसे ही उत्तम प्रका. रकी भावना और धर्मध्यान अवश्यमेव करनेमें आवेगा उसीसे कर्मों की अनन्त निर्जरा होनेका कारण है और इस कारणसे भव्यजीवोंका कल्याणकरूप आत्मसाधनका कार्य हो सकता है इसलिये ही श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंने उसीको कल्याणक माना है सो आत्मसाधनाभिलाषियोंको तो अव. श्यमेव निश्चय करके गर्भापहारको दूसरा च्यवन कल्याणक मानना चाहिये और विनयविजयजीने आत्रामतासे उसीको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२५ ] निषेध किया तथा उसी रस्तेसे वर्तमानिक कितनेही लोग निषेध करते हैं सोतो अपनी आत्म घातका ही कारण करते हैं इस बातको विवेकी जन स्वयं विचार लेवेंगे, और देखिये बड़ी ही आश्चर्यकी बात है कि-नीचगौत्रके विपाक रूप तथा आश्चर्यरूप ब्राह्मणकुलमें भगवान उत्पन्न हुए सो व्यवहार विरुद्ध अतिनिन्दनीक कहते हुएभी उसीको कल्याणक मानते है और नीचगौत्रका विपाक भोगेबाद (क्षय हुएबाद) व्यवहार विरुद्ध निन्दनीकपना मिटानेके लिये उत्तम कुलमें पधारे उसीको कल्याणत्वपनेसे निषेध करते हैं सो विनयविजयजीकी तथा वर्तमानिक कदाहियोंकी विवेक शून्यताकी विद्वत्ताका निज परके आत्मघात करने वाला कलयुगी प्रकाश ही मालूम होता है सो गडडरीह प्रवाही अधपरंपरा वाले और दूष्टिरागके फन्दमें फंसे हुए जनोंके सिवाय आत्मार्थियोंको अवश्यमेव परिहरणे योग्य है इसको भी विवेकी जन स्वयं विचार लेवेंगे, और ब्राह्मणकुलमें भगवान्का उत्पन्न होना सो निन्दाका और लज्जाका कारण कहा जा सकता है नतु उत्तम कुलमें पधारना सो, क्योंकि देखो, यदि ऋषभदत्त ब्राह्मणके धरे भगवान्का जन्म होता तो तत्वज्ञान रहित ब्राह्मण लोग बिना विचार कियेही हरेक जैनीले हरेक प्रसंगमें वारंवार क्षुद्रपनेकी वाचालता प्रगट करते ही रहते कि जैनियोंके परमेश्वर तो ब्राह्मण लोग होते हैं और अब जैनी लोग ब्राह्मणोंको पूजने वगैरहकी बातोंको नहीं मानते हैं सो परमेश्वरके द्रोहीहैं इस तरहसे बालजीवोंके आगे अपना प्रपंच प्रगट करके जैनियोंकी निन्दा पूर्वक मिथ्यात्व बढ़ाते रहते और अपनी धम जालमें भोले जीवोंको फंसाकर अपना अभीष्टसिद्ध करने के लिये जैनियोंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२६ ] कलडीत करते रहते और राज्यवंशी उत्तम क्षत्रिय शूरवीरोंका जैनधर्मको हाणी पहुंचाते सोही जैनियोंको परम लज्जाका कारण होनेसे अतीव निन्दनीक था सो इन्द्र महाराजने मिटानेके लिये सिद्धार्थ राजाके घरे उत्तम कुलमें भगवान्को पधारनेका अतीव श्रेष्टकार्य करके राज्यवंशी उत्तम क्षत्रिय शूर वीरोंका जैनधर्मको कलङ्क रहित कायम रख्खा और लज्जाके निन्दाके तथा ब्राह्मणोंसे मिथ्यात्व बढ़नेवाली बातके कारणको जड़ मूलसे काटडाला उसी कारणकोही विनयविजयजीने अति निन्दनीक कहा तथा अधपरंपराके मिथ्यात्वसै वर्तमानिक तपगच्छीय कदाग्रही लोग हरवर्षे कहते रहते हैं। हा अतीव खेदः। विवेक विकल विद्वत्ताभासोंके सत्यज्ञान रूपी अन्तर चक्षुको गाढ़ मिथ्यात्व रूप अतीव अन्धकारके पहलोंने कैसी दृढ़ता करलीहै सो सत्य बातका निषेध करने के लिये संसार वृद्धिका हेतूभूत उत्सूत्र भाषण और श्रीवीरप्रभुकी निन्दा करते हुए भी सत्यवादी शुद्ध प्ररूपक बनते हैं सो तो भारी कम प्राणियोंके लिये पाखण्ड पूजा नामक अच्छेरेका कलयुगी प्रकाश ही मालूम होताहै इसको विशेष करके विवेकी तत्त्वातजन स्वयं विचार लेगे, और चौथा यह है कि गर्भापहारको अति निन्दनीक वगैरह विशेषण लगा करके कल्याणकत्वपसे विनयविजयजीने निषेध किया तथा वर्तमानिक लोग करते हैं सोतो निम्केवल अपने गच्छपक्षके आग्रहसे उत्सूत्रभावण करके भोले जीवोंको अथाही निध्यात्वके भ्रममें गैर कर संसार इद्विका हेतु करके अपनी आत्मसाधनके सम्यकत्व रूपी सरल रस्ताको भूल करके मिथ्या. स्व विकट थमने फिरनेका कारण करते हैं क्योंकि-श्रीगणपर .महाराज श्रीधर्मस्वामीजीने श्रीसमवायांगजी में तथा भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] नवांगी एत्तिकार श्रीखरतर गच्छनायक अप्रसिद्ध भीमदभपदेव सूरिजी महाराजने श्रीसमवायांगजी सूत्रकी इत्ति देवानन्दा माताके उदरसे त्रिशला माताके उदर में भगवानके पधारने रुप गर्भापहारको उत्तम प्रकारके भवकी गिनती में लिया है इस लिये गर्भापहार निन्दनीक नहीं हो सकता है किन्तु उत्तम तो प्रत्यक्षही सिद्ध होता है अब इस अवसरपर श्रीगणधर महाराजकृत श्रीसमवायांगजी सूत्रका तथा श्रीअभयदेव सूरिजी महाराजकृत उसीकी वृत्तिका पाठ यहां दिखाता हूं सो धनपति सिंह बहादुरके आगम संग्रह भाग चौथे में श्रीसमवायांगजी सूत्रत्ति सहित छपकर प्रसिद्ध हुआ है जिसके पृष्ठ १६६।१६७ का पाठ नीचे मुजब है यथा समणे भगवं महावीरे तित्थगर भवग्गणाओ छठे पोटिल भवग्गहणे एगवासकोडि सामन्न परियागं पाउणित्ता सहा सारे कप्पे सब्बठ विमाप देवत्ताए उववन्ने ॥ व्याख्या-समणेत्यादि किल भगवान् पोटिलाभिधानो राजपुत्रो बभूव तत्र वर्षकोटि प्रब्रज्यांपालितवानित्येकोभवः । ततो देवो भूदिति द्वितीयः । ततो नंदनाभिधानोराजसूनुः छत्रा नगर्या जज्ञ इति तृतीयः। तत्र वर्ष लक्षम् सर्वदामास क्षपणेन तपस्तप्त्वा दशम देवलोके पुष्पोत्तर वरविजय पुंडरीका भिधाने विमाने देवोभवदिति चतुर्थः । ततो ब्राह्मण कुड पामेऋषभदत्त ब्राह्मणस्य भार्याया देवानंदाभिधानायाः कुक्षावुत्पन्न इति पंचमः । ततोदयशीतितमे दिवसे क्षत्रिय कुंड ग्रामेनगरे सि. द्वार्थ महाराजस्य त्रिशलाभिधान भार्यायाः कुक्षाविन्द्रवचन कारिणा हरिनैगमेषिनाना देवेन संहृतोनीतस्तीर्थकरतयाच जात इति षष्ठः। उक्त भवग्रहण हि विना नान्यद्भवग्रहण षष्ट अ यते भगवत इत्येतदेव षष्ठभवग्रहण तया व्याख्यातं यस्माच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] भवन्त्रहणादिदंषष्ठ तदप्ये तस्मात् षष्ठमेवेति सुष्टुच्यते ती थंकर भवग्रहणात्वष्ठे पोटिल भवग्रहण - इति ॥ उपरके पाठका भावार्थ कहते है कि- श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी के पूर्वभवों की गिनती करने में तीर्थंकरत्वपने के पहिले निश्चय करके भगवान् छठे भवमें महाविदेह क्षेत्र मुका नगरी में चौराशी लाख पूर्वके आयुष्ये पोटिल नामा राजपुत्र हुए वहां चक्रवर्तीपनेको ऋद्धिको छोड़ करके एक कोड़ वर्ष पर्यन्त समान्यपने दीक्षा पर्यायको पालन करी सो प्रथम भव । वहांसे सहसार नामा आठवें देवलोकके सर्वार्थ सिद्ध नामा विमानमें देवतापने उत्पन्न हुए सो दूसरा भव । और वहांसे इसी भरतक्षत्रको छत्रानगरी में नन्दनामा राजपुत्र हुए सो तीसरा भव ॥ और वहां २४ लाख वर्ष तक गृहस्थावास में राज्यका पालण करके पीछे दीक्षा लेकरके एक लाख वर्षतक निरन्तर मास मास क्षमणकी तपस्यासे श्रीवीश स्थानकजीका आराधन किया सो ११८०६४५, अथवा मतान्ततरे ११८०५००, मास क्षमण करके दशवे देवलोक के पुष्पोत्तर नामा विमान में देवता हुए सो चौथाभव ॥ और वहांसे देवत्वपनेका आयुष्य पूर्ण करके ऋषभदत्त ब्राह्मणकी देवानंदा नामा ब्राह्मणीके उदर में आकर ऊत्पन्न हुए सो पञ्चमभव । और वहांसे ८२ वेंदिन इन्द्रकी आज्ञानुसार हरिणेगमेषी देवने सिद्धार्थ राजाकी त्रिशलाराणीके उदर में स्थापित किये और तीर्थंकरपने प्रगट हुए सो छठाभव । और देवानन्दा माता के उदरसे त्रिशला माता के उदर में भगवान्का पधारना हुआ सो उपर में भगवान्‌का छठा भव कहा है उसीको छठेभवमें गिनती किये बिना तो निश्चय करके भगवान्का दूसरा कोई अन्य छठा भवग्रहण करनेका तो किसी भी शास्त्र में सुनने में नहीं आया इसलिये वोही (त्रिशला माताके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५९ ] उदर में पधारने रूप गर्भापहारको) छठा भवकी गिनती में कहा गया है सो ही जिस पोटिल के भवग्रहणसे भगवान्‌का यह छठा भव अष्टपमेसे कहने में आया तिस भगवान्‌ के भवग्रहणसे छठा पोटिलकाभव गृहण किया गया ॥ अब देखिये उपरके पाठ में श्रीगणधर महाराजने तथा श्री अभयदेव सूरिजी महाराजने देवानन्दामाता के उदरसे त्रिशला माता के उदर में पधारने रूप गर्भापहारको निश्चय करके उत्तम प्रकार के भवकी गिनती में प्रमाण किया तथा त्रिशला माता के उदर में जानेसे ही तीर्थ करपने प्रगट होनेका लिखा इससे तथा श्रीकल्पसूत्र और उनकी अनेक व्याख्या वगैरह अनेक शास्त्रानुसार भगवान्‌के गर्भापहार होनेसे च्यवन कल्याणक की तरह ही त्रिशलामाताने चौदह स्वप्नोंको देखे तथा शास्त्रकारों ने भी स्वप्नोंका विस्तारसे वर्णनकिया और सिद्धार्थ राजाने स्वप्न पाठकोंकों बुलाकर स्वप्नोंका अर्थ पूछने से पुत्रोत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्या वगैरह कारणोंस भगवान् के गर्भापहारको अति श्रष्टतापूर्वक कल्याणकत्वपना तो स्वयं सिद्ध होते भी विनय विजयजीने उसीको अतिनिन्दनीक कह करके कल्याणकत्वपमेसे निषेध किया सो गच्छकदाग्रहके मिथ्यात्व से भगवान्‌की तथा अनेक शास्त्रकार महाराजोंकी बड़ी ही आशातना करके अपनेको और अन्धपरंपरा वाले दृष्टिरागियोंको भवोभवमें भगवंतकी आशातनाके अतीव निन्दनीक महान् अनिष्ट कर्म उपार्जन करने करानेका बुथाही कारणकिया है सो तो शास्त्रज्ञ विवेकीजन स्वयंविचारलेवेंगे, और अब वर्तमानिक श्रीतपगच्छके महाशयोंसे मेरा यही कहना है कि आप लोग श्रीगणधर महाराजके तथा श्रीनवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरिजी महाराजके और पञ्चागी ६१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३०] शास्त्रोंके वचनोंको सत्यमान्यकर उनपर पूर्ण विश्वास (श्रद्धा) रखने वाले सत्यग्रहणाभिलाषी श्रीजिनाज्ञाके आराधक सम्यकत्वधारी हो तब तो गर्भापहार रूप भगवान्का दूसरा च्यवन कल्याणकको निषेध करनेके लिये अतिनिन्दनीक वगैरह शब्द कह करके, संसार परिभ्रमणका कारण करते हो जिसको तत्काल छोड़कर उपर्यत महाराजके शास्त्र वचना नुसार निश्चय करके गर्भापहारको उत्तम प्रकारके भवकी गिनतीमें लेकरके कल्याणकत्वपने में अवश्यमेव मान्य करोगे तथा दूसरोंको कराओगे तबहीतो आप लोग श्रीगणधर महाराजके तथा श्रीअभयदेवसूरिजीके और पञ्चांगी शास्त्रोंके वचनोंको सत्य मान्यकर उनपर श्रद्धा रखनेवाले तथा न्यायानुसार सत्य बातको ग्रहण करनेवाले सम्यक्त्वधारी आत्मार्थी श्रीजिनाज्ञाके आराधक बन सकोगे, अन्यथा कदापि नहीं क्यों, कि जो गर्भापहार अतिनिन्दनीक होता तो शास्त्रकार महाराज गर्भापहारको निश्चय करके उत्तम प्रकारके भवकी गिनतीमें कदापि नहीं लाते और यहां तो खुलासा पूर्वक लाये हैं इसलिये गर्भापहार अतिनिन्दनीक तो क्या परन्तु कुछ भी निन्दनीक नहीं अर्थात् अतीव अष्ट है तथापि विनयविजयजीने अतिनिन्दनीक कहा तथा वर्तमानमें भी अन्धपरंपरासे जो लोग कहते हैं सो अपने और गच्छममत्वियोंके विकट कर्मबंधका और संसारमें परिभ्रमणका कारण करते हैं इस बातको निष्पक्षपाती विवेकी जन तो अपनी बुद्धिसे आप ही विचार लेवेंगे,___ ओर इतने परभी वर्तमानिक श्रीतपगच्छवाले महाशयोंको श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक मानने में लज्जा आती होवे तो आषाढ़ शुदी ६ को देवानन्दा माताके उदरमें भगवान् पधारे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३१ ] उसीको च्यवन कल्याणक मानना छोड़कर आश्विन बदी १३ को त्रिशला माताके उदर में भगवान् पधारे उसीको च्यवन कल्याणक मान्यकर लेवें, क्योंकि-नीच गोत्रके विपाकसे आश्चर्यरूप तथा ब्राह्मण लोगोंसे जैनियोंकी निन्दापूर्वक मिथ्यात्व बढ़नेका कारण तो आषाढ़ शुदी ६ को देवानन्दा माताके उदर में भगवान् उत्पन्न हुए सो वहां जन्म होनेसेही होता जिसको अर्थात् उपरकी सब बातों को मिटाने के लिये त्रिशला माताके उदरमें पधारे हैं इसीलिये तो उपरोक्त शास्त्रकार महाराजने उसीको भवकी गिनती में लिया ॥ इस जगह परभी विवेकी तत्त्वज्ञोंको न्याय दृष्टिसे विचार करना चाहिये कि-जब त्रिशलामाताके उदरमें भगवान् पधारे तब ही तीर्थंकर भगवान् उत्पन्न होने सम्बन्धी चौदह स्वप्नोंका विस्तारसे वर्णन वगैरह कार्य भी सिद्धार्थ राजाके वहां हुए इसलिये आश्विन बदी १३ को भगवानके उत्पन्न होनेको च्यवन कल्या. णकत्वपना निश्चय करके निःसन्देहता पूर्वक स्वयं सिद्ध हो चुका, इसलिये आश्विन बदी १३ को त्रिशला माताके उदर में भगवानका पधारना हुआ सो गर्भापहाररूप च्यवन कल्याणकको शास्त्र वाक्य प्रमाण करनेवाले आत्मार्थी तो कोई भी कदापि काले निषेध नहीं करेगा परन्तु दीर्घ संसारी मिथ्यात्वियोंके अन्तरका हठवादको तो तीर्थंकर गणधर भी छोड़ाने समर्थ नहीं होसकते तो मेरा लिखना किस हिसाबमें अर्थात् उपरका मेरा लेख सत्यग्रहणाभिलाषी श्रीजिनामाके आराधकोंको तो हितकारी होगा नतु अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी दुर्लभबोधिजनोंको और सर्वगच्छवालोंके माननीय पूज्य श्रीअभयदेव सूरिजीके वच• नानुसारश्रीसमवायांगजी चौधे अङ्गकी शत्तिके वाक्यसे आश्विन बदी १३ को विशलामाताके सदर में भगवान् पधारनेको उपर्यत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३२ ] कारणोंसे कल्याणकत्वपना सिद्ध करके पाठक गणको यहां दिखाया तथा इन्हीं महाराजके वचनानुसार श्रीस्थानांगजी तीसरे अङ्गको वृत्तिके वाक्यसे और श्रीकल्पसूत्रादि अनेक शास्त्रोंके वाक्योंसे छ कल्याणक श्री वीरप्रभुके प्रत्यक्षपने सिद्ध होते भी ऐसा कौन श्रीजिनाझा विराधक भारीकर्मा निर्लज्जहोगा सो शास्त्र प्रमाण और युक्तिपूर्वक प्रत्यक्षसिद्ध बातको भी निषेध करके अपने गच्छकदाग्रहके हठवादके मिथ्यात्वको स्थापन करनेका परिश्रम करके भोले जीवोंको भ्रमानेके लिये आगेवान होगा जिसकी तो अब थोड़े ही समय में यह ग्रन्थ प्रगट हुए बाद परीक्षा हो जावेगा और भी पाठकवर्गको विनय विजयजीकी धर्म ठगाईकी मायाचारीका नमूनादिखाता हूं, कि देखो खास आपने ही श्री कल्पसूत्रके मूलपाठानुसार सौधर्मेन्द्र ने भगवान्‌को ब्राह्मण कुलसे क्षत्रिय कुल में पधारने का किया सो आचाररूपी धर्म तथा कल्या याकारी है इसलिये गर्भापहार करना निश्चय करके युक्तही है ॥ ऐसा लिखा- जिसका पाठ भावार्थ सहित उपर में ही छप गया है और फिर ऋषभदत्त ब्राह्मणके घर से सिद्धार्थ राजाके घर में भगवान्के पधारनेकी व्याख्या करते विशेष करके १ श्लोक में " भव्यजीवोंका कल्याण करनेवाले श्रीवीरप्रभु अच्छा मुहूर्त्त देखकर ब्राह्मण के घरसे सिद्धार्थ राजाके घरे पधारे" ऐसे मतलबकी व्याख्या करी सो श्लोक भी इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ५०४ में छप गया है। अब इस जगह परभी विवेकी सज्जनोंको पक्षपात रहित हो करके न्याय दृष्टिसे विचार करना चाहिये कि - देवानन्दा ब्राह्मणीके उदरसे त्रिशला क्षत्रियाणीके उदरमें इन्द्रने भगवान्‌का पधारमा किया सोही गर्भापहार होनेको खास आप विनय विजयजी ही अपनी बनाई बौधिका में प्रगटपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३३ ] गर्भापहार कराने का इन्द्रका धर्म है कल्याणकारी है सो निश्चय करके युक्तही है और भव्यजीवोंका कल्याणके लिये अच्छा मुहूर्त्त देखकर ब्राह्मणके घर से सिद्धार्थ राजाके घर में भगवान् पधारे इस तरहका लिखते हैं सो अनन्तपुण्यवाला एक भव अवतारी अनेक तीर्थ कर महाराजोंका भक्त और निर्मल सम्यकत्वरत्न के तथा अवधिज्ञान के धरनेवाला सौधर्मेन्द्रको तो गर्भापहारका होना कल्याणकारी ठहरा तब तो श्री वीरप्रभुके भक्त आत्मार्थी अन्य जीवोंको तो निःसन्देहतापूर्वक निश्चय करके गर्भापहार कल्याणकारी स्वयं सिद्ध होगया इससे तो गर्भापहारको विनय विजयजी के लिखने के अनुसार भी कल्याणकत्वपना प्रगटपने सिद्ध होता है तथापि विनयविजयजीने उसीको अतिन्दनीक लिखकर अपने अन्धपरंपरा के मिथ्यात्वकी भ्रमजाल में भोले जीवोंको गेरनेके लिये कल्याणकत्वपनेसे निषेध करनेका परि श्रम किया सो उनकी तात्पर्यार्थमें विवेक बुद्धिकी विकलता कहीजावे, या - जानबुझकर अपने गच्छकदाग्रहकी कल्पित बातको स्थापन करनेरूप अभिनिवेशिक मिथ्यात्व कहाजावे, अथवा विवेक बुद्धिके बिना अपने लिखे वाक्यका भी अर्थ भूल करके तत्वज्ञोंसे अपने विद्वत्ताकी हांसी करानेका कारण कहा जावे सो तो निष्पक्षपाती विवेकी पाठकगण अपनी बुद्धिसे आपही विचार लेना चाहिये ॥ और भी देखिये बड़ेही खेदके साथ बहुतही आश्चर्य की बात है कि विनयविजयजीने एक जगह तो गर्भापहारके करानेका इन्द्रका धर्म तथा अवश्य कर्तव्य और कल्याणकारी लिखा फिर इसी बात को अपने अन्तर मिथ्यात्व से पूर्वापरविरोधि वाक्यका भय न करके अतिमिन्दुमीक लिखते विवेक बुद्धि बिना विद्वाate अपनी हांसी करानेकी कुछ भी अपने हृदय में लज्जा नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३४ ] रख्खी परन्तु वर्तमान में गच्छकदाग्रहके अन्धपरंपरामें चलने वाले विवेक शून्यतासे साध्वाभास लोग प्रतिवर्षे श्रीपर्युषणा पर्वमें धर्मध्यानके दिनों में कल्याणकारी बातको भी अति निन्दनीक कहते हुए धर्माधर्मका विचार किये बिना गाडरीह प्रवाहसे निज परके सम्यकत्वरत्नको नष्ट करनेका और अनन्त भव भ्रमणका हेतु करते कुछ भी लज्जा नहीं रखते हैं। हा हा अति खेदः । इस पञ्चम कालमें तत्वज्ञान रहित, विवेक विकल, विद्वत्ताके अभिमान रूपी अजीर्णताके रोगसे ग्रस्त, जैनाभास, उत्सूत्रभाषक, तथा श्रीवीरप्रभुके निन्दक, भारीकर्म प्राणियोंने शास्त्रोंके प्रत्यक्ष प्रमाणोंको भी उत्थापन करके सत्य बातका निषेध करनेके लिये कुयक्तियों के भ्रमका और भगवंतकी आशातनाका कारण तथा गाढ़ मिथ्यात्व बढ़ानेवाला कैसा कल्पित मार्गको चलाया और चला रहे हैं जिन्होंकी आत्माका संसारमें परिभ्रमणका पार कब आवेगा जिसको तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने और ऐसे मिथ्यात्वके मार्गमें जिनाज्ञा विराधक दीर्घ संसारोके सिवाय आत्मार्थी तो कोई भी फसनेका संभव नहीं है तथापि कोई अज्ञान दशासे फसगये होवे उन्होंका तत्काल उद्धार करके श्रीजिनाज्ञा मुजब सत्य बातकी शुद्ध श्रद्धा जो सम्यक्त्वरत्न उसकी प्राप्ति के लिये ही यह मेरा लिखना अल्पसंसारीको उपयोगी हो सकेगा नतु मिथ्यात्वी दीर्घ संसारके लिये क्योंकि जो सत्यग्रहणकाभिलाषी आत्मार्थी प्राणी होगा सो तो शास्त्रोंके प्रमाणानुसार तथा यक्तिपूर्वक सत्य बातको देखते ही तत्काल उसीको ग्रहणकरके अपने अंधपरंपराके कदाबहका शीघ्र त्याग करेगा और भगवान्की आज्ञा मुजब अपने मात्म कल्याण करनेके कार्यमें उद्यम करेगा और अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी दीर्घ संसारीहोगा सोतोसस्य बातका ग्राम करनेके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३५ ] बदले अपने कल्पित मन्तव्यके कदाग्रहको विशेष पुष्ठकरता हुआ भोले जीवोंको उसीके भ्रम में गेरनेके लिये उत्सूत्रभाषणोंका और कुयुक्लियोंके विकल्पोंका संग्रह करके विशेष मिथ्यात्व बढ़ानेका कारण नहीं करेगा तोभी बहुत ही अच्छा है और ऋषभदत्त ब्राह्मणके घरे भगवान्का उत्पन्न होना सो नीच गौत्रका विपाक तथा आश्चर्य रूप होनेसे गुप्तपने रहे क्योंकि तीर्थंकर की उत्पत्ति सम्बन्धी दुनिया में कोई भी बात प्रगट नहीं हुई जिसको तो कल्याणक मानते हैं और नीच गौत्रका विपाक भोगे बाद भगवान् सिद्धार्थ राजाके घर पधारे सो प्रगटपने तीर्थंकर उत्पत्तिका बड़ा महोत्सव हुआ तथा तीर्थंकर उत्पत्ति सम्बन्धी दुनिया में भी प्रगटपने बात हुई और शास्त्रकारों ने भी उसीको कल्याणक माना और श्रीपार्श्वनाथस्वामी श्रीनेमिनाथस्वामी के तथा श्रीआदिनाथस्वामीके तीर्थंकरत्वपमे उत्पन्न होने में माता के चौदह स्वप्नोंकी व्याख्या करने सम्बन्धी भलामण शास्त्रकारोंने श्रीवीरप्रभुके गर्भापहारसे त्रिशला माता के चौदह स्वप्नोंकी खुलासा पूर्वक दी है इससे भी गर्भापहारको कल्याणकत्वपना सिद्ध है क्योंकि जो गर्भापहारको च्यवन कल्याणककी प्राप्ति नहीं होती तो शास्त्रकार महाराज श्रीपार्श्वनाथस्वामी आदि तीर्थंकर महाराजोंके च्यवन कल्याणक सम्बन्धी चौदह स्वप्नोंका विस्तार करनेके लिये उसीकी भलामण कदापि नहीं देते परन्तु प्रगटपने दी है इसलिये सामान्यता होने से गर्भापहारको कल्याणत्वपनेकी अवश्यमेव प्रगटपने प्राप्ति है तथापि उसीका निषेध करके कल्याणक नमानने के आग्रह में फसकर विशेष करके उसकी निन्दा करना सो तो प्रत्यक्षपमे गच्छकदाग्रहके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके सिवाय और क्या होगा सो पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे, - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] तथा और भी देखिये गर्भापहारको अति निन्दनीक कहने वाले गच्छममवियोंको हृदयमें विवेक बुद्धि लाकर थोड़ासा भी तो विचार करना चाहिये कि कोई अल्प बुद्धिवाला सामान्य पुरुष भी जान बुझकर निन्दनीक काम नहीं कर सकता है तो फिर अनन्तबुद्धिवाले निर्मलअवधिज्ञानी और अनेक तीर्थ कर महाराजोंके परम भक्त तथा धर्मदेशना सुननेवाले एकभव करके ही मोक्षमें जानेवाले सौधर्मेन्द्रने जानबुझ करके गर्भापहारका अतिनिन्दनीक काम क्यों किया, क्योंकि तुम्हारे मन्तव्य मुजब तो गर्भापहार हुआ सो अति निन्दनीक हुआ सो अतिनिन्दनीक काम नहीं होना चाहिये तबतो ब्राह्मण कुल में ऋषभदत्त ब्राह्मणके घर में भगवान्‌का जन्म होता तो आप लोगोंके अच्छा होता परन्तु शास्त्रकार महाराजोंने तो ब्राह्मण कुल में भगवान्‌का जन्म होना अच्छा नहीं समझा और इन्द्र महाराजने भी भगवान्‌का ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होना तथा वहां ब्राह्मण कुल में ही जन्म होना इसको अच्छा नहीं याने अनुचित समझ करके ही तो अपने और दूसरोंके हितके लिये तथा भगवान्‌को भक्तिके लिये गर्भापहारसे भगवान्को उत्तम कुल में पधारनेका किया सो उसीको शास्त्रकारोंने खुलासापूर्वक लिखा इससे प्रत्यक्षपने सिद्ध होता है कि गर्भापहार अतिनिन्दनीक नहीं किन्तु अतीव उत्तम तथा कल्याणकारी है इसलिये जो श्रीजिनाज्ञाके अराधक आत्मार्थी होवेगें सो तो इन्द्र महाराजकी तरह गर्भापहारको अतीव उत्तम तथा कल्याणकारी मान्य करेंगें जिन्होंका शुद्ध श्रद्धा से आत्म कल्याण भी शीघ्र होजानेका संभव है और श्रीजिनाज्ञाके विराधक बहुलसंसारी गच्छकदा ग्रह के मिथ्या हठवादी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी होवेगें सो ही अति उत्तम कल्याणकारी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३७ ] गर्भापहारको अतिनिन्दनीक तथा अकल्याणकारी कहके श्री वीरप्रभुकी आशातना तथा भव्यजीवोंके आत्म साधन विघ्न करेगें और करानेका कारण करेगें जिन्होंकी आत्माका कल्याण होना बहुत ही मुश्किल है इस बातको विवेकी तत्त्वज्ञ पाठक गण स्वयं विचार लेवेंगे, और अब गर्भापहारको अतिनिन्दनीक कहके श्रीवीर प्रभुको आशातनासे तथा भोले जीवोंको गच्छकदाग्रहका मिथ्यात्वके भ्रममें गेरने के लिये उत्सूत्र भाषणसे संसारमें परिभ्रमणका हेतु करनेवालोंकी अज्ञानताको दूर करनेके उपकारके लिये तथा भोले जीवोंक मिथ्यात्व रूपी भ्रमको दूर करके सम्यकत्व रूपी रत्नकी प्राप्तिका उपकारके लिये गर्भापहारको अति उत्तमतापूर्वक कल्याणकत्वपना सिद्ध करनेवाला एक दृष्टान्तकी युक्तिके अमत रूपी औषधको यहां दिखाता हूं जिससे कदाहियों के अन्तर मिथ्यात्व रूप अन्धकारके रोगको शांति होनेसे सम्यग्ज्ञानका स्वयं प्रकाश होजावेगा, सो देखोजैसे-गर्भावासका निवास तथा जन्म, जरा, रोग, शोक, आधि, व्याधि, उपाधि, संयोग, वियोग, मृत्यु आदि दुःखोंसे व्याप्त, तथा अशुचि दुर्गन्धमय सात धातुओंसे मिलित मनुष्यका शरीर सो देवताओं के शरीरसे अनन्तगुणाहीण होतेभी उसी में धर्मसाधनका तथा मोक्षगमनका कारण होनेसे उसीको उत्तम कहा, तथा रोगरहित अनन्तशक्तिवाला अनन्तस्वरूपकी कांतिवाला अनन्तसुखवाला नववेक निवासी देवताके शरीरको भी दीर्घ संसारी मिथ्यात्वीके लिये बुरा कहा और छेदन भेदन ताडण मारण रोग शोकादि अनन्त दुखोंवाला अतीव दुर्गन्धमय सातवीं नरक वासीके शरीरको भी सम्य. क्त्वधारी अल्प संसारीवालेके लिये श्रेष्ठ कहा, तैसेही भगवा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३८ ] न्के च्यवन, तथा गर्भापहार रूप दूसरा च्यवन, मध्यजीवों के उपकार करनेवाले होनेसे उनको अति उत्तम कल्याणिक कहते हैं, अर्थात् जैसे- देवसम्बन्धी शरीरको अपेक्षासे सात धातुओंकी अशुचियुक्त मनुष्यका शरीर जो माताका उदर उसीमें गर्भावासपने ऊंघे मस्तक उत्पन्न होना सो व्यवहार में अच्छा नहीं कहें तो भी भगवान् का माताके उदर में उत्पन्न होना सो भव्यजीवोंके उपकारका कारण होनेसे देवलोक के शरीर को छोड़ कर के वहांसे च्यवनेको कारण भावसे च्यवन कल्याणक कहते हैं सो माताके उदर में उत्पन्न होनेसे भव्यजीवोंका उपकार रूप कार्य होता है तैसेही गर्भसे गर्भस्थानांतरे होना सो व्यवहारिक में अच्छा नहीं कहा जा सकता तथापि भगवान्‌का त्रिशलामाताके उदर में आना सो भव्यजीवों के उपकारका कारण होनेसे देवानन्दामाताकी कुक्षिसे गर्भहरण रूप गर्भापहारको कारण भावसे दूसरा च्यवन कल्याणक कहते हैं उसीसे त्रिशलामाताके उदरमें पधारनेसे भव्यजीवोंके उपकार रूप कार्य हुआ तथा नीच गौत्रत्व पना मिटा इसलिये कारण कार्य भावको तथा अपेक्षाको और लाभालाभको गुरु गम्यसे समझे बिना गर्भापहारको निन्दा करके कल्याणकत्वपनेसे निषेध करनेके लिये उत्सूत्रभाषण करके श्रीजिनाज्ञाके अनुसार सत्य बातकी शुद्ध श्रद्धा से भोले जीवोंको भ्रम में गेरने रूप मिथ्यात्व बढ़ानेसे दुर्लभबोधिका और संसार बृद्धिका हेतु है सो आत्मार्थियों को करना उचित नहीं है । और देवानन्द माताकी कुक्षिसे निकलने रूप गर्भापहारको तथा त्रिशला माता के उदरमें प्रवेश करने रूप गर्भ संक्रमणको अतिनिन्दनीक विनय विजयजी तथा अन्धपरंपरावाले वर्तमान में जो लोग कहते हैं सो ऐसा कहने वालोंकी पूर्ण अज्ञानता है क्योंकि जो उपरकी बातको निन्दनीक ठहराओंगे तब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५३ ] तो माताको कुक्षिसे निकलने रूप जन्मको तथा देवलोकसे व्यव करके माताकी कुक्षिमें प्रवेश करने ( उत्पन्न होने ) रूप च्यवनको भी तुम्हारे कहनेसे तो निन्दनीक पना प्राप्त हो जावेगा और निन्दनिकपनेको आप लोग कल्याणक मानोगे नहीं तब तो च्यवन, गर्भापहार, और जन्म, यह तीनों कल्याणक आप लोगोंके अमान्य ठहरनेसे तुम्हारी कल्पना मुजब तो श्रीमहावीरस्वामीके तीनही कल्याणक रह जावेगे सो तो कदापि नहीं बन सकता इसलिये संसारके व्यवहारिक स्वरूपको तथा कारण कार्य भावको और लाभालाभको जाने बिना भगवान्के छठे कल्याणकके निषेध करनेके झगड़ेसे भगवान्के गर्भापहार की निन्दा करना सो अनन्तभव भ्रमणके हेतुको तथा मिथ्यात्वको छोड़ कर शास्त्रानुसार छहों कल्याणकों को माननेकी शुद्ध अद्धामें तत्पर होकर आत्म कल्याणके कार्यमें उद्यम करना चाहिये जिसमें सार है नतु निषेधके मिथ्यात्वमें आगे इच्छा आपकी ___ और च्यवनादि पांचों कल्याणकोंकी तरह श्रीवीरप्रभुके छठे कल्याणकमें भी सब जीवोंको मुख तथा तीन जगतमें उद्योत और नमुत्थुणं न होने की भ्रांतिसे उसीको कल्याणक मानने में शंका करने वालों की अज्ञानताको दूर करने के लिये भी इसका निर्णय आगे लिखने में आवेगा, और भी यहां विचारने योग्य एक बात है, कि अपने भगवान्को लोक विरुद्ध निन्दाको कोई भी बात होवे लो उसीको उनके भजन, जाम-बुझकर कदापि प्रगट नहीं कर सकते किन्तु अवश्यमेव गुप्तपने रक्खेंगे परन्तु श्रीवीरप्रभुके गापहारको तो अनेक शास्त्रों में विस्तार पूर्वक तथा कारण कार्यभाव रहित वर्शन करने में आया है और विशेष श्रीवर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४० ] प्रभुकें ही आगे सूर्याभदेवने समोवसरणके पास बतीस प्रकारका नाटक करके श्रीगौतम स्वामी आदिको दिखाया जिसमें प्रभुके च्यवन, गर्भापहार, जन्मादिकों का वर्णन भी खुलासा पूर्वक दिखाया है इसलिये जो गर्भापहार निन्दनीक होता तो भगवान्का पूर्ण भक्त सूर्याभदेव वहां नाटकमें उसीके स्वरूपको कदापि नहीं दिखाता तथा उसी बातको जगह जगह पर शास्त्रकार महाराज भी कदापि नहीं लिखते परन्तु लिखा है इसपर भी विवेक बुद्धिसे विचार किया जावे तो कर्मों की विचित्रताका दर्शाव जैन शास्त्रों में पक्षपात रहित लिखने में आया है सो भव्यजीवोंके आत्मनिर्जराका कारण है इस लिये गर्भापहारकी निन्दा करनेवाले अपनी आत्मा को कर्मों से भारी करते हैं इस बातको विवेकी तत्वज्ञ सज्जन अपनो बुद्धिसे आपही विचार लेवेंगे और आगे फिर भी विनयविजयजीमे लिखा है कि (अथ पंचहत्त्तरे इत्यत्र गर्भापहरणं कथं उक्त इति चेत् सत्यं अत्रहि भगवान् देवानन्दा कुक्षौ अवतीर्णः प्रसूतपतीच त्रिशलेति असंगतिः स्यात्तन्निवारणाय पंच हत्युत्तरेत्ति वचनं इत्यलंप्र संगेन ) इन अक्षरों करके भगवान्‌के देवलोक से देवानन्दामाताकी कुक्षिसे उत्पन्न होनेका और जन्म त्रिशलामाताकी कुक्षिसे होनेका दिखा करके असङ्गति निवारणके लिये 'पंच इत्युत्तरे' लिखनेका कारण विनयविजयजीने ठहराया और गर्भापहारके छठे कल्याणकको निषेध किया सो शास्त्रोंके तात्पर्यार्थको समझे बिना अज्ञानता से अथवा गच्छकदाग्रह रूप अभिनिवेशिकमिध्यात्वकी मायाटत्तिसे भोलेजीवों को भ्रमानेके लिये हथा ही परिश्रम करके अपनी विद्वत्ताकी हंसी करगई है क्योंकि देखो-प्रथम तो श्रीकल्पसूत्र में 'पचहत्त्तरे' का? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४] जो पाठ है सो असङ्गति निवारण के लिये नहीं किन्तु हस्ती. त्तरा नक्षत्रमें पांचों कल्याणकोंको प्रगटपने दिखाने वाला है क्योंकि आषाढ़ शुदी६ के हस्तोत्तरा नक्षत्र में देवानन्दामाताके उदर में भगवान्के अवतार लेने रूप प्रथम च्यवन कल्याणकमें चौदह स्वप्न तथा पुत्र उत्पत्ति, वगैरहकी व्याख्याकी तरह ही आश्विन बदी १३ के हस्तोत्तरा नक्षत्र में त्रिशलामाताके उदरमें अवतार लेने रूप दूसरा च्यवन कल्याणकमें भी चौदह स्वप्न तथा पुत्र उत्पत्ति वगैरहकी विशेष विस्तारार्थ पूर्वक खुलासा व्याख्या लिखी है सो प्रसिद्ध है तथा हरवर्षे श्री पर्युषणा पर्वमें वंचाती भी है इसलिये विनयविजयजीने असङ्गति निवा के बहानेसे दूसरा च्यवन कल्याणकका निषेध किया सो अज्ञानतासे या अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे उत्सूत्रभाषण करनेके सिवाय और क्या कहा जावे क्योंकि श्रीवीर प्रभुके दो च्यवन कल्याणिक सिद्ध हो गये और जन्म, दीक्षा, केवल, तथा मोक्ष, यह चार कल्याणक तो स्वयं सिद्ध होनेसे श्रीवीर प्रभुके छ कल्या णक अनेक शास्त्रानुसार प्रगटपने दिखते हैं सो विवेकी तत्वज्ञ पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे, और दूसरा यह है कि त्रिशलामाताके उदरमें भगवान्के अवतार लेनेरूप दूसरे च्यवन कल्याणकको नहीं मान्यकरके असङ्गति निवारण के बहाने उसीको कल्याणकत्वपनेसे निषेध करनेसे तो विनविजयजीकी तथा वर्तमानिक गच्छममत्वियोंकी कल्पना मुजब गर्भापहाररूप दूसरे च्यवन कल्याणकके मास पक्ष तिथि नक्षत्रका तथा चौदह स्वप्नोंको त्रिशलामाताके देखनेका और सिद्धार्थ राजाने तथा स्वप्न पाठकोने नव महिने पुत्र उत्पत्ति सम्बन्धी चौदह स्वप्नोंके फल कहनेका इत्यादि बातोंका जो शास्त्रकार महाराजों ने विस्तारसे वर्णन किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! १४२ ] है सो सब वृथा हो जावे क्योंकि जब आप लोगोंकी बुद्धि मुमब उसीको कल्याणक ही नहीं मानना था तो फिर इतनी विस्तारसे उपरकी बातों सम्बन्धी व्याख्या करनेका शास्त्र. कारोंने कथा क्यों परिश्रम किया और जो शास्त्रकारों ने उसीको कल्याणक मान्य करके ही उपरकी बातोंकी व्याख्याकरी है तब तो असङ्गति के बहाने विनयविजयजीका तथा वर्तमानिक गच्छ ममत्वि लोगोंका निषेध करना सो शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थ में बथाही हठवादका कारण है सो विवेकी सज्जनोंको तो करना उचित नहीं है और अब तीसरा यह है कि-श्रीकल्पसूत्रके “पञ्चहत्थुत्तरे" के पाठको विनयविजयजीने असङ्गति निवारणके बहाने गर्भापहारको कल्याणकत्वपनेसे निषेध किया, तो क्या श्रीआचारांगजी श्रीस्थानांगजी वगैरह शास्त्रोंमें श्रीवीरप्रभुके कल्याणकाधिकारे 'पञ्चहत्थत्तरे' पाठ है वहां भी सब जगह असङ्गति निवारणके बहाने गर्भापहारको कल्याणकत्वपमेसे विनयविजयजी निषेध करसकेगें सो तो कदापि नहीं हो सकता क्योंकि वहां तो श्रीस्थानांगजी सूत्रके पञ्चम स्थानमें श्रीगणधर महाराजने श्रीपद्मप्रभुजी आदि १४ तीर्थंकर महाराजोके नाम पूर्वक पांच पांच कल्याणकोंके नक्षत्र गिनाये हैं जिसमें श्रीपद्म प्रभुजी आदि १३ तीर्थकर महाराजोंका तो-पहिला च्यवन, दूसरा जन्म, तीसरा दीक्षा, चौथा केवल ज्ञान उत्पत्ति, और पांचवा मोक्ष, इस तरहसे सब तीर्थंकर महाराजोके पांच पांच कल्याणक दिखाये और श्रीवीरप्रभुके कल्याणकाधिकारे तो पहिला च्यवन, तथा दूसरा गर्भापहारसे गर्भ संक्रमणरूप दूसरा यवन, तीसरा जन्म, चौथा दीक्षा, और पांचवा केवल जानकी उत्पत्ति, यह पांच कल्याणक खुलासा पूर्वक दिलाये है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४३ ] इमलिये यहाँ गर्भापहारकी असङ्गति निवारणका बहाना कदापि नहीं हो सकता है क्योंकि श्री पद्मप्रभुजी आदि तीर्थ कर महाराजोंसे श्रीवीरप्रभुजी तक १४ तीर्थकर महाराजों सम्बन्धी कल्याणकाधिकारे एक समान पाठ होनेसे पीवीरप्रभुके पाठका अर्थ बदला जावे तो सभी तीर्थंकर महाराजोंके पाठका अर्थ बदल जानेसे महान् अनर्थ हो जावे और एकही सूत्रमें एकही जगहपर तथा एकही सम्बन्धपर सबी तीर्थंकर महाराजों सम्बन्धी पांच पांच कल्याणकीकी व्याख्या समान है इसलिये श्रीपद्मप्रभुजी आदि १३ तीर्थंकर महाराजों सम्बन्धी पाठका तो पांच पांच कल्याणकोंका अर्थ करना और श्रीमहावीर स्वामी सम्बन्धी पाठका पांच कल्याणकोका अर्थ नहीं करना ऐसा मूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थमें प्रत्यक्ष अन्याय अन्तर मिथ्यात्वीके सिवाय अत्मार्थी तो कदापि नहीं करेगा इसलिये सत्यग्रहणके अभिलाषी विवेकी पाठकगणसे मेरा यही कहना है कि-असङ्गति निवारणके बहाने गर्भापहार रूप श्री वीरप्रभुके दूसरे च्यवन कल्याणकको निषेध करनेका विनय विजयजीने परिश्रम किया सो निष्केवल धर्मठगाईसे भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेर करके श्रीजिनाज्ञाकी सत्य बातपरकी शुद्ध श्रद्धासे भ्रष्ट करनेकी प्रत्यक्ष मायाचारी है सो विवेकी पाठकजन स्वयं विचार लेना और यहांपर भी विचारने योग्य बात है कि-श्रीस्थानांगजी सूत्रमें श्रीपद्म प्रभुजी आदि १३ तीर्थंकर महाराजोंके तो पांचवे कल्याणकमें मोक्ष होनेका गणधर महाराजने कहा और श्रीवीरप्रभुके पांचवेंकल्याणकमें केवल ज्ञान उत्पन्न होनेका ही कहा सो इस जगह पर विनयविजयजी तथा वर्त्तमानिक तपगच्छवालों के मन्तव्य मुजब तो जो श्रीमहावीर स्वामीकेभी पांचही कल्या. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४ ] खक होते तो सबीतीथंकर महाराजोंकी तरहही श्रीवीरप्रभुका भी पांचवेमें मोक्ष होनेका श्रीगणधर महाराजको कथन करना योग्य था सो तो किया नहीं और गर्भापहारको कथन करके पांचवे में केवल ज्ञानकी उत्पत्ति कहकर छठा मोक्ष गमनका कथन करना छोड़ दिया तो क्या मोक्ष छोड़ने सम्बन्धी सूत्रकारको असङ्गति करने का कहा जा सकेगा सो तो कदापि नहीं क्योंकि जिस बातका प्रकरण चलता होवे उसीके अनुसार अपेक्षा सम्बन्धी सूत्रकार व्याख्या करते हैं सो यहां श्रीस्थानाङ्गजी सूत्रके पांचवे स्थानकमें एक समान पांच पांच बातोंका प्रकरण होनेसे जिन जिन तीर्थंकर महाराजो के उसी एक नक्षत्र में पांच पांच कल्याणक हुए थे उन उन महाराजो के पांच पांच कल्यागाक यहां दिखाये गये जिसमें श्रीआदिनाथस्वामी आदितीर्थंकर महाराजो के केवलज्ञान पर्यन्त च्यार कल्याणक एक नक्षत्रमें और पांचवा मोक्ष गमन दूसरा नक्षत्र में इस तरहसे दो नक्षत्रों में पांच पांच कल्याणक जिन जिन तीर्थंकर महाराजोंके हुए थे उन उन तीर्थंकर महाराजो के पांच पांच कल्याणकोंकी व्याख्या तो श्रीस्थानाङ्गजी सूत्रके पञ्चम स्थानमें श्रीगणधर महाराज नहीं करसके तैसेही जो नीवीरप्रभुके भी च्यार कल्याणक हस्तोत्तरा नक्षत्र में और पांचवा मोक्ष स्वाति नक्षत्रमें इस तरहसे पांचही कल्याणक होते तो श्रीआदिनाथ स्वामीकी तरह श्रीवीरप्रभुके भी पांच कल्याणकोंकी व्याख्या यहां श्रीस्थानांगजी सूत्रमें श्रीगणधर महाराज कदापि नहीं करते परन्तु श्रीवीरप्रभुके तो केवल ज्ञानपर्यन्त पांच कल्याणक उसी एक हस्तोतरा नक्षत्र हुए और छठा मोक्ष स्वाति नक्षत्रमें हुआ इसलिये छठे मोक्ष कल्याणकको भी यहां कथन नहीं करसके परन्तु केवलं ज्ञान पर्यन्त पांच कल्याणक कथन कर दिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४५ ] सो जिन जिन तीर्थकर महाराजोंके एक एक नक्षत्रमें पांच पांच कल्याणक हुए थे उन उन महाराजों के पांच पांच कल्याणकों की व्याख्या नक्षत्रों के नाम पूर्वक खुलासा कर दिखाई इससे श्री वीरप्रभुके छठे मोक्षको न लिखनेको असङ्गति करनेका गणधर महाराजको दूषण कदापि नहीं लग सकता और 'पञ्चहत्थुत्तरे' शब्दके अर्थ में असङ्गति निवारण के बहाने गर्भापहारको कल्याणकत्व पनेसे निषेध भी नहीं हो सकता है तथापि उसीको निषेध करनेवाले सूत्र पाठके अर्थका भङ्ग करते हैं इसलिये उन्होंको उत्तून्रभाषक अन्तर मिथ्यात्वी कहमे में कोई दुषण भी मालूम नहीं होता है सो इस बातको निष्पक्षपाती विवेकी तत्वज्ञ पाठक जन स्वयं विचार लेवेंगे ॥ A और इस जगहपर कितनेही विवेक रहित ऐसा सन्देह करते हैं कि श्रीआचाराङ्गजी तथा श्री स्थानाङ्गजी सूत्रमें उपरोक्त सम्बन्धवाले पाठों में कल्याणक शब्द देखने में नहीं आता है तो फिर कल्याणक कैसे माने जावे, सो ऐसा सन्देह करने वालोंकी अज्ञानताको दूर करनेके लिये, मेरा इतनाही कहना है कि तीर्थंकर महाराजोंके च्यवन जन्मादिकों को कल्यणकत्वपना तो जैनमें प्रसिद्ध है इसलिये जहां जहां तीर्थंकर महाराजके च्यवन जन्मादिकोंके नाम लिखे होंवे वहां वहां वही च्यवन जन्मादिकल्याणक समझनेचाहिये ( और गर्भापहारको भी दूसरे च्यवनकी प्राप्ति होनेसे गर्भापहारको दूसरा च्यवन कल्याण माननेमें आता है) इसका विशेष निर्णय आत्मारामजी के लेखकी समीक्षा में आगेलिखने में आवेगा ; और चौथा यह है कि जैसे इसीही : श्री कल्पसूत्रमें श्रीपार्श्वनाथ स्वामीके चरित्राधिकारे 'तेय' काले ते समए पास अरहा पुरिसा दाणीए - पंचविसाहे हुत्था" इस ६९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५४६ ] तरहका पाठ है तथा श्री नेमिनाथजीके चरित्राधिकारे भी “तेण कालेण ते समएवं अरहा अरिटुमेमी पंचचित्ते हुत्था" इस तरहका खुलासा पूर्वक पाठ है तैसेही श्रीमहावीरस्वामी के चरित्राधिकारे भी “तेणं काले तेण समएणं सम भगवं महावीरे - पंचहत्थुत्तरे हुत्था" इसीही तरहका पाठ है सो अब इस जगह विवेकी पाठकगणको विचार करना चाहिये कि श्री वीरप्रभु श्रीपार्श्व प्रभु और नेमिप्रभुके चरित्रकी आदिमेंही तीर्थंकर भगवान् के कल्याणकाधिकारे जधन्य वाचना सम्बन्धीउपरकापाठ चौदहपूर्वधर श्रुतकेवलि श्रीभद्रवाहुस्खामीने श्री कल्पसूत्र में कहा है और इनही पाठोंकी उत्कृष्ट वाचना पूर्वक खुलासा व्याख्या खास सूत्रकार महाराजमेही करी है सो श्री पार्श्वप्रभुके पांच कल्याणक विशाखा नक्षत्र में तथा श्रीनेमिप्रभुके पांच कल्याणक चित्रा नक्षत्र में हुए इस तरहका अर्थ विनयविजयजी तथा वर्त्तमानिक सब कोई तपगच्छवाले खुलासा पूर्वक करते हैं तैसेही प्रोवीरप्रभुके भी पांचकल्याणक हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए ऐसा अर्थ सूत्रकार महाराजके अभिप्राय मुजबही तपगच्छवालोंको करना चाहिये क्योंकि एकही सूत्रमें एकही सम्बन्ध वाले एकही समान पाठोंका एकही शास्त्रकार महाराजने कथन किये हैं उसीसे एकही तरहके अर्थ के सिवाय दो तरहके अर्थ कदापि नहीं हो सकने हैं तथापि विनयविजयजीने असङ्गति निवारणके बहाने श्रीवीरप्रभुके चरित्राधिकारे “पंच हत्थुत्तरे' पाठका अर्थ बदलाया सो प्रत्यक्षपने सूत्र पाठके अर्थ की चोरी करी हैक्योंकि 'पंच हत्थुत्तरे' पाठका च्यार कल्याणक हस्तोत्तरा नक्षत्र में ऐसा अर्थ करके गर्भापहारके कल्याणकको अकल्याणक ठहराके उड़ा देनेका इतना महान् अनर्थ कदापि काले नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५४७ ] हो सकता है तथा किसी भी पूर्वाचार्यने ऐसा अनर्थ किसी भी प्राचीन शास्त्र में किसी जगहपर भी नहीं लिखा है तो फिर विनयविजयजी वगैरह आधुनिक कदाग्रही लोगोंने सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थमें सूत्रपाठके अर्थ का भङ्गरूप उत्सूत्रभाषणके झगड़ेको स्था क्यों स्वीकार करके अपनी आत्माको संसारगामी करनेका कारण किया होगा तथा वर्तमानमें क्यों करते हैं जिसको तो तत्त्वज्ञ पाठक जन स्वयं विचार लेवेंगे, और ऊपर में तीनों तीर्थ कर महाराजोंके पांच पांच कल्याणाको सम्बन्धी सूत्रके पाठोंको टीकाओं के पाठोंमें भवनस्प क्रिया एक समान होते भी महावीर स्वामीके पांच कल्याणक हस्तोत्तर नक्षत्र में कहने के बदले च्यारही कल्याणक कहकर उसीके अन्तरगत साथके गर्भापहारको कल्याणकत्वपमेसे निकालकर अकल्याणक कहते हुए श्रीसिद्धहेमके तथा पाणिनिय व्याकरणके और महाभाष्यके नियमका भङ्ग करते विनयविजयजीको तथा वर्तमानिक विद्वान् नाम धरानेवालोंको तत्त्वज्ञार्थ ज्ञाताओंके आगे अपमे विद्वत्ताकी हासी करानेकी कुछ भी लज्जा नहीं आई क्योंकि “सन्नियोग मिष्टानां सहैव प्रवृत्तिः सहैव निवृत्तिः ॥ तथा ॥ एक योग निर्दिष्टानां सहवा प्रवृत्तिः सहवा निवृत्तिः" इस वचनानुसार 'पञ्चहत्थु त्तरे होत्थति" इस पाठकी व्याख्यामें अपनी कल्पना मुजब गर्भापहारको कल्याणकत्वपसे निषेध करोगे तो च्यवन जन्म दीक्षादिको भी कल्याणकत्वपनेका निषेधको आपत्ती आजावेगा और च्यवन जन्मादिकोंको कल्याणक मानोगे तो उसीके भी साथ अन्तरगत गर्भापहार भी होनेसे उसीको तो स्वयंही कल्याणकत्वपमा प्राप्त हो जावेगा इसलिये व्याकरणके भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४८ ] न्यायानुसार गर्भापहारको कल्याणकत्वपना प्रत्यक्षपने सिद्ध होता है सो व्याकरण के नियमानुसार आपलोग गर्भापहारके कल्याणकत्वपनेको कदापि निषेध नहीं कर सकोगे इतने परभी गच्छकदाग्रहके हठवादरूपी अन्याय से गर्भापहारके कल्याणकत्वपनेको निषेध करोगे तो व्याकरणके नियमका भङ्ग हो जावेगा सो विवेकी विद्वानोंको तो करना कदापि उचित नहीं है तथापि हठवादीजन करें तो उनके कल्पनाको तो कोई रोक नहीं सकता क्योंकि जब हटवादसे शास्त्रोंके पाठोंकोभी उत्थापन करके उसीके अर्थों को भङ्ग करते जिनको लज्जा नहीं तो फिर व्याकरणके नियमकी तो क्या गिनती और विनयविजयजी तथा वर्तमानिक विद्वान् नाम धरानेवाले होकरके भी सूत्रकार महाराज के विरुद्धार्थ में सूत्र पाठके अर्थ का भङ्ग और व्याकरणके नियमका भङ्ग करतेहुए अपनी कल्पना मुजब प्रत्यक्ष अन्यायवाला असङ्गतअर्थ करके भोलेजीवों को कदा ग्रहके भ्रमनेंगेरते हैं सो यह बड़े ही अफसोसकी बात हे . और यहां उपर्युक्त व्याकरणके नियमका आलम्बन लेकर के राज्याभिषेककों भी कल्याणकत्वपना सिद्ध करने का कोई आग्रह करेतोभी नहीं बन सकता है क्योंकि श्रीभद्रबाहुस्वामीजीका कथन किया हुआ इसीही श्री कल्पसूत्र में श्रीआदिनाथजीके चरित्राधिकारे कल्याणक सम्बन्धी राज्याभिषेकके बिना च्यवन जन्म दीक्षादि कल्याणकोंका पाठ मौजूद है तथा तपगच्छ केही विद्वानोंने ग्रीजम्बूद्वीप प्राप्तिको व्याख्यायोंमें राज्याभिषेक कल्याणक नहीं हो सकता है जिसका खुलासा कर दिया है और इसका विशेष खुलासा इसोही ग्रन्यके पृष्ठ ४९० से ४९१ तक छप गया है इसलिये उपरके नियसका आलम्बनसे राज्याभिषेककों कल्याणक बनानेका आग्रह करना सर्वथा अनुचित है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] श्रीवीरप्रभुके चरित्राधिकारे तो गर्भापहारके बिना किसी भी शास्त्रमें पाठ नहीं है इसलिये इनको तो कल्याणक मानना सो शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक प्रत्यक्षपने सिद्ध है और गर्भापहारके सहित सब शास्त्रों में समान पाठ होनेसे उपर्युक्त व्याकरणका नियम गर्भापहार सम्बन्धी लग सकता है नतु राज्याभिषेक सम्बन्धी इस बातको निष्पक्षपाती विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे, - और श्रीसमवायांगजी सूत्रवृत्ति में देवानन्दामाताके उदर में भगवान्का उत्पन्न होना सो पञ्चमभव और वहांसे ८३ वें दिन हरियो ग मैषिदेवने त्रिशलामाता के उदर में पधराये सो छठा भव गिना है इसलिये यहां शास्त्रकार महाराजने अलग अलग भव गिनलिये जिससे किसी प्रकारका सन्देहही नहीं रह सकता है और श्रीकल्पसूत्र में भी 'पचहत्थु त्तरे' कह करके देवानन्दामाताके उदरसे त्रिशलामाताके उदर में पधारने रूप गर्भापहारसे गर्भसंक्रमणको खुलासासे उत्कृष्ट वाचमा पूर्वक व्याख्या खास सूत्रकार महाराजमेही कर दी है इसलिये इस बातमें सन्देह नहीं हो सकता है तो फिर उसीका, याने असङ्गति रूप सन्देहका निवारण करने सम्बन्धी 'पचहत्य तरे' शब्दको कथन करनेका सूत्रकारको कैसे कह सकते हैं अपितु कदापि नहीं इसलिये असङ्गति निवारणका बहाना करना सो गच्छममत्व से मायाचारीकरके वृथाही भोलेजीवोंको भ्रमानेसे कर्मबन्धके तथा संसार वृद्धिके सिवाय और कुछ भी सारनहीं है इस ऊपरकी बातको विशेष करके पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे. और जैसे श्रीआदिनाथ स्वामी के चरित्रको मादिमें कल्याणकाधिकारे “चल उत्तरासाढ़ अभीइपंच मे” ऐसापाठ श्रीभद्रबाहु स्वामी ने श्री कल्पसूत्र में खुलासा पूर्वक कह के राज्याभिषेकको कल्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५० ] णकत्वपने से अलग कर दिया इससे राज्याभिषेकको कल्याणक माननेका झगड़ा उठ गया तैसेही श्रीवीरप्रभुके चरित्रकी आदिमेंही कल्याणकाधिकारे "च उत्थुत्तरे साइणा पंचमें" ऐसापाठ सूत्रकार महाराजही कहके गर्भापहारको कल्याणकत्वपनेसे अलगकर देते तो गर्भापहारको कल्याणक माननेका झगड़ाही उठकर आपलोगोंके मन्तव्य मुजब अपने अभीष्टको सिद्धिहोजाती परन्तु सूत्रकारमहाराजने ऐसा न कहके गर्भापहारकी गिनती पूर्वक 'पञ्चत्युत्तरे सारणा परिनिबुडे' इस तरहका पाठ कहकरके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, वाचना पूर्वक छहों कल्याणकोंका afar खुलासा किया है इसलिये असङ्गति निवारणेके बहाने गर्भापहारको कल्याणकत्वपने में माननेका निषेध करने सम्बन्धी विनयविजयजीने वृथाही परिश्रम करके भोलेजीवोंको कदाग्रह में गेरनेका कारण क्यों किया होंगा सो विवेकी पाठक जन स्वयं विचार लेना, और यहांपर कोई कहेगा कि श्रीपंचाशकजी में तथा उसीकी वृत्तिमें गर्भापहारको अलग करके च्यवन जन्मादि कल्याणक लिखे हैं तो इसपर मेरा यही कहना है कि श्रीमहावीर स्वामी चरित्राधिकारे सर्व जगह गर्भापहार सहित छ कल्याuster खुलासा लिखा होते भी श्रीपंचाशकजीके पाठको देखकरके छ कल्याणकों का निषेध करनेवाले पूर्ण अज्ञानी अथवा अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी मालूम होते हैं क्योंकि श्रीपंचाशकजीनें तो सब क्ष ेत्रोंकी सबी चौबीशीयोंके बहुत तीर्थंकर महाराजों की सामान्य अपेक्षा सम्बन्धी पाठ होनेसे तथा उन सब तीर्थकर महाराजोंको गर्भापहार नहीं हो सकता होनेसे उन्होंके सम्बन्धमें श्री महावीरस्वामीके गर्भापहारको भी नहीं लिखा गया तो क्या श्रीमहावीरस्वामी के चरित्राधिकारे गर्भा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ' www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५१ ] पहार सहित सर्व जगह छ कल्याणकोंका पाठ विद्यमान होते भी उसीका निषेध हो सकेगा सो तो कदापि नहीं इस बातका विशेष निर्णय इसीही ग्रन्थके पृष्ट ४७५ से ४८४ तक छप गया है सो पढ़नेसे सब निर्णय हो जावेगा और अब पाठकवर्गसे मेरा यही कहना है कि सूत्रकार महाराज जो सूत्रपाठकी रचना करते हैं उसी सम्बन्धी सामान्य विशेषताका तथा उत्सर्ग अपवादका और अल्प बहुत की तथा नयोंकी अपेक्षा वगैरहसबका खुलासा तो शंका समाधान पूर्वक उसीकी व्याख्या में टीकाकार करते हैं नतु मूल सूत्रकार जैसे श्रीकल्पसूत्रमें चौदह स्वप्नाधिकारे श्रीवीरप्रभुकी माताने प्रथम स्वप्न हस्तीको देखा ऐसा सूत्रकारने कथन किया सो उसीकी व्याख्या करते सबी टीकाकारों ने “बहुत तीर्थंकर महाराजाओंकी माताने प्रथम स्वप्न हस्ती देखा उसीसे बहुत अपेक्षा सम्बन्धी सामान्यतासे व्यवहारिकपाठको वीरप्रभुको माता सम्बन्धी भी सूत्रकार महाराजने कहा परन्तु विशेषमें तो श्रीवीरप्रभुकी माताने प्रथम स्वप्न सिंहको देखा था" इस तरहका खुलासापूर्वक लिखके निर्णय किया है तैसे ही यदि 'चउ हत्थुत्तरे का सूत्रकार कथन करके भगवान्के देवानन्दा माताके उदर में उत्पन्न होनेका और जन्म त्रिशला माताके उदरसे होने का कह देते और गर्भापहार सम्बन्धी किसी जगह भी किसी प्रकारका कथन नहीं करते तब तो विनयविजयजीके कथन मुजब शङ्का रूपी असङ्गतिके होनेकीभ्रांति लोगोंको पड़नेकाकारण होजाता उसीका निवारण करनेकी टीकाकरोंको खास आवश्यकता होती सो अवश्यमेव करना पड़ता परन्तु गर्भापहार सम्बन्धी तो खास सूत्रकारनेही विस्तारसे कथन कर दिया है इस लिये इस बातमें असङ्गतिकपी सन्देहका होनाही नहीं बन सकता तो फिर उShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५२ ] सीका निवारणके लिये सूत्रकारको 'पञ्च हत्थुत्तरे' का पाठ कथन करने सम्बन्धी विनयविजयजीका कहना कैसे ठीक होसके अपितु कदापि नहीं अर्थात् अभिनिवेशिक मिथ्यात्व करके अन्तरके अमानरूपी अन्धकारको भ्रांतिसे भोले जीवोंको उसीके भ्रमने गेरनेके लिये उपरकी बात सम्बन्धी विनयविजयजीने इतना परिमम किया सो सर्वथा वृथा है और छ कल्याणक निषेध सम्बन्धी विनयवियजोकेलेखका प्रति उत्तरमें छ कल्याणकोंका सिद्धि सम्बन्धी उपरोक्त मेरे लेखको वांचे बाद भंगवान्की आशाका विराधक दीर्घ संसारीके सिवाय आज्ञाआराधक आत्मार्थी तो उनके कुयुक्तियों को भ्रमजालसे अवश्यमेव तत्काल दूर हो जावेगा __ और मेरेको बड़े ही खेदके साथ लिखना पड़ता है कि-विनयविजयजी इतने विद्वान् होकरके भी अपने कल्पित मन्तव्यका स्थापनरूप झूठे आग्रहकी मिथ्यात्व बढ़ानेवाली भ्रमजालकी मालाको अपने रदय पर धारण करके श्रीतीर्थ कर गणधरादि महाराजोंका कथन किया हुपा पञ्चांगीके अनेक प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे युक्त पीवीरप्रभुका छठा कल्याणकको निषेध करने के लिये उपर्युक्त प्रमाणोंके पाठोंको उत्थापन करने हुए उपर्युक महाराजोंकी आशातनासे संसारमें परिभ्रमणका कुछ भी भय नकिया और विवेकशन्यतासे गच्छकदाग्रहके अंधपरंपरासे उत्सूत्रभाषयोंका तथा कुयुक्तियोंके विकल्पोंका संग्रहकी बातोंको सुबोधिका लिखके उसी, भोले जीवोंको भ्रमानेकेलिये परिमम करनेने तथा बाल लीलावत् पूर्वापर विरोधि (विसंवादी) वाक्य लिखने में भी कुछ कम नहीं किया है सो उपरोक्त सुबोधिकाके छ कल्याणक निषेध सम्बन्धी लेखको हर वर्षे मीपर्यषणापर्वमें धर्म ध्यानके दिनों में विवेकरहित गच्छ कदाग्रही www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [y] अन्धपरम्परा वाले वांचकर खण्डन मरहनकर के श्री वीरप्रभुकी मिन्दापूर्वक उत्सूत्रभाषणोंसे कुयुक्तियोंकी भ्रमजालमें भोले जी - वोंको फसाकर उन्होंके सम्यक्त्व रत्नको हानी पहुंचाते हुए दुबोधिका और संसार वृद्धिका कारण रूपी महान् अनर्थ करते हैं सो तो अपने अपने कर्त्तव्यानुसार उसीके त्रिपाक भर्वातर में भोगेंगे परन्तु इस बातके मूल कारण भूत चैत्यवासी और गच्छकदाग्रही लोग पूर्वे हुए उन्होंकी अन्धपरम्परासे धर्मसागरजी वगैरहोंने कल्पकिरणावली वगैरहों में निज परके आत्मघाती तथा मिथ्यात्व बढ़ाने वाला उपरकी बात सम्बन्धी खूबही परिश्रम किया और मिथ्यात्व के सार्थवाहीबने उसीके अनुसार विनयविजयजीमेभी जो इतना अनर्थ किया है उसीके विपाक तो भवांतर में अवश्यमेव भोगेबिना कदापि नहीं छुटेंगे अब इस जगह विनयविजयजीकी बाललीलाका नमूना पाठकवर्गको दिखाकर इनके लेखको समीक्षा समाप्त करूंगा सो यहां उनकी बाललीलाका नमूना, देखो - श्री कल्पसूत्र के मूल पाठकी व्याख्या में खास आपने ही “भगवान् आषाढ़ सुदी ६ को देवानन्दा माताके उदर में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए सो नीच गोत्रके विपाकसे आश्चर्यरूप हैं" ऐसा लिखा फिर इसोको ही च्यवन वस्तु कहके च्यवन कल्याणक भी आपने माना और ब्राह्मण कुल में भगवान्का जन्म न होनेके लिये गर्भापहारसे निजपरके कल्याण के लिये भगवान्‌को इन्द्रने उत्तम कुलमें पधराए इस तरहसे खुलासा किया । अब यहां पक्षपात छोड़ करके विवेक बुद्धिसे पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि जब भगवान्के ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होनेको नीच गोत्रका विपाक तथा आश्चर्य कहके उसीको च्यवन वस्तु अर्थात् च्यवन कल्याणक माना तो फिर नीच गोत्रत्वपना 90 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४ ] मिटानेके लिये निजपरके कल्याणाथ इन्द्रने भगवान्‌को उत्तम कुल में पधराये सो गर्भापहारको कल्याणकत्वपना निषेध करने के लिये नीच गोत्रका विपाक तथा आश्चर्य और वस्तुका बहाना लेकरके कल्याणकत्वपमेसे निषेध करने सम्बन्धी परिश्रम करना सो गच्छममत्वरूपी अन्तर मिथ्याrant बाललीला के सिवाय और क्या होगा सो तत्वज्ञ सज्जन तो स्वयं विचार लेवेंगे और जिन च्यवन गर्भहरणादि छहाँको वस्तु ठहराकरके कल्याणकपनेका निषेध करते हैं तो फिर उन्हीं च्यवनको कल्याकपना और गर्भापहारको नहीं यह तो प्रत्यक्षही बाललीला दिखती है और जब उन च्यवन गर्भहरणादि छहोंको वस्तु ठहरा दी तो फिर उन्हीं छ वस्तुओंके पांच कल्याणक कहना सो भी कदापि नहीं बन सकता क्योंकि च्यवन गर्भहरणादि छ वस्तु सोही छ कल्याणक है इसका निर्णय पृष्ठ ४९१ से ५०१ तक छप गया है और प्रत्यक्षही सिद्ध है इस लिये छ कह करके फिर भी नक्षत्र सामान्यताका बहाना से छ के पांच बनाना यह भी बाललीलाही प्रतित होती है और नक्षत्र सामान्यता कहकरके फिर उसीको ही अति निन्दनीक भी कहना सोतो विशेष बाललीला है और नक्षत्र : सामान्यता तथा अतिनिन्दनीक कहकरके फिर उसीको ही असङ्गति निवारणका कहना सोतो अतीवही ग्रही लत्वपनेकी बाललीलाके सिवाय और कुछ भी नहीं क्योंकि अभिनिवेशिक मिथ्यात्व युक्त बाल प्रलापवत् उपर की बातें एक एकसे विरुद्ध पूर्वापर बाधक होने से तत्वग्राही विवेकीजन तो कदापि अङ्गीकार नहीं करेगा और उपरकी बातों में शास्त्रोंके विरुद्ध प्रत्यक्ष उत्सूत्र भाषणोंके कुयुक्यिोंके विकल्पोंके लेखको समीक्षा तो उपर मेंहीं विस्तार पूर्वक छप गई है सो पढ़ने से सब निर्णय हो जावेगा - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५] और विनयविजयजी वगैरहोंने सुबोधिकादिकों में अधिक मास निषेध सम्बन्धी पर्युषणा विषयिककी तरह छ कल्याणक निषेध सम्बन्धी भी धर्म धूर्ताईकी ठगाईसे उत्सूत्रभाषणोंसे और अभिनिवेशिक मिथ्यात्वकी कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंको अपने फन्दमें फसाने के लिये ऐसी भ्रमजाल फैलाई है कि जिसमें अल्पज्ञ सामान्य जीव फसे उसमें तो कोई आश्चर्य नहीं है परन्तु न्यायांभोनिधिको उपाधि धारण करनेवाले आत्मा रामजी जैसे वर्तमानिक प्रसिद्ध विद्वान् हो करके भी उन्होंकी भ्रमजालमें फस गये और इन्होंकाही अनुकरण करके श्रीखरतर गच्छके पूर्वाचार्यकृत शास्त्र पाठका सद्गुरुसे विवेक बुद्धिपूर्वक तात्पर्यार्थको समझे बिना श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजको छठे कल्याणक नवीन प्ररूपण करनेका वथाही जूठा दूषण लगाकर निज परको संसार सद्धिका और दुर्लभ बोधिपनेका हेतु करके भोलेजीवोंको अपने कदाग्रहमें गेरनेका “जैन सिद्धान्त समाचारी" नामक पुस्तकमें परिमम करने में कुछ कम नहीं किया है और वर्तमानमें श्रीपयुषणा पर्वके धर्म ध्यानके दिनोंमें सुबोधिका बंचाकर छ कल्याणक निषेध सम्बन्धी हरवर्षे आपसमेंही खण्डन मण्डनके झगड़े को विशेषतासे आत्मारामजीनेही प्रचलित किया है और वलभविजयजीने भी सन् १९०९ के नवेम्बर मासकी ७ वी तारीखके जैन पत्रके ३० वां अङ्कमें “जैन सिद्धान्त समाचारी" की पुस्तककोही आगे करके छ कल्याणक निषेध सम्बन्धी अपने मन्तव्यको पुष्टकिया इसलिये अब मेरेकोभी आत्मारामजी कृत जैन सिद्वान्तसमाचारीके छ कल्याणक निर्वध सम्बन्धी लेखकी समीक्षा करनेका अवसर प्रान हुआ है सो करके पाठक गणको मागे दिखाताShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] ॥ और जैसी भवितव्यता आगे होनेवाली होवे वैसी बुद्धिभी हो जाती है उसीके अनुसार यद्यपि सुमति और नागिल भावकने धर्म आराधन करनेके लिये गुरुके पास दीक्षा लेनेका अभिलाव किया इतनेमें वेषधारी पासथोंका योग मिला तब बाईसवें भगवान्के कथनानुसार सुगुरुके और कुगुरु के लक्षण मागिल श्रावकने सुमति नामा भावकको कहे सो सुनकर वेषधारियोंके दृष्टि रागसे सुमति श्रावकने नागिल भावक पर अन्तर मिथ्यात्वके उदयसे क्रोध करके भगवान् के गुण जानता था तो भी बाईसवें तीर्थङ्कर श्रीनेमिनाथजीकी आशातना वाले शब्द बोले और श्रीजिनाचा विराधक पासथोंकी प्रशंसा करी । उसी से अनेक पुद्गल परावर्तनका तथा अनन्तभव भ्रमणका और वारंवार नरक गतियों के दुःख विटम्बनाका महान् अनीष्ट कर्म उपार्जन किया || तैसे ही भावी भावके अनुसार यद्यपि विनय विजयजीने भी सुबोधिकामें नामानुसार व्याख्या करनेका परिश्रम किया होगा। तथा उत्सूत्र भाषणों और भग वान्की आशातनासे संसार बृद्विके विपाक भी जानते होंगे. तथापि अन्ध परम्पराके दुराग्रहकी कल्पित बातको स्थापन करनेके लिये श्रीवीरप्रभुकी आशातना पूर्वक उत्सूत्र भाषणका और कुयुक्तियोंके विकल्पोंका संग्रह करके छ कल्याणकोंका निषेध सम्बन्धी तथा पर्युषणा विषयिक अधिक मासका निषेध सम्बन्धी विनय विजयजीने जो जो शब्द लिखे हैं उन्होंने श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजकी आशातना करी है और उन्हीं महाराजोंकी आता मुजब पञ्चाङ्गी शास्त्र प्रमाणानुसार वर्तनेवालोंको दूषित ठहराकरके भीजिनाचा विराधक अन्धपरम्परा वालोंकी बातको पृष्ठ करी है उकितने संसार भ्रमणका कर्म उपार्जन किया होगा जिसकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] तो मीशानीजी महाराज जानें और उन्हीं विनयविक्रयणीके वाक्योंको वर्तनामिक भीतपगच्छ वाले गच्छममत्वी दुराबड़ी लोग श्रीपर्युषण पर्व में धर्म ध्यानके दिनोंमें बांधकर ऊपर सृजब महान् अमर्थ करके भोले जीवोंको भ्रम में मेरकर बांचनेवाले अपनी आत्माको और सुननेवालोंके सम्यक्त्व नष्ट पूर्वक मिध्यात्वमें गेरमेका और दुर्लभ बोधिपमेका कारण करते हैं इसी कारण ही तो वास्तव्य में गुणनिष्पत्र "दुर्लभ बोधिका" नाम सिद्ध होती है । इसलिये मच्छ दुराग्रहते आपसके वृथा खण्डन मण्डनके झगड़े से जो महान् अमर्थ होता है उसका निवारण करनेके लिये गच्छ दुराग्रहियोंपर अनुकम्पा और भावदया लाकर उन्होंको संसार परिभ्रमणके अनर्थसे बचाने के लिये सुमति मागिल श्रावकका दृष्टान्त पूर्वक तथा वर्तमानिक व्यवस्था पूर्वक भवभीरू श्रीजिनाचा आराधक आत्मार्थियों के हितशिक्षा के लिये और संसार भ्रमणके प्रवाहके कार्यका सुधारा करने सम्बन्धी आगे लिखने में आवेगा । इत्युपाध्यायविशेषणधारको विनयविजय विरचित श्री कल्पसूत्रसुबोधिकाव्याख्यायां षट्कल्याणकप्रति ष ेध सम्बन्धिलेखस्य मणीसागराख्यमुनि-कृता उपर्युक्तसमीक्षासमाप्ता जाता ॥ अब इस वर्त्तमानकाल में सुप्रसिद्ध श्रीआत्मारामजीने भी अन्ध परम्पराके गच्छकदाग्रहको पुष्ट करके उसीके भ्रमचक्रमें भोले जीवको फसानेके लिये शास्त्रकार महाराजों के विरु द्वार्थ में उत्सूत्र भाषणका और कुयुक्तियोंके विकल्पोंका संग्रह पूर्वक प्रीतीर्थ कर गणधरादि महाराजोंके कथनका उत्थापन बदके दूड़क मतके पूर्वस्वभावानुवाद संवेगी पननें भी 'जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५८ ] सिद्धान्त समाचारी' नामक पुस्तकमें श्रीमहावीरस्वामीके छ कल्याणक निषेध सम्बन्धी मिथ्यात्व फैलाया है जिसकी भी (भव्यजीवोंका संशयके अन्तरभ्रमको दूर करनेका उपकारके लिये विनय विजयजीके लेखकी समीक्षाके अनन्तर) यहां समीक्षा करके पाठकगणको दिखाता हूं-सो दूष्टिरागका पक्षपातको छोड़करके मध्यस्थ वृत्तिसे मेरी समीक्षाको बांचकर असत्यका त्याग और सत्यका ब्रहण करना चाहिये जिसमें प्रथम तो आत्मारामजीने अपनी बनाई “जैन सिद्धान्त समाचारी" के पृष्ठ ६६ की पंक्ति १७ वीसे पंक्ति २९ वीं तक ऐसे लिखा है कि (पृष्ठ ७० से लेकर पृष्ठ ६० तक बिनाही प्रयोजन पाठ लिखके ग्रन्थ भारी किया है क्योंकि षट्कल्याणक ऐसा वचन तुमारे गच्छसेही प्रगट हुवा है परन्तु और किसी भी आचार्यने श्रीमहावीरस्वामीजीके षट्कल्याणक ऐसा कथन नहीं किया है ) __अपरके लेखकी समीक्षाकरके सत्यवाही सज्जन पुरुषोंको दिखाता हूं, कि ऊपरके लेखको देखकर मेरेको बड़े ही खेदके साथ लिखना पड़ता है कि आत्मारामजी सुप्रसिद्ध इतने विद्वान् और न्यायांभोनिधिकी उपाधिको धारण करनेवाले हो करके भी अपने दुराग्रहको स्थापन करनेके लिये प्रीतीर्थडर गण धरादि महाराजोंके कथन किये हुए शास्त्रोंके पाठोंको बिना प्रयोजनके ठहराते महान् उत्सूत्रसे संसार इद्धिका कुछ भी विचार नहीं किया मालूम होता है क्योंकि रायबहादुर मायसिंह मेघराज कोठारीकी तरफसे जो "शुद्ध समाचारी प्रकाश" नामा पुस्तक प्रगट हुई थी जिसके पृष्ठ ७० से २० तक श्रीमहावीर स्वामीके छ कल्याणकोंको सिद्ध करने सम्बन्धी लेख छपा है उसीने विद्यमान तीर्थकर महाराज श्रीसीमन्धरस्वामीजीका कपन किया हुआ भीमाचाशांगनी सूत्रके दूसरे प्रत स्कायके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५९ ] भावना अध्ययनका पाठ १, तथा उसीकी वृत्तिका पाठ २, और श्रीगणधर महाराज कृत श्रीस्थानांगजी सूत्र के पचम स्थानके प्रथम उद्दृ शेका पाठ ३, तथा उसकी बृत्तिका पाठ ४, और चौदह पूर्वधर महाराज कृत श्रीदशाश्रुत स्कन्ध सूत्र के पर्युषणाकल्पनामा अष्टम अध्ययनका पाठ ५, और उसीकी चूर्णिका पाठ ६, और श्रीचन्द्रगच्छ के श्री पृथ्वीचन्द्रजीकृत श्री कल्पसूत्र के टिप्पणका पाठ १, श्रीवडगच्छके श्रीविनयचन्द्रजी कृत श्रीकल्पसूत्र के निरुक्लका पाठ ८, श्रीजिनप्रभसूरिजीकृत श्री कल्पसूत्रको सन्देहविषौषधिनामा वृत्तिका पाठ और श्री तपगच्छ के श्रीकुलमण्डन सूरिजी कृत श्री कल्पावचूरिका पाठ १०, और श्रीसुल साचरित्रका पाठ ११, इन शास्त्रोंके पाठ तथा भावार्थ और गर्भापहारके अच्छरेको कल्याणक न माननेवालों की शङ्काका युक्तिसे समाधान पूर्वक शुद्ध समा चारीप्रकाश के पष्ठ १० से ९० तक श्री वीरप्रभुके छ कल्याणक सिद्ध करने सम्बन्धी शास्त्र पाठ और युक्ति पूर्वक लेख छपा है सो उपरोक्त सब शास्त्र पाठोंको आत्मारामजी बिना प्रयोजनके ठहराकर वृथाही ग्रन्थभारी करनेका लिखते हैं तो इसपर निष्पक्षपाती तत्वज्ञ पुरुषोंको विवेक बुद्धिसे विचार करना चाहिये - कि, जैसे-कितनेही अन्तर मिथ्यात्वी दीर्घ संसारी भारीकर्मे ढूंढ़िये तथा तेरहापन्थी लोग अपनी कल्पनावाले कदाग्रहको जमाने के लिये श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजों के कथन किये हुए. शास्त्रों के मूल पाठोंकोभी उत्थापन करके या बिना) प्रयोजनके ठहराकरके अथवा उलटा अर्थकरके उनपाठोंपर अपनी कुयुक्तियों के संग्रहसे बालजीवोंकी श्रद्धाभ्रष्ट करके मिथ्यात्वके भ्रममें गेरते हैं तैसेही आत्मारामजीने भी पूर्व स्वभावानुसार उपर्युक्त श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५० ] कथन किये हुए बीवीरप्रभुके छ कल्याणकको दिलानेवाले उपरोक्त शास्त्र पाठको बिना प्रयोजनके ठहराकर अपने कल्पित कदावहमें भोले जीवोंको गेरनेके लिये महान् अनर्थ किया ॥ हा हा अंतिं खेदः ॥ श्रीतीर्थ कर गणधरादि महाराजके कथन किये हुए शास्त्रोंके पार्टीकी बिना प्रयोजनके ठहरानेका महान् अनर्थ करते समय आत्मारामजीके विद्वताकी विवेक बुद्धि किस प्रदेशके कौमें घुस गई होगी सो जरा सा भी विचार न किया और वर्तमानमें भी उन्होंके समुदायवाले तथा उन्होंके पक्षपाती जन विद्वान् कहलानेवाले होकरके भी आत्मारामजी के ऐसे अनर्थ को पुष्ट करके उत्सूत्र भाषणोंसे कुयुक्तियोंके विकल्पों को आगे करते हुए मिथ्यात्व बढ़ानेवाले कार्यमें पक्षपातसे आग्रह करते हैं सो भी वर्तमानिक मंडलको जाका कारण है और श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंके कथन किये हुए ( श्री आचाराङ्गजी श्रीस्थानांगजी श्रीकल्पतूवादि) शास्त्रों के पाठों में श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों को प्रगटपने कंथन किये हैं सो उन्हीं शास्त्रोंके पाठोंको लिखके सत्यग्रहलाभिलाषी भव्यजीवको शास्त्र प्रभाणानुसार श्रीवीरप्रभुके कल्याणकों को दिखांना तो शास्त्रोंके पाठ आत्मारामजीके कहनेसे बिना प्रयोजनके ठहर सकेंगे सो तो कदापि नहीं परन्तु भीतीर्थंकर गलधरादि महाराजोंके कथनका उत्थापन रूपी शास्त्रोंके पाठको अवज्ञासे महान् उत्सूत्र भाषणके विपाक तो अवश्यमेव अनुभवनेही पड़ेंगे इस बातको निष्पक्षपाती विवेकी तत्वज्ञ पाठक जन स्वयं विचार लेवेंगे और “किसीभी आचार्यने श्रीमहावीरस्वामीके षट् कल्याबक ऐसाकथन नहीं किया है" यह लेख भी आत्मारामजीका बंधने विधेयको लज्जानेवाला तथा विद्वत्ताकी हँसी कराने www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६१] वाला प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि जब श्रीतीर्थ कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्यो ने और सबी गच्छोंके पूर्वाचार्यों ने पंचांगीके अनेक शास्त्रों में श्रीमहावीरस्वामीके षट्कल्याणक ऐसा प्रगटपने कथन किया है तो फिर इनका लिखना सत्य कैसे होसकेगा सो तो इस ग्रन्थको पढ़नेवाले निष्पक्षपाती सत्यग्राही विवेकी जन स्वयं विचार लेवेंगे___ और श्रीतीर्थ कर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंके कथनानुसार हमारे गच्छके पूर्वाचार्य श्रीजिनबल्लभसूरिजी. महा. राजने भी श्रीमहावीरस्वामीके षट्कल्याणक कथन किये इसमें कोई दूषण नहीं है तथापि आत्मारामजीने दंढक मतके पूर्व खभावानुसार शास्त्रकारोंके तात्पर्याथ को गुरुगम्यसे. समझे बिना मिथ्यात्वके उदयसे श्रीजिनबल्लभसूरिजी महाराजपर छ कल्याणक नवीन प्ररूपणका मिथ्या दूषण लगाके विद्वताके आडम्बरसे भोले जीवोंको अपने फन्दमें फसानेके लिये जैन सिद्धान्त समाचारी नामक पुस्तकके पृष्ट ६६ की पंक्ति २९. से पृष्ठ ६७ की २२ वीं पंक्ति तक ऐसे लिखा है कि (खरतरगच्छमें परममान्य ग्रन्थ गणधर सार्द्धशतककी टीकामें ॥ यथा ॥ अभयदेव सूरयः स्वगंगताः प्रसन्न चन्द्राचार्यणापि प्रस्तावाऽभावात् गुरोरादेशोनकृतः केवलं श्रीदेवभद्रा चार्याणामने भणितं मुगुरूपदेशतः प्रस्तावे युष्माभिः सफली कार्यः। इतश्च पत्तनादात्मना तृतीयः सिद्धान्तविधिना जिनवल्लभगणिश्चित्रकूटे विहृतः तत्र चामुण्डा प्रतिबोधिता साधरण पाद्धस्य परिग्रह प्रमाण प्रदत्त श्रीमहावीरस्य गर्भापहाराऽभिधं षष्ट कल्पाणकं प्रकटितं क्रमेण साधारण प्रावण भोपार्श्वनाथ श्रीमहावीरदेव गृहद्वयंकारितं ॥ भावर्थः-मो अभयदेवसूरि महाराज स्वर्गकु प्राप्त हुए और प्रसन्नचन्द्र ७१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] आचार्य महाराज भी गुरुका आदेश न कर सके केवल श्रीदेवभद्र आचार्य महाराजको गुरुका आदेश कहा कि यह मुगुरु महाराजका उपदेश होनेसे अवसर आवे तब तुमने सफल करणा इतश्च पतन नगरसे दो साधु और तीसरे आप श्रीजिन वहमणि सिद्धान्त विधि करके चित्रकूटमें विहार करते भये तिस चित्रकूट विषे चामुण्डाको प्रतिबोधकीनी और साधारण नामका आवकको परिग्रहका परिमाण कराया और श्रीमहावीरस्वामीका गर्भहरण नाम छठा कल्याणक प्रगट किया और कम करके साधारण प्रावकने श्रीपार्श्वनाथजी और श्रीमहावीरस्वामीजीके दो मन्दिर कराये। यह उपरका पाठार्थ गणधर साई शतकको लघु टीकाका हैं और जिसको शङ्का होवेसो अजमेरमें सौभाग्यमलजी ढढाके भण्डारमें प्राचीन पुस्तक है उसको देख लेवे । अब विचार कीजिए कि जब चित्रकूटमें मीमहावीरस्वामीजीका छठा कल्याणक प्रगट किया तो फिर शास्त्रके पाठ लिखके दिखाना सो ग्रन्थको भारभूत है या नहीं) ऊपरके लेखकी समीक्षा करके सत्य ग्रहणाभिलाषी सज्जन पुरुषोंको दिखाता हूँ कि, हे सज्जन पुरुषों उपरके लेखमें आत्मारामजीने श्रीगणधर सार्द्ध शतककी लघु वृत्तिके पाठ का मतलब समझे बिनाही अज्ञानतासे या अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे श्रीजिनवल्लभ सूरिजी महाराजको चित्रकूटमें श्रीमहावीरस्वामीजीके गर्भापहारके छठे कल्याणकको नवीन प्रगट करनेका दूषण लगाकर नीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंके कथन किये हुए पीआचाराङ्गादि शास्त्रोंके पाठोंको (श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक सिद्ध करने सम्बन्धी लिखे उन्होंको) अबके भारभूत याने सर्वथा वथा ठहराकरके गच्छके पक्षपातके दूदाबहसे भोले जीवोंको अपनी कल्पनाके भ्रममें गेरनेसे संसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६३ ] बृद्धिका हेतुभूत मिथ्यात्व बढ़ानेवाला वथा ही परिश्रम क्यों किया होगा क्योंकि देखो जैसे किसी जगहपर जैन धर्मका प्रचार नहीं होवे उसी जगह जैनी साधुको अनेक तरहके कष्ट उठा करके भी जैन धर्मका प्रचार करना चाहिये सो भगवान् की आज्ञानुसार होमेसे निजपरके आत्म कल्याणका कारण है नतु आज्ञा प्रतिकूल ॥ तथा॥ किसी नगरमें जैन समुदायमें सुगुरुके अभावसे अज्ञानताके कारण कालांतरे शास्त्रानुसार बातोंका लुप्तभाव होकर शास्त्र विरुद्ध बातोंका अन्धपरम्परासे प्रवर्तन होगया हो तो वहां भी जाकर अनेक तरहकी तकलीफ उठाकरके भी शास्त्र विरुद्ध बातोंका प्रतिषेध पूर्वक शास्त्रानुसारकी लुप्त बातोंको प्रगट करना सो भी जिनामा मुजब होनेसे आत्म निर्मलताका तथा भव्य जीवोंके उपकारका कारण है और शिथिलाचारी द्रव्यलिंगि इहलोकस्वार्थी साध्वाभास गच्छममत्वी दुराग्रही उत्सूत्रभाषकोने मुसाधुओंकी मिन्दा पूर्वक भगवान्की आज्ञाविरुद्ध कितनी ही बातोंमें अपनी कल्पनावाले मन्तव्य मुजब भोले जीवोंको अपने फन्दमें फंसाकर कितनीही सत्य बातोंका लुप्तभाव कर दिया होवे वहां कोई होमतवान् आत्मार्थी परउपकारी शुद्ध मुनि महाराज जाकर उपरकी बातोंका निवारण पूर्वक भगवान्को आज्ञा मुजब शास्त्रानुसार सत्य बातोंको प्रगट करे जिसको विवेकशून्य अन्तरमिथ्यात्वी दीर्घसंसारी झूठेपक्षके हठनाही पूर्णअज्ञानीके सिवाय, विवेकी तत्वज्ञ आत्मार्थी सत्यवाही तो नवीन बात प्रगट करनेके बहाने भोले जीवोंको मिथ्यास्वके भ्रममें गेरकरके सत्य बातकी अद्धारहित कदापि नहीं करेगा ॥ तैसे ही चित्रकूट (चीतोड) में साध्वाभास व्यलिंगी गच्छकदाग्रही चैत्यवासियोंने शास्त्र प्रमाण शून्य अपने मनु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६४ ] कल कितनीही कल्पित बातोंमें दृष्टिरागी भोले जीवोंको भ्रमाकरके अपने फन्दे में फसालिये तथा शास्त्रानुसार कितनीही सत्यबातोंका लुप्तभाव करदिया और नियतवासी परिग्रहधारी वाग वगीचे चैत्यके ममत्वी होकरके निन्दा ईर्षासे शुद्ध साधुके द्वषी बनकर अपना अधिकार जमाये बैठे थे तब वहां श्रीजिनवल्लभ मूरिजी महाराज पधारे सो चैत्यवासियोंके दूष्टिरागी आवकोंने ठहरनेको जगा तक भी न दी तब चामुण्डा देवीके मन्दिरमें महाराज जाकर ठहरे और शास्त्रानुसार शुद्ध व्यवहार पूर्वक धर्मध्यान तपश्चर्यादि करके समय ध्यतीत करने लगे सो देखकर देवी भी महाराजको मक होगई तब महाराजने उपदेश देकरके जीव हिंसाका त्याग पूर्वक जैन धर्मानुरागीकरी और सर्व शास्त्रों में ज्ञात सूर्यकी तरह प्रसिद्धिको प्राप्त होनेवाले श्रीजिनवल्लभ सूरिजी महाराजके पास सत्यग्रहणाभिलाषी अल्प संसारी आत्मार्थी जो जो भव्यजीव आने लगे उन्होंके आगे महाराज भी शास्त्रानुसार उपदेश पूर्वक चैत्यवासियोंकी कल्पित बातोंके चमकोच्छदन करके श्रीजिनाज्ञा मुजब सत्य बातोंको प्रगट कहने लगे तथा चैत्यवासियों के दृष्टिरागका कदाग्रहको छोड़ा करके शुद्ध व्यवहारमें लाये और वहां अविधिमार्गका निषेध पूर्वक विधिमार्गको प्रगट करा जिसमें श्रीमहावीरस्वामीके गर्भापहार नामा छठा कल्याणक भी लुप्तभाव को प्राप्त हो गया था जिसको भी प्रगट किया सो तो शास्त्रानुसार होनेसे विवेकशून्य या गच्छकदाग्रहियोंके सिवाय और तो कोई भी नवीन प्रकट करणा कदापि नहीं कह सकते क्योंकि देखो जैसे श्रीजिमवल्लभसूरिजी महारानके ही परम पूज्य गुरुजी महा रान श्रीअभयदेव मूरिजी महाराजने भीमवाङ्ग शास्त्रोंकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६५ ] बृत्तियें बनाई और श्रीस्थम्भनक पार्श्वनाथजी महाराजकी प्रतिमाको प्रगट करी उसीको श्रीखरतरगच्छादि वाले श्रीअभय देव सूरिजी महाराज के चरित्र में इतिहासिक वार्ता सम्बन्धी जगह जगह पर बहुत शास्त्रोंमें लिखते आये हैं सो उन महाराज की प्रशंसाकी बात है नतु निन्दा की । तैसेही इन्हीं महाराजके शिष्य श्रीजिनवल्लभ सूरिजी महाराजने चीतोड में अविधिमार्गका निषेध पूर्वक विधिमार्गके प्रगट करनेमें छठ े कल्याणकको भी प्रगट किया सो श्रीखरतर गच्छवालोंने श्रीजिनवल्लभ सूरिजी महाराजके चरित्र में इतिहासिक वार्ता सम्बन्धी लिखा सो तो उन महाराजका कर्तव्य शास्त्रानुसार भव्य जीवों को विधि मार्गका दिखानेवाला होनेसे उन महाराजकी प्रशंसाका कारण है नतु नवीन प्रगट करनेके बहाने निन्दाका कारण ॥ तथा औरभीदेखो खास आत्मारामजीही अपना बनाया 'जैन तत्वादर्श' के बारहवें परिच्छेदमें गुर्वावली अधिकारे पूर्वा चार्यों के चरित्रोंमें उन महाराजोंकी प्रशंसा सम्बन्धी श्रीसिद्ध सैन दिवाकरसूरिजी महाराजके चरित्र में उन महाराजने उज्जेणी नगरीमें श्रीऐवंती पार्श्वनाथजी महाराजकी प्रतिमाको प्रगट करी ऐसा लिखा है जिसको श्रीऐवंतीपार्श्वनाथजी महाराजकी प्रतिमाके द्वेषी तथा श्रीसिद्धसेन दिवाकर सूरिजी महाराज के निन्दक ढूंढ़िये और तेरहापन्यी लोग भोले जीवों को अपने फन्दमें फंसाने के लिये जिनमूर्तिका नवीन प्रगट करना कहे तो उनको पूर्ण अज्ञानीके सिवाय विवेकी तत्वज्ञ तो कदापि नवीन प्रगट करना नहीं कहेंगे किन्तु लुप्त बातका प्रगट होना तो अवश्यही कहेंगे तैसेही श्रीजिनवल्लभ सूरिजी महाराजने भी चीतोड में विधिमार्गकी विच्छेद (लुप्त ) बातोंके प्रगट करनेमें छठे कल्याणकको भी प्रगट किया जिसको उन महा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६६ ] राजके द्वेषी तथा श्रीवीरप्रभुके गर्भापहारके निन्दक भारीकर्म पूर्णअज्ञानी विवेकशून्य गच्छकदाग्रहीके सिवाय आत्मार्थी विवेकी तत्वज्ञ तो नवीन प्रगट करनेके बहाने भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें कदापि नहीं गेरेंगे और इसका विशेष निर्णय धर्मसागरजीने धर्म धूर्ताई की ठगाईसे श्रीगणधरसाई शतककी सावत्तिके अधूरे पाठसे भोले जीवोंको भ्रममें गेरे हैं जिसकी समीक्षा आगे होगी वहां लिखने में आवेगा___ अब देखिये आत्मारामजी इतने बड़े सुप्रसिद्ध विद्वान् होकरके भी खास अपने बनाये जैनतत्वादर्शमें प्रभावक चरित्रादि शास्त्रानुसार श्रीसिद्धसेन दिवाकरसूरिजीने उज्जेणी नगरीमें भीऐवती पाखनाथजीकी प्रतिमाको प्रगट करी । ऐसा खुलासा लिखते हैं उसी तरहसे ही श्रीजिनवल्लभ सूरिजीने भी चीतोडमें छठे कल्याणकको प्रगट किया सो तो शास्त्रानुसार को कालयोग्यसे दबीहुई लुप्त बातको प्रगट करनेका प्रत्यक्षही अर्थ है नतु शास्त्रप्रमाण बिना अपनी मति कल्पनासे, सो-इस बातको आत्मारामजी तो क्या परन्तु हरेक विवेकी विद्वान्जन तो स्वयं ही जान सकते हैं तथापि आत्मारामजीने भोले जीवोंको अपने भ्रमचक्रमें मेरनेके लिये दबीहुई लुप्तभावकी प्राचीन बातको प्रगट करनेके अर्थको बदलकरके अपनी मति कल्पनासे नवीन प्रकट करने रूपी उत्सूत्र प्ररूपणाका मतलब बालजीवोंको दिखाया सो अपने विशेषणको लज्जानेवाली अचानताकी या अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको मायाचारी कही जावे या नहीं इसको विवेकी तत्वतजन स्वयं विचार लेवेगे : और खरतर गच्छमें गणधर साढे शतककी टीका परममान्य होनेका आत्मारामजीने लिखा सो भी मायाचारीका ही कारण है कि सरसर गच्छवालोंके गणधर सार्द्धशतककी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ ] टीका परममान्य तो क्या परन्तु पञ्चांगीके सब शास्त्र प्रकरणादि परममान्य है नतु आप लोगोंकीतरह एक मान्य दूसरा अमान्य ॥ और 'प्रसन्नचन्दाचार्य भी गुरुका आदेश न कर सके, इससे गुरुआज्ञा विराधक नहीं समझना किन्तु श्रीअभयदेव सूरिजी महाराज स्वर्ग जाते समय श्रीप्रसन्नचन्द्राचार्यजीको कहगये थे कि अवसर आवे जब अच्छे लग्नको देखकर श्रीजिनवल्लभगतिको मेरे पाटपर स्थापनकरना सो अवसर श्रीप्रसन्नचन्दाचार्यजीको न मिलसका तब श्रीप्रसन्नचन्दाचार्यजीने श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजके कथनको श्रीदेवभद्राचार्यजीको कहा सो उन्होंने अवसर आमेसे श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजके पाटपर श्रीजिनवल्लभगणिनीको स्थापन करके श्रीजिनवल्लभ सूरिजी नाम रक्खा इसलिये पूर्वापर के सम्बन्ध रहित अधूरा पाठ लिखके अधूरी बातसे भोले जीवोंको भ्रममें गेरना आत्मारामजीको उचित नहीं था, खैर और श्रीगणघर सार्द्ध शतककी लघुवृत्तिके पाठ में किसी को सन्देह हो तो अजमेर में सौभाग्यमलजी ढढाके भण्डार में प्राचीन पुस्तक है जिसको देख लेनेकी आत्मारामजी मे भलामण करी ॥ इसपर भी मेरेको बड़ाही आश्चर्य उत्पन्न हुआ किआत्मारामजीने जैन सिद्धान्त समाचारी में अपना कल्पित मन्तव्यको स्थापन करनेके लिये २५ । ३० शास्त्रोंके पाठों को लिखे उसीमें तो किसी भी जगहपर अमुक शास्त्र पाठको अमुक जगह से देख लेने सम्बन्धी भलामण न करी क्योंकि उन शास्त्रकार महाराजों के विरुद्धार्थमें और शास्त्रों के पूर्वापर सम्बन्धवाले पाठोंको छोड़कर के शास्त्रोंके पाठोंको चोरीसे वीचमेंके अधूरे अधूरे पाठको लिखके उत्सूत्र भाषणोंसे भोले जीवोंको अपने भ्रमचक्र में गेरनेका परिश्रम किया इसलिये उन शास्त्रोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६ ] तो पाठोंको देख लेनेकी भलामण करते इनको लज्जाआई और श्रीगणधर सार्द्धशतककी लघु टीकाके पाठको देख लेनेकी भलामण करके अपनी साहूकारी प्रगट करना चाहा परन्तु इससे तो अपनी विद्वत्ताको विशेष हांसी करानेका कारण हुआ क्योंकि अजमेर में उसी पुस्तकको देखनेके लिये इतनी दूर कौन जावे उसीका प्राचीन पुस्तक मेरे पास यहां ही मौजूद है उसीने छठा कल्याणक प्रगट करने सम्बन्धी अक्षर देखके आपलोगोंको भ्रम पड़ गया परन्तु सद्गुरुसे उसीका मतलब समझे बिना सन्देह करना उचित नहीं है क्योंकि देखो "प्रभावक चरित्र" में भी प्रोवृद्धवादिजीके शिष्य श्रीसिद्धसेन दिवाकर सूरिजीके चरित्रमें तथा श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजके चरित्र में श्रीऐवंतीपार्श्वनाथजीकी प्रतिमाको तथा प्रोस्थम्भनपाखंनाथजीकी प्रतिमाको प्रगट करने सम्बन्धी खुलासा अक्षर लिखे हैं सो तो छपाहुआ श्रीप्रभावक चरित्र प्रसिद्ध है तथा उपरकी बात अनेक शास्त्रों में प्रगट भी है और आत्मारामजीने भी सिद्धसेन दिवाकरजी महाराजके चरित्रमें श्रीऐवं. तीपाखं नाथजीकी प्रतिमाको प्रकट करनेका खुलासापूर्वक लिखा है। प्रश्नः-अजी श्रीऐवंतीपाखनाथजीको प्रतिमाको तो अन्य मतियोंने लुप्त करी थी तथा श्रीस्थम्भनपार्ख नाथजीकी प्रतिमा भी कालयोग्यसे लुप्तभावको प्राप्त होगई थी इसलिये श्रीसिद्धसेन दिवाकर सूरिजीको तथा श्रीअभयदेवसूरिजीको प्रगट करनेका अवसर मिला तब उन महाराजोंने प्रगट करी परन्तु श्रीमहावीर स्वामीका छठा कल्याणक पूर्व कहां था तथा कब लुप्तभावको प्राप्त हुआ सो श्रीजिनवल्लभ मूरिजीको प्रगट करने का अवसर प्राप्त हुआ सो बताओ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६] उत्तर-भो देवानुप्रिय। तेरेको गुरु गम्यसे या अनुभवसे श्रीजैनशास्त्रोंका गम्भीराशय समझ में नहीं आया उसी ऐसा सन्देह उत्पन्न हुआ है इसलिये अब तेरा सन्देह दूर करनेके लिये इस अवसरपर तो मेरेको इतना ही कहना है। कि जैसे श्रीऐवन्ती पार्श्वनाथजीकी प्रतिमा पूर्वे थी जब अन्य मतियोंने लुप्तभावको प्राप्त करी तथा श्रीस्थम्भनापार्श्वनाथजीकी प्रतिमा भी पहिले थी जब कालयोग्यसे लुप्त भावको प्राप्त हुई तब उन महाराजोंने अवसर पाय करके प्रगट करी तैसेही श्रीमहावीरस्वामीका छठा कल्याणक भी (श्रीऋषभदेव स्वामी आदि तीर्थंकर महाराजोंका तथा महाविदेहक्षेत्रमें विद्यमान भगवान् श्रीसीमन्धरस्वामीका और श्रीवर्द्धमान स्वामीके गणधर तथा पूर्वधरादि महाराजोंका कथन किया हुआ) अनेक शास्त्रों में प्रगटपने था तथापि चैत्यवासियोंने अपने साधुपनेका व्यवहार छोड़कर दूष्टिराग गच्छ ममत्व तथा परिग्रहादिके लोभमें पड़गये और शास्त्रानुसारके शुद्ध व्यवहारकी कितनीही बातोंका लुप्तभाव करते हुए अपनी कल्पना मुजब अविधिमार्गकी कितनीही बातोंको जिस समय प्रवर्तमानकरी उसी समय श्रीमहावीरस्वामीका . छठा कल्याणक भी लुप्तभावको प्राप्त हो गया तब चीतोड़ नगरमें श्रीजिनबल्लभसूरिजीने अविधिमार्गकी कल्पित बातोंका निषेध पूर्बक शास्त्रानुसार विधिमार्गकी बातोंको प्रगट करने में श्रीमहावीरस्वामीका छठा कल्याणक भी प्रगट किया और जैसे . श्री ऐवन्तीपार्श्वनाथजीकी मूर्तिको व्राह्मणलोगोंने लुप्तकरी जिसका तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी महाराजने प्रगटकरी, जिसके बर्षों का नियमित समय तो श्रीज्ञानीजी महाराजके सिवाय दूसरे कोई कहने को समर्थ नहीं है.तैसेही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [490] श्रीमहावीरस्वामी के छठे कल्याणकका कालदोषसे द्रव्यलिंगी चैत्यवासियोंसे लुप्त हुआ जिसका तथा श्रीजिनबल्लभसूरिजी महाराजने प्रगट किया जिसके वर्षों का नियमित समयको तो श्रीज्ञानीजी महाराजके सिवाय दूसरा कोई कहने को समर्थ नहीं है और जैसे श्रीसिद्धसेनदिवाकर सूरिजी महाराजसे तथा श्री अभयदेवसूरिजी महाराज से भी विशेष गीतार्थ समर्थ पूर्वाचार्य पूर्वे हो गये परन्तु जिस समय जिसके योग्यसे जो बात बननेवाली होती है सो बात उसी समय उनकेही योग्यसे बनती है नतु दूसरे के योग्यसे दूसरे समयमें सो यह बात प्रसिद्ध है इसीकेही अनुसार श्रीएवन्ती पार्श्वनाथजी की प्रतिमाके तथा श्रीस्थम्भन पार्श्वनाथनीकी प्रतिमाके उन्हीं महाराजोंकी भक्तिपूर्वक स्तवना से प्रगट होकर शासन प्रभावना और भव्यजीवोंको उपकार होनेका कारण होनेवाला था सोही हुआ ॥ तैसेही श्रीजिनबल्लभ सूरिजीसे भी विशेष गीतार्थ समर्थ पुरुष पूर्वे हो गये परन्तु विशेष रूप से चैत्यवासियोंका अविधि मार्ग और दृष्टिरागके पक्षपातकी भ्रमजालको तोड़कर सिद्धान्तानुसार विधिमार्गका प्रकाश श्रीजिनवल्लभ सूरिजी से ही होनेवालाथा इसलिए इन महाराजने उसीसमय चैत्यवासियोंके अनेक उपद्रवोंको भी सहन करके - विधिचैत्य ९, विधिसे उसीका पूजन २, यत्मापूर्वक विधिसे उसीकी संभाल ३, चैत्यवास त्यागरूपोपदेश ४, निशिचैत्यप्रतिष्ठा निषेध ५, तथा निशि स्नात्र पूजनादि निषेध ६, सूतिकागृहे मुनि भिक्षा निषेध 9, निर्वद्य ४२ दोषरहित मुनि गौचरीका व्हवहार ८, षष्ठ कल्याणकाराधन व्यवहार ९ अप्रतिबद्ध मुनि विहार १०, द्रव्यसे गुरु अङ्ग पूजन निषेध - १९ चैत्य निर्माल्य भक्षण निषेध १२, निजद्रव्य तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७१ ] चैत्यद्रव्य परिग्रह ममत्व परिहार १३, ज्ञानद्रव्य भक्षण निषेध १४, गृहस्थी गृहे भोजन करण निषध १५, इत्यादि साधु प्रावक चैत्यादि सम्बन्धी क्रिया अनुष्ठानों में शास्त्र विरुद्ध अविधि मार्गको बातोंका निषेधरूपी लुप्तभाव और शास्त्रानुसार विधिमार्गके लुप्तभावकी बातोंको प्रगट करने रूपी प्रकाशभाव करके बहुत भव्यजीवोंका श्रीजिनाजाके आराधन पूर्वक आत्मसाधनके उपकारका कारण किया तथा करगये इसलिये श्रीजिनबल्लभ सूरिजी जैसे पूर्व कोई भी गीतार्थ समर्थ पूर्वाचार्य नहीं हुए सो चीतोड़में जाकरके षष्ठ कल्याणकादि उपरकी बातोंको प्रगट नहीं करसके जिससे इन महाराजको उपरकी बातें प्रगट करनी पड़ी ऐसी कुतकं करना उपरके कारणसे सर्वथा वृथा है क्योंकि जब चीतोड़में तो क्या परन्तु उसी देशही माय करके सबी जगहपर भोलेजीवोंके विधिमार्गसे श्रीजिनाज्ञा आराधनको शुद्ध श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रत्नके धनको हरण करके अपने दृष्टिरागके फन्दमें फंसाकर अविधि मार्गरूपी मिथ्यात्वमें गेरनेवाले वेषविटम्बक चैत्य वासी जन व्याप्त हो गये थे तो फिर ऐसे अवसरमें शुद्ध क्रिया पात्र परमोपकारी शास्त्रतत्वज्ञ और अविधिरूपी अन्धकारको नाश करने में सूर्य समान प्रकाश करनेवाले तथा वेषधारियोंके पाषण्डको तोड़ने में समर्थ अनेक तरहके उपद्रवोंको सहन करनेवाले श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजके सिवाय दूसरा कौन वहां जाकरके भव्यजीवोंके उपकार निमित्तशास्त्रानुसार विधि मार्गकी बातोंको प्रगट करानेके लिये इतना परिश्रम कर सकता था जिसको तो तत्वग्राही विवेकी पाठक गणभी स्वयं विचार सकते हैंतथा भौर भी एक वर्तमामिक प्रत्यक्ष प्रमाण भी यहां पाठ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१२] कवर्गको दिखाता हू कि देखो अधिक मासके ३० दिनोंकी गिनती निषेध करनेका तथा श्रीवीरप्रभुके छठे कल्याणकको निषेध करनेका प्रत्यक्ष कुत्रियोंसे अन्यायकारक और उत्सूत्र प्ररूपणा के कदाग्रहको निवारण करके श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराओं के कथनानुसार पंचांगीके प्रमाणों मुजब और सुयुक्तियों सहित अधिक मासके ३० दिनोंको गिनती में लेने के तथा श्री वीरप्रभुके छठे कल्याणकको सिद्ध करके दिखाने के लिये श्रीजिनाज्ञाराधक आत्मार्थी परोपकारी और दीक्षा पर्याय में स्थिविर अनेक गीतार्थ समर्थ पुरुष पहिले हो गये तथा बर्तमान में भी होगें परंतु " श्रीपर्युषणा निर्णय" नामान्रन्थ में उपर की बातोंका विस्तारसे शंका समाधान पूर्वक निर्णय होनेका ६७ वर्षके नवदीक्षित बालक तथा अल्प बुद्धिवाले मेरेसेही योग्य था सो हुआ और भव्यजीवोंके उपकारार्थे प्रगट करनेका भी अवसर आया तो क्या मेरे जैसे तथा मेरेसे विशेष विद्वान् पूर्वे कोई नहीं हुए तथा बर्तमान में कोई नहीं सो मेरेको उपरका कार्य करना पड़ा सो तो कदापि नहीं क्योंकि पंच समवायके योग्यसे जो कार्य जिससे होनेवाला होता है सो कार्य उसीसे होगा नतु दूसरेसे ॥ बस इसीकेही अनुसार चीतोड़ में चैत्यवासियोंके कदाग्रहको हटाकरके पूर्वोक्त लुप्त बातोंको श्री जिनवल्लभ सूरिजी से ही प्रगट होनेका योग्य था सो हुआ इसलिये दूसरे पूर्वाचार्य षष्ठ कल्याणकादि बातोंको वहां उस समय प्रगट म कर सके तो फिर श्रीजिनवल्लभ सूरिजीने कैसे किया ऐसा सन्देह करनाही उचित नहीं है यदि ऐसा सन्देह हो गया हो तो उपरके लेखको पढ़कर निकाल देना चाहिये इस बातको विशेषता सत्यग्रहणाभिलाषी पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [493] और श्रीमहावीरस्वामीके छ कल्याणक भव्यजीवोंको दिखानेके लिये शुद्ध सामाचारी प्रकाश नामा पुस्तकर्मे श्रीआचाराङ्गादि शास्त्रों के पार्टीको पं० प्र० यतिजी श्रीरायचन्दजीने लिखे जिसको श्री आत्मारामजी ग्रन्यके भार भूत याने सर्वथा वृथा ठहराते हैं सो तो भगवान्की वाणीरूपी शास्त्रोंकी अवज्ञा करके उत्सूत्रभाषण से अपने और दृष्टिरागी जूठ पक्ष ग्राही जनोको संसार परिभ्रमणका और ज्ञानावर्णिय कर्म उपार्जन करनेका निमित्त भूत गच्छकदा ग्रहको स्थापन करने के लिये वृथाही इतना परिश्रम क्यों किया होगा जिसको तो उपर मेंही पृष्ठ५५८/५५९०५६० के लेखको पढ़नेवाले पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवे गे और आगे फिरभी आत्मारामजीने भोलेजीवोंको भ्रमानेके लिये जैन सिद्धान्त समाचारीके पष्ठ ६७ की पंक्ति २३ वींसे पृष्ठ ६८ की चौथी पंक्तिक एसे लिखा है कि ( पृष्ट 90 से लेके पष्ठ १३ तक आचाराङ्ग स्थानात दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णिके जो पाठ लिखे हैं, उसमें कल्याणक शब्दका गन्ध भी नहीं है क्योंकि प्रथम आचारांग में पंच हत्युत्तरे होत्था ऐसा पाठ है और टीकाकारने निवत्तिस्तुस्वातौ निर्वाण स्वाति नक्षत्रमें ऐसा कहा है और दशाश्रुत स्कन्धकी चूर्णि में उण्हं वत्थुरां कालो वाघरिओ अर्थात् छ वस्तुओंका काल कथन किया ऐसा पाठ है तो फिर तुमने जोरा जोरी छ कल्याणक कैसे बना लिये ) उपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हू कि हे सज्जन पुरुषो जो श्रीआत्मारामजी श्रीजिनाचा के आराधक आत्मार्थी भवभीरु सत्यग्रहण करनेवाले भव्य जीवोंके उपकारी होते तो गच्छ कदाग्रहसे श्रीआचारांगादि शास्त्रोंमें कल्याणक शब्दका गन्ध भी नहीं है इत्यादि प्रत्यक्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७४ ] माया मिथ्या और उत्सूत्र भाषणरूप उपरका लेख लिखकरके भोले जीवोंको भ्रममें गेरनेके लिये मिथ्यात्वका कारण कदापि नहीं करते क्योंकि देखो शुद्ध समाचारी प्रकाशमैं श्रीमहावीरस्वामीके षष्ठ कल्याणकाधिकारे पष्ठ ७० से ७३ तक श्रीआचारांगादि शास्त्रोंके पाठ लिखे सो उन पाठोंसे भगवान के च्यवनादिकोंको कल्याणकारहित ठहरामेका परिश्रम आत्मारामजी ने किया सोसर्वथा वथा है क्योंकि श्रीआचारांगजीमें श्रीमहावीर खामीके चरित्रका वर्णन किया है जिसमें च्यवनसे लेकर मोक्ष गमन पर्यंतके मास पक्ष तिथि नक्षत्रों का खुलासा पूर्वक वर्णन किया है उसी में च्यवनादिकोंको कल्याणकत्वपना तो अनादिसे स्वयं सिद्ध है कारणकि-अनादि कालसे श्रीअनन्त तीर्थकर गणधरादि महाराज श्रीतीर्थंकर भगवान्के च्यवनादिकोंको कल्याणक कहते आये हैं तथा वर्तमानमें भी कहते हैं सो जैनमें प्रसिद्ध है तथापि श्रीआत्मा रामजीने श्रीआचारांगजी सूत्र में प्रोवीरम के सम्पूर्ण चरित्रको ही कल्यणकों रहित ठहरा दिया। हा अति खेद ! कितनी बड़ी आश्चर्यकी बात है कि न्यायांभोनिधिका विशेषण धारण करके भी प्रत्यक्ष मायाचारी पूर्वक अन्याय करते हुए अपने गच्छ कदाग्रहकी कल्पित बातको स्थापन करनेके आग्रहमें फंसकर श्रीतीर्थंकर भगवान्के च्यवनादिकोंका प्रचलित कल्याणकके अर्थको जड़ मूलसे उठा करके श्रीअनन्त तीर्थकर गणधरादि महाराजोंकी कथन करी हुई बातका उत्थापन करनेसे संसार वृद्धि का क्रिचित्मान भी हृदयमें विचार न किया ॥ खैर ॥ भब. पाठकवर्गसे मेरा यही कहना है कि-जैसे किसी शास्त्रमें “गौचरीके ४२ दोष रहित भिक्षावत्ति करके नितिपारपंच महाव्रतोंका पालन पूर्वक कर्मों का क्षय कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [494] मोक्षको प्राप्त हुआ" ऐसा मतलबका पाठ आवे वहां यद्यपि साधु सुनका नामवाला शब्द कथन नहीं किया गया तो भी पांच महाव्रतोसे साधु तो स्वयं सिद्ध होही चुका तथापि कोई उपर में साधु शब्दका तो गन्ध भी नहीं है. ऐसा कह करके साधुका निषेध करे तो उसीको विवेक शून्य हठवादी अज्ञानी समझना चाहिये ॥ तैसेही श्रीआचारांगजीमें श्रीवीरप्रभु चरम तीर्थंकर भगवान्‌के च्यवन जन्मादिकों के मास पक्ष तिथि नक्षत्रोंका खुलासा पूर्वक चरित्रका वर्णन करने में आया है वहां च्यवनादिकोंको कल्याणकत्वपना तो स्वयं सिद्ध हो चुका और गर्भापहारसे गर्भ संक्रमणको तो आश्चर्यके कारणसे दूसरे च्यवनकी प्राप्ति होनेसे उसीको भी कल्याणकत्वपना तो स्वयं सिद्ध है तथापि आत्मारामजीने श्रीवीरप्रभुके मोक्ष गमन पयत सब चरित्रको ही कल्याणकों रहित ठहराया सो तो अज्ञानतासे या अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे भोले जीवों को भ्रमाकरके शास्त्रानुसारको सत्य बातपरसे श्रद्धा भ्रष्ट करने रूप मिथ्यात्व फैलाने के सिवाय और कुछ भी सार मालूम नहीं होता है इसको विशेषतासे तत्वज्ञजन स्वयं विचार लेवेंगे. तथा और भी सत्य ग्रहणाभिलाषी पाठकगण को यहां प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाता हूं कि देखो श्रीकल्पसूत्र में श्रीपार्श्वनाथजी तथा श्रीनेमिनाथजी और श्री आदिनाथजी भगवान्‌के चरित्र वर्णन करने में आये हैं वहां उन महाराजोंके च्यवनादिकोसे मोक्ष पयतके मास पक्ष तिथि नक्षत्रोंका खुलासा पूर्वक वर्णन किया है परन्तु वहां किसी जगहमी कल्यागाक शब्दका तो कथन सूत्रकारने नहीं किया है तो भी अनादि व्यवहारकी प्रसिद्ध बात मुजब उन्होंके च्यवनादिकोको कल्याणकपना प्रगटपने आपलोग सब कोई कहते हैं तैसेही इसीही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] भीकल्पसूत्रने और श्रीआचारांगजी सूत्र में श्रीमहावीरप्रभुके भी च्यवनादिसे मोक्ष पयतका विस्तारसे चरित्र वर्णन किया है उसीको कल्याणक कहनेके बदले उलटे विशेषतासे निषेध करते हैं इससे तो शासन नायक श्रीवीरप्रभुके च्यवनादि कल्याणकोसे आपलोगोंके पूर्णतया द्वष मालूम होता है अन्यथा २२वें २३ वें और प्रथम भगवान्के च्यवनादिकोंको कल्याणक कहनेका और २४ वें भगवान्के च्यवनादिकोंको कल्याणकपना न कहके निषेध करनेका ऐसा प्रत्यक्ष अन्याय अपनी विद्वत्ताकी चतुराईको लज्जानेवाला कदापि नहीं होता, इस बातको तत्वज्ञ जन स्वयं विचार लेना और श्रीस्थानांजी सूत्रमें चौदह तीर्थकर महाराजोंके च्यवनादि पांच पांचके नाम और नक्षत्रों के नामों को खुलासा पूर्वक वर्णनके साथ सूत्रकार श्रीगणधर महाराज, व्याख्या करी है उसी कल्याणक शब्द न देखकर १४ तीर्थंकर महा. राजोंके च्यवनादि पांच पांच कल्याणकोंको मानने में न्यायांभोनिधिजीको तथा उन्होंके पक्षवालोंको भ्रांति पड़ गई इसलिये “उसीमें कल्याणक शब्दका गंध भी नहीं है" इत्यादि शब्द लिखके पीस्थानांगजीमें चौदह ही तीर्थंकर महाराजोंके च्यवनादि पांचों पांचोंको कल्याणकों रहित ठहराये सो भी पूर्ण अज्ञानता या अभिनिवेशिक मिथ्यात्वताकाही कारण मालूम होता है क्योंकि-उपर लिखे न्यायानुसार तीर्थकर भगवानों के च्यवनादि पांचोंकों कल्याणकपना तो अनादिसे स्वयं सिद्ध है तथा भगवान्के च्यवनादिकोंका नाम मात्र ही कथनसे कल्याणकका अर्थ तो जैनमें प्रगटपने है इसलिये कल्याणक शब्द लिखनेकीही कोई जरूरत भी नहीं है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७७ ] और भीतीर्थकर भगवान्के च्यवनादिकोंको कल्याणक कहनेका तो प्रायः करके सवकोई विवेकी जैनी जानतेही हैं तथापि न्यायांभोनिधिका विशेषण धारण करनेवाले आत्मारामजीने श्रीतीर्थंकर भगवान् वीरप्रभुके च्यवनादिकोंको कल्याणकपमेसे निषेध करनेके लिये श्रीस्थानांगजीसूत्रके मूल पाठमें श्रीगणधर महाराजके कथन किये हुए चौदह तीर्थंकर महाराजोंके सत्तर (७०) कल्याणकोंको जड़ मूलसे उड़ा करके अपने गच्छ ममत्वको कल्पनाको स्थापन करनेके लिये ऐसा महान् अनर्थ किया परन्तु उत्सूत्रभाषणसे संसार द्धिका कारण भूल गये सो बड़ेही खेदकी बात है कि-इस कलियुगमें श्रीआत्मारामजी इतनेबड़े प्रसिद्ध विद्वान् हो करके भी विद्वताके अभिमानसे दृष्टिरागी भोलेजीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरमे के लिये श्रीअनन्त तीर्थकर गणधरादि महाराजोंके कथन किये हुए (श्रीतीर्थंकर भगवान्के च्यवनादिकोंको कल्याणकपनेके.) अर्थ का भङ्ग करके सर्वथा निषेध करने का इतना अनर्थ कारक परिश्रम करके भी शुद्ध प्ररूपक उत्क्रष्टि क्रिया करनेवाले आज्ञा आराधक कहलाते हुए कुछ लज्जा भी नहीं करी सो तो अन्तर मिथ्यात्वका कारण ही मालूम होता है इस बातको विशेषतासे निष्पक्षपाती विवेकी तत्वज्ञजन स्वयं विचार लेवेंगे ___ और इतने पर भी प्रोस्थानांगजी में १४ तीर्थंकर महाराजों के च्यवनादिकोंको कल्याणक शब्दसे सूत्रकारने न लिखा देख करके च्यवनादिकोंको कल्याणक न माननेवाले विवेकशून्य हठावादियोंके कल्पित कदाग्रहको विशेषतासे दूर करने के लिये इस अवसर पर पाठकगणको यहां प्रत्यक्ष प्रमाण भी दिखाता हूं कि-देखो इसीही श्रोस्थानांगजी सूत्रके तीसरे स्थानके मूल पाठमें तथा उसीकी वृत्तिमें श्रोतीर्थंकर भगवान्के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७८ ] जन्म दीक्षा और ज्ञानोत्पत्ति इन तीनों बातोंके होनेसे लोकमें उद्योत होनेका तथा देवताओंके आगमनका लिखा है, परन्तु यहां सूत्रकारने और टीकाकारने भी कल्याणक शब्दका तो कथन ही नहीं किया तो क्या न्यायां भोनिधिजी यहां भी तीर्थंकर भगवान् के जन्मादिकों को कल्याणक नहीं मानेगे सोतो कदापि नहीं, यदि मानते होंगे तब तो बड़े ही आश्चर्य सहित महान् खेदकी बात है कि, गच्छ कदाग्रह के झगड़े में पड़कर उत्सूत्र भाषणसे संसार वृद्धिके भयको भूल करके भोले जीवोंको मिथ्यात्व के भ्रममें गेरनेके लिये एकही सूत्र के तीसरे स्थानके पाठसे तीर्थंकर भगवान् के जन्मादिकोंको कल्याणक मानते हुए भी इसीही सूत्रके पंचम स्थानके मूल पाठसे १४ तीर्थंकर महाराजोंके च्यवन जन्म दीक्षादिकों को कल्याणक न मान्य करके विशेषतासे निषेध करनेका ऐसा प्रत्यक्ष अन्याय आत्मारामजीको अपने न्यायांभोनिधिके विशेषणको लज्जानेका कारण करना कदापि उचित नहीं था सो भी पाठकगण विचार लेना - औरभी इसीही तरहसे श्रीजौवाभिगमजी सूत्रके मूल पाठ में तथा उसीकी वृत्ति में नन्दीश्वरद्वीपाधिकारे सूत्रकार मे तथा वृत्तिकारने मोतीर्थंकर भगवान्‌के जन्म दीक्षा ज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण होनेसे सुर असुर देवोंका बहुत समुदाय मिलकर नन्दीश्वरद्वीपके शाश्वत चेत्यों में भगवान्की प्रतिमाजीके आगे अटाईउत्सव करनेका लिखा है परन्तु वहां भी कल्याणक शब्द नहीं लिखा तो भी अनादि व्यवहारसे भगवान् के जन्मादिकों का कल्याणक ही अर्थ किया जाता है और श्री आवश्यकजी सूत्रकी नियुक्ति में तथा उसीकी चूर्णि में और उसीकी वृहद्वतिनें तथा लघुवृत्ति में श्री चौबीसही तीर्थंकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 9 ] महाराजों के दीक्षा और ज्ञान उत्पत्ति के मास पक्ष तिथि मक्षवादिकोंकी खुलासाके साथ व्याख्या करी है वहां भी सबी जगह कल्याणक शब्द नहीं लिखा है और प्रीत्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र में भी कितनेही पर्वो में (विभागोंमें) बहुत तीर्थकर महाराजोंके च्यवनादिकोंके नामों पूर्वक उन्होंके मास पक्ष तिथि नक्षत्रों का खुलासा लिखा है. परन्तु वहां सबी तीर्थ कर महाराजोंके चरित्रों में सबी जगह पर ध्यवन जन्मा. दिकों में कल्याणक शब्द नहीं लिखा है परन्तु अनादिका प्रसिद्ध व्यवहारानुसार उन च्यवनादिकोंको कल्याणक अर्थ पूर्वक कथन किये जाते हैं तथा औरभी मौन एकादशीके गुनणेके जापको नामावलीमें और श्रीतीर्थ कर महाराजके ५२॥५२ बोलोंके यन्त्रों में तथा पांच कल्याणकोंकी टीप, च्यवनादिकोंके नाम लिखे हैं वहां कल्याणक शब्दका नाम लिखे बिना भी उन्होंको कल्याणक कहनेका तो सब कोई प्रगटपने मान्य करते हैं तैसेही जो भगवान्की आज्ञाके आराधक आत्मार्थी विवेकी जन होगे सो तो श्रीस्था नांगजीमें १४ तीर्थ कर महाराजोंके च्यवनादि पांच पांचको कल्याणकपने मान्य करेंगे परन्तु अभिनिवेशिकमिथ्यात्वी दीर्घसंसारी होगे सो न मानेगें और कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंको भ्रममें गेरेगें तो उन्होंकेही भारी कर्मों को दोष है नतु शास्त्रकारोंका इस बातको विवेकी जन स्वयं विचार लेवेगे;___ और श्रीस्थानांगजी सूत्रकी वृत्तिमें श्रीपद्मप्रभुजी आदि तीर्य कर महाराजोंके च्यवनादिकोंके मास पक्ष तिथि नक्षत्र तथा माता पिताके नाम और नगरीके नामको खुलासा पूर्वक व्याख्या करके टीकाकारने च्यवनादि पांच पांच स्थान को भर्यात व्यवनादि पांच पांच करपाणकोंको स्पान शब्दकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] संज्ञाके नामसे लिखे जिसको देखकर गुरुगम्य शून्यतासे न्या. यांभोनिधिजीको भ्रांति पड़गई कि, टीकाकारने च्यवनादि पांच पांच स्थान कहे परन्तु पांच पांच कल्याणक नहीं कहे उसीसे च्यवनादि पांच पांच कल्याणक नहीं किन्तु कोई अन्य अर्थ वाची पांच पांच स्थान होंगे बस-इसी भ्रमसे तीर्थ कर महाराजके च्यवनादि पांच पांच कल्याणकोंसे चौदह तीर्थ कर महाराजोंके 90 कल्याणकोंका निषेध करनेका कुछमी भय न रखकर पांच पांच स्थान कहने का आग्रह किया सो भी अन्य मतियोंके पण्डितोंसे व्याकरणादि पढ़कर विद्वताके अभिमानरूपी अजीर्णताके कारणसे गुरुगम्य बिना श्रीजैन शास्त्रोंका अतीवगहनाशय न्यायांभोनिधिजीके समझने नहींमाया मालूम होता है क्योंकि चौदह तीर्थंकर महाराजोंके च्यवनादि पांच पांच स्थान कहे हैं सो ही पांच पांच कल्याणक समझने चाहिये क्योंकि देखो जैसे किसी शास्त्रमें "जब इस जीवको उपर में जाने के लिये सीढीके १४ पगथीयेरूपी १४ स्थान प्राप्त होवे गे तब महलमें जाना होगा" इस तरह का अधिकार किसी प्रसङ्गमें आजावे तो वहां मोक्षरूपी महलमें जानेके लिये सीडीके १४ पंगथीयरूपी १४ स्थान सोही १४ गुण स्थान गुणोंकी श्रेणी प्राप्त होनेसे अनन्त और अक्षय सुख मिल सकता है इस मतलबका भावार्थवाला अर्थ करना चाहिये परन्तु वहां अन्य अर्थ वाची स्थान शब्दका अर्थ कदापि नहीं हो सकेगा तैसेही यहां भी श्रीस्थानांगजी सूत्रकी वृत्तिले १४ तीर्थकर महाराजोंके च्यवनादिकोंको पांच पांच स्थान कहे सोतो निज परके कल्याण कारक मोक्ष हेतु गुणोंकी श्रेणीरूप गुणों के स्थान प्रगट पने कल्याणक भर्य की सुचना कर रहे हैं इसलिये यहां टीकाकार करपारक शब्दका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८ ] पर्यायवाची एकार्थं सूचक स्थान शब्द लिखा है ऐसा समकना चाहिये अन्यथा स्थान कहके कल्याणकका निषेध करनेसे तो चौदह तीर्थकर महाराजके 90 कल्याणकोंका निष ेध होनेसे श्रीअनन्त तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उत्थापनरूप उत्सूत्र भाषण से मिथ्यात्वके दूषणको प्राप्ति होवेगी इसको विशेषतासे तो तत्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवे गे और स्थान शब्द कल्याणकके अर्थ वाला है जिसका दृष्टान्त के साथ खुलासावाला लेख पहिले भी विनयविजयजी के लेखकी समीक्षा में इसी ग्रन्थ के पृष्ठ ५०१ से ५०२ तक छप गया उसीको पढ़ने से भी पाठकवर्गको सब निःसन्देह हो जायेंगा ; अब श्रीजिनाजा आराधक सत्यग्रहणाभिलाषी सज्जन पुरुषोंसे इस अवसर पर मेरा यही कहना है कि श्रीस्थानांगजी सूत्र तथा उसीकी वत्ति सम्बन्धी उपरोक्त लेखके न्यायानुसार श्रीपद्मप्रभुजी आदि १४ तीर्थंकर महाराजके 90 कल्याणक सिद्ध हो गये जिसमें श्रीपार्श्वनाथजी पर्यंत १३ तीर्थंकर महाराजोंके च्यवन जन्म दीक्षा ज्ञान और मोक्ष इन पांच पांच कल्याणकों के हिसाब से (श्रीस्थानांगजी सूत्रके मूल पाठसे तथा उसीकी टीकाके पाठ से ) ६५ कल्याणक हुए और चौदहवें श्रीमहावीरप्रभुके पांच कल्याणकोंमेंसे तो प्रथम च्यवन तथा गर्भहरण से गर्भसंक्रमणरूपी दूसरा च्यवन और तीसरा जन्म चौथा दीक्षा पांचवां केवलज्ञानोत्पत्ति यह पांच कल्याणक गिनने से चौदह तीर्थ कर महाराजोंके सत्तर (90) कल्याणक होते हैं इसमेंसे श्रीजिनाज्ञा आराधक आत्मार्थी भवभीरु जो जैनी होगा सो तो एकही कल्याणक निषेध नहीं कर सकेगा परन्तु आज्ञाविराधक दीर्घसंसारी जैनभास तो 90 ही कल्याणकोंको निषेध करके सूत्र पाठके अर्थका भङ्गकर देवे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८२] तो उसको कौन रोक सकता है और प्रोस्थानांगजीके पंचमें स्थानमें पांच पांच बातोंका कथन होनेसे सूत्रकारने श्रीशासननायकके केवलज्ञान पर्यंत पांचही कल्याणकोंका कथन किया और छठा मोक्ष कल्याणकका कथन नहीं करसके परन्तु टीकाकारतो विशेषता पूर्वक कार्तिक अमावश्याको स्वाति नक्षत्र में भगवान्के मोक्ष गमनका छठा कल्याणकको प्रगटपने कथन कर दिया है सो दीपमालिका दीपोत्सवमालाके नामसे सब जैनमें प्रसिद्ध है इस लिये शासन नायकके छ कल्याणक शास्त्रों के प्रमाणानुसार तथा युक्ति युक्त होनेसे इनके निषेध करने वालोंको शास्त्र प्रमाण उत्थापक अन्तर मिथ्यात्वी न बनना चाहिये इस बातको भी विशेषतासे तत्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेंगे,___ और श्रीआचारांगजी सूत्रके मूल पाठमें तथा श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठमें तो श्रीमहावीरस्वामीके पांच कल्याणक हस्तोतरा नक्षत्र और छठा मोक्ष कल्याणक स्वाति नक्षत्र में प्रगट पने कहा है उसी का उपरमें निर्णय हो गया है जिसको आत्मार्थी आज्ञा आराधक होवे गे सो तो मान्य करेंगे परन्तु अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी इहलोक स्वार्थी पक्के कटर कदाग्रही जन नहीं मानेगे और भोले जीवोंको भ्रममें गेरने के लिये कुयुक्तियों करके निज परके दुलभ बोधिपमेका कारण करते हुए मानुष्य जन्मको बिगाड़ेंगे तो फिर भवांतरमें मानुष्य जन्ममें जिनाजाकी प्राप्ति विमा संसारका पार होना अतीव कठिन है- और श्रीदशाश्रुतस्कंध सूत्रकी चूर्णिमें श्रीमहावीरस्वामीके चरित्रको मांगलिकके लिये कथन करते भगवान्के च्यवनादि छहो कल्याणकोंको छ वस्तु कही सो वस्तु शब्दको देखकर म्यायांमोनिधिनीको यह भी बम पाया कि पीवीरमर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ ] च्यवनादि कहोंको वस्तु कही परन्तु कल्याणक नहीं कहे बस इसी भ्रमसे श्री महावीरस्वामीके छहीं कल्याणेकोंको निषेध करके छ वस्तु स्थापन करनेका आग्रह अन्ध परम्परासे कर लिया सो भी पूर्ण अज्ञानताकाही कारण मालूम होता है क्योंकि देखो जैसे किसी शास्त्र में कोई भी पदार्थको वस्तु शब्दसे कथन करें तो उसीके विशेषणों को भी वस्तु शब्दकी संज्ञासे कथन करनेमें कोई हरजा नहीं हो सकता तैसेही यह संसार भी षद्रव्योंरूप पदार्थों की साश्वती वस्तुओं से चलता है उसीमें जीवको भी वस्तुको संज्ञा से कहा तब उसीके प्रथम निजस्थान निगोदको तथा अनुक्रमे मानुष्य जन्मको और यावत मोक्ष निवासको भी वस्तु संज्ञा से कह सकते हैं तो अब यहां विवेकी तत्वज्ञोंको न्याय दृष्टिसे विचार करना चाहिये कि जीव द्रव्यात्मक वस्तुने कालान्तरे शुभ क्रियाके योग्यसे तीर्थंकरपना उपार्जन करके देवलोक प्राप्त किया सो उसी जीवात्मक वस्तुके तीर्थंकरपनमें आना सो विशेषके, च्यवनादि गुणोंकी श्र ेणियोंके विशेषणोको वस्तु कहने में क्या हरजा हुआ अर्थात् कुछ भी नहीं सो अब यहां इस बातपर पाठक गणसे मेरा यही कहना है कि जीव वस्तुके तीर्थ करपने मे होना सो विशेषके, च्यवनादिक विशेषणों को वस्तु कहने में आवे सो हो श्रीतीर्थंकर भगवान्‌के च्यवनादिकोंको कल्याणक समझमे चाहिये इसलिये च्यवनादिकोंको वस्तु कहो चाहें कल्याणक कहो सो इस बातको विवेकी तत्वज्ञों को तो दोनो शब्द एकार्थं सूचक पर्यायवाचीपने करके समान अर्थ वाले हैं और इसका विशेष निर्णय पहिले भी विनयविजयजीके लेखकी समीक्षा में इसीही ग्रन्थ के पृष्ठ ४९१ से ५०१ तक छप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८४] गया है जिसको पढ़नेवाले निस्पक्षपाती सजजन तो दोनों शब्द एकार्थवाले स्वयं समझ लेवेंगे: और इसीके अनुसार उपरोक्त लेख मुजब हो श्री दशाश्रुत स्कंध सूत्रकी चूर्णिमें श्रीमहावीरस्वामीके च्यवनादि छ वस्तुओंका काल कथन किया अर्थात् च्यवन, गर्भहरण, जन्म, दीक्षा, जान, और मोक्ष. इन छ वस्तुओंके मास पक्षादि कालका कथन पूर्वक भगवान्का सम्पूर्ण चरित्रको कथन करनेका चूर्णि कारने कहा सो च्यवनादि छह कल्याण कों का अन्तर्गत अर्थ वाला वस्तुशब्द लिखनेका समझना चाहिये नतु कल्याणकोंके निषेधवाला वस्तु शब्द इसबातको उपरोक्त लेखके न्यायानुसार निष्पक्षपाती विवेकी पाठक गण स्वयं विचार लेवेंगे;__ और श्रीआचारांगजी सूत्र में 'पंच हत्थुत्तरे हुत्था साइणा परिनिव्वुडे' इसी तरह का पाठ कहकर इन्हीं छहों कल्यासकोंका खुलासा खास सूत्रकारनेही कर दिया है तथा टीकाकारने भी च्यवन गर्भहरण जन्मादि सबका खुलासा लिख दिया है तथापि (आचारांगमें 'पंच हत्थुत्तरे होत्था' ऐसा पाठ है ) इन सअक्षरोंसे सूत्रका अधूरा पाठ न्यायांभोनिधिजीने भोले जीवोंको दिखाकर अपने भ्रममें गेरनेका परिश्रम किया परन्तु श्री कल्पसूत्र मुजब ही खुलासा पाठ श्रीआचारांगजीमें भी होनेसे जो विवेकी आत्मार्थी जन होंगे सो तो इनकी मायाजालमें कदापि नहीं फसेंगे तथा और भी देखो 'पंच हत्थुत्तरे, इन अक्षरोंसे पांच कल्याणक तो हस्तोत्तरा नक्षत्र होमेका लिखा तथा टीकाकारके पाठसे निर्वाण स्वाति नक्षत्र में होनेका लिखा सो तो भगवान्का मोक्ष कल्याणक स्वाति नक्षत्र में दीवालीके नामसे प्रसिद्ध है इससे न्यायांभोनिधिजीके लेख मुजबही छ कल्याणक सिद्ध होते हैं तथापि उन्होंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८५] निषेध करनेका आग्रह किया सो तो प्रत्यक्ष ही मायाचारीकी धर्म ठगाईके सिवाय और कुछ भी सार मालूम नहीं होता है, अब पाठकवर्गसे मेरा यही कहना है कि श्री खरतर गच्छ वालोंने तो शास्त्र प्रमाणानुसार श्रीमहावीरस्वामीके छ कल्याणक मान्य किये हैं इसीलिये जोरा जोरी छ कल्याणक बना लेने सम्बन्धी न्यायांभोनिधिजीका लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या है परन्तु 'चौरडंडे कोटवालको' इस कहावत अनुसार विपरीत न्याय करके न्यायांभोनिधिजी छ कल्याणकोंका निषेध करने के लिये 'वस्तु' 'स्थान' शब्दका साहरा लेकर उसका तात्पर्यार्थ समझे बिना ही श्रीआचारांगजी तथा श्रीस्थानांगजीका मूलपाठ टीका और श्रीदशा तस्कन्धसूत्रकी चूर्णि सहित पाठोंका शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थ में अपनी मति कल्पना मुजब अर्थ करके छ कल्याण कोंका निषेध करते हुए जोरा जोरीके साथ सूत्र पाठका अर्थ भङ्ग करके १४ तीर्थकर महाराजोंके 90 कल्याणक निषेध करनेका कितना बड़ाभारी महान् अनर्थ करके भी अपनी कल्पनाके कदाग्रहमें अज्ञ जीवों को फंसाकर अपनी बात जमाना चाहा परन्तु उत्सूत्र भाषणके महान् अनर्थसे संसार वद्धिका भय न किया-खैर, अब जो श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी विवेकी जन होंगे सो तो उपरोक्त लेखके तथा इस अन्यके अवलोकनसे इनकी भ्रमजालमें कदापि नहीं पड़ेंगे और इनके समुदायवालोंको तथा इनके पक्षधारियों को भी अपना हठवाद छोड़ कर सत्य बातको ग्रहण पूर्वक भव्य जीवोंको भगवान्को आज्ञानुसार सत्य बातका शुद्ध उपदेश करके निज परके आत्म हितमें प्रवर्तमान होना चाहिये जिसमें संसार निर्वत्ति है परन्तु गुरु और गच्छके पक्षपातसे अन्ध परम्पराके ७४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५ ] कदाग्रहको पुष्ट करने में तो संसार वृद्धिके सिवाय और कुछ सार नहीं है ॥ मेरेको तो भव्य जीवोंके उपकारार्थ तथा आप लोगोंकी धर्मवन्धुकी प्रीतिसे उत्सूत्र प्ररूपणके कदाग्रहका निषेध पूर्वक भगवान्को आज्ञानुसार सत्य बातका दर्शाव और हितशिक्षा लिखना उचित था सो लिख दिखाया मान्य करना या न करना आपलोगोंकी इच्छाकी बात है। और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीने जैन सिद्धान्त समाचारीके पृष्ठ ६८ से १० की पंक्ति १६ वों तक श्रीपंचाशकजी तथा उसके कृत्तिका पाठ शब्दार्थ सहित लिखकर श्रीमहावीरस्वामीके पांच कल्याणकोंका स्थापनपूर्वक छ कल्याणकोंका निषेध करने के लिये परिश्रम किया सो भी अज्ञानतासे उत्सूत्र भाषण करके पूर्वापर संबंध रहित अधूरे पाठसे शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमें अथाही भोले जीवोंको भ्रममें गेरमेके लिये अपने विशेषणको लजानेका कारण किया है क्योंकि वहां तो बहुत तीर्थंकर महाराजों संबंधी सामान्य पाठ है इसलिये उस पाठसे श्रीकल्पसूत्रादि शास्त्रों में प्रगटपने विशेष करके जो छ कल्या. णकोंका कथन किया है सो निषेध कदापि नहीं हो सकता है क्योंकि देखो जैसे श्रीहेमचंद्राचार्याजी कृत श्रीत्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्रके दशर्वे पर्वमें श्रीवीरप्रभुके चरित्र में चौदह स्वप्नाधिकारे प्रथम स्वप्नमें सिंहका वर्णन देखकर और श्रीगणधर महाराजकृत प्रोकल्पसूत्र में श्रीवोरप्रभुके चरित्र में चौदह स्वप्ना. धिकारे प्रथम स्वप्न में हस्तीका वर्णन देखकर मुगुरुसे उसी में सामान्य विशेषताकी अपेक्षाको समझे बिना, प्रथम स्वप्नमें हस्तीका स्थापन करके सिंहका निषेध करे तो उत्सूत्रभाषणका दोष लगे तैसेही श्रीपंचाशकजीके पाठसे पांचका स्थापन करके मोकल्पसूत्रादि अनेक शास्त्रों में प्रगटपने छ कहे हैं जिन्होंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ yes ] न्यायांभोनिधिजीने निषेध किये सो भी उत्सूत्र भाषण रूप है इसका विशेष खुलासा के साथ निर्णयका लेख तो पहिले हो न्यायरत्नजीके लेखकी समीक्षा में पृष्ठ ४१५ से ४८३ तक तथा विनयविजयजीके लेखकी समीक्षा में ५०२ पृष्ठसे ५१६ पृष्ठ तक इस ग्रन्थ में छप गया है उसके पढ़नेसे पाठकवर्ग स्वयं समझ सकेंगे, और फिर भी न्यायभोनिधिजीने जैन सिद्धान्त समाचारोके पृष्ठ १० की पंक्ति ११ से पृष्ठ १२ की पंक्ति तक मायाचारी पूर्वक प्रत्यक्ष मिथ्या और अन्न जीवोंको भ्रमचक्र में गेरनेके लिये ऐसे लिखा है कि, - [ है मित्र ! पंच हत्युत्तरे होत्था । साक्षणा परिणिठए। यह छी वस्तु वांचके आपको भ्रांति हूइ है, परंतु ऐसा हो भ्रांतिवाला ऋषभदेव स्वामीजीके बिषय मेंभी पाठ है, तो फिर ऋषभदेव स्वामीजीके की कल्याणक न माने उसका क्या कारण है ? हम जानते है, कि वो पाठ आपके देखने में नहीं आया होगा इस हेतु एक श्रीवर्द्धमानस्वामीजीका भ्रांतिवाला पाठ देखके आग्रह के वस हुए होंगे, परन्तु अब आपकी भ्रांति और आग्रह दोनोंही दूर होनेके वास्ते पाठ दिखाते है, तथाच जंबुद्वीप प्रज्ञप्त्यां । यथा - "उसभेणं अरहा कोसलीए पंच उत्तरासाढे अभीइ छठे होटथा । तंजहा । उत्तरा साढाहिं चुए चइता गर्भवक्कते | १ | उत्तरासादाहिं जाए |२| उत्तरासादाहिं रायाभिसे अ पत्ते । ३ । उत्तरासादाहिं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगा रिअं पठाइए। ४ उत्तरासादाहिं अनंते जाव समुप्यसे ॥ ५ ॥ अभोणा परिणिठवडे । ६ । उपाख्या ॥ उमभेण मित्यादि ऋषभोऽर्हन् पंचसु व्ययन १ जन्म २ राज्याभिषेक ३ दीक्षा ४ चाल ५ ललषु वस्तुषु उत्तराषाढा नक्षत्र चंद्रया भुज्यमानं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५ ] यस्थत तथा अभिजिन्नक्षत्रं षष्टे निर्वाण लक्षणे वस्तुनियस्य यद्वा अभिजिति नसत्रे षष्टं निर्वाण लक्षणं वस्तुयस्य स तथा उनमेवार्थ भावयति तद्यथा उत्तराषाढाभियंते चंद्रणेतिशेषः सूत्र बहु वचनं प्राकृत शैल्या एवमपि च्युतः सर्वार्थ सिद्ध नाम्नो महाविमानानिर्गतः च्युत्वा गर्भव्यत्क्रांत मरुदेवायाः कुक्षाववतीर्णवानित्यर्थः १ जातो गर्भा वासान्निःक्रांतः २ राज्याभिषेकं प्राप्त३ मुंडो भूत्वा आगारं मुक्त्वा अनगारिता साधुतां प्राप्तः इत्यर्थः पंचमी चात्रक्यब्लोपजन्या ४ अनंतरं यावत् केवलज्ञानं समुत्पन्नं यावत् पद संग्रहः पूर्ववत् अभिजितयुते चद्रे परिनिर्वृतः सिद्धिगतः ६॥' भावार्थः ऋषदेवस्वामीके च्यवन १ जन्म, २ राज्याभिषेक, ३ दीक्षा, ४ ज्ञान, ५ लक्षण पंच वस्तु विषे उत्तराषाढा नक्षत्र हुआ; और अभिजित् नक्षत्र विषे छठा निर्वाणवस्तु हुवा, यही छी वस्तु न्यारेन्यारे दिखाते है, प्रथम सर्वार्थ सिद्धनामा महावीमानसें च्यवकरके मरुदेवीमाताके गर्भमें आये १ फिर जन्म हुवा, २ फिर राज्याभिषेक हुवा, ३ फिर गृहवास छोडके साघु हुए, ४ फिर केवल ज्ञान हुवा, ५ और अभिजित् नक्षत्र विष चंद्र आयेहूए भगवान् सिद्ध हुए ६ यह प्रोजंबुद्वीप प्राप्तिका मूलपाठ और टीकाका पाठदिखायाहै, हे मुजजनों? विचारिये ! कि-जैसे श्रीमहावीरस्वामीजीके पाठ बिषे छ वस्तु कथन करी है तैसे ही श्रीऋषभदेवस्वामीके पाठ विषेभी छ वस्तु कथन करी है तोमी तुमने श्रीमहाबीरस्वामीजीके तो छोकल्याणक ठहरा लिये और ऋषभदेवस्वामीजीके न ठहराये, इस हेतुसे हमजानते हैं कि- यह ऋषभदेवजी महाराज विषयक पाठ न जामनेसे श्री महाबीरखामीजीके पाठमें तुमकों छी कस्याणककी भांति र फिर नाति होनेसे आग्रहकरलिया।] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ yee'] अब उपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकगणको दिखाता हूं जिसमें प्रथम तो मेरा यहां इतना ही कहना है कि-श्रीआत्मारामजीने अपने न्यायांभोनिधिके विशेषणको लजाने का भय न रखकर श्रीजम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिकी वृत्तिमें टीकाकारने सब तरह की खुलासा के साथ व्याख्या करी थी जिसके आगे पीछेके सम्बन्धवाले पूर्वापरके पाठको छोड़कर प्रत्यक्ष मायाचारी पूर्वक उत्सूत्र भाषण रूप टीकाके अधूरे पाठसे वृत्तिकारके विरुद्धार्थमें भोले जीवोंको भ्रम में गेरनेका कारण किया है इस लिये पहिले वृत्तिका सम्पूर्ण पाठ यहां दिखाना उचित समझ करके श्रीमुर्शिदाबाद अजीमगञ्ज निवासी राय बहादुर धनपति सिंहके आगम संग्रह में श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति सहित छपकर प्रसिद्ध हुई है उसमें का पाठ यहां दिखाता हूं तथाहि श्रीहीर विजयसूरि पहथर श्रीविजयसेनसूरि शिष्य श्रीशांतिचन्द्रगणी विरचित श्रीजम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्तौ तथा च तत्पाठ :―― अथ जन्म कल्याणकादि नक्षत्राणि आह । उसभेण मित्यादि । ऋषभो - अर्हन् पञ्चसु च्यवन जन्म राज्याभिषेक दीक्षा ज्ञान लक्षणेषु वस्तुषु उतराषाढा नक्षत्र' चन्द्र ेण भुज्यमानं यस्य स तथा अभिन्निक्षत्र षष्ठ निर्वाण लक्षणे वस्तुनि यस्य यद्वा अभिजित नक्षत्र े षष्ठ ं निवाण लक्षणं वस्तु यस्यस तथा उक्तमेवार्थ भाव यति तद्यथा उत्तराषाढाभिर्युते चंद्र तिशेषः सूत्र वहु वचनं प्राकृत शैल्या एवमग्रपि च्युतः सर्वार्थ सिद्धनात्री महाविमानानिर्गत इत्यर्थः, च्युत्वा गर्भे व्युत्क्रांतः मरुदेवायाः कुक्षाववतीर्ण वानित्यर्थः १ जातो गर्भवासान्निष्क्रांतः २ राज्याभिषेकं प्राप्तः ३ मुण्डोभूत्वा आगारं मुक्ता अनगारितां साधुतां प्रव्रजितः प्राप्त इत्यर्थः पंचमी चात्रश्य लोपजन्या ४ अनंतरं यावत केवलं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५ ] जानं समुत्पन्न ५ यावत्पद संग्रहः पूर्ववत् अभिजित्युक्त चंद्र परिनिर्वतः सिद्धिगतः॥ ननु अस्मादेव विभाग सूत्रवलादादि देवस्य षट् कल्याणकं समापद्य मानं दुर्निवारमिति चेन्न तदेव हि कल्याणकं यत्रासनप्रकंप प्रयुक्तावधयः-सकल सुरासुरेन्द्रा जितमिति विधित्सवोयुगपत् ससंभ्रमा उपतिष्ठते नह्य यं षष्ठ कल्याणकत्वेन भवता निरूप्यमाणो राज्याभिषेकस्तादृश स्तेन वीरस्य गर्भापहार इव नायं कल्याणकं अनंतरोक्त लक्षण योगात् न च तर्हि निरर्थकमस्य कल्याणकाधिकारे पठनमिति वाच्यं । प्रथम तीर्थेश राज्याभिषकस्यजितमिति शक्रेण क्रियमाणस्य देवकार्यत्व लक्षणसाधयेण समान नक्षत्र जाततया प्रसंगेन तत्पठनस्यापि सार्थकत्वात् तेन समान नक्षत्र जातत्वे सत्यपि कल्याणकत्वाभावे न नियत वक्तव्यतया, क्वचित राज्याभिषेकस्याकथनेपि न दोषः॥ अतएव दशाश्रुत स्कंधाष्टमाध्ययने-पर्युषणाकल्पे श्रीभद्रवाहु खामिपादाः “ते कालेणं तेणं समएण सभे अरहा कोस लिए चउ उत्तरासाढे अभी पञ्चमहोत्था" इति पंच कल्याणक नक्षत्र प्रतिपादक सूत्र बधिरे, नतु राज्याभिषेक नक्षत्राभिधायकमपीति, न च प्रस्तुत व्याख्यानस्यानागमिकत्वं भावनीयं आचारांग भावनाध्ययने पीवीरकल्याणक सूत्रस्यैवमेव व्याख्यात स्वात्। देखिये उपरके पाठमें न्यायामोनिधिजीके ही पूज्य वृत्तिकारने श्रीआदिनाथजीके च्यवन जन्मादि च्यार कल्याणक उत्तराषाढा नक्षत्र तथा पांचवां मोक्ष कल्याणक अभिजित नक्षत्र में होनेका खुलासा कपन किया है और प्रथम तीर्थंकरका राज्याभिषेक उसी नक्षत्र में होने के कारण प्रसङ्ग कल्याणका. ‘धिकार उसका पठन सूत्रकारने कर दिया परन्तु राज्याभिषेक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १] कल्याणक नहीं हो सकता है इसलिये राज्याभिषेक बिना पांच ही कल्याणकोंका पाठ श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रके अष्टम अध्ययन रूप श्रीकल्पसूत्र में श्रीभद्रबाहुस्वामीने कथन किया था सो दिखाया और श्रीआचारांगजी सूत्रके पाठसे श्रीमहावीरस्वामीके छ कल्याणको सम्बन्धी इसारा करके श्रीमहावीरस्वामीके गर्भापहारके छठे कल्याणककी तरह राज्यभिषेक छठा कल्याणक नहीं हो सकता है इसका भी खुलासा लिख दिया है इसलिये श्रीवीरप्रभुके छठे कल्याणकको निषेध करनेके लिये राज्याभिषेकका सहारा लेना सो भी निष्केवल हठवादसे सर्वथा अनुचित है। और टीकाकारने इतना खुलासाके साथ व्याख्या करी होते भी शास्त्रकारके विरुद्धार्थ में पूर्वापरका पाठ छोड़कर अधूरे पाठसे न्यायांभोनिधिजीने अपनी कल्पनाका कदाग्रहमें भोले जीवोंको गेरनेके लिये जानबूझ कर प्रत्यक्षपने ऐसी मायाचारी करके वस्तुके बहाने श्रीआदिनाथ स्वामीके भी पांचों ही कल्याणकोंकों उठा दिये सो तो अन्तर मिथ्यात्वके सिवाय ऐसा उत्सूत्र भाषण कदापि नहीं हो सकता, इस बातको विशेष करके तत्वज्ञजन स्वयं विचार लेंगे। ____ और अब सत्य ग्रहणाभिलाषी पाठकगणसे मेरा येही कहना है कि न्यायांभोनिधिजीका ऐसा प्रत्यक्ष दिखाता हुआ इतना बड़ाभारी अन्यायपर मेरेको तो क्या-परन्तु हरेक श्रोजिनाज्ञा आराधनाभिलाषी सत्यनाही तत्वार्थों निष्पक्षपाती विवेकी पुरुषोंको महान् खेद उत्पन्न हुए बिना कदापि नहीं रहेगा क्योंकि देखो खास अपने ही परम पूज्य श्रीहीर विजय सूरिजीकृत श्रीजंबूद्वीप प्रज्ञप्तिकी वृत्ति तथा उपरोक्त पाठ वगैरह अनेक व्याख्याओं में प्रगटपने लिखा है कि प्रश्रम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५ ] तीर्थेशका राज्याभिषेक इन्द्रने किया सो उसी नक्षत्र में होनेके कारण श्रीआदिनाथजीके च्यवन जन्मादि कल्याणकोंके साथ उसीकोभी सूत्रकारने लिख दिया है परन्तु राज्याभिषेक कल्याणक नहीं हो सकता है इस तरह का खुलासा भीखरतर गच्छके तथा श्रीतपगच्छादिके सबी टीकाकारोंने पांचो व्याख्याओंमें लिखा है तिसपर भी भीआत्मारामजी न्यायके समुद्र, शुद्ध प्ररूपक कहलाते हुए भी श्रीमहावीरस्वामीके छठे कल्याणकके द्वषसे उसीका निषेध करने के लिये वस्तुके बहाने श्रीआदिनाथजीके भी च्यवन जन्मादि पांचों कल्याणकोंको निषेध करनेका प्रत्यक्ष ही इतना बड़ा भारी उत्सूत्र भाषण रूप लिखते संसार वद्धिका कुछ भी भय न किया॥हा अतीव खेद! देखिये ढढकमतका अपना पूर्वका स्वभाव न जानेकेकारण इतनेबड़े प्रसिद्धविद्वान् तथा न्यायांभोनिधि और भीमद्विजयानन्दमूरिका नाम धारक हो करके भी निजपरके आत्म कल्याण निमित्त शुद्ध प्ररूपणा करनेके बदले ऐसा अनर्थ कारक उत्सूत्र भाषण करके अपनी आत्माके कल्याणमें विघ्नरूप और संसार वृद्धिके हेतु भूत हो गये, अपना आत्म कल्याण तो न होने दिया परन्तु दूसरे भद्र जीवोंके भी आत्म कल्याणमें विघ्नरूप होकर आडम्बरसे विचारे भोले जीवोंको अपनी भ्रमाजलमें फंसानेके लिये उद्यम करने में कुछ कम न किया खैर;-देखो यह बात तो प्रसिद्धही है कि-एक बातका उत्थापन करनेसे उसी संबन्धी बहुत शास्त्रोंके पाठके विपरीत अर्थ करने पड़ते हैं तथा उसीकी पुष्टि करने के लिये अनेक बातें उत्थापन करके अनेक जगह अनेक शास्त्रों के पाठोंको भी उत्थापन करके वा उन्होंके विपरीत अर्थ करके अनेक तरह की कुयुक्तियों पूर्वक उत्सूत्र भाषणोंसे महान् अनर्थ करते हुए निजपरके दुर्मभबोधि पनेका कारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ yes ] ढूंढिये तेरहन्थियोंकी तरह करना पड़ता है, अर्थात्-जैसे ढूंढिये और तेरहपन्थी लोगोंने श्रीजिनमूर्ति के दर्शन पूजा तथा भक्तिके कारण कार्य भावसे अनन्त लाभ होने के मतलबको समझे बिना उसका निषेध किया तब अपना कल्पित कदाब्रह जमानेके लिये उसके साथ अनेक बातें उत्थापन करनी पड़ी तथा अनेक शास्त्रोंके अर्थ भी अपनी कल्पना सुजब विपरीत करने पड़ और पंचांगी के हजारों शास्त्रोंकों जड़ मूलसे अमान्य ठहरा करके श्रीतीर्थकर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों की और एकावतारी युग प्रधान प्रभावक पुरुषोंकी बड़ी अवज्ञा पूर्वक मिन्दा करनेका बड़ा भारी महान् अनर्थ करते हुए मिथ्यात्व बढ़ानेवाली अनेक तरहकी. कुयुक्तियोंके विकल्प करके भोले जीवोंको अपने भ्रमचक्रमें गेरनेका उद्यम करके निजपरके मनुष्य जन्मको वृथा गमाकर विशेषतासे संसार भ्रमण और दुर्श भबोधिका कारण किया तथा करते हैं, तैसे ही श्री महावीर स्वामीके छठे कल्याणकको मान्य करनेके कारण कार्यको तथा उसके आराधनकी तपश्चर्या और भावनासे अनन्त लाभके फलका मतलबको समझे बिना उसका निषेध करने के लिये - मूलसूत्रादि पंचांगी के अनेक शास्त्रोंके (श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणको सम्बन्धी ) पाठोंके अर्थ बदलाकर अनेक तरहके उत्सूत्र भाषणों पूर्वक अनेक तरहकी कुयुक्तियों करते हुए उसकी पुष्टि करने के लिये वस्तु के बहाने श्रीआदिनाथजीके भी च्यवन जन्म दीक्षादि कल्याणकोंको निषेध कर दिये परन्तु उत्सूत्र भाषणके विपाकका भय न किया सो बड़ेही शोककी बात है कि न्यायांभोनिधिजीने विवेक बुद्धिसे विचार किये बिना ही अपनी अन्धपरंपराकी कल्पित बात जमानेका गच्छ कदाग्रह के भागड़े में पड़कर ऐसा अनर्थ करके निजपरके संसार वहिके * १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat . www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] सिवाय और वा सार निकाला होगा जिसको तो विशेषता तत्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेंगे। और (पंच हत्युत्तरे होत्या साइणा परिनिव्वुए, यही छ वस्तु वांचके आपको भ्रांति हुई है) इत्यादि लिखकर श्रीमहावीर स्वामीके चरित्र सम्बन्धी उपरोक्त मीकल्पसूत्रके पाठके अर्थमें सर्वथा कल्याणकोंका अभाव पूर्वक छ वस्तु ठहराकर, छ कल्याणकोंकी भांति होनेका तथा उपरका भ्रांति वाला पाठ देखकर आग्रहके वस होनेका न्यायांभोनिधिजीने ठहराया अब इस लेखपर मेरा इतना ही कहना है कि-श्रीमहावीर स्वामोके चरित्रकी आदिमें ही कल्याणकाधिकारे छ कल्याणको सम्बन्धी अनेक शास्त्रों में उपरके पाठ मूजब ही पाठ है तथा उपरके पाठकी ही जघन्य मध्यम उत्कृष्ट वाचना पूर्वक खास सूत्रकारोंनेही मूल सूत्रों के पाठोंमें प्रगटपने व्याख्या करी है तथा उपरोक्त पाठोंकी व्याख्याओंमें टीकाकारोंने भी खुलासासे छ कल्याणक लिखे हैं तथा 'वस्तु' 'स्थान' शब्द भी कल्याणक अर्थके पर्याय वाचीपने करके एकार्थ वाले हैं और गर्भापहारको दूसरे च्यवन कल्याणककी प्राप्ति होनेसे त्रिशला माताने चौदह स्वप्न आकाशसे उतरते और अपने मुखमें प्रवेश करते हुए देखे तथा नव महिने और ॥ दिनमें तुम्हारे कुलमें वृषभ समान, राजराज्येखर पूज्य, त्रिजगतपति कुलदीपक पुत्र होगा इत्यादि स्वप्न पाठकों के कथनका पाठ मूल सूत्र में और उसकी अनेक टीकाओंमें विस्तार पूर्वक वर्गनके साथ प्रसिद्ध है इसलिये श्री महावीरस्वामीके छ कल्या. णक शास्त्रानुसार तथा युक्ति युक्त सिद्ध होनेसे इन्होंको मान्य करने में हमको तो था परन्तु किसी भी विवेकी सत्यवाही आत्मार्थी पुरुषको किसी तरहकी भ्रांति ही नहीं हो सकती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५ ] तथा छ कल्याणकोंकी व्याख्या सम्बन्धी श्रीकल्पसूत्रका 'पंच हत्थुत्तरे हुत्था साइणा परिनिव्वुए यह जघन्यपाठ सत्य होने. पर भी उसको भ्रांतिवाला कहना कदापि नहीं बन सकता है और शास्त्रानुसार छ कल्याणकोंकी सत्य बातको प्रमाण करने में किसी तरहका आग्रह भी नहीं कहा जा सकता, तथापि न्यायांभोनिधिको उपाधि धारक पीआत्मारामजीने छ कल्याणको सम्बन्धी उपरोक पाठको भ्रांतिवाला ठहराया तथा छ वस्त कहके वस्तुके बहाने छ कल्याणकोंका निषेध करने के लिये श्रीआचारांगजी तथा प्रोस्थानांगजी और श्रीकल्पसूत्रादिशास्त्रोंके पाठोंका कल्याणक अर्थको बदलाया और भ्रांतिवाला पाठ देखकर आब्रहके वस हुए होगे इत्यादि प्रत्यक्ष मायावृत्तिसे मिथ्या लिखा सो मिकेवल वीचारे भोले जीवोंको भ्रमानेके लिये वृथा ही गच्छकदाग्रहमें फंसकर अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे उत्सूत्र प्ररूपणा करके निमपरके संसार वृद्धिका कारण किया है सो तो तत्त्वज्ञ जन स्वयं विचार सकते हैं,___ और (ऐसाही भ्रांतिवाला ऋषभदेव स्वामीके विषय में भी पाठ है तो फिर ऋषभदेवस्वामीजीके छी कल्याणक न माने उसका क्या कारण है हम जानते हैं कि-वो पाठ आपके देखने में नहीं आया होगा) इस उपरके लेख में न्यायांभोनिधिजीने श्रीऋषभदेवजी सम्बन्धी श्रीजम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके पाठको भ्रांतिवाला ठहराया इसपर भी मेरेको इतना ही कहना है कि-जैसे पीलीयेके रोगी आदमीको सपेद वस्तुमें भी पीलेपनकी भांति होती है उसीसे बाल जीवोंको भी अपनी अज्ञानताकी भ्रांति, गैरनेका उद्यम करता है तैसे ही आप भी अपने पूर्व भवके पापोदयसे गच्छ ममत्वकी द्रव्य परम्परा करके सत्सूत्र प्ररूपमापूर्वक कुविकल्पोंके स्थापनका एठवाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६ ] रूपी पीलियेके रोगमें अस्त चित्तवाले हो करके पूर्वापरकी विचार शून्यतासे विचारे भद्र जीवोंको अपने जैसे भ्रममें गेर. नेके लिये वृथा ही परिश्रम करके अपनी हांसी कराई है क्योंकि राज्याभिषेक सम्बन्धी श्रीजम्बूद्वीप पन्नत्तिके पाठमें हमको तो क्या परन्तु कोई भी विवेकी आत्मार्थी तत्वज्ञ आज्ञा माराधक को किसी तरहकी भ्रांति नहीं पड़ सकती है क्योंकि वहां तो यदि उसी नक्षत्र, वंश स्थापना, कला प्रवर्ताना, विवाहाका होना, वगैरह कार्य भी होते तो प्रथम कार्यको प्रवर्तनाके हेतु तथा प्रथम तीर्थंकरको इन्द्रकृत भक्तिके कार्य रूप वस्तुओंकी यादगिरिके लिये उस प्रसङ्गमें सूत्रकार १० नक्षत्र भी गिना देते परन्तु सबी कल्याणकपमेमें नहीं गिने जा सकते और राज्याभिषेकादिरपरके कार्यों को कल्याणकपना नहीं होनेसे उसकी जघन्य मध्यम उत्कृष्ट वाचना पूर्वक उन्होंके तिथि पक्ष मासादिकोंकी व्याख्या भी सूत्रकारने नहीं करी और श्रीकल्पसूत्रादिमें विशेष रूपसे राज्याभिषेक बिना पांच कल्याणकोंकी व्याख्यावाला पाठ मौजद है और श्रीजम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके उपरोक्त पाठकी व्याख्याओंमें न्यायांभोनिधिजीके ही परम पूज्य श्रीहीरविजय सूरिजीकृत वृत्ति तथा उपरमें ही छापा हुआ पाठ वगैरहों में खुलासा व्याख्यान करके किसी तरह की न्यायांभोनिधि नामधारक वगैरह किसीको भ्रांति पड़नेके कारणकोही जड़मूलसे नष्ट कर दिया है तथापि न्यायांभोनिधिकी उपाधि धारण करनेवाले श्रीमद्विजया. मन्द सूरिजी बनकर आत्मारामजीने जान बूझ कर बिना भ्रांतिवाले पाठको शास्त्रकारोंके विरुद्ध होकरके तथा मागे पीछेके पाठको चौरकी तरह छुपाकर बाल जीवोंके भागे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७] भ्रांतिवाला पाठ ठहरामेका उद्यम किया है तो यह कलयुगी पाखण्डियोंकी मायाजालका कुछ भी पार है, हा ! हा ! अतीव खेदः !!! ऐसे विद्वान् इतना अनर्थ करते कुछ भी लज्जा नहीं करते और भद्र जीवोंके आगे जगत पूज्य जैसी बाह्य वृत्ति करके आडम्बर दिखाकर न्यायके समुद्र, शुद्ध प्ररूपक, गीतार्थ, महात्मा बनते हैं जिन्होंकी आत्माका कैसे सुधार होगा सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने-परन्तु उन्होंकी मायाजालमें फंसने वाले भोले जीवोंको मेरी यही सूचना है, कि हे जिनाज्ञाइच्छक आत्मार्थी भव्यजीवों तुम्हारी आत्माका कल्याण करना चाहते हो तो गुरु तथा गच्छके पक्षपातको और दृष्टि रागके फन्दको छोड़कर मध्यस्थ वृतिसे इस अन्यका अवलोकन पूर्वक विवेकी सज्जनोंकी सङ्गतीने या विवेकता पूर्वक तत्त्वकी तरफ दृष्टि करके असत्यका त्याग पूर्वक सत्यको ग्रहण करके अपनी आत्माके कल्याणके कार्य में उद्यम करों, आगे इच्छा आपकी मेरेको तो लिखना उचित था सो लिख दिखाया मान्य करना या न करना यह तो आपकी खुशी की बात है, और ( श्रीऋषभदेवजीके छ कल्याणक न माने उसका क्या कारण है ) न्यायांभोनिधिजीके इस लेखपर तो मेरेको इतना ही कहना है कि-श्रीकल्पसूत्र में श्रीऋषभदेवजीके विशेष रूपसे पांच कल्याणकों का खुलासापूर्वक पाठ मौजूद है तथा राज्या. भिषेकको कल्याणकपना प्राप्त नहीं है जिसके लिये पहिले विनयविजयजीके लेखकी समीक्षा, इसीही प्रत्यके पृष्ट ४८० से ४९७ तक खुलासा छप गया है इसलिये राज्याभिषेकको कल्याणकपममें नहीं कहा जाता परन्तु राज्याभिषेकका पाठ भापके देखने में नहीं आया होगा, यह अक्षर लिखना न्यायांभोनिधिजीके अपना दूसरा महाव्रत भङ्ग करनेवाले प्रत्यक्ष मिथ्या? बॉकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ yee ] शुद्ध समाचारी प्रकाशकी पुस्तक के लेखकको उपरोक्त पाठकी अच्छी तरहसे मालूम थी तथा हमको भी उसकी अनेक व्याख्याओंके पाठों सहित कारण कार्य भाव पूर्वक सूत्रकारके तथा व्याख्याकारोंके अभिप्राय सहित अच्छी तरहसे मालूम है तब ही तो आपके मायाजालवाला कदाग्रहके भ्रमको निवारण करनेके लिये राज्याभिषेक सम्बन्धी इतना लिखा है तथा आगे लिखते हैं अन्यथा कैसे लिखते सो तो विवेकी जन स्वयं विचार लेवेंगे, - और (हे सुज्ञ जनो विचारिये कि जैसे श्रीमहाबीर स्वामीजीके पाठ विषे छ वस्तु कथन करी तैसे ही श्री ऋषभदेवस्वामी पाठ विषे भी छ वस्तु कथन करी हैं ) इत्यादि लिखके न्यायां भोनिधिजीने वस्तुके बहाने श्रीमहावीरस्वामीके तथा श्रीऋऋषभदेवजीके भी व्यवनादिकोंको कल्याणकपने रहित ठहरानेका परिश्रम किया सो भी गच्छ कदाग्रह में फँस कर अज्ञानतासे विवेक शून्यतापूर्वक अथवा मायाधारी से उत्सूत्र प्ररूपना करके संसार बृद्धिका और अपनी विद्वताको लज्जानेका बृथाही कारण किया है क्योंकि यद्यपि वस्तु शब्द कल्याणक अर्थका सूचक पर्यायवाचीपने करके एकार्थवाला है जिसके सम्बन्धमें हमने पूर्व में लिखा है परन्तु वस्तु शब्द सर्व अर्थों में तथा सर्व लिङ्गों में और लोकालोकके सर्व पदार्थों का सूचक है सो भी पहिले हम लिख आये है और शास्त्रके पाठका अर्थ तो शास्त्रकार महाराजके अभिप्राय पूर्वक, कारण कार्य भाव सम्बन्ध सहित, प्रसङ्ग मुजब, आत्मार्थी परोपकारी टीका कारोंके लिखे मुजब करनेमें आता है इसलिये वस्तुके बहाने श्रोऋषभदेवजीके और श्रीमहावीरस्वामीके च्यवनादि सबी कल्याव कोका निषेध नहीं हो सकता है क्योंकि देखो न्यायां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह होता दोनोका मादकोंको पदार्थ म [५ ] भोनिधिजीके पूर्वज पूज्यने (पीजम्बूद्वीप प्राप्तिकी वृत्तिका पाठ उपरमें ही छपा है उसी में) श्रीआदिनाथजीके च्यवनादि कोंको वस्तु कही तथा उन्हीं च्यवनादिकोंको ही कल्याणक भी कहे और कल्याणकाधिकारमें ही राज्याभिषेक रूप वस्तु को कल्याणक रहित ठहराकर मीमहावीरस्वामीके छ कल्या. णक खुलासे लिख दिये इससे भी प्रगटपने सिद्ध होता है, कि-तीर्थकर महाराजके च्यवनादिकोंको वस्तु कहो अथवा कल्याणक कहो दोनोका मतलब एक ही है परन्तु वस्तु शब्द पदार्थ मात्रके अर्थवाला होनेसे राज्याभिषेकको कल्याणक न कहके प्रथम तीथकरका राज्याभिषेक उसी नक्षत्र इन्द्रने करके भरत क्षेत्रमें राज्यनीतिका व्यवहार प्रवर्तमान करनेका कारण किया उससे राज्याभिषेकके कार्यको वस्तु कह दिया तथा राज्याभिषेक बिना पांच कल्याणक खुलासे दिखा दिये, तथा राज्याभिषेकको कल्याणकपना नहीं कहा जा सकता जिसके लिये भी पहिले लिखने में आ गया है और मीवीरप्रभुके गर्भापहारको तो कारण कार्य भाव पूर्वक तपा शा. खोंके प्रमाण मुजब और युक्तियोंके अनुसार प्रगटपने कल्या. णकपना सिद्ध होता है जिसका विस्तार तो इस अन्यमें अच्छी तरहसे हो गया है इसलिये राज्याभिषेकको कल्याणक ठहराने सम्बन्धी तथा वस्तुके बहाने मोआदिनाथजीके पांचों कल्याणकोंका और श्रीवीरमभुके गर्भापहार सहित छ कल्याणकोंका निषेध करनेका लिखा है सो सब वयाही गच्छ कदाग्रहके अन्ध परम्पराका हठवादको अज्ञानतासे या अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे भोले जीवोंको भ्रमानेवाला और निजपरके संसारका कारण रूप उत्सूत्र भाषण है सो तो उपरोकडेखसे विवेकी तत्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेंगे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६००] और राज्याभिषेकका पाठ तो मास पक्षादिककी व्याख्या रहित सिर्फ नाम मात्र ही एक जगह पर श्रीजन्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में है तथा उसकी व्याख्यामोमें कल्याणक पनेका अभाव खुलासे लिख दिया है परन्तु श्रीमहावीरस्वामीके गर्भापहारका पाठ तो मास पक्षादि सहित खुलासाके साथ सूत्र चूर्णि वृत्ति चरित्र प्रकरणादि अनेक शास्त्रों में प्रगटपने बहुत जगहपर मौजूद है और उसको कल्याणकपमा खुलासा पूर्वक लिखा हुआ है इसलिये गच्छ कदाग्रहके वृथा हठवाद से गर्भापहारके पाठकी तरह उसीके सदृश राज्याभिषेकका पाठको ठहराकर गर्भापहारका निषेध करने के लिये राज्या. भिषेकका दृष्टान्त लिखना भी न्यायांभोनिधिजीको अन्याय कारक होनेसे सर्वथा अनुचित है इस बातको भी विवेकी जन स्वयं विचार सर्केगे: अब पाठक वर्ग मेरा यहां इतना ही कहना है कि न्या. यांभोनिधिजीने दूसरोंकी ब्रांति और आग्रह दोनो ही दूर करने सम्बन्धी प्रत्यक्ष मिथ्या और माया वत्ति युक्त लिख करके श्रीजम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्रके पाठको तथा उसकी वत्तिके अधूरे पाठको दिखानेका परिश्रम करते हुए बालजीवोंके आगे अपनी बात जमाना चाहा परन्तु अन्तर मिथ्यात्वके उदयसे खास आप पीलियेके रोगीवत् निजमें ही भ्रांतिमें फंस गये और वृत्तिकारके विरुद्धार्थ, वृथा ही झूठा आग्रह करके दृष्टि रागियोंको मिथ्यात्वमें गेरनेका कारण किया और राज्याभिषेकके तथा गर्भापहारके मतलबको निष्पक्षपात हो करके विवेक बुद्धि पूर्वक गुरुगम्यतासे समझे बिना वस्तु वस्तु पुका. रके गर्भापहारके दूसरे च्यवन कल्यणकके निषेध करनेके लिये बिना ही प्रयोजन राज्याभिषेकका सहारा लिया और गच्छ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६०९ ] कुदाइये अपनी विद्वताकी हाँसो होनेका जरा भी भय न किया खैर । परन्तु अबी भी गच्छ कदाग्रहका मिथ्या हठवादकी कहिपत बातोंके स्थापनका आग्रहरूपी पीलियेके रोगका निवारया करने में अमृत समान औषधरूपी इस ग्रन्थके लेखको पढने से जो (न्यायांभीनिधिजीके परलोकजानेपर) इन्होंके समुदाय वालोंकों गुरु गच्छका अन्ध परंपरा के हठवादरूपी उक्त रोगका ( महान् पुण्योदयका योग्य होवे तो ) निवारण हो जावे और श्रीजिनाशाका आराधन करनेके अभिलाषवाले अल्पकर्मी होवेंगे तब तो अपना मिथ्या हठवादको मायावृत्तिसे स्थापन करने के लिये निज परके संसार वृद्धि करने वाले मिथ्यात्वको सेवन न करते हुए सरल होकरके इस ग्रन्थको सत्य बातको ग्रहण करनेमें कदापि विलंब नहीं करेंगे । और श्रीशान्तिचन्द्रगणिजी कृत श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्तिका पाठ जो ऊपर में छपा है उसके पाठ श्रीमहावीर स्वामीके छ कल्याणक लिखे हैं जिसको मान्य करने में न्याय भोनिधिजी के समुदाय वाले इनकार करेंगे तो भी उन्होंका प्रत्यक्ष अन्याय होगा क्योंकि देखो खास न्यायांभोनिधिजी आप तो बाल जीवको अपनी कल्पनाका जूठा कदाग्रह में गेरनेके लिये इसी ही पाठके पूर्वापरका सम्बन्धको तोडकर बीचमें से अधूरे पाठको मायाचारीसे वृत्तिकारके विरुद्धार्थमें लिखके उपरोक्त पाठको मान्य करते है और हमने वृत्तिकारके अभिप्राय सहित सम्पूर्ण पाठ लिखके आत्मार्थी सत्याभिलाषी भव्यजीवोंको सत्य बात दिखानेको लिखा जिसको न मान्य करमेका झगडा उठाया जावे यह तो प्रत्यक्ष ही अन्तर मिथ्यात्व के अन्यायके सिवाय और क्या होगा । जिसको तो तत्वज्ञ पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे । १६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पहाडीके जनक शाही प्रमाणों मुजब तपा युक्तियों के अनुसार श्रीमहावीर खामीके छ कल्याणक प्रत्यक्ष पने सिद्ध है इसलिये मोशान्तिचन्द्रगणिजीने छ कल्याणक डिखे सो किसीकी संगतसे भूल करी ऐसा भी कहना अनेक शास्त्रोंके पाठोंका उत्थापनरूपी उत्सूत्र होता है इसलिये इन वृत्तिकारने छ कल्याणक लिखे जिसने लिखनेवालेको किसी तरहका कोई दोष नहीं लग सकता है क्योंकि देखो बास वत्तिकारने मिजमें ही “न च प्रस्तुत व्याख्यानस्यानागमिकरवं भावनियं आचारांग भावनाध्ययने मीवीर कल्याणक सूत्रस्यैवमेव व्याख्यात स्वात्" इन अक्षरोंको लिख करके अपनो व्याख्या मागमानुसार सिद्ध कर दी और मीमाधारांगजी सूत्रके भावना अध्ययन अर्थात् चूलिका अध्ययनके मूलसूत्रका पाठके प्रमाणसे पीवीर प्रभुके छ कल्याणक दिखाये हैं तथा श्रीकल्प सूत्रके पाठसे राज्याभिषेक बिना श्रीऋषभदेवजीके पांच कल्याण कोंका पाठ पूर्वक खुलासा करदिया इसलिये इन वत्तिकारकी उपर्युक्त व्याख्या सम्बन्धी किसी तरहका आक्षेप कोई गच्छममत्वी करेगा तो विवेकी विद्वानोंसे वथाही हास्य का पात्र बनेगा इसको भी तत्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेंगे। तथा और भी पाठकगणको विशेष निःसन्देह होनेके लिये न्यायांभोनिधिजीके परम पूज्य व धर्मसागरजीका अनुकरण करनेवाले सुप्रसिद्ध पीहीरविजयसूरिजीकृत भीजम्बूद्वीप प्राप्ति वृत्तिका पाठ यहां दिखाता हूं यथा, अथ श्री ऋषभस्य पंच कल्याणकानि राज्याभिषेक श्चेति षट् वस्तूनि यस्मिनक्षत्र जातानि तानिदर्शयति ॥ उसमेणमित्यादि। ऋषभो णमित्यलङ्कारे, पंचेति पंचमु च्यवन, जम्म, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६०३ ] राज्याभिषेक, दीक्षा, केवलज्ञान, लक्षणेषु । उत्तराषाढा यस्य स पंचोत्तराषाढ, अभिजिति, अभिजिन्नानि नक्षत्रे षष्टं वस्तु निर्वाण कल्याणकलक्षणं यस्यमोऽभिजित्षष्टः, होत्थति अभवत्, अथोक मेवार्थं ॥ तद्यथेत्यादिना व्यक्ति' क ुर्वन्नाह ॥ तंजहेति, उत्तराषाढाभि रुत्तराषाढानक्षत्र ण चन्द्र योगे सति च्युतो देव भवात् सर्व्वार्थ सिद्धि विमानात् ॥ च्युत्वा च गर्भेव्युत्क्रांत उत्पन्नः एवं जातो योनिवर्त्मना निर्गतः ॥ रायाभिसेअन्ति ॥ राज्याभिषेकं प्रथम तीर्थकृद्राज्याभिषेकोऽस्माकं जीत मिति विकल्पवताशक्रेण क्रियमाणं प्राप्तऽभिषेको राजा संजात इत्यर्थः ॥ मुण्डेति ॥ मुण्डो भूत्वा आगारादन गारितां साधुतां प्रव्रजितो घातूनामनेकार्थत्वात् साधुत्वं स्वीकृनवानित्यर्थः ॥ तथा असंतेति ॥ अनन्तं यावत्समुत्पन्नं यावत् करणात्॥ अणुत्तरे निव्वाधार निरावरणे कसिणे पहिपुणे केवलवर नायरादंसणे समुपयति, प्रागुकार्थ विज्ञेयं ॥ अभिांति ॥ अभिजिनक्षत्र ेण चन्द्र योगेसति परिसामस्त्येन निर्वृतः सफल कर्माशेर्विमुक्त इत्यर्थः ॥ ननु श्रीऋषभ राज्याभिषेकस्य शक्र जी - तत्वेन श्रीमहावीर गर्भसंहरणस्यैव षष्टं कल्याणकत्वमेवास्त्वितिचेत् मैवं उभयोरपि कल्याणकत्वाभावेन दृष्टांत दातिक वयोगात् नहि रूपमिव रसोपिश्रोत्र द्रिय ग्राह्यो भवविति भवतं विहायान्यकोपिवक्रं वाचालो दृष्टः श्रुतोवेति ॥ देखिये ऊपर के पाठ में प्रथम तीर्थङ्करका राज्याभिषेक इन्द्र ने उसी नक्षत्र में किया सो प्रससे उसीका भी नक्षत्र गिनाकर राज्याभिषेकके कार्यको वस्तु कहा और (श्री ऋषभदेवजीके) व्यवनादि पांच कल्याण का भी खुलासे कथन किया तथापि न्यायांभो निधिजीने वस्तुके बहाने च्यवनादिकोंको कल्याणकपने रहित ठानेका परिश्रम किया तो अंतर में मिध्यात्वने या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द वालासह दोन [६०४] पूर्ण अज्ञानताके सिवाय और क्या होगा इसकोभी विवेकी तत्वात जम स्वयं विचार लेंगे। और अपरके पाठमें च्यवनादिकोंको वस्तु कहके कल्याणक कहे इससे भी वस्तु शब्द कल्याणक अर्थ वाला प्रत्यक्षपने सिद्ध होता है परन्तु वस्तु शब्द अनेकार्थ वाला होनेसे वस्तु शब्दका अर्थ शास्त्रकारोंके अभिप्राय मुजब संबंध पूर्वक करना चाहिये तथापि वस्तु शब्दसे कल्याणक अर्थका निषेध करनेके लिये जो एकांत हठवाद करते हैं जिन्होंको तत्वज्ञान बिनाके अज्ञानी समझने चाहिये। और मीऋषभदेवजीका राज्याभिषेकको इन्द्र कृत्य की तरह श्रीमहावीर स्वामीके गर्भापहारकोभी इन्द्रकृत जानकर कल्याणक मानने संबंधी बीहीरविजय सूरिजीने लिखा सो तो पीवीरप्रभुके गर्भापहारको छठे कल्याणकपने में मान्य करने संबंधीशास्त्रकार महाराजोंके तात्पर्यको इन महाराजके समझा नहीं माया मालम होता है क्योंकि जो कल्यासकरवपके गुण बिनाही इन्द्रकृत्य समझकर कल्याणक माना जाता होवे तो वंशस्थापना विवाहकरना वगैरह इन्द्रकृत अनेक कार्यों को कल्याणक कहते कहते १०-१५ कल्याणक बनाने पड़ेंगे परंतु ऐसा कदापि नहीं हो सकता इसलिये राज्याभिषेक, च्यवन जन्मादिक कल्याणकत्वपनेके गुण लक्ष न होनेसे राज्याभिषेकको तो कल्याणक नहीं कह सकते परंतु श्रीमहावीर स्वामीके गर्भापहारमें तो प्रत्य. क्षपने प्रथम च्यवन कल्याणककी तरह दूसरे च्यवन कल्याणकपने सब गुण लक्षण विद्यमान हैं इसलिये भीवीर प्रभुके दो व्यवन कल्यासोर छ कल्याणक होते हैं उसी गुण निष्पन होनेरी शासन नायकके छ कल्याणक कहते है मत मिकेवल इत्य समझकरके मतएव इन्द्ररुत्य समShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६०५ ] भकर छठे कल्याणकको मानने संबंधी इन महाराजका लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या है सो इसको विशेषताये तत्वजन स्वयं विचार लेवेंगे । और राज्याभिषेकको कल्याणकत्वपनेका निषेध करनेके साथ गर्भापहारके दूसरे च्यवन कल्याणकको भी कल्याणकत्वपनेसे निषेध किया सोतो पूर्वपक्षका उत्तर देने में निजमेही श्रोजिनाज्ञाका लोप करने लगे जिसका कारण तो उत्सूत्र प्ररूपक धर्मसागरजी की धर्मधूतईकी वक्रताके सङ्गतका गुण प्राप्त हुआ मालूम होता है क्योंकि देखो श्रीतीर्थंकरगणधरादि महाराजके कथन सूजब पचाङ्गीके अनेक शास्त्रानुसार गर्भापहाररूप दूसरे व्यवन कल्याणक सहित छः कल्याणककी प्रत्यक्षपने स्वयंसिद्धि होते भी तथा श्रीतपगच्छके भी पूर्वाचार्यों ने खुलासापूर्वक छ कल्याणका कथन किया हुआ होतेभी धर्मसागरजीने अपने अन्तर मिध्यात्व के उदयसे छठे कल्याणकके तात्पर्यार्थको समझे बिना ही उत्सूत्रभाषणपूर्वक कुयुक्तियोंके भ्रमचक्र बाट जीवको गेरनेके लिये राज्याभिषेक के कथनका मतलब समझे बिना निष्प्रयोजन राज्याभिषेक के पाठका सहारा लेकरके श्रीवीरप्रभुके छठे कल्याणकको निषेध करनेका उद्यम किया उसी धर्मसागरजीकी तथा इसीके बनाये उत्सूत्र भाषणों के संग्रहवाले तथा कुयुक्तियोंका निधि और पूर्वाचार्योंकी झूठी निन्दावाले अनुचित शब्दों करके युक्त निजपरके संसार भ्रमणका और दुर्लभ बोधिपनेका कारणरूप कदावही ग्रन्थोंकी सङ्गतसे श्रीहीरविजयसूरिजी ने भी निज मानाका और पचागीके प्रत्यक्ष प्रमाणका विवेक बुद्धिसे विचार किये बिना ही प्रीतीर्थकर गणधरादि महाराजों के कथन के विरुद्ध होकर के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६०६ ] पञ्चाङ्गीके अनेक प्रमाणको और पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों के वचनोंका उत्थापनरूप उत्सूत्रके फँद याने बोकाको धारण करके श्रीवीरप्रभुके छठे कल्याणकके निषेध करनेके लिये वृथा ही गच्छके पक्षपात से बिना विचारे लिखा । हा ! अति खेद ! ऐसे सुप्रसिद्ध प्रभावक कहलानेवाले होकर के भी उत्सूत्रसे अलग न रहे - खेर ! अब आत्मकल्याणाभिलाषी निष्पक्षपाती सज्जन पुरुषोंसे मेरा यहां इतना ही कहना है कि - राज्याभिषेककी तरह गर्भापहारके कल्याणकत्वपनेको निषेध करना सर्वथा वृथा है सो तो इस ग्रन्थको पढ़नेवाले तत्वचजन स्वयं विचार लेवेंगे, - शङ्का - अजी जिसके पूर्वज श्रीहीरविजयसूरिजीने तो श्रीवीर प्रभुके छठे कल्याणकको निषेध किया और उनके सन्तानीय अपने पूर्वज के विरुद्ध होकर के छठे कल्याणकको सिद्ध किया सो कैसे माना जावे । समाधान - मो देवानु प्रिय ? तेरेको श्रीजैन शास्त्रोंके तात्पर्यार्थकी गुरुमन्यसे या अनुभवसे मालूम न हुई इसलिये ऐसी शङ्का उत्पन्न हुई परन्तु अब हम तेरे और अन्य भव्य जीवों के उपकारार्थ शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक और प्रत्यक्ष प्रमाण सहित तेरी शङ्काका समाधान करते हैं सो देखो श्रीजिनेश्वरभगवान्की आज्ञाके आराधक जो आत्मार्थी भवभीरू पुरुष होते हैं सो तो भगवान्‌की आज्ञा विरुद्ध अपने गुरु और च्छकदाग्रहको कल्पित बातका पक्षपात न रखते हुए उसका त्याग करके मध्य जीवोंके उपकारके लिये शास्त्रानुसार की सत्य बातको प्रकाशित करते हैं जैसे कि - जमालीकी कल्पित बातको उनके भात्मार्थी शिष्योंने त्याग करी और मीवीर प्रभुके कथनानुसार सत्य बातको ग्रहण करके भव्य जीवोंनें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [20] प्रकाश करी सो बात तो पास्त प्रसिद्ध है परन्तु यहां फिर भी अबी पोड़े समयका प्रीतप गच्छके पूर्वाचार्य तथा मीहीरविजयसूरिजी और इन महाराजके सन्तानीयों सम्बन्धी भीतपगच्छका ही प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाता हूसो देखो कि भीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंकी आशानुसार अनेक शास्त्रोंके प्रत्यक्ष प्रमाणों मुजब श्रीतपगच्छ नायक सुप्रसिद्ध विद्वान् श्रीदेवेन्द्रसूरिजी तथा श्रीकुलमंडन. सूरिजो और रत्नशेखरसूरिजी वगैरह महाराजोंने अपने बनाये शास्त्रों में सामायिकाधिकार प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये पीछे इरियावही का प्रतिक्रमण करना कहा है तिसपर भी उत्सूत्रप्ररूपक धर्मसागरजीने तत्वतरङ्गिणि, प्रवचनपरीक्षा, इरियावहीषत्रिंशिकादि, अपने कदाग्रही अन्यों उन महाराजोंके कथनका उलटा अर्थ करके अनेक शास्त्रोंके (प्रथम करेमिभंते सम्बन्धो) प्रमाणोंका उत्थापन पूर्वक शास्त्र प्रमाणशून्य कुयुक्तियोंके विकल्पोंसे मोमहानिशोथ, दशवकालिकादि, शास्त्रों के पाठोंको मायाचारीसे अधूरे अधूरे लिखके फिर उसका भी अपनी कल्पना मुजक झूठा अर्थ करके सामायिक प्रथम इरियावही बड़े जोरशोरसे लिखी और अनेक शास्त्रोंके प्रमाणपूर्वक प्रथम करेमिभंते लिखने वालोंपर तथा उसबातको मान्य करने वालोंपर अनेक तरहके आक्षेप वाले अति कटुक वचन लिखे उसीमुजब ही मोहीरविजयसूरिजी तथा मोविजयसेनसूरिजी वगैरहोंने तो उत्सूत्रसे जिनाता भड़का भय न करके प्रथम करेमिभंतेका निषेध पूर्वक प्रथम इरियावही स्थापित करते रहे परन्तु इन्होंके सन्तानीय उपा. ध्यायजी श्रीमानविजयजोने तथा सुप्रसिद्धविद्वान् न्यायविशारद मोमद्यशोविजयजीने तो अपने गुरु तथा गच्छके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० 1 कदाचइकै पक्षपातकी कल्पित बासको प्रभाव न करके अनेक शास्त्रानुसार प्रथम करेमिभंते पीछे हरियावही श्रीधर्मसंग्रह की वृत्तिमें खुलासा पूर्वक लिखी है सो आशा आराधक आत्मार्थी पुरुषको तो शास्त्रानुसार प्रथम करेमिभंतकी सत्य बात प्रमाण होती है नतु शास्त्रप्रमाणशूग्य गुरु गच्छ कदाग्रहकी कल्पनारूपी प्रथम इरियावी, तैसेही आत्मार्थी पुरुषोंको तो श्रीहीरविजयसूरिजीने उत्सूत्र से मोवीर प्रभुके छठे कल्याणकको निषेध किया जिसको न मान्यकर श्रीशान्तिचन्द्र गणजीने शास्त्रानुसार छठे कल्याणकको लिखा उसको मान्यकरना चाहिये इसमें ही भगवान्‌की आशाका आराधन करना है नतु मिथ्या हठवाद में इस बातको तो विवेकीजन स्वयं विचार लेवेंगे । और अब सत्यग्रहणाभिलाषी आत्मार्थी सज्जनोंसे मेरा इतना ही कहना है कि भीवीर प्रभुके छठे कल्याणकको निषेध करनेके लिये राज्याभिषेकके पाठको आगे करनेवालोंकी कल्पना मुजब तो वीरप्रभुके छठे कल्याणक की ( जघन्य मध्यम उत्कृष्ट वाचना पूर्वक मास पक्ष तिथिका खुलासा और दूसरे च्यवन कल्याणक सूचक चौदहस्वप्न त्रिशला माताने आकाशसे उतरते अपने मुखमें प्रवेश करते हुए देखने वगैरह के कथनकी ) तरह श्रीऋषभदेव प्रभुके राज्याभिषेकके पाठकी भी जघन्य मध्यम उत्कृष्ट वाचना पूर्वक मास पक्ष तिथिका खुलासा और जन्म दीक्षादि कल्याणकोंके सूचक चिन्होंका कथन करनेका सूत्रकार गणधर भगवान् भूल गये होंगे अथवा राज्याभिषेककी तरह गर्भापहार सम्बन्धी चौदह स्वप्नादिकके भी मासपक्ष तिथी वगैरह दूसरे च्यवन कल्याणकके सूचक चिन्हों को न लिखते तबतो भीवीर प्रभुके छठे कल्याणकके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६०९ ] निषेध करने वालोंकी बात बन आती परन्तु राज्याभिषेक के मास पक्षादि सम्बन्धी कुछ भी 'खुलासा न करते हुए गर्भापहार सम्बन्धी तो प्रथम च्यवनवत् सबी बातों में दूसरे च्यवनकी व्याख्या सूत्रकारोंने अनेक जगहों पर करके दिखाई है तिसपर भी अन्तर मिथ्यात्व से टथाही कल्पित कुयुक्लियों करके अज्ञ जीवों को संसार भ्रमणका रास्ता दिखानेवाले उत्सूत्रभाषी साध्वा भासोंसे दूर रहकरके सत्य बातका ग्रहण पूर्वक अपनी आत्मकल्याणके कार्य में उद्यम करना चाहिये । देखिये राज्याभिषेक और गर्भापहार संबंधी शास्त्रकारोंने अलग, अलग, सम्बन्ध पूर्वक अच्छी तरह से खुलासा कर दिया है तथापि शास्त्रकार महाराजों के विरुद्धार्थमें हो करके कुयुक्तियों से खंडनमंडनका वृथा झगड़ा करके आपसमें विरोध भाव करने में ही अपनो विद्वत्ताको बहादुरी समझते हुए निज परके आत्म कल्याण में विघ्नरूप उत्सूत्री बनते कुछ शर्म भी नहीं जाती- हा हा अतीव खेदः ! मुण्ड मुड़ाकर कुयुक्तियों से अपनी बात जमाने में ही धर्म मानने वालों को बहुत लाचारी पूर्वक विनती करता हू कि संसार भ्रमण के हेतुभूत ऐसे निष्प्रयोजनीय कदाग्रहको छोड़कर अपनी आत्मसाधनके लिये मिथ्याभिमानको त्याग करके सत्य बातको ग्रहण करो और दुसरोंकों कराओ इसमें ही अपना मनुष्य जन्म जैनधर्मकी प्राप्ति और साधुपना तथा उपदेशका देना सफल होवे मैंने तो धर्मबन्धुको प्रीतिसे शास्त्रानुसार सत्यबात दिखायदी अब आगे मान्यकरना या नहीं करना आपको इछाकी बात है । परन्तु कदाग्रह ज छुटेगा तो उसके विपाक तो भवांतर में तयार ही समझना । 99 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१०] और भागे फिर भी न्यायांमीनिधिजीमें अपने विशेचणको उज्जनीयरूप करके श्रीजिनवल्लभसूरिजी को नवीन छठा कल्याणककी प्ररूपणा करनेका वृथाही कल्पित दूषण लगाने के लिये श्रीगणधर सार्द्धशतककी बड़ीटीकाके पाठका शब्दार्थको और भावार्थको समझे बिना या मायाचारीसे विद्वानोंके आगे हास्यपात्र होनेरूव और बालजीवोंको अपनी अंधपरंपराको मायाजाल के भ्रमका मिथ्यात्वमें फंसाने के लिये जनसिद्धांत समाचारी नामक पुस्तक ( परं वासश्व में तत्सूत्रभाषणोंकी और कुयुक्तियों की अंधखाड़ रूपी पुस्तक) के पृष्ठ १२ की पंक्ति वीसे पृष्ठ १३ के अंततक जो लेख अपनी बात जमाने के लिये लिखा है उसको यहां दिखाकर पीछे इसकी समीक्षा आगे करता हूं, सो लेख नीचे मुजब है । [ आपके बहोंने षट् कल्याणककी परूपणा किनी सोही आद्य गणधर सार्द्ध शतकका पाठ हमने लिख दिखाया है, फिर भी आपकों दृढ़ कराके वास्ते गणधर सार्द्धशतक की बृहत् वृत्तिका पाठ लिखदिखाते है । यथा-मूलं ; - 'असहायेणाऽविविहि । पसाहिओ जो न सेस रोहिं । लोअण पहेवि वच्च । पुराण जिण मय राणूयां ॥ ९२२ ॥ व्याख्या । ततोयेन भगवता असहायेनापि एकाकिनापि परकीय सहाय निरपेक्ष' अपिर्विस्मये अतीवाश्चर्य मेतत् विधिरागमोक्तः षष्ठकल्याणक रुपश्चेत्यादि विषयः पूर्व प्रदर्शितश्च प्रकारः प्रकर्षेोदमित्यमेव भवति योग्यार्थे सहिष्णुः सवावदीविति स्कंधास्फालन पूर्वकं साधितः सकल प्रत्यक्ष प्रकाशितः ॥ यो न शेष सूरीणामज्ञात सिद्धांत रहस्याना मित्यर्थः । लोचनपथेऽपि दृष्टिमार्गे प्रास्तां त्र तिपथे व्रजतियाति । उच्यते पुनर्जिन मत भगवद्वचन वेदिभिरिति । १ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ:-तिसपिछ, जिस जिनवमसूरिजीने, सहायविना, एकाकी, दूसरेकी सहायमें निरपेक्ष अत्यंत आश्चर्य यह विधि आगमोका छठा कल्याणक रुप, ऐसें औरभी विषय पहिले जो दिखाये सों अतिशय करके यह छठा कल्याणक हो है, जो इस बात सहन न कर सकता होवे सो अतिशय करके कथन करो? ऐसे कथनके साथ अपने स्कंधोको आस्फालन पूर्वक छठा कल्याणक कथन किया है अर्थात् अपनी भुमासे खंभा ठोकके छठे कल्याणककी परुपणाकरी सर्वलोकोके प्रत्यक्ष कथन किया, और जो यह छठा कल्याणक नही जाने है सिद्धांतके रहस्य ऐसें जितने होगये आचार्य उनोंके कणं प्रथमें तो दूर रहो परंतु लोचम मार्गमें भी नही माया है, ऐसा छठा कल्याणक कहा है भगवतके वचन जानमेवाले श्री जिन वलभ रिजीने, अब इस गणधर सार्द्ध शतकके पाठसे आपही विचारीये ! कि जब आपके बड़े प्रीजिनवमभमूरिजीने पूर्वाचार्यो कों सिद्धांतके रहस्य न जानने वाले ठहराके और विद्यमान भाचार्योसे निरपेक्ष होकर यह छठा कल्याणक नवीन कथन किया तो फिर किस वास्ते सिद्धांतका झठा नाम लेके डोकोंको भरममें गेरते हो? और पृष्ट ८८ पंक्ति में तपगछीय एक भीकुलमंडन सूरिजीका जो उदाहरण दिया है सोतो तुमारे बड़काही अनुकरण किया है, ॥ पूर्वपक्ष ॥ श्रीकुलमंडन पूरिजीने अनुकरणही कियाहै यह कैसे हम जान लेवे ? उत्तर हेमित्र ! इतना तो विचार कारणा चाहिये कि-जब पहिले श्री जिनवल्लभसरिजीने समी आचार्योसे 'निरपेक्ष होके नवीनही छठा कल्याणक दिखाया तो फिर बाहको तर्क करते हो , और हे मित्र | अब इस बड़े Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१२ ] कल्यानककी जडता सिद्ध कर दिखाइ तो फिर आपका जितना प्रयास है सो तो स्वतःही व्यर्थ है,] उपरके लेखकी समीक्षा करके सत्यग्रहणाभिलाषी मध्यस्थ आत्मार्थी तत्वज्ञ सज्जन पुरुषोंको दिखाता हूँ सोपाठक गणको मिष्पक्षपाती होकर इन लोगोंकी विद्वत्ताकी चातुराई का ममूना पूर्वक मैंरी लिखी समीक्षाको अच्छी तरहसे विचार करके अंधपरंपराके मिथ्याश्रमको कल्पित बातको त्यागके शास्त्रानुसार सत्य बातको ब्रहण करनी चाहिये सो न्यायाभोनिधिजीको उपरोक टीकाके पाठका अभिप्राय तो क्या परन्तु शब्दार्थ भी समझ में नहीं आया मालूम होता है उसीसे टीकाकारके विरुद्धार्थ में होकर श्रीजिनवमसूरिजी महाराजको झूठादूषण लगाके उपरको टीकाके पाठपर अपनी कल्पनामुजब प्रत्यक्ष मिथ्या लिख करके भद्रजीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरनेका कारण करके क्याही संसार वद्धिका कारण किया है जिसमें प्रथम तो (आपके बहोंने षट् कल्याणककी परपणा किनी सोही आद्यमें गणधरसाई शतकका पाठ हमने लिख दिखाया है फिर भी आपको दूढ फरनेके वास्ते गणधरसाईशतकको बृहत् वत्तिका पाठ दिखाते है ) यह लेख ही बाल लीलाकी तरह अज्ञानताका सूचन करानेवाला मिथ्याहै क्योंकि हमारे बड़े प्रीजिनवमसूरिजोने मीसिद्धसेनदीवाकरजी तथा श्रीमभयदेवसूरिजी महाराजकी तरह प्रीजिनेखर भगवान्को कथम करी हुई शास्त्र प्रमाण पूर्वककी लुप्त हुई षटकल्याणककी सत्य बातको प्रगट करी है जिसको माप लोग विवेक शून्यतासे समझे बिना नवोन प्ररूपणाकरनेका दोष उगाते हो सो समवृथा है इसका पूर्व में इसो बम्पके पट ५६० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१३ ] से ५७३ तक खुलासापूर्वक निर्णय छप गया है उसको बाचमेसे आपका सब भ्रम मिट जावेगा। और फिर भी हमको दृढ़ करनेके वास्ते गणधर साई. शतकको वृहदवृत्तिका पाठ आपमे लिख दिखाया है सो हमतो हमारे पूर्वजोंके कपन करे हुए उक्त ग्रंथके पाठोंके तात्पर्याों को समझकर शास्त्र प्रमाणानुसार प्रत्यक्षपने भागों में कथन करी हुई छ कल्याणकोंकी सत्य बात पर सदा दूढ़ है उससे उपरोक पाठोंने तथा छ कल्याणकोंके मानने में किसी तरहका सन्देह नहीं है परन्तु आप लोगोंने उपरोक पाठोंका तात्पर्यार्थको समझे बिना अन्धपरम्पराके मिथ्या कदाग्रहका हठवादरूपी तिमिरको भ्रमखाड़में पड़कर भद्रजीवोंको भी अपनी मायाजालमें फंसानेके लिये उपरोक्त टीकाके पाठोंको शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ होकर कल्पित मर्य लिखकर उत्सूत्र प्ररूपणाका पंचचलाते हुए प्रत्यक्ष विपरीततासे दृष्टिरागी बाल जीवोंको मिथ्यात्वके चम, गेरनेसे वृषा ही निज परके आत्म-कल्याणमें विघ्नका कारण किया है। और उपरोक्त पाठके पूर्वापरके सम्बन्धवाले सब पाठोंको छोड़कर बिना सम्बन्धकी १ गाथा लिखकर मधूरे प्रसंगसे उलटे अर्थको करके अपनी विद्वत्ताको चातुराई बाल जोवों में चलानीपी सो चला दी किन्तु जब उपरोक पाठके पूर्वापरको गाथाओं सहित सम्बन्धपूर्वक शास्त्रकारोंके अभिप्रायको देखा जाये तब तो न्यायर्याभो. मिधिनीके विवेक शून्यताको अज्ञानताके सब परदे मुल जावे क्योंकि वहां तो उस देश, चीताडने तथा चीतारके आसपासमें सब जगहोंपर प्रायः करके पञ्चमहाव्रतीका उधारण करनेवाले रिपदधर भी पैत्यवासी होकर बैठे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९४ ] सो वे लोग निज स्वार्थ सिद्धि के लिये अज्ञानतासे उत्सूत्रप्ररूपणा करते हुए चैत्यमें रहना तथा रात्रिको स्नात्र महोत्सव, प्रतिष्ठादि करना और रात्रिको साधु साध्वी प्रावक माविका. ओंको मन्दिर में माना वगैरह अनेक बाते शास्त्रमर्यादा विरुद्ध अपनी कल्पित कुयुक्तियों के सहारीसे प्रवर्तमान करते थे और ४२ दोष वर्जित मुनिको गौचरी करना तथा सर्वथा परिग्रह रहित रहना और अधिक मास तथा भी वीरममुके छ कल्याणकादिको मानना वगैरह शास्त्रों में कथन करी हुई सत्यबातोंकों उत्थापन करके श्रीजिनाजा विरुद्ध प्ररूपणासे भद्रजीवोंके दिलने अनेक तरह के संदेह उत्पन्न होवे वैसो कुयुक्तियों करके उनहोंको अपने भ्रमचक्रमें फंसाते हुए मिथ्यात्वकी सुद्धिकरते थे, तब वहां विशेष डाभका कारण जानकर उसदेशमें भीजिनवमसूरिजी महाराजनेविहार किया सो बड़े परिममके साथ श्रीकालिकाचार्यजीको तरह मरणास उपसर्गका भी भय न करके उन चैत्यवासियों के अनेक तरहके उपद्रवोंको भी सहन करते हुए अपनी हीमत बहादुरीसे चैत्यवासियोंके मन कल्पनाकी अविधिमार्गको बातोंके कदानहरूपी मिथ्यात्वका नाश करके शास्त्रानुसार विधिमार्गको सत्य बातोंको प्रगट करने में भव्य जीवोंका उपकाररूपी अन्तर करुणाकी प्रबलतासे किसीकी साह्यता बिना परन्तु मीदेव गुरुके (मोजिनेखर भगवान् के तपा पूर्वाचार्यों के) कपन किये हुए शास्त्रोंके प्रमाणोंके माधार त्यने रहना वगैरह शास्त्रविरुद्ध उपरोक्त बातोंका निषेध करने पूर्वक चैत्यकी विधिको भौर श्रीवीरप्रभु के छ कल्याणकादि शास्त्रानुसार घोजिनाजा मुजब सत्य बातोंको भव्यजीवोंको दियाय, उपादेयका, परिधानो लिये मजपित री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] और वहां बीतीसमगर जब श्रीजिनवमममूरिजी महाराजने चौमासा किया उस समय भी चैत्यवासियोंकी रात्रिस्नानादि अविधिकी बातोंका निवारण करके चैत्यमें यत्नापूर्वक दिनमें स्मात्र करने तथा पत्यकी ८४ आशातना निवारण करनी और विधिसे प्रवेश करना तथा छठे कल्याणकका मानना इत्यादि शास्त्रानुसार विधिमार्गको बातोंको विशेषता प्रकाशित करो और चैत्यवासियोंको कल्पित अविधिको बातोंकी सब पोल खोलने लगे तब तो वे चैत्यवासी लोग इन महाराजपर बहुत वैराजी हुए और विरुद्धताका कथन करने लगे याने इस पञ्चमकालमें चैत्यमें रहना उचित है तथा चैत्यादिककी संभालके लिये द्रव्य भी रखना चाहिये और आश्चर्यरूपहोनेसे छठे कल्याणककों नहीं मानना इत्यादि बातोंको शास्त्रप्रमाण बिना ही क्युतियों करके कथन करने लगे तब भी इन महाराजने तो निजमेही अपनी विद्वत्ताको हिम्मतसे चैत्यवासीयोंकी कल्पित बातोंका निषेध करके शास्त्रों के दृढ प्रमाणों पूर्वक चैत्य वास निषेध, षट कल्याणक स्थापन वगैरह बातोंको सब लोगोंके सामने विस्तारसे प्रकाशित करी और बोलने लगे कि देखो बड़े आश्चर्यकी बात है कि श्रीजिनेश्वर भगवान्के मन्दिरको चौराशी आशातना निवारण करके उपयोग सहित यत्नासे चैत्य वन्दनादि कार्य विशेषतासे मर्यादा युक्त चैत्यमें जानेकी और कार्य उपरांत वहां ठहरनेकी मनाई वगैरह बातोंकी भाष्य चूर्यादि शास्त्रों में प्रगटपने विधि कथन करी हुई है तिसपर भी ये चैत्यवासीलोग उसका विचार छोड़कर सर्वथा प्रकारसे चैत्यमें निवास करने वगैरह प्रत्यक्ष अविधि करके अनुचित कार्य करते है तथा श्रीकल्प सूत्रादि मूल शास्त्रों में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९६] प्रगट अक्षरी करके श्रीवीरम के छ कस्याखकोका कपन किया हुआ होनेपर भी ये चैत्यवासी लोग उसको नहीं मानते है इससे विशेष आश्चर्य दूसरा कौनसा होगा सो विधिमार्गमें चौराशी माशातनाका वर्जन किया जिसकोतो ( चैत्यमें रहकर ) करना और जो आगमोंमें छ कल्याणक कथन किये उसको म मानना सो प्रत्यक्ष उत्सूत्रप्ररूपणा है इत्यादि कहा और शास्त्र विरुद्ध होकर अपने कल्पित-मंतव्यको कुयुक्तियोंके विकल्पोसे (बालजीवोंको विम्रमवाले करके) स्थापन करते थे उन्होंको इन महाराजने शास्त्र प्रमाणोंका दर्शाव पूर्वक चैत्यवासियोंके कल्पित मन्तव्यको जूठा ठहराकर शास्त्रानुसार उपरोक बातोंको सिद्ध करके दिखाई और विशेषतासे भव्य जीवोंकी शास्त्र प्रमाणानुसार सत्य बातोंपर दृढ़ता होनेके लिये तथा हठवादी कदाग्रही चौत्यवासियोंकी उत्सूत्र प्ररूपणाको हटानेके लिये फिर भी बड़े जोरके साथ कथन किया कि चैत्यवास निषेध परन्तु उसको विधिसे भक्ति करने संबंधी तथा षट कल्याणक संबंधी जो यह सत्य बात मैं कहता हूँ इसी तरहसे है इसमें अन्यथा नहीं है सो यह उपरोक्त बात किसीको पसन्द नहीं आवे अपने दिलने नहीं रुचती होवे तो जिसकी ताकत होवेसो मेरे सामने माकर विशेषतासे अतिशयकरके अपना मंतव्यको कथकन करो, नहीं तो उनका बकवाद (कथन) वथा मिथ्या माना जावेगा इस तरहसे शास्त्र प्रमाणोंका दर्शाव पूर्वक अपनी विद्वत्ताकी बहादुरीसे भव्यजीबोंको श्रोजिनाज्ञाको सत्य बातमें विशेष दूढ़ता होने के लिये और शिथिलाचारी द्रव्यलिंगी साधुनाम धराने वाले उत्सूत्रभाषो चैत्यवासियोंके कल्पित कदाग्रहके पाखराडका मिथ्यात्वको हटानेके लिये बहादूरीसे अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१७ ] स्कंधोंका आस्फालन पूर्वक उपरोक्त बातोंको सबके सामने शास्त्रोंके प्रमाणोंसे सिद्ध करके कथन किया परन्तु जैसे-सिंहकी गर्जारवके सामने सियालियोंके टोलेमेसे. कोईभी सामने नहीं जा सकते, तैसेही श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजके कथनके सामने जाकर उन चैत्यवासियोंमेंसे कोईभी अपना मन्तव्य कथन करनेको समर्थ नहीं होसका। तब फिरभी इन महाराजने कहा कि “यो न शेष सूरीणामित्यादि" याने सुद्ध प्ररूपक संयमी साधु आदिकोंसे शेष (बाकी)के वर्तमानमें जो ये कितनेक चैत्यवासी लोग विद्वान् आचार्य कहलाते हैं परन्तु शास्त्रोंके तात्पर्यार्थ के रहस्यको नहीं जान सकते हैं उन अज्ञानी चैत्यवासियोंके क्या उपरोक्त बातों सम्बधि शास्त्रोके प्रमाणोंके प्रत्यक्ष अक्षरोको भी देखनेमें नहीं आये और सुनने में भी नहीं आये होगे सो अनंत भव भ्रमणं करानेवाली अविधि करते हुए भगवान्की आशातनाके हेतु भूत रात्रि स्नात्र, प्रतिष्ठा, नंदीमहोत्सव, बलीदेना, और श्रावक श्राविकादिकोका रात्रिको मन्दिरमें आना वगैरह कार्य कराकर चैत्यमें रहतेहुए उत्सूत्र प्ररूपणासे अपने सम्यक्त्वका तथा संयमका नाश करते हैं। और श्रीआचाराङ्गजी सूत्र तथा श्रीकल्पसूत्र और श्रीस्थानांगजी मूत्रादि अनेक शास्त्रों में छ कल्याणक कहे हैं उन्होंकों न मानकर. उन शास्त्रपाठोंके उत्थापक बनते हैं, इसप्रकारसे वेषधारियोंके कल्पित मार्गको हटानेके लिये इन महाराजने बड़ी बहादुरी प्रगटकरी और शास्त्रानुसार शुद्ध उपदेशसे बहुत भव्यजीवोंका उद्धार किया, याने वेषधारियोंकी कल्पित भ्रमकी अंधपरंपरासे भद्रजीवोंको छुड़ाये और श्रीजिनाज्ञामें प्रवर्तमान किये इस तरहसे इन महाराजने द्रव्यलिंगी चैत्यवासियोंके उपद्रवोंका भय न किया और सब भ्रष्टा ७८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१८ ] चारियोंके सामने शास्त्रानुसार उपरोक्त सत्य बातोंका प्रकाश करने सूपबड़ा आश्चर्यकारी कार्य करके बहुत उपकार किया, इसलिये ग्रन्थकारने (श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजने श्रीमणधरसार्द्धशतक मामा ग्रन्थमें ) श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजको ६२ गाथाओंमें अनेक तरहकी स्तुति करते श्रीवीरप्रभुके मोक्ष जानेसे लेकर जैनशासनकी व्यवस्था दिखाते हुए इह लोकस्वार्थी चैत्यवासियोंके और आत्मार्थियोंके भेद भावका दर्शाव पूर्वक उन चैत्यवासियोंके संबंधौ ‘असहायण' इत्यादि उपरोक १२२ वीं गाथा कथन करी है। अब इस जगह पर श्रीजिनाज्ञाभिलाषी आत्मार्थी निष्पक्षपाती पाठकमणसे मेरा इतनाही कहना है कि द्रव्यलिंगी उत्सूत्र प्ररूपणा करनेवाले चैत्यवासियोंकों उपरोक्त ग्रन्थ कारने वन्दन पूजन आलाप संलाप करना तो क्या परन्तु उन्होंका अल्पकाल थोड़ी देर दर्शन मात्र भी मिथ्यात्वकी प्रप्ति करने वाला कहा और “जे जिण वयणु त्तिनु वयणं भासंति जेउ मन्नंति ॥ समद्दिठीणं तं दसणंपि संसार बुड्ढी करंति" ॥ १२० ॥ यह श्रीविशेषावश्यककी उपरोक्त प्रसंगमें एक गाथा दिखाकर जो श्रीजिनेस्वर भगवान्के वचनके विरुद्ध उत्सूत्र भाषण करता होवे उसका और उसको मान्य करने वालोंका दर्शनमात्रभी आत्मार्थी सम्यकत्वी जीवोंको त्यागना चाहिये नही तो संसार बढ़ानेवाला होता है और उन्होंकी निज स्वार्थी कल्पित कुयुक्तियोंकी सहारेवाली ( आज्ञाविरुद्ध ) अविधिकी बातोंका निषेध करके मिथ्यात्व हटानेके लिये तथा भव्यजीवोंके उद्धारके वास्ते विधिमार्गकी आज्ञानुसार शास्त्रोंके प्रमाण पूर्वक सत्य बातोंको प्रगट करने सम्बन्धी इन महाराजने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१९ ] बहुत कष्ट सहन करके अपनी हिम्मत बहादुरी और शास्त्रोक्त बातोंकी सत्यता दिखानेके लिये उपरोक्त बातों संबंधी अपने स्कंधोंका आस्फालन (खम्भा ठोक) कर कथन किया जिसपर विवेक शून्यताको अन्धपरम्परासे वर्तमानकाल में अन्तर मिथ्यात्वसें बड़ाभारीविभ्रम पड़ गया है, कि श्रीजिनवल्लभसूरिजीने खम्भा ठोंक कर जबराईसे उत्सूत्ररूप छठे कल्याणकको प्रगट किया परन्तु इतना नहीं विचारते है, कि शास्त्रानुसार सत्य बातको प्रकाशित करके मिथ्या हठवादी कदाग्रहियोंको हटानेके लिये अपनी विद्वत्ताकी बहादुरी दिखाई है नतु शास्त्रविरुद्ध उत्सूत्रप्ररूपणाका वृथा हठवादको जबराई, क्योंकि देखो आजकाल वर्तमान में भी यह बातें तो प्रगटपने देखने में आती है; कि कितनेही आदमी किसी तरहकी अपनी सत्य बातको शास्त्रप्रमाणों सहित दिखाते हुए वादानुवाद करके युक्तिपूर्वक सिद्ध करनेके लिये और दूसरे प्रतिवादीकी मिथ्या बातको निषेध करनेके वास्ते -कोई तो छाती ठोककर अपना कथन करते हैं । कोई डङ्के की चोट पूर्वक अपना कथन करते हैं । कोई उद्घोषणा करवाते हुए कथन करते हैं । कोई भृकूटी चढ़ाकर बड़ी तेजीसे कथन करते हैं ॥ कोई बड़ी बड़ी आवाज करके लम्बे लम्बेसे पुकारते हुए कथन करते हैं । कोई झालर, घण्टा बजाते हुए कथन करते हैं ॥ तथा कितने ही भाषण करनेवाले कूद कूदकर उछल उछल करके कथन करते हैं । और कोई कोई तो चौकी टेबल ठोकते हुए कथन करते हैं । और कोई पुस्तकपर हाथ पिछाड़ते हुए कथन करते हैं ॥ इत्यादि अनेक प्रकार से कथन करते हैं सो तो अपनी सत्यता तथ विद्वत्ताकी हिम्मत बहादुरी और अपनी अपनी स्वभाविक प्रकृति शरीरकी चेष्टाका कारण है परन्तु उसको हठवाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२० ] मिथ्या आग्रहकी जबराई नहीं कहसकते हैं इसीतरहसे श्रीजिनवल्लभसूरिजीनेभी शास्त्राप्रमाणों सहित अपने कथनकी सत्यताके कारणसे तथा अपनी विद्वत्ताकी हिम्मत बहादुरी और निज प्रकृति शरीर स्वभावकी चेष्टासे चैत्यवासियोंकी उत्सूत्र प्ररूपणाका कल्पित मार्गको हटा करके श्रीजिनाज्ञा नुसार सत्य बातको प्रगट करनेके लिये खम्भा ठोकके कथन किया सो तो चैत्यवास रात्रिस्नानादि अविधिकी बातोंका निवारण करनेके लिये और प्रभातसे दिनमें विधिपूर्वक यत्नासे नात्र महोत्सवादि करना और चैत्य वंदनादिके लिये जाना वगैरह शास्त्रानुसार विधि नार्गकी बातोंको प्रकाशित करनेके लिये खूब ही अच्छी तरह से सबके सामने कथन किया परन्तु झूठे आदमी सत्यवादीके सामने नहीं आ सकते हैं उसी तरह कोई भी उन चैत्यवासियोंमेंसे महाराजके सामने आकर चैत्यमें रहने वगैरह अपनी बातोंको स्थापन करनेके लिये कथन नहीं करसका उसीसे बहुत भव्यजीवोंको चैत्यवासियोंके मायाफन्दसे छुटनेका कारण होकर श्रीजिनाज्ञामें प्रवर्तमान होनेसे बड़ा लामका कार्य (इन महाराजका कथन) होगया जिसमें अनन्त लाभके कारणका उपकार सम्बन्धी विचारको तो भूलगये और चैत्यवासियोंकी अविधिमें पड़कर भगवान्की आज्ञा भङ्ग तथा मन्दिरजीमें विराजमान श्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाजीकी आशातना करके और शिथिलाचारी उत्सूत्रप्ररूपक चैत्यवासियोंको शुद्ध उपदेश देनेवाले संयमी गुरु मानने वगैरह कारणोंसे संसाररद्धि सम्यक्त्वका नाश दुर्लभ बोधिकी प्राप्ति भद्रजीवोंको होवे वैसे वर्तावके मिथ्यात्वको इन महाराजने हटाया और श्रीजिनाज्ञानुसार शास्त्र प्रमाण मुजब विधिमार्गको सत्य बातोंको प्रकाशित करो जिसके पूर्वापरके सब पाठको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२१ ] लिखना तो दूर रहा परन्तु विशेष मायाचारी करके चैत्यवासियों सम्बंधी विषयको छुपा करके "खम्भा ठोंकके छठे कल्याणककी प्ररूपणा करी" इसतरहसे लिखकर अपने हठवादसे नवीन छठे कल्याणककी उत्सूत्रप्ररूपणा करनेका बालजीवोंको दिखाया सो निष्केवल अन्तरके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे निजपरके आत्मकल्याणमें विघ्नरूप सम्यक्त्वको नष्ट करनेवाला वृथा ही गाढ़ मिथ्यात्वका भ्रम भद्रजीवोंके दिलमें गेरकर संसार भ्रमणका कारण किया है क्योंकि"प्रकर्षेणेद मित्थमेव मवति योऽत्रार्थ सहिष्नुः सवावदीवितिस्कंधास्फालन पूर्वकं साधितः सकल प्रत्यक्ष प्रकाशितः ।" इन अक्षरोंका “अतिशय करके यह छठा कल्याणक ही है जो इस बातमें सहन न कर सकता होवे सो अतिशय करके कथन करो ऐसे कथनके साथ अपने स्कन्धोंको आस्फालनपूर्वक छठा कल्याणक कथन किया है अर्थात् अपनी भुजासे खम्भा ठोंकके छठे कल्याणककी प्ररूपणा करी सर्व लोकोंके समक्ष कथन किया ।" यह भावार्थ न्यायांभोनिधिजीने लिखके नवीन छठे कल्याणककी प्ररूपणा करनेका ठहराया सो तो अपनी विद्वत्ताकी चातुराईको मायारत्तिसे वृथा ही लजाया है क्योंकि उपरोक्त अक्षरोंका यह भावार्थ नहीं बन... सकता किन्तु चैत्यवास निषेधादि विषय हमने ऊपरमें लिखे हैं वैसा होता है इसलिये केवल छठे कल्याणककी प्ररूपणा करनेके लिये खम्भे ठोंकके कथन नहीं किया किन्तु चैत्यवास निवारणादि पूर्वमें विषय दिखाये हैं उन्हीं सबोंका कथन करके शिथिलाचारी जैनीसाधुकावेष धारण करनेवालांकी कल्पित अविधि और सत्सूत्र प्ररूपणा हटानेके लिये खम्भा ठोंकने पूर्वक उपरोक्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२२ ] विधिमार्गकी सत्य बातोंको शास्त्र प्रमाणानुसार सिद्ध करके सबके सामने प्रकाशित करनेका समझना चाहिये। ___ और “यो न शेष सूरीणामज्ञात सिद्धांत रहस्यानामित्यर्थः लोचनपथेप दृष्टिमार्ग आस्तां श्रुतिपथे ब्रजति याति उच्यते पुनर्जिन मतर्भगवद्वचन वेदिभिरिति” इन अक्षरोंका भावर्धमें भी “जो यह छठा कल्याणक नहीं जाने हैं सिद्धांतके रहस्य ऐसे जितने हो गये आचार्य उन्होंके कर्णपथमें तो दूर रहो परन्तु लोचन पथमें भी नहीं आया है ऐसा छठा कल्याणक कहा है भगवतके बचन जानने वाले श्रीजिनबल्लभ सूरिजीने" इसतरहका मतलब लिख करके न्यायांभोनिधिजीने अपनी मायाचारीकी विद्वत्ता भद्रजीवोंको दिखाकर अन्धपरम्पराकी भ्रमखाड़में बालजीवोंको गेरने थे सो गेरे और इहलोक स्वार्थसे अपनी पूजा मानतामें दृष्टिरागियोंको फसानेके थे सो फंसालिये परन्तु शास्त्र कारके विरुद्धार्थमें लिखकर पूर्वाचार्यों की आशातना करके इन महाराजको स्थाही मिथ्या दूषण लगाकर मिथ्यात्व बढ़ाते हुए निजपरके संसार इद्धिका कारण करते कुछ भी लज्जा नहीं आई क्योंकि न्यायांभोनिधिजीके ऊपर लिखे मुजब छठे कल्याणककी प्ररूपणा करने में सब पूर्वाचार्यों को अज्ञानी ठहराने सम्बन्धी उपरोक पाठका भावार्थ नहीं बनता है, किन्तु भव्यजीवोंके धर्मरूपी धन (सम्यग्दृष्टिपने) को तस्करकीतरह हरण करनेवाले, अज्ञानरूपी अन्धकारमें पड़कर मोह प्रमादरूपी निन्द्रामें सोनेवाले, अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करतेहुये कल्पित आलम्बनोंको मायाचारीसे बालजीवोंको दिखाकर श्रीजिनाज्ञाकी विराधना करके उत्सूत्रप्ररूपणासे अविधिरूपी उन्मार्गका प्रचार करके उसमें गड्डरीह प्रवाही विवेकशून्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२३ ] दृष्टिरागियोंको अपने स्वार्थ के लिये अन्धपरम्परामें फंसाने. वाले आचार्य वगैरह पदधरोंकी रात्रिस्नात्र प्रतिष्ठा तथा प्राविकाओंका मन्दिरजीमेंरात्रिको आना और छठे कल्याणकको म मानने वगैरह बातोंके लिये चैत्यवासियों सम्बन्धी शास्त्रकारने कहा है सो हमने ऊपरमें ही उसका भावार्थ लिख दिया है इसलिये उपरोक्त बाक्य शुद्ध प्ररूपक आत्मार्थी पूर्वाचार्यो के लिये नहीं है क्योंकि चौदह पूर्वधर श्रुत केवली श्रीभद्रबाहुस्खामीजी, तथा श्रोजिनदासगणि महत्तराचार्यजी, श्रीहरिभद्रसूरिजी, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी, श्रीअभयदेव सूरिजी, श्रीशीलाङ्गाचार्यजो, नीतिलकाचार्यजी वगैरह पूर्वाचार्य महाराज तो श्रीकल्पसूत्र तथा श्रीस्थानांगजी सूत्र और श्री आचाराङ्गजीसूत्रादि शास्त्रानुसार छ कल्याणक माननेवाले तथा चैत्यकी ८४ आशातना वर्जन पूर्वक विधिसे व्यवहार करनेवाले थे और पूर्वाचार्यो के बनाये अनेक शास्त्रों में ६४ आशातनाका वर्जन पूर्वक दिवसमें स्नात्र उच्छवादि करतेहुये विधिसे वर्ताव करनेका तथा छठे कल्याणकको मानने वगैरहका अधिकार बहुत जगहोंपर आता है और चैत्यवासीलोग श्रीमन्दिरजीकी आशातना वर्जन सम्बंधी तथा छठे कल्याणक सम्बन्धी शास्त्रोंके प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद होनेपर भी उस मुजब न वर्तते हुए चैत्यमें रहना वगैरह विरुद्धाचरण करते थे इसलिये उन चैत्यवासियों सम्बन्धी “यो न शेषसूरीणामज्ञात सिद्धांत रहस्याना" इत्यादि बाक्य टीकाकार महाराजनेकहे हैं नतु शुद्ध संयमी शास्त्रोक्त सत्य उपदेशक पूर्वाचार्यों सम्बंधी जिसका विशेष खुलासा ऊपरमें लिखा गया है इसलिये उपरोक्त वाक्यका भावार्थमें न्यायांभोनिधिजीने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२४ ] 'जितने हो गये आचार्य' ऐसा लिखकर सब पूर्वाचार्यों को सिद्धान्तके रहस्यको न जानने वाले अज्ञानी ठहराने सम्बन्धी श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजपर झूठा आक्षेप किया सो दीर्घ संसारी पनेका कारण है । और श्रीजिनबल्लभसूरिजीने तो जितने होगये उतने सब पूर्वाचार्यों को सिद्धान्त के रहस्यको न जाननेवाले अज्ञानी नहीं ठहराये परन्तु न्यायांभोनिधिजीने अपने लिखे भावार्थमें टीकाकारके विरुद्धार्थ में अपनी कल्पना मुजब अर्थ करके निजमें आपही ऐसा लिखकर सब पूर्वाचार्यों की बड़ीमारी आशातना करके अन्तर मिध्यात्वके उदयसे संसार भ्रमण दुर्लभ बोधिके हेतूरूप महान् अनर्थ करदिया और इन महाराजको झूठा दूषण लगाकर उपहासपूर्वक लिखके भोलेजीवोंको शास्त्रानुसार छ कल्याणककी सत्य बातपरसे श्रद्धा भ्रष्ट करनेका कारण किया जिसके विपाक तो भवान्तरमें भोगे विना छुटने बहुत कठिन है । ン और " प्रकर्षे खेद मित्थमेव भवति" इत्यादि - इस पंक्ति में तथा " यो न शेवसूरीणां" इत्यादि इस पंक्ति में छठे कल्याणकका नाम नहीं है तिसपर भी इन दोनों पंक्तियोंके भावार्थ में " अतिशय करके यह छठा कल्याणक ही है" और " जो यह छठा कल्याणक नहीं जाने हैं सिद्धांत के रहस्य ऐसे जितने होगये आचार्य" इस तरहका लिखकर भावार्थ में वारंवार उठे कल्याणकको लिखा सो यदि “ विधिरागभोक्तः षष्ट कल्याणक रूपश्चेत्यादि विषयः पूर्वप्रदर्शितश्च प्रकारः " इस पंक्तिको देखकर लिखा होवे तो भी मायाचारीका कारण है क्योंकि इस पंक्तिसे तो आगमोक्ल षष्ट कल्याणक ठहरता है तथा “ इत्यादि विषयः पूर्वं प्रदर्शितः च प्रकारः " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२५ ] इम अक्षरोंसे जो पहिले चैत्यवास निषेध वगैरह विषय अतिशय विशेष करके दिखाये गये हैं उनमें ८४ आशातमाओंका निवारणादि चैत्य (मन्दिर) की विधि वगैरह बातों सम्बन्धी पूर्वमें लिखा गया है वो पूर्वोक्त बातोंके विषयोंके सम्बन्धकी उन सब बातोंको यहां ग्रहण करनेके लियेही तो उपरोक्त वाक्य टीका कारने खुलासा पूर्वक लिखे है सो उन सब बातोंके विषयों सम्बन्धी "प्रकर्षेणेद मित्थमेव भवति योग्त्रार्थसहिष्णु सवावदीत्विति” तथा “यो न शेष सूरीणां” इत्यादि यह दोनों पंक्ति लिखकर "अतिशय करके उपरोक्त चैत्यवास निवारणादि सम्बन्धी जो कथन किया है सो वैसेही है इसमें अन्यथा नहीं होसकता यह बात किसीको पसन्द नहीं होतो सामने आकर कथन करो" सो इस तरह चैत्यवास निवारणादि सम्बन्धी "स्कंधास्फालनपूर्वक साधितः सकल प्रत्यक्ष प्रकाशितः” तथा "यो न शेष सूरीणामज्ञात सिद्धान्त रहस्यनां लोचन पथेपि दृष्टिमार्ग आस्तां श्रुतिपथे ब्रजति पाति" यह वाक्य कहे हैं सो तो निष्पक्षपाती विवेकी तत्व दृष्टिवाले अल्पज्ञ भी पूर्वापर सम्बन्ध सहित अर्थकरने वाले अच्छी तरहसे समझ सकते हैं। तिसपर भी न्यायांभोनिधिजी होकरके भी चैत्यवास निवारणादिकके सम्बन्धको टीकाकारके अभिप्रायको और पूर्वापरके पाठकी विषयको उपयोग शून्यतासे जाने बिना अथवा अभिनिवेशिक मिथ्यात्वकी मायाचारीसे जान बूझ करके चैत्यवासके विषयको छुपा कर 'प्रकर्षेणेद मित्थमेव भवति' इसके अर्थमें 'अतिशय करके यह छठा कल्याणकही है, तथा 'योनशेषसूरीणा' के अर्थमें “जो यह छठा कल्याणक नहीं जाने है सिद्धांतके रहस्य ऐसे जितने हो गये आचार्य उनोंके कर्णपथमें तो दूररहो परन्तु लोचनपथमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२६ ] भी नहीं आया है ऐसा छठा कल्याणक कहा है" इस तरह भावार्थमें वारम्वार छठे कल्याणकको लिखके दृष्टिरागी विवेक शून्य अन्धपरंपरा मुजब चलने वाले गच्छ कदाग्रही अज्ञानी जीवोंके आगे मनमाना भावार्थ लिख दिया परन्तु इस प्रकारको मायाचारी करके अभिनिवेशिकसे महान् अनर्थके विपाकोंको भूल गये होंगे अन्यथा चैत्यवासादि निषेधके विषयको छोड़कर आगमोक्त छ कल्याणककी सत्यबातको नवीन प्ररूपणारूप असत्य ठहरानेका ऐसा महान् अनर्थ कारी प्रयत्न कदापि न करते औरखंभे ठोक कर छठे कल्याणकी प्ररूपणा करते सब पूर्वाचार्यो को अज्ञानी ठहराने सम्बन्धी श्रीजिनवल्लभसूरिजी के लिये न्यायांभीनिधिजीने लिखा सो व्यर्थ ही अज्ञानतासे महान् अनर्थ करके उन्मार्गके दोषाधिकारी बनगये परन्तु खम्भा ठोककर छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करने में सब पूर्वाचार्यो को अज्ञानी ठहरानेका लिखा सो सिद्ध नहीं होसका और मायाचारीके सब भेद खुल गये तथा 'प्रकर्षेणेदमित्थ मेवभवति' इत्यादि दोनों पंकियोंके भावार्थमें चैत्यवासी अज्ञानी उत्सूत्रप्ररूपक दूव्य लिंगियों सम्बन्धी सब पूर्वापरका विषय सम्बन्धके सबी भेद भी खुल गये और-आगमोक्त छठा कल्याणक ठहरगया इसको विशेषतासे तो तत्वज्ञजन स्वयं विचार लेवेंगे। ___और 'यो न शेष सूरीणां' इसके अर्थ में जितने होगये' ऐसे लिखकर सबपूर्वाचार्यो का ग्रहण किया सोभी अज्ञानताका कारण है क्योंकि 'शेष,कहनेसे तो सिद्धान्तके रहस्यको जाननेवाले तत्वज्ञानी आज्ञाआराधक शुद्ध प्ररूपणा करने वाले आत्मार्थी आचार्यो से बाकीके इसलोक स्वार्थी चैत्यवासी आचार्य नाम धारकोंका ग्रहण होता है परन्तु सब पूर्वाधार्यो का ब्रहण तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२७ ] कदापि नहीं हो सकता और खास न्यायांभोनिधिजीके भावार्थ में लिखे मुजब "नहीं जानते हैं सिद्धान्तके रहस्य एसे जितने हो गये आचार्य” इन अक्षरोंसे भी विवेक बुद्धिको स्थिर करके विचारा जावे तो सिद्धान्तके रहस्यको जानने वाले एसे जितने पूर्वाचार्य हो गये है वो सब तो कदापि ग्रहण नहीं होसकते हैं तिसपर भी संघ पूर्वाचार्यो का ग्रहण किया सोतो मम जननी वंध्या समान ठहरता है क्योंकि जब ऊपरके अक्षरोंसे भी अज्ञानी ग्रहण हुए तो जितने ज्ञानी पूर्वाचार्य होगये सोतो ग्रहण करना बनही नहीं सकता और 'शेष' शब्द तो कथन करने वालेके वर्त्तमान समयका अर्थ वाला है इसलिये 'जितने होगये, ऐसा लिखकर सब पूर्वाचार्यो का अर्थ ग्रहण करके भूतकाल ठहराया सो तो प्रत्यक्ष विरुद्धता है । और " अशेष" शब्द संपूर्ण सब पूर्वाचार्यों के अर्थ वाला है तथा 'शेष' शब्द उन पूर्वाचार्यों से बाकी के थोड़ेसे नाम धारक आचार्यों के अर्थ वाला है सो तो अल्पज्ञ भी समज सकता है तिस पर भी न्यायांभोनिधिजी इतने बड़े सुप्रसिद्ध विद्वान् हो करके भी 'शेष' शब्दके अर्थ में “अज्ञात सिद्धांत रहस्यानां" इस प्रकार उन चैत्य वासियोंका विशेषण टीकाकारने खुलासा लिखा होने पर भी बड़ा अनर्थ करके महान् उत्तम परम पूज्य सब पूर्वाचार्यों का तथा शुद्ध प्ररूपक तत्वज्ञ क्रियापात्र उस समयके वर्त्तमानिक विद्यमान es आचार्यों का ग्रहण कर लिया और इस प्रकार के बड़े अमर्थ कोही बिवेक शून्यतासे पूर्वापरका विश्वार किये बिना इस समय वर्तमान काल में उनके गच्छवाले अपनी विद्वताके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२८ ] लंबे लंबे विशेषण धारण करने वाले हो करके भी अन्धपरंपरासे चलाये जाते हैं और तत्व दृष्टिसे सत्यासत्यका निर्णय नहीं करते हैं सो भी बड़ी शर्मकी बात है। __ और आगे फिर भी लिखा है कि (अब इस गणधरसाई शतकके पाठसे आपही विचारिये कि जब आपके बड़े श्रीजिनवल्लभसूरिजीने पूर्वाचार्यो को सिद्धान्तके रहस्यको न जाननेवाले ठहराके और विद्यमान आचार्यो से निरपेक्ष होकर यह छठा कल्याणक नवीन कथन किया तो फिर किस वास्ते सिद्धान्तका झूठा नाम लेके लोगोंको भरममें गेरते हो) ऊपरके इस लेखपर भी मेरेको इतानाही कहना है कि जब उपरोक पाठमें प्रगटपने “आगमोतः षष्ट कल्याणकः" याने मूल आगमोंमें छठे कल्याणकका कथन किया हुआ है ऐसे अक्षर खुलासाके साथ सूर्यकी तरह प्रकाश कर रहे हैं तिसपर भी उसको न समझकर विपरीत रीतिसे निषेध करनेवालोंकों आगम सिद्धान्तके रहस्यको न जाननेवाले अज्ञानी कहे जावें तो इसमें कौनसी बुरी बात हुई सो तो आप भी इस बातमें इनकार नहीं कर सकते, तथा “योनशेषसूरीणां" यह बाक्य तो उपरोक्त चेत्यवासियोंकी-अज्ञानता, अविधि, उत्सूत्र प्ररूपणा करने तथा शास्त्रोक्त बातको न मानने सम्बंधी है इसलिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी सम्बन्धी आक्षेप रूप ऊपरका आपका लिखना अज्ञानताका सूचक व्यर्थ है। और आगमोक्त बातको भव्यजीवोंके आगे गांव गांव नगर नगर प्रति रोजीना प्रकाशित करना सो तो श्रीतीर्थंकर गणधर पूर्वधर पूर्वाचार्य और सब साधुओंका खास कर्तव्यरूप कार्य है इसके अनुसार इन महाराजने भी चैत्यवासियोंके अन्धपरम्पराके कदाग्रहको हटानेके लिये अपनी हिम्मत बहादुरी विद्वत्ताकी सामर्थताले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२९ ] चैत्यावास निषेध पूर्वक चैत्यको शास्त्रोक्त विधिका तथा आगमों में कहा हुआ छठा कल्याणकका कथन किया सो तो उपरोक पाठमें प्रगट अक्षरहै तिसको तो द्रव्य लोचन वाला भी अच्छीतरहले देख सकताहै परन्तु इतने बड़े विद्वान् न्यायांभोनिधिजी बन करके भी अपने कल्पित कदाग्रहके हठको स्थापनेके आग्रहमें पड़ करके दृष्टिरागियोंसे पूजा मान्यता करानेके लिये आगमोक्न छठे कल्याणककी सत्य बातको उड़ाकर वृथा द्वेष बुद्धिसे उन्मत्तकी तरह "पूर्वाचार्यों को सिद्धान्तके रहस्यको न जाननेवाले ठहराकर विद्यमान आचार्यों से निरपेक्ष होकर यह छठा कल्याणक नवीन कथन किया" इसतरहके अक्षर लिखके छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करनेका लिखते कुछ शर्म भी न आई। हा। अतीव खेदः ? अपनी पूजा मानता तथा विद्वत्ता और गच्छ कदाग्रहके हठवादको जमानेके लिये कितना बड़ाभारी अनर्थ कर दिया और ऐसे महान् अनर्थ से अपने और अपनी अंधपरंपराकी मायाजालमें फँसनेवाले दृष्टिरागी भद्रजीवोंके संसारभ्रमण दुर्लभ बोधिपनेके दीर्धकर्मों का कुछभी विचार नहीं किया यही तो विशेषरूपसे बाह्य आडंबरियोंकी पाखंडपूजासूप गड्डरीह प्रवाही कलयुगकी महिमाके सिवाय और क्या होगा सो इसको आत्मार्थी श्रीजिनाज्ञाराधनाभिलाषी निष्पक्षपाती विवेकी तत्वज्ञ सज्जन स्वयं विचार लेना। और “विद्यमान आचार्यों से निरपेक्ष होकर यह छठा कल्याणक कथन किया” इसपर भी मेरेको इतना ही कहना है कि श्रीजिनवमभसूरिजीमहाराजके समयमें चीतोडनगरमें द्रव्यलिङ्गको धारणकरनेवाले उत्सूत्रभाषी और कल्पित आलंबनोसे अविधि उप उन्मार्गमें भक्तोसमेत आप चलनेवाले चैत्यवासी आचार्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३० ] सो उन्होंसे विरुद्ध होकर अंधपरंपराकी मायाजालके कदाग्रहको हटानेके लिये इन महाराजने चैत्यवासियोंकी श्रीजिनाशा विरुद्धकल्पित बातोंका निषेध करके शास्त्रानुसार आज्ञामुजब विधिमार्गको सत्यबातोंको भव्यजीवोंके उपकारके लिये प्रगटकरी उसको आपलोगोंने अच्छा नहीं समझकर विद्यमान चैत्यवासियोंके आचार्यों से निरपेक्ष याने विरुद्ध होनेका लिखा इससे तो यही सिद्धहोता है कि उन चैत्यवासियोंकी उत्सूत्ररूप कल्पित बातोंको आप अच्छी समझते हैं तबही तो शास्त्रोंके रहस्य को समझे बिना उन चैत्यवासियोंकी तरह दो श्रावण होने पर शास्त्रप्रमाणसे ५० दिने पर्युषणा करनेका छोड़कर ८० दिने प्रत्यक्ष विरुद्धातासे करते हो तथा शास्त्रोक्त श्रीवीर प्रभुके छ कल्याणकोंका निषेध करके उत्सूत्रभाषण करनेवाले बनते हो और गच्छ कदाग्रहके फंदमें भोलेजीवोंको फंसातेहो इसलिये इन महाराजका सत्यकथन भी आपको अच्छा नहीं लगा इससे विपरीत होकर, कुविकल्प उठाया अन्यथा 'विद्यमान आचार्यों से निरपेक्ष होकर ऐसे अक्षर लिखके चीतोड़के चैत्यवासियोंके विरुद्ध होनेका कदापि न लिखते क्योंकि इन महाराजने यहबात चीतोड़ में ही प्रगट करी है और उस समय चीतोड में चैत्यवासियोंकी मनमानी बातों में दृष्टिरागी विवेक शून्य श्रावक लोक उन्होके फंदमे पूरे पूरे फंसगये थे इससे उन्होंकी अविधि प्रचाररूपी मिथ्यात्वके अन्धकारकी मानों राजधानी जमीहुई थी उसको इन महाराजने वहां विधि :: मार्गकी श्रीजिनाचा मुजब सत्यबातोंकों प्रगटकरने रूप सूर्यके : प्रकाशसे उखेड़ डाली और उस समय वहां शुद्ध क्रियापात्र सत्य उपदेशक उग्रविहारी आचार्यो का अभाव था इसलिये "विद्यमान आचार्यो से" इन अक्षरोंसे उन चैत्यवासियोंके सिवाय आत्मार्थी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३१ ] आचार्य ग्रहण नही होसकते हैं, बड़ेही अफसोसकी बात है कि गच्छकदाग्रहमें फंसेहुए प्राणी अपनी विद्वत्ताकी मिथ्या बातको जमानेके लिये सत्यबातको भी खोटी ठहराकर अपने पक्षकी खोटी बातको सत्य करनेके लिये कैसा अनर्थ करते हैं और ऐसा अनर्थ से संसार द्धिका भय नहीं करते हैं खैर। __ अब आत्मार्थी विवेकी पाठकगणसे मेरा यही कहना है कि उपरकी टीकाके पाठमें नवीन छठा कल्याणक प्ररूपणकरने सम्बन्धी एक अक्षरमात्र शब्दका गंध भी नहीं है तिसपर भी नवीन छठेकल्याणाकी प्ररूपणा करनेका न्यायांभोनिधिजीने अथाही श्रीजिनवल्लभसूरिजीको दूषण लगाया सो सर्वथा मिथ्या है इसलिये ऐसा मिथ्यालिखकर शास्त्रानुसारकी सत्यबात परसे भद्रजीवोंकी श्रद्धा भ्रष्टकरके श्रीजिनाज्ञाके विराधक बनातेहुए मिथ्यात्वमें गेरनेका वडाभारी महान् अनर्थ करने वाले तो पर लोक चले गये परन्तु मायारत्तिसे जिसके नामसे, याने-प्रोअमरविजयजी तथा श्रीकांतिविजयजीके नामसे 'जैन सिद्धान्त समाचारी' नामक पुस्तक प्रगट हुई है वे लोग तो अभी विद्यमान है तथा न्यायांभो निधिजीके समुदायमें भी तोसूरि, उपाध्याय, गणी, प्रवर्तक, पन्यास, पण्डित और न्याय रत्न विद्या सागरादि पदके धरने वाले जगत् पूज्य गीतार्थ जैसी बाह्य वृत्तिको धारण करने वालोंकी तो बहुतही समुदाय विद्यमान है सो यदि अपने गुरु न्यायांभोनिधिजीको गीतार्थ सत्यवादी शुद्धप्ररूपक समजते होवे तो उपरोक्त टीकाके पाठसे नवीन छठे कल्याणककी प्ररूपणाकरनेका सिद्ध कर दिखलावे अन्यथा अपने गुरुको मिथ्यावादी उत्सूत्रप्ररूपक जाने तो अपने गुरुके गच्छके कदाग्रह अभिमानको त्याग करके सत्य बातको ग्रहण करें और जमालीके शिष्योंकी तरह अपना आत्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३२ ] कल्याण करते हुए भव्यजीवोंको सत्यबात ग्रहण कराकर संसार भ्रमण रूपी खोटी श्रद्धाकी खाडसे उद्धार करने के अनन्त लाभको प्राप्त करें, जिसमे ही: निजपरका हित है परन्तु अभिमान झूठा हटवादसे तो संसार वृद्धिके सिवाय और कुछ भी सार न मिलेगा, गुरु गच्छके कदाग्रहसे मनुष्य जन्म ढथा गमाना उचित नहीं है । और न्याय विशारद सुप्रसिद्ध महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीने श्रीसीमंधरस्वामीजीके स्तवन में “जिमजिम बहुश्रुत बहुजन संम्मत, बहु शिष्ये परिवरियो ॥ तिमतिम जिन शासन नो वरी । ते नवी बुये तरियो” इस गाथाको जो कलिजुगकी व्यवस्था देखकरके कही है सो तो न्यायांभो निधिजीने पर्युषणा तथा सामायिक और कल्याणकादि विषयोंमें उत्सूत्र भाषणोंके संग्रहसे और कुयुक्तियोंके विकल्पोसे ढक मतके त्यागी वैरागी सत्योपदेशक बाह्य आडम्बर के भरोसे भोले जीवोंको श्री जिनाताकी विराधनके रस्ते चलाने के कर्तव्योंसे प्रत्यक्ष प्रमाणता युक्त सत्य करके दिखाई है परन्तु अब आत्मार्थियों को उत्सूत्र प्ररूपणाकी बातोंकों त्याग करके श्रीजिनाज्ञा मूजिब शास्त्र प्रमाण युक्त इस ग्रन्थमें कथन करी हुई सत्य बातोंको शीघ्रतासे ग्रहण करके अपनी शुद्ध श्रद्धा पूर्वक आत्म कल्याणके कार्यका उद्यम सफल होवे ऐसा करना चाहिये । और " आगमोक्तः षष्ट कल्याणकः" ऐसे अक्षर प्रत्यक्षपने खुलासा पूर्वक उपरोक्त पाठमें होनेपर भी " स्कंधा स्फालनपूर्वक साधितः” तथा “ योनशेषसूरीणामज्ञात सिद्धांत रहस्यानां” इत्यादि इन दोनों पंक्तियोंके भावार्थको और चैत्यबासियों सम्बन्धी पूर्वापर के बिषय सम्बन्ध को ( विवेक बुद्धी से समझे बिना या अभिनिवेशिकको मायाचारीसे ) छोड़करके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३३ ] ऊपरकी दोनों पंक्तियोंके अर्थ में ऊटपटांग मन कल्पना मुजब भावार्थ में लिखकर उन शब्दोंके ऊपर अपना कुविकल्प उठाया याने उपरोक्त नाम धारक चैत्यवासी आचार्यों की उत्सूत्रतासे अविधिरूप उन्मार्गकी कदाग्रही प्ररूपणाको हटानेके लिये, शास्त्रोक्त छठे कल्याणकके स्वरूपको न समझने वाले, तथा मन्दिरजीकी ८४ आशातना निवारणादि पूर्वक विधिसे वर्ताव करने सम्बंधी शास्त्रोंमें प्रत्यक्ष पाठ मौजूद होने पर भी श्रीमन्दिरमें रहते हुए ८४ आशातना करने वाले उन चैत्यवासियोंको श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने सिद्धान्तके रहस्यको न जानने वाले ठहराये तथा भव्यजीवोंको श्रीजिनाज्ञानुसार शास्त्रोक्त विधिमार्गकी सत्यबातों में शुद्धश्रद्धाकी प्राप्ति पूर्वक दृढ़ ता होने के लिये अपनी विद्वत्ताकी हिम्मत शरीरप्रकृतिकी चेष्टासे खम्भा ठोकके ऊपरकी शास्त्रोक्त बातोंको सबके सामने विशेषतासे प्रकाशित करी जिसके तात्पर्यार्थको तो समझ सके नहीं इसलिये अपरकी दोनों पंक्तियोंके अक्षरोंको देख कर अपने अंतर मिथ्यात्वकी अज्ञानताका कुविकल्प भद्रजीवों पर गेरना चाहा कि, ऐसे शब्द क्यों कहे परन्तु विवेक बुद्धिसे इतना नहीं विचार किया कि श्रीजिनाज्ञाकी विराधना करके उत्सूत्र भाषणोंपूर्वक अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे कुयुक्तियोंके विकल्पोंसे भव्यजीवोंको उन्मार्गमें गेरनेवालोंके पाखण्डको हटानेके लिये इन महाराजके उपरोक कथनसे भी विशेष ज्यादा शब्द कहे जावे तोभी कोई हरजेकी बात नही है। देखिये खास न्यायांभोनिधिजीनेही उत्सूत्रप्ररूपणा करने वालों सम्बन्धी अपने बनाये “अज्ञान तिमिरभास्कर" ग्रन्थके पृष्ठ २९४२९५ के लेख में कैसे कैसे शब्द लिखे हैं सो लेखे भी इसीही ग्रन्थके पृष्ट १९८० में छप चुका है और ढूढकमतके साधुका वेषधारक जेठमलने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३४ । श्रीजिनप्रतिमाजीका उत्थापन वगैरह विरुद्धाचरणकी बातीको स्थापन करनेके लिये उत्सूत्रभाषणोंसे संसार भ्रमण, दुलभबोधिपनेके दीर्घकर्मों का भय न रख्खके भद्रजीवोंको मिथ्यात्वकी भ्रमजालमें फंसानेके लिये आगमोंके पाठोंका उलटाही विपरीत अर्थ करके कुयुक्तियोंके विकल्पोंसे अनेक तरहके उटपटांग समकीतसार नामक परन्तु वास्तवमें उत्सूत्रोंकी अंधखाडकी पुस्तकमें लिखेथे, जिसका प्रति उत्तरमें भव्यजीवोंको सत्यबातकी प्राप्तिरूप उपकारके लिये “सम्यक्त्व शाल्योद्धार" नामा ग्रन्थमें खास न्यायांभोनिधिजीने उस जेठमलके तथा अन्य दूढ़ियोंके जूठे हठवादको कुयुक्तियोंके पाखडको हटानेके लिये “अज्ञानी, महामिथ्यात्वी, मूढमति, महानिन्हव, वैश्यापुत्रसमान, पशुतुल्य, दिनमें अंधे, अक्कलके दुश्मन, मूर्खशिरोमणी, महा दुर्भवी, मलेच्छ सरीखे पंथके मानने वाले, अनन्त संसारी, होण पुण्याये, दासी पुत्र तुल्य, जेठेके घापके चोपड़ेमें लिखा है" इत्यादि अनेक तरह के अनुचित कटुक शब्द बहुत जगहों पर लिखे हैं तथा जिन मन्दिर कराने वाला श्रावक १२ वें देवलोक जावे इसका निषेध करनेके लिये जेठमलने अपने अन्तरके गाढ मिथ्यात्वके उदयसे दुर्बुद्धिसे भोले जीवोंको अपनी मायाजालमें फंसानेके लिये जिन मन्दिर बनाने वालेको नरक लिख दी जिसकी समीक्षामें सम्यक्त्व शल्योद्वारके पृष्ट १८७ पंक्ति ६ से १० तक “जेठमलने उत्सूत्र लिखते हुए जरा भी विचार नहीं करा है जे कर जेठमल ढक वर्तमान समयमें होता तो परिडतोकी सभामें चर्चा करके उसका मुंहकाला कराके उसके मुखमें जरूर शकरदेते क्योंकि जूठ लिखने वालेको यही दर होना चाहिये” इस तरहके शब्द लिखे हैं और इसी पृष्टमें दढिये दूतणीये उनके सेवक सबको नरकने जानेका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३५ ] लिखा है और पृष्ठ २५४।२५५ में भी कितने ही अभाषणीय शब्द लिख दिये हैं अब विवेकी निष्पक्षपाती पाठक गणको न्यायपूर्वक धर्मबुद्धिसे विचार करना चाहिये कि न्यायांभोनिधिजीने ढढकोंके लिये कैसे कैसे शब्द लिख दिये जिसपर तो कोई भी कुविकल्प किसीके दिलमें न उठा और श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने चैत्यवासियोंके कल्पित आलंबनोंका हठवादके मिथ्यात्वकी उत्सूत्रता और स्वार्थसिद्धकी प्रमादताका अभिनिवेशिकको हटानेके लिये अपने शरीर प्रकृति स्वभावकी चेष्टासे अपने कथनमें शास्त्रोक्त प्रमाणोंकी सत्य दृढता भव्य जीवोको दिखाकर श्रीजिनाज्ञाकी प्राप्ति करानेके लिये शास्त्रोक्त बातोंको न समझने वाले और अविधिसे उन्मार्ग चलानेवाले उन चैत्यवासियोंको सिद्धान्तके रहस्यको न जाननेवाले ठहराकर खम्भा ठोकते हुऐ सत्यबातोंको सबके सामने प्रकाशित करी, जिसपर अपना कुविकल्प उठाकर भद्रजीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरनेके लिये चैत्यवासियों सम्बन्धी शास्त्रकारके अभिप्रायके अर्थकी जगहपर सब पूर्वाचार्यो' को लिखके विद्यमान गीतार्थ शुद्ध उपदेश देने वाले आत्मार्थी सब आचार्यों को लिख दिया और आगमोक्त छठे कल्याणकको जबराइसे खंभे ठोककर नवीन उत्सूत्र प्ररूपणरूप छठे कल्याणक कोठहरा दिया हा अति खेदः ॥ “खलः सरस्व मात्राणि, पर छिद्राणि पश्यति ॥ आत्मनो बिल्वमात्राणि, पश्यन्नपिन पश्यति" की तरह करके व्यर्थ ही निजपरके संसार वढानेके लिये श्रीजिनवमसूरिजी महाराजके कथमके रहस्यका तात्पर्यार्थ के भावार्थको पूर्वापर सम्बन्ध सहित समझ विना अपनी विद्वत्ताको बहा दुरी दृष्टिरागी विवेकशून्य अन्धभक्तों में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३६ ] दिखाकर कितना बड़ा महान् अनर्थ करके मिथ्यात्वका कारण किया खैर । अब श्रीजिनाज्ञाभिलाषी आत्मार्थी विवेकी पाठक गणसे हमारा इतनाही कहना है कि, उपरोक्त पाठके बनानेवाले टीका कार महाराजने चैत्यवासियों के लिये पूर्वापर सम्बन्ध सहित ऊपर के पाठका भावार्थ सम्वन्धी “ चेत्यादि विषयः प्रदर्शितश्च प्रकारः" ऐसा खुलासा लिख दिया था तथा उपरके पाठकी व्याख्या करने की आदिमें ही पूर्व की गाथाके प्रसङ्गका इस गाथामें सम्बन्ध करनेका लिखा था जिसको तो इन्होंने जड़मूलसे ही उड़ा दिया और ग्रन्थकार के अभिप्राय विरुद्ध होकर आगे पीछेके सम्बन्धको तोड़कर बिना सम्बन्धसे १ गाथा को लिखके उसका उलटा अर्थ करके भोलेजीवों को अपनी मायाजाल में फंसाने के लिये श्रीजिनाताकी विराधनाका भय न करते हुए कितना बड़ा महान् अनर्थ करके आगमोक्ल छठे कल्याणककी सत्यबातको उत्सूत्ररूप असत्य ठहराके श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज पर छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करने का दोष ( कलङ्क ) लगादिया और पर्युषणा, कल्याणक, सामायिकके विषयो में भी शास्त्र प्रमाणोंको उत्थापतेहुए कितनेही उत्सूत्र लिखके कुयुक्तियों से भद्रजीवोंको उन्मार्गके भ्रम में गेरनेके लिये अपनी बुद्धिको चातुराई खर्च करने में किसी तरहसे न्यून्पता न करके श्रीमद्यशोविजयजीको कथन करीहुई उपरोक्त गाथाको सार्थक करी तथा श्रीजिनवल्लभसूरिजी को झूठा दोष लगाया सो ऐसे कर्तव्योंसे प्रत्यक्षपने दीर्घ संसारीपके लक्षण मालूम होते हैं तिस पर भी शास्त्रप्रभाणको उत्थापकर उत्सूत्रों से कुयु क्रियों करके मिथ्यात्वका कारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३७ ] करनेवालोको भी हमतो सम्यकत्व शल्योद्धारके जैसे लोक विरुद्ध अनुचित शब्दोंको लिखने अच्छे नहीं समझते हैं। ___ और 'आगमोक्तः षष्ट कल्याणकः' यह वाक्य ऊपरके पाठमें विद्यमान है याने श्रीकल्पसूत्र तथा श्रीआचारांगजीसूत्र और श्रीस्थानांगजीसूत्र वगैरह शास्त्रों में छठे कल्याणकका प्रत्यक्षपने कथन किया हुआ है ( इसके प्रमाणमें इसी विषयकी आदिमेंही अनेक शास्त्रोंके प्रमाण मूलपाठ सहित छप चुके हैं ) तिसपर भी न्यायांभोनिधिजीने अपना कल्पित पाखण्ड जमानेके लिये ( यह छठा कल्याणक नवीन कथन किया तो फिर किस वास्ते सिद्धान्तका झूठा नाम लेकर लोगोंको भ्रममें गेरते हो ) इस तरहका लिखकर नवीन छठे कल्याणकको प्ररूपणा करनेका ठहराया और छठे कल्याणककी सिद्धि सम्बन्धी जो जो शास्त्रोंके पाठ “शुद्ध समाचारी प्रकाश" नामा पुस्तकमें, दिखाये गये थे उन शास्त्र पाठोंको लोगोंको भ्रममें गेरने वाले जूठे ठहराये सोतो खास आपही निजमें उन शास्त्रपाठोंको उत्थापन करके उत्सूत्रभाषणसे कुयुक्तियोंके विभ्रममें भोले जीवोंको भ्रमाने वाले बने है नतु 'शुद्ध समाचारी प्रकाश' वाले क्योंकि उन्होंने तो जो जो पाठ छठे कल्याणककी सिद्धि के लिये लिखे हैं सो सब सत्य है परन्तु छठे कल्याणकको निषेध करने वालेही श्रीजिनाज्ञाके विराधक बनते हैं सोतो इस ग्रन्थको वांचनेवाले विवेकी तत्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेगें और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीने लिखा है कि (पृष्ठ पंक्ति में तपगच्छीय एक कुलमण्डनमूरिजीका जो उदाहरण दिया है सोतो तुमारे वडोकाही अनुकरण किया है। पूर्व पक्ष ॥ श्रीकुलमण्डनसूरिजीने अनुकरणही किया है यह कैसे हमजान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३८ ] लेवे ॥ उत्तर ॥ हे मित्र इतनातो विचार करणा चाहिये कि, जब पहिले श्रीजिनवल्लभसूरिजीने सभी आचार्यों से निरपेक्ष होके नवीनही छठे कल्याणकको दिखाया तो फिर काहेको तर्क करते हो) इस तरहसे लिखकर जो शुद्ध समाचारी प्रकाशकी पुस्तकमें छ कल्याणकाधिकारे पृष्ट ८८८ में श्रीतपगच्छके श्रीकुलमन्डन सूरिजी कृत श्रीकल्पावचूरि ग्रन्थका पाठ दिखाया (तथा और भी कितनेही शास्त्र प्रमाणोंसे छठे कल्याणकको सिद्ध करके दिखाया) जिसपर न्यायांभोनिधिजीने अपने पूर्वज श्रीकुलमण्डन सूरिजीने छठे कल्याणकको अपने बनाये ग्रन्थमें लिखा उसको अपने पूर्वजका वाक्य मान्य करना तो दूर रहा परन्तु विशेषतासे उसका निषेध करनेके लिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजका अनुकरण करनेका श्रीकुलमण्डनसूरिजी पर आक्षेप लिखकर छठे कल्याणकके प्रमाण करनेकी बातको उड़ा दिया सो तो प्रत्यक्ष मायाचारीकी ठगाईका कारण है, क्योंकि जो शास्त्रानुसार सत्य बातका कथन होवे-उसके कथन करनेमे तो सब कोई अनुकरण करते हैं। देखो श्रीतीर्थंकर महाराजके कथनका अनुकरण श्री गणधर महाराज तथा पूर्वधर पूर्वाचार्यादि सभी परम्परागमसे-निजपरके आत्म कल्याणके लिये एक एकका अनुकरण करते आये हैं तथा ऐसेही चलता है सोही चलेगा परन्तु अविसंवादी जैनप्रवचनमें अन्यमतियोंकी तरह एक एकके विरुद्ध मनमानी गप्पोंकी बातें लिखनेका तो आत्मार्थी जैनाचार्यो में कदापि नहीं हो सकता है इसलिये-जैसे श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंने छ.कल्याणकोंकी प्ररूपणा मूल आगमोंने कपन करी तैसेही श्रीपूर्वाधाोंने भी आगमोंको व्याख्याओंमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३९ ] लिखा उसीके अनुसारसे श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने भी छ कल्याणकोंकी प्ररूपणा करी तो यदि इसबातमें इन महाराज का आपके कहने मुजब आपके पूर्वजने अनुकरण किया भी मान लिया जावे तो भी आपकी कल्पनासे अनुकरणके बहाने आप छठे कल्याणकका निषेध करना चाहते हो तो न्यायानुसार तो कदापि नहीं हो सकता है। और हमारी समज मुजब तो अनुकरण करने सम्बन्धी आपका लिखना भद्रजीवोंको भ्रमाननेवाला मायात्तिका ठहरता है क्योंकि हमारे पूर्वाचार्योने तो आगमानुसार अधिकमासकी गिनती वगैरह अनेक बातोंको मान्यकरके अपने बनाये ग्रन्थों में लिखी है सो जो तुम्हारे पूर्वजने हमारे पूर्वजका अनुकरण किया होता तो अधिक मासकी गिनती वगैरह जो जो बाते हमारे पूर्वजोंने मानी सो सो बातें तुम्हारे पूर्वज भी मान लेते, तबतो तुम्हारा अनुकरणका लिखना ठीक हो सकता परन्तु तुम्हारे पूर्वजने वैसा तो किया नहीं और कोई कोई बातमें अपने पूर्वाचार्य मानते होगे सो वैसा किया तो प्रत्यक्ष मालूम होता है इसीलिये हमारे पूर्वाचार्यका अनुकरण न करते अपनेको अच्छालगा वैसा कुलमण्डनमूरिजीने अपनेग्रन्थमें लिख दिया होगा सो छ कल्याणक अपनेको उचित लगे होंगे तबी लिखे और अधिक मासको गिनातीमें लेना आगमानुसार है सोही खास श्रीकुलमण्डनसूरिजीने भी अधिक मासकी गिनतीसे १३ मासोंके अर्थवाला अभिवद्धितसम्बत्सर लिखा होनेपर भी पूर्वापर विरोधका और आगमोंके प्रत्यक्ष प्रमाणोंके उत्थापनका विचार न करके उसकी गिनती करनेका निषेध करनेके लिये “विधारामृत संग्रह" नामाग्रंथ, खब कोशिश करी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४० ] अब विचार करना चाहिये कि हमारे पूर्वजका अनुकरण आपके पूर्वज करते तो अधिक मासकी गिनती निषेध कदापि न करते परन्तु, करी इससे भी सिद्ध होता है कि अनुकरण नहीं किया किन्तु अपना रुचा किया है इसलिये अनुकरणके बहाने मायाचारीसे छठे कल्याणककी सिद्धिकी बातको उड़ाना चाहा सो प्रत्यक्ष मिथ्या ठहर गया इससे छठे कल्याणकका निषेध करना छोड़ कर अपने पूर्वजके लिखे मुजब छठे कल्याणकको मान्य करो तो अच्छा है और श्रीकुलमण्डनसूरिजीने छ कल्याणक लिखे परन्तु उसको तुम्हारे किसी भी पूर्वाचार्य ने निषेध न किया तथा उस ग्रन्थको अप्रमाणभी न ठहराया इससे भी सिद्ध होता है कि कुल मण्डन सूरिजीके समयमें तुम्हारे सबी पूर्वज तथा कुलमण्डनसूरिजीके पूर्वज पूर्वाचार्य सबी छ कल्याणक मानने वाले थे अन्यथा कोई भी उसका निषेध अवश्य करते सो न किया ॥ तथा यह बात तो स्वयं सिद्धही है, कि हरेक गच्छके आचार्यादि जो कोई विवेक बुद्धिवाले श्रीकल्पसूत्रादि शास्त्रोंके प्रत्यक्ष पाठोंका अर्थको समजने वाले कदाग्रह रहित होंगे सोतो सभी छ कल्याणक मान्य करेंगे क्योंकि शास्त्रों में बहुत जगहोंपर खुलासा लिखा है।तथा वस्तु, स्थान, कल्याणक, तीनों शब्द पर्याय वाची एक अर्थको कथन करने वाले हैं इसलिये कुल मण्डन सूरिजीके पूर्वाचार्य तथा उनके समयमें वर्तमानिक तपगच्छके समुदाय वाले आचार्यादि सबी छ कल्याणक मानते होवे उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है अतएव न्यायांभोनिधिजीकी साधुमंडलीसे तथा श्रीतपगच्छके समुदायसे मेरा यही कहना है कि जब श्रीतीर्थंकर गणधर महाराजोके कथन किये हुए छ कल्याणकोंकोतपगच्छके खरतरगच्छकेवगैरहसभी आत्मार्थी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ६४१ । शास्त्रपाठोंके तात्पर्यार्थ को, याने-सिद्धान्तके रहस्यको जानने वाले सबी आचार्यादि छ कल्याणक मानते आये तैसेही तपगच्छके कुलमंटनसूरिजी वगैरहोंने भी छ कल्याणक लिखे सो एक एकके अनुकरण मुजब कथन करना सो तो पम्परा. गम कहा जाता है इसलिये आप लोगोंकों भी छ कल्याणकके निषेध करनेकी कुयुक्तियों करनेके हटवादको छोड़कर उत्सूत्रप्ररूप्रणाके पापसे बचने के लिये शास्त्रानुसार आपके पूर्वजोंके कथन मुजब छ कल्याणक मान्य करने चाहिये जिससे शास्त्र पाठोंके उत्थापनके तथा पूर्वाचार्यो की अवज्ञाके दूषणसे संसार वृद्धिके कारणका वचाव होकर निजपरके आत्म कल्याणमें उद्यम करनेका अवसर मिले और उसकी सफलता प्राप्त होनेका कारण आपके बने आगे आपकी इच्छा। . और ऊपरके लेखमें अनुकरण करनेका लिखके पूर्व पक्ष उठाकर उसके उत्तरमें श्रीजिनवल्लभसूरिजोपर आक्षेप करके वोही आक्षेपकी बात अपने पूर्वजपर गेरनेका लिखा सो तो ऊपरकेले खसे न्यायांभोनिधिजीकी अज्ञानताके परदोंके सबभेदको पाठक गण स्वयं समज सकेंगे क्योंकि श्रीजिनवल्लभसूरिजीका सत्यवातमें शास्त्रानुसार कथनका अनुकरण श्रीकुलमण्डनसूरिजीने किया सो शास्त्रानुसार सत्यबात इन्होंसे मंजूर न होसकी उससे कुविकल्प उठाकर भद्र जीवोंको भी भरमाये और पूर्वपक्ष उठाना भी मायातिकी अज्ञानताका सूचक है क्योंकि खरतर गच्छवाले ऐसा पूर्वपक्ष कदापि नहीं उठा सकते हैं इसलिये पूर्वपक्षका उठाना और उसका उत्तरमें मनमाना जटपटाङ्ग गप्प लिखना सब व्यर्थ है। ___और आपके पूर्वज सम्बन्धी अब मेरा तो इतनाही कहना है कि चाहेतो हमारे बड़े पूर्वज श्रीजिनवल्लभसूरिजीके शास्त्रोक्त छ ८१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४२ ] कल्याणकके सत्य कथनका अनुकरण करके आपके बड़े पूर्वज श्रीकुलमण्डनसूरिजीने अपने बनाये ग्रन्थ में छ कल्याणक लिखे ऐसा आप मानो, या अपनी रुची मुजब छ कल्याणक लिखे मानो, वा अपने तपगच्छके पूर्वाचार्यों के माने मुजब परम्परागमसे लिखे मानों अथवा इस बातमें श्रीजिनवाणीको मान्य करके आगम प्रमाणानुसार छ कल्याणक लिखे मानो सो चाहे जिस तरहसे मान्य करो यह तो आपकी खुशीकी बात है परन्तु शास्त्रानुसार छ कल्याणक थे सोही आपके पूर्वजने लिखे है इसलिये श्रीकुलमण्डनसूरिजीके छ कल्याणक लिखने सम्बन्धी इस सत्य कथनको जो तुम्हारेमें भी शास्त्रप्रमाणानुसार सत्य बातको प्रमाण करनेरूप आत्मार्थीपना होतो युक्ति पूर्वक न्यायानुसार शास्त्र सम्मत छ कल्याणकोंकी सत्य बातको मान्य करनीही पड़ेगी, न्याय मुजब तो किसी तरहसे आप इस बातको कदापि निषेध नहीं कर सकते, तिस पर भी अपनी खोटी बुद्धिके उदयसे श्रीजिनवाणीरूप आगम वचनके छ कल्याणकोंको न मानकर उत्सूत्रोंकी कुयुक्तियोंके विकल्पोंसे इस सत्य कथनका भी निषेध करनेके लिये अभिनिवेशिकका कदाग्रहको न छोड़ते हुए श्रीजिनवल्लभसूरिजीका अनुकरणकाही बहाना लेकर श्रीकुलमण्डनमूरिजीको भी उसी मुजब दोषी मान बैठों, तो अपनी गुरु परम्परासे इनका नाम निकाल दो क्योंकि आपकी खोटी बुद्धिकी समझ मुजब तो आप श्रीजिनवल्लभसूरिजीको सब पूर्वाचार्यो को अज्ञानी ठहराने वाले तथा खंभा ठोककर जबराईसे उत्सूत्ररूप नवीन छ कल्याणककी प्ररूपणा करने वाले आप मानते हो और फिर भी आप इन महाराजकाही अनुकरण करनेवाले अपने पूर्वज श्रीकुलमण्डनसूरिजीको भी कहते हो इससे तो आपके पूर्वज भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४३ ] आपके पूर्वाचार्यों को तथा अन्य सब पूर्वाचार्यों को अज्ञानी ठहरानेवाले व उत्सूत्ररूप छ कल्याणक लिखनेवाले आपके लेखसे ठहरगये, तो अब यहां पर विचारने की बात है, कि सब पूर्वाचार्यो को अज्ञानो ठहरानेवाले तथा उत्सूत्रलिखनेवाले कुलमण्डनसूरिजीको न्यायां भोनिधिजीकी मंडलीवाले विद्वान्जन अपनीगुरु परम्परामें कदापि रहने देवे यह तो नहीं बन सकता इसलिये अब विद्वानोंके आगे हास्य जनक अपनी कुबुद्धिकी ऐसी ऐसी कुयुक्तियें करना छोड़ कर, या तो शास्त्रानुसार छ कल्याणक मान्य करो या कुलमंडनसूरिजीको अपनी गुरु परम्परासे निकालो । और अपनी समझ मुजब अपने लिखे लेखसे हो अपने पूर्वज, सब पूर्वाचार्यो की आशातना करने वाले उत्सूत्र के दोषी ठहर जावें तिसपर भी उनको अपने बड़े पूर्वज गुरुपनेमें मानते हैं सोभी बड़ी शर्म की बात है और यदि इन महाराजको अपने पूर्वज गुरु उत्तम पुरुष पने में मान्य रखो तो इनपर ऐसा बड़ा भारी दोष लगानेका आक्षेप लिखा सो उनका प्रगटपने मिच्छामि दुक्कड़ देकर छ कल्याणककी सत्यबातको मान्य करलो, अन्यथा छ कल्याणक भी मान्य न करोगे और अपने पूर्वजको हमारे पूर्वजका अनुकरण करनेवालेभी कहोगे तबतो 'ममजननी वंध्यावत्' को तरह विवेकी सज्जनोंके आगे आपका लिखना बाल लीलाका ख्याल मुजब आत्मार्थियों को प्रत्यक्षपने स्वयं ही त्यागने योग्य मालूम हो जावेगा, और इन महाराजको अपनी गुरु परम्पराका समुदायसे निकालना मान्य करो तो 'जैनतत्वादर्श' वगैरह पुस्तकों में इनको उत्तम पुरुषपने में मान्य करके लिखा है जिसका सुधारा सम्बन्धी वर्तमानिक पत्रोंद्वारा जाहिर खबर ( नोटिस ) निकालना पड़ेगा और इन महाराज संबंधी ऐसा करने में भी मदीसे समुद्र में गिरने जैसी विड Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४४ ] म्वना होगी अर्थात् जैसे ढूंढियोंने तो अपना कदाग्रह अमाकर अपना अलग नवीन मत निकालने के लिये जिनप्रतिमाको तथा पञ्चाङ्गरूप जिनवाणीको और पूर्वधरादि सब पूर्वाचार्यों को मानना उठा दिया, तैसेही आप लोगोंको भी अपना कदाग्रह जमानेके लिये उनसे भी अधिक करना पड़ेगा याने श्री ऋषभदेवजी आदि २३ तीर्थंकर महाराजोंने तथा गणधरोंने और पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों ने मूल सूत्रादि पञ्चांगीके अनेक शास्त्रों में छ कल्याणक कथन किये है और आप लोग छ कल्याणकोंका मानना उठाते हो इससे छ कल्याणकके कथन करने वालोंकों भी नहीं मानने अप्रमाण ठहरानेकी आपत्ति आती है, इसको खूब दीर्घ दृष्टिसे विवेक बुद्धि पूर्वक विचार करके छ कल्याणकों को नहीं माननेका कदाग्रह छोड़ो, नहीं तो इनके निषेधसे इनके कथन कर्ताओं को प्रमाण मानने का उठ जानेसे इन महाराजोंके विरुद्ध कदाग्रह जमानेके मिथ्यात्व के बड़े ही दोषके बोझेसे कदापि दूर नहीं होसकोगे इस लिये यदि मिथ्यात्व से संचार भ्रमणका भय लगता हो तो छ कल्याणकोंको मान्य करो और निषेध के लिये जो जो अनर्थ किये जिसकी आलोचनासे आत्मशुद्ध करके भव्य जीवों को शुद्धमार्गका दर्शाव पूर्वक निजपरका आत्म कल्याण करो आगे इच्छा आपकी है । और आगे फिर भी लिखा कि ( हे मित्र जब इस छटेकल्याकी आपको जडता सिटुकर दिखाईतो फिर आपका जितना प्रयाश है सोतो स्वतः ही व्यर्थ है ) न्यायांभोनिधिजीके इन अक्षरों पर भी मेरेको इतना ही कहना है कि छठे कल्याणककी तो अडता कदापि सिद्ध नहीं हो सकती है परन्तु श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजों की कथनकरी हुई छठे कल्याणककी सत्यवातको जडता कहनेवाले न्यायांभोनिधिजी वगैरह किसीको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४५ ] श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंकी तथा अपने पूर्वाधार्यो की आशातना करतेहुए गच्छकदाग्रहके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके उदयसे दीर्घसंसार और दुल भबोधिपनेका कारण करने जैसा महान् अनर्थ करते हुए लज्जा भी नहीं आई हा अतीवखेद ? खेद ? महा खेद ?? जो विद्वत्ताके अभिमान रूपी अजीर्णतासे श्रीतीर्थंकर महाराजोंकी कथन करीहुई आगमोक्त छठे कल्याणककी सत्यबातको अन्तरगाढमिथ्यात्वीके सिवाय तो जडता कोई भी जैनी नाम धरानेवाले भी कदापि न कहेगे इसबातको पक्षपात छोडकर तत्वदूष्टिसे अच्छीतरहसे विचारनी चाहिये। और श्रीजिनाज्ञाभिलाषी सत्यग्राही विवेकी सज्जनोंसे मेरा यही कहना है कि "स्कंधास्फालन पूर्वक साधितः” तथा “यो न शेष सूरीणां" इत्यादि इन दोनों वाक्योंपर न्यायां भोनिधिजीको कुविकल्प उठा उससे उलटा अर्थ लिख कर भद्रजीवोंको भ्रममें गेरे जिसका निर्णय उपरमें हमने शास्त्रकारोंके अभिप्राय सहित पूर्वापर पाठ सम्बंधी भावार्थ सहित उन्होंकी कुयुक्ति और अन्यायके लेखकी समीक्षा करके अच्छी तरहसे खुलासालिखदियाहै जिससे जो अब आत्मार्थीहोगा सोतो व्यर्थ अन्यायके आग्रहमें न पडकर, अपनी अंधपरंपराकी कुश्रद्धाके भ्रमको त्याग करने में कदापि बिलंब न करेगा परन्तु गाढ अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी दीर्घ संसारी जैनी नामधारी इहलोककी पूज्यता मान्यता शोभादृष्टिरागके गाढबन्धनसे बन्धेहुए होंगे सो सत्यबातग्रहण करनेके बदले भद्रजीवोंको कुयुक्तियोंसे विशेष म भ्रमावेतो भी बहुत अच्छा होवेगा। भद्रजीवोंके कर्म बंधनके हेतु न होंगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४६ ] अब श्रीजिनेश्वर भगवानको आज्ञाके आराधन करनेवाले निष्पक्षपाती सत्यग्राही आत्मार्थी सज्जन पाठक गणको विशेष रूपसे ऊपर की बात में निसंदेह होनेके लिये तथा बहुत काल से विवेकशून्यता की अंधपरम्पराके गड्डरीह प्रवाहकी तरह कदाग्रहियों का मिथ्याभ्रम निवारण करनेके लिये इस अवसर पर मैंरी तरफ से प्रगटपने प्रकाशित करके कहने में आता है, कि श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने तो उस समय एक चीतोड नगर में रहने वाले चैत्यवासियोंको शास्त्रोके रहस्यको न जानने वाले अज्ञानी ठहराकरके स्कंधास्फालन पूर्वक शास्त्रानुसार छ कल्याणक तथा चैत्यकी विधि और साधुकीशुद्धक्रिया व्यवहार वगैरह बातें सबकेसामने भव्यजीवोंको श्रीजिनाज्ञाकी प्राप्ति केलिये प्रकाशित (प्रगट) करोथी परन्तु मैं तो अधी इस लेख छापे द्वारा सब ग्राम नगर शहरोंमें श्रीतपगच्छके श्रीपज्य, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, पन्यास, गणि, पण्डित, शास्त्रविशारदजैनाचार्य, जैनरत्न, न्यायतीर्थ, न्यायरत्न, जैनधर्मोपदेष्टा, वगैरह पदधर विद्वान् मण्डलीको तथा सामान्यता से सब साधु यति श्रावक-सभा मण्डलादि सबको उद्घोषणारूप सूचना से ( एकदेशीयदृष्टांता से डंके की चोट, नगारा बजवातेहुए ) मालूम कराता हूं, कि प्रथम तोजैसे श्रीपञ्चपरमेष्टिमन्त्रकी ४ चूलिका, श्रीआचारांगजी सूत्रके तथा श्रीदशवेकालिकसूत्र के ऊपर दो दो अध्ययनरूप दो दो चूलिका और लक्ष योजनके सुमेरूपर ४० योजनके शिखरको तथा अन्य हरेक पर्वतों व देवमन्दिरोंके शिखरोंको चूलिकायें कही, तैसेहीचन्द्रसम्बत्सर के १२ महिनो ऊपर तेरहवे अधिक महिनेको भी उत्तम श्रेष्टतारूप चलिकाकी ओपमा देकर उसको जैन शास्त्रों में श्रीअनन्ततीर्थंङ्कर गणधरादि महाराजने गिनतीनें लेनेका कहके ९३ महिनोंका अभिवर्द्धितसम्बत्सर कहा है उसके अनुसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४७ ] वर्तमानमें भी देशकालानुसार मानने में आता है उससे लौकिक पञ्चांगमें दो श्रावण या दो भाद्रपद होवे तब भी आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने दूसरे प्रावणमें या प्रथम भाद्रमें श्रीपर्युषणा पर्वका आराधन श्रीकल्पसूत्रके तथा उसकी अनेक टीकाओंके आधारसे पूर्वाचार्यों को आज्ञा मुजब आत्मार्थी करते हैं; तथा (दुसरा) श्रावकके सामायिक करने सम्बन्धी सब शास्त्रों में पहले करेमिभन्तेका उच्चारण करे बाद पीछेसे इरियावहीकी क्रिया करके स्वाध्याय करना कहा है, और (तीसरा) शासननायक श्रीवर्द्धमान स्वामीजीके छ कल्याणक श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वाधरादि पूर्वाचार्यो'ने मूल आगमादि पञ्चांगीके अनेक शास्त्रों में कथन किये हैं। जिसपरभी इनऊपरकीबातों सम्बंधी शास्त्रोंके प्रत्यक्ष पाठोंके अक्षरोंका भावार्थको सद्गुरुसे या विवेकबुद्धिसे-वांचे सुने, विचारे, बिनाही गड्डरीय प्रवाहकी तरह विवेक शून्यताकी अन्धपरम्परासे ऊपरकी बातोंको निषेध करके । प्रथम । काल चूला वगैरह के बहानोंसे (अधिक मासके ३० दिनों में धर्म कार्यका व्यवहार करकेभी) श्रीअनन्ततीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्यो केकथन किये हुए मूल आगमादि पञ्चांगीके अधिक मासगिनतीमें प्रमाण करने सम्बन्धी अनेक शास्त्रोंके पाठोंका उत्थापन करके उसको गिनतीमें नहीं लेनेका ठहराते हुए लौकिक पञ्चांगमें दो श्रावणहोनेसे प्रगटपने शास्त्र विरुद्ध भाद्रपदमें ८०दिने या दोभाद्र पद होनेसे दूसरे भाद्रमें ८०दिने पर्युषणा करने वाले, तथा (दुसरा) श्रीमहानिशीथसूत्रके तीसरे अध्ययनका चैत्यवंदन उपधान सम्बन्धी पाठको, और श्रीदशवैकालिकसूत्रकी दूसरी चलिकाके साधुको गमनागमनसे इरियावही पूर्वक स्वाध्याय करने सम्बन्धी पाठको, आगे करके श्रावकके सामायिक पहिले इरियावही पीछे करेमिभन्तेको स्थापन करते हुए, श्रीआवश्यक चूणि, रह www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४८ । इत्ति लघुत्ति, भीमवपदप्रकरणत्ति, श्रीयोगशास्त्रवत्ति वगैरह शास्त्रोंने पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों ने श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महा. राजोंकी भाव परम्परानुसार श्रावकके सामायिक, पहिले करेमिभन्त पीछे इरियावही करना कहा है, जिसको निषेध करने वाले, और (तीसरा) श्रीपञ्चाशकजीमें सर्वतीर्थङ्करमहाराजोंसम्बंधी सामान्यताके पाठका तात्पर्यार्थको समजे बिना उस सामान्यताके पाठको आगेकरके, फिर-वस्तु,स्थान आश्चर्यके, बहाने श्रीकल्पसूत्रादि अनेक शास्त्रों में श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने एक श्रीवर्द्धमान स्वामी संबन्धी खास विशेषताकेपाठमें श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकोंका कथन कियाहुआ होनेपरभी इसकानिषेध करने के लिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजपर नवीनछठे कल्याणककी प्ररूपणा करनेकाजूठा दोष लगाने वाले, इन उपरोक्त विषयों सम्बंधी उन शास्त्रोंके रहस्यको न जाननेवाले अज्ञानी उत्सूत्र भाषण करके श्रीजिनाज्ञाकीविराधनाकरतेहुए कुयुक्तियोंके खोट आलम्बनोंसे भद्रजीवोंको उन्मार्गके मिथ्यात्वमें गेरने वाले बनते हैं तथा उपरोक्त बातों संबन्धी उपरोक्तादि शास्त्रोंके पाठोंको जपरकी बातोंके निषेध करने वालोके देखने में और सुनने में भी नहीं आये होगें ऐसा समझना चाहिये सोतो निष्पक्षपात पूर्वक विवेक बुद्धिसे इस ग्रन्थको पूरा बांचने वाले आत्मार्थी सत्यग्राही तत्वज्ञ जन अच्छी तरहसे समझ लेंगे, तिसपर भी उपरोक्त बातों सम्बन्धी किसीके दिलमें अपने माने मंतव्य मुजब साबुत करनेकी बहादुरीकी होंस होवे तो अन्यान्य विषयोंकी आडलेनेका और ढूढक तेरहपंथियों जैसी रांड नपुतीकी तरह व्यर्थ शिरपची कर्मबंधकी लड़ाइका कारण न करते, झूठे पक्षका अभिमानको छोड़कर सत्य बातको ग्रहण करनेकी अभिलाषा धारण करके, मैरेसे वर्तमानिक छापों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४९ ] द्वारा, या-पत्र व्यवहार द्वारा, वा-बड़े शहर में सुप्रसिद्ध अन्य मध्यस्थ पण्डितोंके समक्ष धर्मशास्त्रोंके और सरकारी न्यायालयके नियमों मुजब वादानुवाद करके सत्यासत्यके निर्णय करनेको सामने आवे, नहीं तो अंधपरंपराके झूठे कदाग्रहके हठवादको छोड़कर शास्त्रानुसार सत्यबात ग्रहण करें और दूसरोंको भी ग्रहण करावे जिससे वर्तमानिक विसंवादसे जूदी जूदो प्ररूपणाका कदाग्रहको देखकर भद्रजीव भ्रममें पड़कर पीजिनाज्ञाकी विराधना करते हुए मिथ्यात्वमें गिरते हैं और आपस्का विरोधते कर्म बन्धनके हेतु, शासन्नीनतिके कार्यो में विघ्न और अन्यमतियोंमें हास्यका कारण वगैरह बड़े बड़े भयंकर नुकशान हो रहे हैं उसके निवारणका अनंत लाभको प्राप्त करे यही अपने और दूसरों के श्रेयका कारण है। शंका-अजी आपने ऊपरमें-छ कल्याणक, अधिक मास, और सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावहीका निषेध करने वाले श्रोतपगच्छके वर्तमानिक समुदायके, श्रीकल्पसूत्र श्रीआवश्यक चूर्णि वगैरह शास्त्रपाठोंको देखने में और सुनने में भी नहीं आनेका लिखा, तथा-ऊपरकी टीकाके पाठमें भी “लोचनपथेऽपि दृष्टिमार्ग आस्तां अतिपथे न व्रजति याति" ऐसा कहके बड़े बड़े विद्वान् चैत्यवासी आचार्यो के-षष्ठ कल्याणक, चैत्यविधि तथा अधिकमास और साधुको शुद्धक्रिया व्यवहार सम्बन्धी श्रीकल्पसूत्रादि शास्त्रों के प्रगट पाठों को देखने में आना तो दूर रहा परन्तु सुनने में भी नहीं आये, ऐसा कहा सो कैसे मानाजावे क्योंकि श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक सम्बन्धी श्रीकल्पसूत्रका पाठतो श्रीतपगच्छ वाले भी प्राय सब कोई यतिसाधु वगैरह हरवर्षे श्रीपर्युषणापर्व में वांचते हैं तथा सामायिक सम्बन्धी और अधिकमास सम्बन्धी भी श्रीआवश्यक चणि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५० ] वगैरह शास्त्रोंके पाठ प्रसिद्ध हैं और चैत्यवासी लोग भी श्रीकल्पसूत्रको तो हरवर्षे वांचते थे तथा कितनेही विद्वान् चैत्यवासी आचार्यादि अन्य भी जैनशास्त्रोंके तो पूरे पूरे ज्ञाता सुनने में आते हैं इसलिये आपका और टीका कारका उपरोक्त लिखना मिथ्या मालूम होता है । समाधान - भोदेवानुप्रिय ? अतोव गहनाशययुक्त नयगर्भित अपेक्षा संबंधी श्रीजैनप्रवचनको शैलोको गुरु गम्यतासे या विवेक बुद्धिसे जाने बिना, उपरके मेरे लेखका तथा ढोकाकार के वाक्यका अभिप्रायको समझे बिना शङ्का करके बनने दोनों लेखोंको अपनी अज्ञानता से मिथ्या कह दिये परन्तु ऊपर दोनों लेख सत्य होनेसे मिथ्या नहीं हो सकते हैं क्योंकि देते, वैसे-श्रं वीरविजयजने श्री सिद्धाचलजी के स्तवन में " को डिसहस भवपातिक त्रुटे शेत्रुंजय साहामो डग भरिये, विमल गिरि जात्रा नवाया करिये" तथा " पापी अपव्य नजरे न देखे, हिंसक पण उद्धरिये, विमल गिरि जात्रा नवाणु, करिये” सो इन दोनों गाथाओंमें श्रीसिद्धाचल जीके सामने जाने वालेके हजारकोडो भवोंके पाप कटते हैं और पापात्माप्राणी तथा अभव्य प्राणी इस तीर्थको नजर ( आंख ) सेभी नहीं देखसके, इस तरह कथन किया परन्तु वहां तो श्री पालीताणादिमें रहनेवाले भाट तथा डोली वाले वगैरह आजीविकादि अपने इस लोकके स्वार्थकेलिये (तीर्थकी आशा तनासे दीर्घ संसारका कारण करते हुए भी) श्रीसिद्धाचलजीके पहाड़ ऊपर बहुत आदमियोंको जाते हुए अपने पत्र कोई प्रत्यक्षपने देखते हैं तो क्या श्रीवीरविजयजीके पढ्ने मुजब उनलोगोंके हजारकोडी भवोंके पापकटनेका आपलोग मानोंगे सोतो नहीं, और इस तीर्थके आसपास के ग्राम नगरों में रहनेवाले कसाई मले व्यादि सभी हिंसक पापी जीव, इस तीर्थको अपनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५९ ] नजरों (आंखों) से प्रत्यक्षपने देखते हैं तथा घास काष्टादिलानेको खास पहाड़पर भी जाते हैं तो क्या श्रीवीरविजयजी के उपरोक्त स्तवनमें कथन किये हुए वाक्यको आपलोग झूठा मानोगे सो भी नहीं, किन्तु यहां तो भावसहितयात्रा करनेके लिये गिरिराज तरफ चलनेवालेके हजारकोडी भवोंके पापकटने सम्बन्धी तथा अन्तर के ज्ञानचक्षुसे पापी और अभव्य इस तीर्थ को न देखसके, याने भाव सहित दर्शन नहीं करे। ऐसा तात्पर्यार्थ उपर के स्तवन बनानेवालेका समझना चाहिये, तैसेही उपरोक्त टीकाकार के वाक्य में तथा मेरे लेखमें भी उपरोक्त बातों सम्बन्धी उपरोक्तादि शास्त्रपाठोंके सम्बन्धमें गुरुगम्यताका अनुभवकी विवेक बुद्धिसे उन शास्त्रकारों के मुख्य तात्पर्यार्थके रहस्यको भाव पूर्वक समझने का समझना चाहिये, नतु उपयोग शुन्यताकी अज्ञानता पूर्वक द्रव्यसे अक्षरमात्र वांचने वालों सम्बन्धी क्योंकि द्रव्यसे अक्षरमात्र तो छ कल्याणक चैत्यकीविधि सामायिक में प्रथम करे मिभंते पीछे इरियावही और अधिक मास गिनती में प्रमाण करने वगैरह बातों सम्बन्धी, श्रीकल्पसूत्र श्रीचन्द्र प्रज्ञप्ति श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति श्रोनिशीथचूर्णि श्री आवश्यकचर्णि वगैरह शास्त्रोंके पाठोंको वांचने वाले सुनने वाले वे चैत्यवासी लोग थे परन्तु भावसे उपयोग पूर्वक वांचकर उनके भावार्थको ग्रहण करके उसी मुजब श्रद्धासे वर्ताव करने वाले नही थे, वैसेही वोही बात वर्तमानकाल में श्रीतपगच्छकी कितनीक कदाग्रही समुदायमें देखने में आती है क्योंकि ये लोग भी द्रव्यसे तो "तेण कालेण तेण' समयेण समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे हुत्था, साइणा परिनिव्वुड़े " इस तरह श्रीमहावीर स्वामीके छ कल्याणक सम्बन्धी श्रीकल्पसूत्र के खास मूल पाठको हरवर्ष पर्युषणापर्व में वांचते हैं तथा श्रीनिशीथच र्णि श्रीआवश्यकच णि वगैरह के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! ६५२ ] शास्त्रपाठोंको (कालच ला रूप अधिकमास गिनती में प्रमाण तथा सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही सम्बन्धी) वांचते हैं और सुनते भी हैं परन्तु भावसे उपयोग पूर्वक वैसो श्रद्धा करके वैसाही उपदेश,और उसी मूजब वर्ताव नहीं करते इस लिये उपरोक्त बातों सम्बन्धी उपरोक्तादिशास्त्रोंके पाठोंको देखने वांचने सुनने भी नहीं आये जैसे हैं इसलिये उपरमें मेरे लिखे वाक्य तथा टीकाकारके कथन किये हुए वाक्य सत्य है उससे अपनी अज्ञानतासे उसके रहस्यको समझे बिना किसीके कहनेसे मिथ्या नहीं हो सकते हैं। ओर कितनेही ढिये तथा तेरापन्थी लोग भी उपयोग मून्य द्रव्यसे तो श्रीरायप्रशेणी श्रीजीवाभिगमजी श्रीज्ञाताजी श्रीभगवतीजी वगैरह खास मूल सूत्रों के पाठोंके अक्षरकों तो बांचते हैं तथा सुनते हैं और लोगोंको भी सुनाते हैं उसमें श्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाओंको श्रीजिनसमान कथन करी है तथा उसको बंदन पूजन करना कहा है और उसके बन्दन पूजनके प्रत्यक्ष प्रमाण भी उन मूत्रों में मौजूद है सोई सूत्र पाठ वे दढिये और तेरापंथी लोगभी बांचते हैं तिसपरभी उन दढिये, तेरेपन्धियोंकी उस .बातमें भावसे शुद्धश्रद्धा और प्ररूपणा नहीं किन्तु विशेष मिथ्यात्वके उदयसे कुयुक्तियोके झूठे आलम्बनोंसे मूत्र पाठोंकोंथापन करके और उसका उलटा मन कल्पनाका झूठा अर्थ भद्रजीवोंको सुनाते हैं तथा द्रव्यसे साधुपनेकी आवकपनेकी प्रतिक्रमण, पडिलेहणा, तपश्चर्यादि भी करके अपने में जैनीपना मानते हैं परन्तुं श्रीजिनाज्ञाकी विराधना करके आगमोंको तथा उनकी व्याख्याओंको और पूर्वाचार्यों को उत्थापते हुए उन्होंकी और श्रीजिन प्रतिमाजीकी निन्दा करते हुए शास्त्र मर्यादासे विरुद्ध मम मानी बाल क्रिया अज्ञान कष्ट करते हैं इसलिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५३ ] उन्होंको श्रीजैनशास्त्रोंके नहीं जानने वाले अज्ञानी और जैनाभास कहते है परन्तु उन्होंको अपने लोग उन शास्त्रोंके ज्ञाता उनके बांचनेवाले और जैनोपने में नहीं गिनते हैं, सो इसीमुजब निन्हव भी हृदयसे भावपूर्वक साधुपनेको शास्त्रानुसार सब क्रिया करताहै तथा शास्त्रों को बांचनेवाला उन शास्त्रोंके ज्ञाता और पूर्ण वैराग्यमय शास्त्रोक्त उपदेश भी बहुत लोगोंको सुनाताहै तो भी शास्त्रकारों ने उनको असाधु अज्ञानी मिथ्यात्वी कहके उनका उपदेश सुननेको मनाई करो और उनको बंदन पूजन करना तो क्या परन्तु उनका मुंह देखना दर्शन मात्रभी बर्जन किया, है उसी तरहसे ऊपरके लेखमें, मैने तथा टीका कारने जो बाक्य कथन किये हैं सो भाव सहित उसी मुजब श्रद्धा प्ररूपणा वर्ताव नहीं करने वालों संबन्धी जानने चाहिये परन्तु द्रव्यसे बिनाश्रद्धाके अक्षर मात्रको बांचने वालों सम्बन्धी नहीं इस बातको विशेषतासे तो विवेकी पाठक गण स्वयं विचार लेवेंगे। और भी छ कल्याणक निषेध करनेके लिये न्यायांभोनिधिजीने अपने बनाये “जैन तत्वादर्श"के १२ वें परिच्छेदमें अपनी गुरुआवलीके संबन्ध मिथ्यात्वके उदयसे भद्रजीदोंको भरमानेके लिये मायारत्ति पूर्वक प्रत्यक्ष मिथ्या गप्प लिखा है उसका भी अब यहां इस अवसर पर निर्णय करना उचित समझ कर करता हूं सो प्रथम वारका छपा हिन्दी “जैन सत्वादशं"के पृष्ठ ५७३ की पंक्ति ८ से ११ तक ऐसा लिखा है "विक्रमसे (११३५) वर्ष पीछै, कोई कहता है ( ११३९) वर्ष पीछे नवांग त्ति करने वाला अभयदेवसूरि स्वर्गवास हुए तथा कुर्चपुर गच्छीय चैत्यवाशी जिनेवरसूरि शिष्य श्रीजिनवल्लभमूरिने चित्रकूटमें श्री महावीरके षट् कल्याणक प्ररूपे” न्यायांभो निधिजीके इस ऊपरके अज्ञानता वाले मायाचारीके प्रत्यक्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५४ ] मिथ्या लेखपर प्रथम तो मेरेको इतनाही कहना है कि न्यायांभोनिधिजीने अपनी गुरुआवलीके सम्बंध, श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी वगैरह प्रभावक पुरुषों का कथन करने में उन्होंके गच्छका और गुरुका नाम खुलासा लिखा है तैसेही श्रीनवांगी वृत्तिकार सुप्रसिद्ध श्रीअभयदेवसूरिजीके कथन करने में भी इन महाराजके गुरुका और गच्छका नाम भी अवश्य लिखना उचित था, सो न लिखा यह तो प्रगटही मायाचारीका कारण है क्योंकि यह महाराज श्रीखरतर गच्छमें हुए हैं, सो अहिलपुर पट्टणमें श्रीदुर्लभ राजाने श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजको खरतर विरुद दिया उसदिनसे इन महाराजकी समुदायवाले खरतर गच्छके कहलाये । सो इनमहाराजकेही शिष्य श्रीनवांगीतिकार श्रीअभय देवसूरिजी थे परन्तु इनमहाराजके वड़ेगुरुभाई श्रीजिनचन्द्र सूरिजी थे सो उन्होंको पोजिनेस्वरमूरिजीके पाटपर विराजमान किये थे और श्रीजिनचन्द्रमूरिजीके पाटपर यह श्रीनवांगी त्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज विराजमान हुए थे, और न्यायांभोनिधिजीने इसी जैनतत्वादर्श के पृष्ट ५७४ में खरतर गच्छसे द्वेषकरके प्रत्यक्षमिथ्या सं० १२०४ में खरतर उत्पत्ति लिखाहै, इसलिये अपने इस मायाचरीके मिथ्या लेखकी पोल न खुलनेके लिये श्रोअभयदेवमूरिजीको खरतरगच्छके लिखते न्यांभोनिधिजीको लज्जा आई होगी इससे इन महाराजके गच्छका नाम छिपा दिया सो यह मायाचारीके सिवाय और क्या होगा इसको विवेकी पाठकगण स्वयं विचार लेवेगें।। __ और श्रोजिनेश्वरसूरिजीने श्रीदुर्लभराजाकी पाठांतरे श्री भीमराजाको राजसभा, चैत्यवासियोंको धर्मवादमें जित लिये, आप विशेष सच्चे ( अतिशय खरे ) रहे उससे राजाने खरतर विरुद दिया है सो इन महाराजके पांववो पिढो (पह) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५५ ] पर इनही श्रीखरतर गच्छ में श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज हुए हैं इसलिये सं० १२०४ में इन महाराजसे खरतर उत्पत्तिका लिखना न्यायांभोनिधिजोका महा मिथ्या है इस बात में सब शङ्काओं का निवारण पूर्वक शास्त्र प्रमाणों सहित विस्तार से निर्णय " आत्मत्र मोच्छ ेदन भानुः” नामा ग्रन्थ में अच्छी तरहने छप गया है इसलिये यहां पर विशेष लिखनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। तोभी इसका संक्षेपसे खुलासा आगे लिखा जावेगा, और न्यायां भोनिधिजीने श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज के ऊपर श्री वीरप्रभुके षट् कल्याणक प्ररूपणका दोष लगाया सोतो न्यायांभोनिधिजीके मिथ्यात्वकी भ्रांतिका भेद पाठकगण उपरोक्त लेखसे स्वयं समझ लेवेंगे, परन्तु श्रीजिनवल्लभसूरिजीको कुर्च पुरीयगच्छके लिखे सोतो न्यायांभोनिधिजीनेखास अपने नाम को ही लगाया है और अपने गुरु आवलीके जैसी श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध मर्यादाकी गपोल खीचडीका बर्ताव में श्रीजिनवल्लभसूरिजी को भी ठहराकर श्रीखरतर गच्छ में भी श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध मर्यादा स्थापन करनेका न्यायांभोनिधिजीने चाहा सो भी बड़ी भूल करो क्योंकि श्रीजैन शास्त्रोंकी मर्यादानुसार तो किसी भी गच्छका कोई भी शिथिलाचारीको अपने गच्छ में क्रियापात्र शुद्ध संयमीका योग न मिले और उसके क्रिया उद्धार करके शुद्ध संयमसे अपनी आत्म कल्याणकी पूर्ण अभिलाषा होवे तो किसी भी अन्य गच्छके शुद्ध संयमीके पास क्रिया उद्धार करे याने उनके पास फिरसे दीक्षा लेकर उनकोही गुरुमाने और उन क्रियाउद्धार करनेवालेकी पाट परम्पराभी पहिले केशिथिला चारि गुरुओंके साथ न मिलाकर जिसके पास किया उद्धार किया होवे उन्होंको परम्परामें अपनी पाट परम्परा मिलावे सो वोही उनका गच्छ और गुरु परम्परा मानी जावे परन्तु पहि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५६ ] लेकेशिथिला चारियोंकी नहीं, जिस पर भी पहिलेके शिथिला चारियोंके साथ अपनी गुरु परम्परा मिलावें तो श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध होनेसे संसार द्धिका कारण है सोही बात खास न्यायां. भोनिधिोने भी तीनथुईवाले श्रीरत्नविजयजी (श्रीराजेन्द्र सूरिजी) को उपदेश करनेके लिये “चतुर्थस्तुति निर्णय" की पुस्तककी प्रस्तावनाके पृष्ट ८ की पंक्कि १३ से पृष्ट १३ की पंक्ति ५ वीं तक लिखी है जिसका उतारा नीचे मुजब है। रत्नविजय जो बहुल संसारी न हो जावे इसी वास्ते इनोका उद्धार करना चाहीयें, ऐसा उपकार बुद्धिसें हम सब श्रावकोंकों कहने लगेके प्रथम तो यह रत्नविजयजीको जनमतके शास्त्रानुसार साधु मानना यह बात सिद्ध नहीं होती है. क्यों के ? रत्नविजयजो प्रथम परिग्रहधारी महाब्रतरहित यति थे,यहाकथा तो सर्व संघमें प्रसिद्ध है, और पोछे निग्रंथ पणा अङ्गीकार करके पञ्चमहाब्रत रूप संयम ग्रहण करा परन्तु किसी संयमी गुरुके पास उपसम्पत् अर्थात् फेरके दीक्षा लीनो नहीं, और पहले तो इनका गुरु प्रमोदविजयनी यती थे, कुछ संयमी नहीं थे यह बात मारवाडके बहोत श्रावक अच्छी तरेसें जानते है, फेर असंयतोके पास दीक्षा लेके क्रिया उद्धार करणा, यह जनमतके शास्त्रोंसे विरुद्ध है। इसी वास्ते तो श्रोवन स्वामी शाखायां चांद्र कुले कौटिकगणे वहद्गच्छ तपगच्छालंकार भहारक श्रोजगचंद्रमूरिजी महाराजे अपणेकों शिथिलाचारी जानके चैत्रवाल गच्छोय श्रीदेवभद्रगणि संयमीके समीप चारित्रोपसंपद् अर्थात् फेरके दीक्षा लीनी, इस हेतुसेतो पोज गच्चंद्रसूरिजी महाराजके परम संवेगी श्रीदेवेंद्रसूरिजी शिष्य श्रीधर्मरत्नग्रंथकी टीकाकी प्रशस्तिमें अपने बहद् गच्छका नाम छोड़के अपने गुरु प्रोजगच्चंद्रसूरिजीकों चैत्रवाल गच्छीय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७ 1 लिखा, सो यह पाठ है.॥ क्रमशश्चैत्रावालक, गच्छे कविराजराजिनभसीव ॥ श्रीभुवनचन्द्रसूरिगुरुरुदियाय प्रवरतेजाः॥४॥ तस्य विनेयः प्रसमै कमंदिरं देवभद्रगणि पूज्यः॥ शूचिसमयकनक निकषो, बभूव भूविदितभूरिगुणः ॥ ५ ॥ तत्पादपद्मभृगा, निस्संगाश्चङ्गतुङ्गसंवेगाः॥ संजनित शुद्धबोधाः, जगति जगचंद्रसूरिवराः॥६॥ तेषामुभौ विनेयो, श्रीमान् देवेंद्रसूरिरित्याद्यः॥ श्री विजयचन्द्रसूरिद्वितीयकोऽद्वैतकीर्तिभरः ॥ ७ ॥ स्वान्ययो रुपकाराय, श्रीमद्देवेंद्रसूरिणा ॥ धर्नरत्नस्य टीकेयं, मुखबोधा विनिर्ममे ॥ ८ ॥ इत्यादि. इस वास्ते भव भीरु पुरुषांकों अभिमान नहीं होता है, तिनकू तो श्रीवीतरागकी आज्ञा आराधनेकी अभिलाषा होती है, तब रत्नविजयजी और धनविजयजी यह दोनु जेकर भवभीरु है, तो इनकोंभी किसी संयमी मुनिके पास फेरके चारित्रोपसंपत् अर्थात् दीक्षा लेनी चाहिये, क्योंके फेरके दीक्षा लेनेसें एकतो अभिमान दूर होजावेगा, और दूसरा आप साधु नहीं है तोभी लोकोंकों हम साधु है ऐसा कहना पड़ता है यह मिथ्या भाषण रूप दूषणसेंभी बच जायगे, और तीसरा जो कोइ भोले श्रावक इनकों साधु करके मानता है, उन आवकोंके मिथ्यात्वभी दूर हो जावेगा, इत्यादि बहुत गुण उत्पन्न होवेंगे जेकर रत्नविजय जी धनवीजयजी आत्मार्थी है तो यह हमारा कहना परमो पकाररूंप जानके अवश्यही स्वीकार करेंगे। ... ___ यह फेरके दीक्षा उपसंपत् करनेका जिस माफक जैनशास्त्रोमें जगे जगे लिखे हैं, तिसि माफक हम इनोके हितके वास्ते कुछ आप श्रावकोंकों कहते है। तथाच जीवानुशासनवृत्ती श्रीदेवसूरिभिः प्रोक्तं ॥ यदि पुनर्गच्छो गुरुश्च सर्वथा निजगुण विकलोभवति तत आगमोल विधिना त्यजनीयः परं कालापेक्षया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ ] योऽन्यो विशिष्टतरस्तस्योपसंपद्ग्राह्या न पुनः स्वतंत्रः स्थातव्यमिति हृदयं ॥ इति श्रीजीवानुशासनवृत्तौ। इसकी भाषा लिखते हैं। जेकर गच्छ और गुरु यह दोनों सर्वथा निजगुण करके विकल होवे तो, आगमोक्त विधि करके त्यागने योग्य है, परं कालकी अपेक्षायें अन्य कोइ विशिष्टतर गुणवान संयमी होवे, तिस समीपें चारित्र उपसंपत् अर्थात् पुनर्दीक्षा ग्रहण करनी परन्तु उपसम्पदाके लीया विना स्वतंत्र अर्थात् गुरुके विना रहणा नहीं इस कहनेका तात्पर्यार्थ यह है के जो कोई शिथिलाचारी असंयमी क्रिया उद्धार करे सो अवश्यमेव संयमी गुरुके पास फेरके दीक्षा लेवे। इस हेतुसे रत्नविजयजी और धनविजयजीकों उचित है के प्रथम किसी संयमी गुरुके पास दीक्षा लेकर पीछे क्रिया उद्धार करे तो आगमकी आज्ञा भङ्ग रूप दूषणसे बच जावे और इनकों साधु माननेवाले श्रावकोंका मिथ्यात्वभी दूर हो जावे, क्योंके असाधुकों साधु मानना यह मिथ्यात्व है और विना चारित्र उपसंपदा अर्थात् दीक्षाके लीये कदापि जैनमतके शास्त्रमें साधुपणा नहीं माना है। ___ तथा महानिशीथके तीसरे अध्ययनमें ऐसा पाठ है ॥ सत्तद्व गुरुपरंपरा कुसीले ॥ एग दु ति परंपरा कुसीले ॥ इस पाठका हमारे पूर्वाचार्योने ऐसा अर्थ करा है, इहां दो विकल्प कथन करनेसे ऐसा मालुम होता है के एक दो तीन गुरु परंपरा तक कुशील शिथिलाचारीके हूएभी साधु समाचारी सर्वथा उच्छिन्न नहीं होती है, तिस वास्ते जेकर कोइ क्रिया उद्धार करे तदा अन्य संभोगी साधुके पाससे चारित्र उपसंपदा विना दीक्षाके लीयांभी क्रिया उद्धार हो शक्का है, और चोथी पेढीसें लेकर उपरांत जो शिथिलाचारी क्रिया उद्धार करे तो अवश्यमेव चारित्र उपसंपदा अर्थात् दीक्षा लेकेही क्रिया उद्धार करे, अन्यथा नही। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ ] अथ जेकर प्रमोद विजयजीके गुरुभी संयमी होते तब तो रत्नविजयजी विना दीक्षाके लीयांभी क्रिया उद्धार करते तोभी, यथार्थ होता परन्तु रत्नविजयजीको गुरुपरंपरा तो बहु पेढीयोंसें संयमरहित थी इस वास्ते जेकर रत्नविजयजी आत्महितार्थी होवे तो, इनको पक्षपात छोड़के अवश्यमेव किसी संयमी गुरु समीपे दीक्षा लेके क्रिया उद्धार करणा चाहिये । न्यायांभो निधिजीके उपरोक्त लेखसे अच्छी तरहसे सिद्ध हो चुका, कि - शिथिलाचारी जिसके पास दूसरी वेर दीक्षा लेवे उसकी ही परंपरामें वो गिना जावे - नतु पहिलेको, बस ! इसीके अनुसार श्रीजिनवल्लभसूरिजी पहिले वाचनाचार्य गणी पदमें कुर्च्चपुरीय गच्छके शिथिलाचारी द्रव्यलिंगि चैत्यवासी श्रीजिनेश्वरसूरि नामा आचार्यके शिष्यथे सो उन चैत्यवासी गुरुने इनको न्याय, व्याकरण, छंद, काव्य, ज्योतिष, वगैहर बहुत शास्त्रोंका अध्ययन कराकर अच्छी बुद्धि और उत्तम लक्षणों वाले भविष्य में शासन प्रभावक जानकरके श्रीजिनवल्लभजीको वाचनाचायं गणिकी पदवी देकर सुप्रसिद्ध श्रीनवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरिजी को जैन शास्त्रोंके ज्ञाता समझके इन महाराजके पास जैनसूत्रार्थीको गुरुगम्यतासे धारणा करनेके लिये वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणी जीको भेजे सो श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजने भी इनको उत्तम बुद्धिवाले योग्य पुरुष जानकर थोडेही कालमें श्रीजैन शास्त्रोंका अध्ययन करा दिया और श्रीजिनाज्ञाभंगसे संसार वढानेवाला चैत्यवास ( शिथिलाचारको ) छोड़कर क्रिया उद्धारसे शुद्ध संयमपूर्वक आत्मकल्याण करनेका उपदेश भी दिया सो उपदेश श्रीजिनवल्लभगणीजीने मान्यकिया और अपने चैत्यवासी गुरुकी आज्ञा लेकर श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज के पास उपसम्पत् याने क्रिया उद्धार किया फिरसे दीक्षाली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६० ] और इनही गुरुमहाराजके चरणकमलकी सेवा करते हुए महाराज के पासही रहने लगे पीछे कालान्तरमें श्रीअभयदेवसूरिजीका देवलोक हुए बाद, संसारका कारणभूत उत्सूत्ररूप चैत्यवासकी अविधिका निवारण पूर्वक श्रीजिनवल्लभगणीजीने देशदेशान्तरोमें विहार करके बहुत भव्यजीवोंका उपकार किया और अनुक्रमसे विहार करते हुए मेवाड चीतोड़नगरमें पधारे सो वहां भी चैत्य वासियोंकी उत्सूत्रता और अविधिको बातोंका निषेध पूर्वक श्रीजिनाज्ञानुसार शास्त्र प्रमाण सहित विधि मार्गको सत्य बातोंको सबके सामने भव्य जीवोंको श्रीजिनाज्ञानुसार विधि मार्गकी सत्य बातोंकी प्राप्ति होनेके लिये प्रगट ( प्रकाशित ) करी सोतो हमने पहलेही लिख दिया है और पीछे चीतोड नगरमें ही इन महाराजको ( श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजके पहिलेके कथनानुसार श्रीप्रशन्नचन्द्राचार्यजीके कहने मुजब ) श्रीदेवभद्राचार्यजीने श्रीजिनवल्लभगणीजीको सूरि पद देकर श्री अभयदेवसूरिजीके पहपर स्थापित किये और श्रीजिनवल्लभ सूरिजी नाम रक्खा इसलिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी श्रीअभयदेव सूरिजी महाराजके पट्टधर शिष्य श्रीखरतरगच्छमे ठहरे सो यह बात भी श्रीखरतरगच्छकी पहावलियों में तथा पूर्वाचार्यो के चरित्रों में और श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्यो के बनाये ग्रन्थों में तथा अन्य भी इतिहासिक ग्रन्थ वगैरह बहुत जगहोंपर प्रसिद्ध है तिसपर भी न्यायांभोनिधिजी हो करके भी अपने गच्छकदाग्रहके मिथ्याहठवाद रूप अभिनिवेशिकसे श्रीजिनवल्लभसूरिजीको कुर्चपुरीय गच्छके चैत्यवासी श्रीजिनेवरसूरिजीके शिष्य लिख दिये सो श्रीजिनाज्ञाका भङ्ग कारक प्रत्यक्षपने जैन शास्त्रोंकी मर्यादा विरुद्ध और सर्वथा मिथ्या है इस बातको विशेषतासे विवेकी तत्वज पाठकगण स्वयं विचार सकते हैंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६१ ] और न्यायांभोनिधिजी श्रीआत्मारामजीके ऊपरके लेखसे यह भी सुस्पष्टता पूर्वक अच्छी तरहसे प्रगटपने सिद्ध होता है कि श्रीजगच्चंद्रसूरिजीके ३।४ पेढियोंके पहलेसेही अपने बडगच्छकी परम्परामें शिथिलाचार चला आता होगा इसलिये श्रीजगच्चंद्रसूरिजी जैसे सुप्रसिद्ध विवेकी विद्वन् आत्म कल्याण और श्रीजिनाज्ञाके अभिलाषी महाराजने अपने वडगच्छके तथा अपने शिथिला चारी पूर्वजोंके ( श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध ) दृष्टिरागके पक्षपातको न रखके अपने शिथिलाचारके आचार्य पदके अभिमानको भी छोड़कर श्रीजिनाज्ञानुसार श्रीचैत्रवालगच्छके वैराग्य समुद्र शुद्ध क्रियापात्र शुद्ध संयमी श्रीदेवभद्रजी उपाध्यायजीके पास क्रिया उद्धार किया, याने-फिरसे दूसरी बेर दीक्षा धारण करी और इन्हीं महाराजको गुरु मान्य करके श्रीचैत्रवाल गच्छकी इन्होंके शुद्ध संयमियोंकी परम्परामे मिल गये इसलिये इन्हीं श्रीजगत् चन्द्रसूरिजी महाराजके सुप्रसिद्ध विवेकी विद्वान् शिष्य श्रीदेवेन्द्र सूरिजीने अपने गुरुजी की पहिलेकी शिथिलाचारकी श्री वडगच्छकी परम्परा न लिखके पीछे दूसरी वारकी शुद्ध संयमियोंकी श्रीचैत्रवालगच्छकी शुद्ध परम्परा श्रीधर्मरत्नप्रकरण की उत्तिके अन्त में प्रशस्तिके लेख में लिखी सो पाठ भी न्यायांभोनिधिजीने अपने ऊपरके लेखमें लिख दिखाया है ( और अब तो श्रीधर्मरत्न प्रकरण वृत्ति गुजराती भाषा सहित श्रीपालीताणासे श्रीविद्याप्रसारक मण्डलकी तरफसे छप करके प्रसिद्ध भी होगयी है इसलिये यह उपरका पाठ तो प्रसिद्धही है) इसलिये न्यायांभोनिधिजीके उपरोक्त लेख मुजब तो श्रीजगच्चंद्र सूरिजी महाराजको श्रीचैत्रवालगच्छके मानने तथा इसी गच्छसे उन्होंकी. परम्परा भी मिलाना सोही शास्त्र मर्यादा पूर्वक श्रीजिनाज्ञा मुजब परम उचित है सो ऐसे ही करनेसे न्यायांभोनिधिजीको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६२ ] अपना उपरोक्त 'चतुर्थ स्तुति निर्णय' का लिखा सत्य होसके परन्तु पहिले के शिथिलाचारियोंकी श्रीबड़गच्छको परम्परा में मिलाना और इन महराजको श्रीबड़गच्छके मानना सो तो प्रत्यक्षपने सर्वथा प्रकारसे शास्त्र मर्यादा से विपरीत ( श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध ) ठहरता है और न्यायांभोनिधिजोको उपरोक्त तीनथुई वाले रत्न विजयजी सम्बन्धी हितशिक्षारूप लिखना सब मिथ्या ठहरता है तिसपर भी बड़े ही अफसोसकी बात है, कि खास आप न्यायांभोनिधिजी इतने बड़े सुप्रसिद्ध विद्वान् हो करके भी " जैनतत्वादर्श" वगैरह अपने बनाये ग्रन्थोंमें श्रीजगचंद्रसूरिजीको श्रीचैत्रवागच्छके शुद्ध संयमियोंको परम्परा में लिखने छोड़कर जिनाज्ञा विरुद्ध होके श्रीबड़गच्छको शिथिलाचारियों की परम्परा में लिखे तथा वर्तमानिक श्रीतपगच्छके सब समुदाय वाले भी वैसेही मानते हैं तथा पहावलियोंमें और अन्य पुस्तकों में भी लिखते हैं सो श्रीजिनेश्वर भगवान्‌की आज्ञा भङ्ग करनेकी हेतु भूत यह कितनी बड़ी अज्ञानता है । और श्रीदेवेंद्रसूरिजी जैसे गीतार्थ महाराजने अपने गुरुजी श्रीजगन्ञ्चन्द्रसूरिजीको श्रीबड़गच्छके शिथिलाचारियोंकी परम्परा में लिखना - श्रीजिनाज्ञाविरुद्ध जानकर छोड़ दिया और श्रीचैत्रवालगच्छके शुद्धसंयमियोंकी परम्परामें लिखना श्रीजिनाज्ञानुसार जानकर खुलासा पूर्वक लिख दिया जिसको वर्तमानिक श्रीतपगच्छ के सध समुदाय वाले मान्य न करके इससे विपरीत लिखते हैं याने श्रीचैत्रवालगच्छके शुद्धसंयमियोंकी श्रीजिनाज्ञानुसार परपरामें लिखना छोड़कर श्रीवड़ग च्छके शिथिलाचारियोंकी आज्ञा विरुद्ध परम्परामें लिखते हैं मानते हैं सो क्या कारण है । क्या श्रीपगच्छके वर्तमानिक समुदायवालोंको आज्ञानुसार श्रीदेवेंद्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६३ ] सूरिजी की लिखी हुई उपरोक्त बात अच्छी नहीं लगती और यदि अच्छी लगती होवेतो अब भी अपनी भूलको सुधारके श्रीजगत्चन्द्रसूरिजीको आज्ञाविरुद्ध वड़गच्छके शिथिलाचारियोंकी अशुद्ध परम्परा में लिखना, मानना, छोड़कर आज्ञानुसार चैत्रवालगच्छके शुद्धसंयमियोंकी शुद्धपरम्परा में लिखना मानना अङ्गिकार करना चाहिये नहीं तो चैत्रवालगच्छके लिखने मानने छोड़कर बड़गच्छकेही लिखोंगे तो यह लिखना मानना जिनाज्ञा भङ्गका कारणरूप होनेसे आपलोगोंकी बहुगच्छकी परम्परा कदापि शुद्ध नहीं मानी जा सकती और अशुद्ध परम्परा श्रीजिनाज्ञाभिलाषी आत्मार्थी निष्पक्षपातियोंको छोड़कर शीघ्रतासे श्रोजिनाज्ञामुजब शुद्धपरम्परा मान्यकरनी ही परम उचित है। और आपलोग त्यागी वैरागी शुद्धसंयमी कहलाके भी चैत्र वालगच्छकी त्यागी वैरागी शुद्धसंयमियोंकी परंपरा में श्रीजगचन्द्रसूरिजी को लिखना मानना छोडकर शिथिलाचारियोंकी अशुद्ध परंपरामें लिखके उसी मुजब मानते हुए इन महाराजको तथा इनमहाराजके पिछाड़ीके आपके सब पूर्वजोंको शिथिलाचारियोंके शिष्य बना देते हो तथा आपलोग भी वैसे ही शिथिलाचारियोंके शिष्य बन जाते हो सो भी कितनी वडी शर्म की बात है और श्रीजगचन्द्र सूरिजी महाराजके पहिलेके गुरुजी दादागुरुजी वगैरह ३ । ४ पेढीके पूर्वजोंको संयमी मानकर asगच्छ के ही इन महाराजको लिखते मानते हो वो सो भी नहीं बनसकता क्योंकि जो इन महाराजके गुरुजी वगैरह ३४ पेढी वाले जो संयमी होते तो इन महाराजोंको अपने वडगच्छको तथा अपने गुरुजी वगैरहोंको छोड़कर अपने शिथिलाचार के आचार्य (सूरि) पदके अभिमानको नरक्खके श्री चैत्रवाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६४ ] गच्छके श्रीदेवभद्रसपाध्यायजीके पास उपसम्पत् याने फिरसे दूसरी वेर दीक्षा लेनेकी कोई भी आवश्यकता नहीं होती परन्तु अपने गुरुको और गच्छको छोड़कर दूसरे गच्छवालेके पास दूसरी वार दीक्षा लेनी पड़ी इससे इन महाराजके गुरुजी दादा गुरुजी वगैरह संयमी नहीं थे ऐसा सिद्ध होता है इसलिये इन महाराजको वडगच्छके न मानकर चैत्रवालगच्छके मानने तथा उनसे ही परंपरा मिलाना उचित है, नतु वडगच्छसे। ___ और इतने पर भी वहगच्छसे परंपरा मिलाना कहोगे तो भी यह मिथ्यात्वका कारण ठहरता है सोही दिखाता हूं कि देखो इन महाराजने दूसरी वेर दीक्षाली उससे यह महाराज शुद्ध संयमी ठहरे सो इन संयमी महाराजको संयमियोंको चैत्रवालगच्छकी शुद्ध परंपरामें लिखना छोड़कर शिथिलाचारियों की अशुद्धपरंपरामें लिखके उन शिथिलाचारियोंको शुद्धसंयमी अपने पूर्वाचार्य मानलेना सो प्रत्यक्षपने असाधुको साधुमानने सूप मिथ्यात्व आता है इसको निष्यक्षपात पूर्वक विवेक बुद्धिसे खब विचार लेना चाहिये। ___और श्रीजगतचन्द्रसूरिजी महाराज पहिले मूलमें वडगच्छके थे ऐसा समझकर दूसरी वेर दूसरे गच्छमें दीक्षा लेनेपरभी पहिले की वडगच्छकी परंपरा मिलाना मान्य करते हैं सोभी प्रगटपने लौकिक और लोकोत्तर दोनोंसे विरुद्ध बनता है क्योंकि प्रथम तो लौकिकमें भी जो लडका अपने जन्मदाता माता पिताको छोड़कर दूसरी जगे जिसके गोद जावे उनको माता पीता मानने पड़ते हैं तथा उसीके गौत्र कुलकी परंपरामें गिनाजाता है परन्तु पहिलेके जन्मदाता माता पीताके गौत्र कुलकी परम्परामें बो महीं गिना जाता यह बात तो जगतमें प्रसिद्ध हैं और इसी तरहसे लोकोत्तरमें श्रीजैनशास्त्रोंमें भी जिसके पास दूसरी वेर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६५ ] दीक्षालेवे उसीकी परम्परामें वो गिमाजावे, परं-पहिलेकी नहीं, सोतो उपर में खुलासा पूर्वक लिखा गया है जिसपर भी पहिले की पर पराको ही मान्य रखो तो श्रीबूटेरायजी ( श्रीबुद्धिविजय जी ) तथा श्रीआत्मारामजी ( न्यायांभोनिधिजी ) वगैरहोंने जो पहिले ढूंढकमत में दीक्षा लोथी पीछे श्रीतपगच्छ में दूसरी वेर दीक्षा ली है जिन्होंको भी श्रीतपगच्छके न मानके उन्होंकी परंपरा भी श्रीतपगच्छ में न मिलाकर ढूंढकमतके साधुओं के शिष्य कहा करो तथा उन्ही मुंहबंधों की परंपरा में लिखने चाहिये और वर्तमानिक श्रोआत्मारामजी के समुदाय वाले वगैरहोंको भी श्रीतपगच्छ के पूर्वाचार्यों को अपने पूर्वज न मानकर उन मुहबंधों को अपने पूर्वज पूर्वाचार्य मानने तथा अपनी परंपरामें भी लिखने चाहिये तबतो इन्होंकी तरहसे आपलोगोंकी कल्पना मुजब श्रीजगचंद्रसूरिजी महाराजकोभी बड़गच्छ में लिखना और परंपरा मिलाना आप लोगोंके बनसकेगा अन्यथा कदापि नहीं । और भी पहिलेकी अशुद्ध दीक्षाको आगे करके दूसरी बारकी शुद्ध दीक्षाको छोड़ देने पूर्वक, पञ्जाबी ढूंढक जीवण रामजीके शिष्य न्यायांभोनिधिजी ( श्रीमद्विजयानंद सूरिजी ) ने " जैन तत्वादर्श" वगैरह ग्रन्थ बनाये जिन्होंके शिष्य संप्रदाय में अभी इतने साधु विद्यमान है, ऐसा कहना शास्त्रानुसार बन सकता है तथा यह बात भी सर्व मान्य हो सकती है सो तो नहीं तो फिर श्रीजगत्चंद्रसूरिजी की पहिलेकी शिथिलाचारकी अशुद्धदीक्षाको (मूलमें पहिले वडगच्छके थे इसको ) आगे करके दूसरीवार चैत्रवालगच्छ में शुद्धदीक्षा लो उससे परंपरा मिलाना छोड़ करके श्रीवड़गच्छसे इन्होंकी परंपरा मिलाते हुए श्रीदेवेन्द्र सूरिजी वगैरहको श्रीवडगच्छके शिथिलाचारियोंके शिष्य होनेका ८४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६६ ] लिखते हो सो शास्त्रानुसार कैसे बन सकता है तथा सर्व मान्य भी कैसे हो सकेगा इसको दीर्घ दृष्टिसे विचारना चाहिये । अब श्रीतपगच्छ की सब समुदायवालोंसे मेरा यही कहना है कि यद्यपि श्रीजगत्चंद्रसूरिजी पहिले बड़गच्छ के थे परन्तु शिथिलाचारको छोड़करके पीछेसे चैत्रवाल गच्छ में दीक्षा ली है। इसलिये यदि आप लोग न्यायानुसार शास्त्रप्रमाण पूर्वक श्रीजिनाज्ञामुजब शुद्धपरंपरा वाले आत्मार्थी बनना चाहते हो तो इनमहाराजकी वड़गच्छसे परंपरा मिलाना छोड़कर चैत्रवाल गच्छसे परंपरा मिलाना उचित है और आजतक अज्ञानता से चैत्रवाल गच्छसे अपनी परंपरा मिलाना छोड़कर बड़गच्छसे परंपरा मिलाई जिसकी भूलको सुधारना चाहिये, परन्तु गड्डरीय प्रवाहकी तरह अन्धपरंपराकी अज्ञानताके हठवादको ही पकड़के रहना उचित नहीं है, आगे इच्छा आपकी । तथा और भी यहांपर आपलोगोंको प्रत्यक्ष प्रमाणभी दिखाता हूं कि देखो श्रीवर्द्धमानसूरिजी पहिले श्रीजिनचन्द्रसूरि नामा चैत्यवासी आचार्यके शिष्य थे सोही श्रीवर्द्धमानसूरिजीने अपना शिथिलाचार चैत्यवासको छोड़कर श्रीउद्योतनसूरिजी महाराजके पास दूसरीवार दीक्षा ली इसलिये इनमहाराजको उन चैत्यवासी शिथिलाचारि श्रीजिनचंद्रसूरिजीको परंपरामें न गिन कर दूसरी बार दीक्षालेनेके कारण श्रीउद्योतनसूरिजीकीही परंपरामें गिने गये सोतो श्रीखरतरगच्छकी पहावलियोंमें और इतिहासिक ग्रन्थों में प्रसिद्ध है और श्रीरत्नसागर के दूसरे भाग वगैरहोंमें छपा हुआ भी प्रगट है तथा श्रीजिनवल्लभसूरिजी सम्बन्धी भी ऊपर में लिखा गया है उसी मुजब आप लोगोंको भी श्रीजगत्चन्द्रसूरिजीको चैत्रवाल गच्छकी परंपरामें लिखने चाहिये इतने पर भी आपका कदाग्रह न छुटेगा तो आपकी परंपरा श्रीजि - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६७ ] नाज्ञाविरुद्ध होनेसे मानने योग्य नहीं है इस बातको निष्पक्ष पाती विवेकी तत्वज्ञ जन स्वयं विचार सकते हैं। और श्रीजगत्चन्द्रसूरिजीने अपने गच्छको शिथिल जानकर श्रीचैत्रवाल गच्छके श्रीदेवभद्रजी उपाध्यायजीकीसाहतासेक्रिया उद्धार किया ऐसा जैनतत्वादर्श वगैरहोंमें लिखा है सो भी मायारत्तिसे मिथ्या है क्योंकि 'चतुर्थ स्तुति निर्णय में दूसरी बार फिरसे दीक्षा लेनेका खुलासा लिखा है तथा शिथिलाचार छोड़े तो दूसरी बार दीक्षा लिये बिना क्रिया उद्धार करना नहीं बन सकता और जब दूसरी बार दीक्षा लेकर क्रिया उद्धार कियाजावे तो जिसके पास क्रिया उद्धार कियाजावे उनके शिष्य बनकर उनको गुरु माननाही पड़ता है, और जब दूसरी बार दीक्षा ली उनके शिष्य बने उनको गुरु माने, तो फिर उनकी साह्यतासे क्रिया उद्धार किया, ऐसा कहना प्रत्यक्ष मिथ्या व्यर्थ ठहरगया इसलिये यदि आप लोग साह्यतासे क्रिया उद्धार करनेके बहानेसे भी बड़गच्छकी परंपरा मिलाना ठहराते हो सो भी कदापि नहीं बन सकता, और जो श्रीदेवभद्रोपाध्यायजीकी साह्यतासे क्रिया उद्धार करके उनको गुरु न माने होते तो श्रीदेवेन्द्रसूरिजी श्रीधर्मरत्न प्रकरणकी वृत्तिके अन्त में प्रशस्ति के लेखमें श्रीदेवभद्रोपाध्यायजीको गुरुपने लिखके श्रीचैत्रघाल गच्छसे श्रीजचन्द्रसूरिजीकी तथा अपनी परंपरा कदापि न मिलाते और वडगच्छकीही परंपरा लिखते सो न लिखकर घड़गच्छको छोड़ करके चैत्रवाल गच्छसे परंपरा मिलाई और आप भी वडगच्छके न बन कर चैत्रवाल गच्छके बने हैं, तथा वैसे ही श्रीक्षेमकीर्तिसूरिजीने भी श्रीक्षहत्कल्पत्तिके अन्तकी प्रशस्तिके लेख में लिखकर चैत्रवाल गच्छसे परंपरा मिलाई है और न्यायांभोनिधिजीनेभी 'चतुर्थस्तुति निर्णय की पुस्तकर्ने चैत्रवाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६- 1 गच्छ से परंपरा मिलाना सिद्ध किया है इसलिये साह्यताका बहाना लेकर बड़गच्छ की परंपरा मिलाना बड़ी भूल है, उससे साह्यता का बहाना लेनेकी मिथ्याबातको छोड़कर सत्यको मान्य करना ही श्रेयकारी है इसकोभी विवेकी जनस्वयं विचार करते हैं । और अब पाठक गणसे मेरा यही कहना है कि श्रीतपगच्छके समुदाय वालोंने अपनी बड़ाई विषेश शोभा होनेके लिये शास्त्रानुसार चैत्रवाल ग इसे अपनी परम्परा मिलाना छोड़कर श्रीवगच्छके पूर्वाचार्यों को बड़े प्रभावक प्रसिद्ध पुरुष जान कर श्रीजगचन्द्रसूरिजी के तथा इन महाराजके गुरुजी वगैरह के शिथिलाचार, असंयम, अशुद्ध परम्पराका विचार न करके बड़गच्छ से परंपरा मिलाने लगे, परन्तु जिनाज्ञा भङ्गका भय होता और अन्तरंगमें न्यायानुसार आत्मार्थी पना होतातो चैत्रवाल गच्छसे अपनी परम्परा मिलाना कदापि न छोड़ते, खैर । और ऊपरके लेखमें श्रीजगचन्द्रसूरिजी के ३ । ४ पेढी वाले गुरुजी दादागुरुजी वगैरहों को मैंने मेरी तरफ से शिथिलाचारी नहीं लिखे किन्तु न्यायांभोनिधिजोके लेखसे ही सिद्धहोते हैं इस लिये इस बातका मुझे कोई दोष नहीं देना इस बातको भो ऊपरके लेखसे विवेकी पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे । बस ? इसी तरहसे न्यायांभोनिधिजीने अन्याय कारक और जिनाशा विरुद्ध वडगच्छसे परंपरा मिलाने रूप गपोलखोचड़ी की बात श्रीखरतरगच्छ में भी कर देनेकेलिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी को कुर्च पुरीय गच्छ के चैत्यवासो श्रोजिनेश्वरसूरिजी के शिष्य लिख दिये परन्तु ऐसी जनाजाविरुद्ध वर्तावकी यह बात श्रीखरतरगच्छ में कदापि नहीं चल सकती जिसका विशेष खुलासा ऊपर में लिखा गया हैं इसलिये श्रीवर्द्धमानसूरिजी को श्रीउद्योतनसूरिजीके शिष्य लिखने मुजब श्रीजिनवल्लभसूरिजीको भी श्री खरतरगच्छ के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६९ ] सुप्रसिद्ध श्रोनवांगी वृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजीके शिष्य लिखने न्यायांभोनिधिजीको उचित थे सो न लिखकर धर्मसागर जीकी धर्मठगाईकी मायाजालमें फंसकर व्यर्थही भद्रजीवोंको उन्मार्गमें गेरनेका हेतु करके संसार वढनेका कारण किया है जिसको तत्वज्ञजन अच्छी तरहसे विचार सकते हैं। तथा और भी न्यायांभोनिधिजीकी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वकी मायाचारीका प्रत्यक्ष नमूना पाठकगणको यहां दिखाता हूं कि, देखो न्यायांभोनिधिजीने उपरोक चतुर्थ स्तुतिनिर्णयकी पुस्तकके पृष्ठ१०० की पंक्ति १० वीं से पृष्ठ १०१ की पंक्ति १३ तकके लेखमें खासआपनेही श्रीजिनवल्लभसूरिजीको श्रीनवांगी कृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजीके शिष्य लिखे हैं सो लेख नीचे मुजब है। ___“नवांगीत्तिकार जो श्रीअभयदेवपूरिजी तिनके शिष्य रोजिनवल्लभसूरिजीने रचीहुइ समाचारीका पाठलिखते हैं ॥ पुण पणवोसुस्सासं, उस्सग्गं करेह पारए विहिणा ॥ तो सयल कुसल किरिया, फलाण सिद्धाणं पढइ थयं ॥१४॥ अह सुय समिद्धि हेत, सुयदेवीए करइ उस्सगं ॥ चिंतेइ नमुक्कार, पुणइ देह तिए थुरा ॥ १५ ॥ एवं खित्तपुरीए, उस्सग्गं करेइ सुणह देवथुई ॥ पढिऊण पंचमंगल, मुव विसह पमझ संडासे ॥ १६ ॥ इत्यादि ॥ भाषा ॥ श्रोजिनवल्लभसूरि विरचित समाचारिमें प्रथम पडिक्कमणे में चार थुइसे चैत्यवंदना करनी पीछे प्रतिक्रमणे अवसानमें श्रुतदेवता अरु क्षेत्र देवताका कायोत्सर्ग करणा, और इनोंकी थुइयां कहनी, यह कथन पंदरावी अरु सोलावी गाथामें करा है, जब श्री अभयदेवमूरि नवांगी कृत्तिकारक शिग्य श्रीजिनवममसूरिजीकी बनवाइ समाचारीने पूर्वोक्त लेख तब तो श्रीअभयदेवमूरिजीसे तथा आगु तिनकी गुरु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६०० ] पर परासे चार थुइको चैत्य बंदना और श्रुतदेवता अरु क्षेत्र देवताका कायोत्सर्ग करणा और तिनकी थुइ कहनी निश्चयही सिद्ध होती है, तो फेर इसमें कुछ भी बाद विवादका झगडा रह्या नहीं, इस वास्ते रत्नविजयजी अरु धनविजयजी तीन थुइका कदाग्रह छोड देवे, तो हम इनोंकों अल्पकर्मी मानेंगे ॥” देखिये ऊपर के लेख में श्रीरत्रविजयजी ( श्रीराजेंद्रसूरिजी ) के और धनविजयजीके तीन थुइके नवीन मतभेदके प्रचलीत कदा ग्रहको हटाने के लिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी कृत सामाचारीका पाठ लिख दिखाया तथा इन महाराजको श्रीनवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरिजी महाराजकी परंपरामें लिखके दिखाये तो फिर इन्ही महाराजको कुर्च्चपुरीय गच्छके चैत्यवासीके शिष्य लिखके भद्रजीवोंको मिथ्यात्वके भरम में गेरनेका काम करने वाले को आत्मार्थी सम्यकवी कैसे माने जावे सो भी तत्वज्ञ जन विचार सकते हैं । और जब खास न्यायांभोनिधिजीने ही श्रीजिनवल्लभ सूरिनोको श्रीनवांगी वृत्तिकार श्रीअभयदेव सूरिजी के शिष्य लिखके उनकी ही परम्परा में गिने सो न्यायांभोनिधिजीका लेख हमने ऊपर लिख दिखाया है तो फिर इसी मुजब श्रीजगचन्द्र सूरिजी को भी श्रीचैत्रवाल गच्छके श्रीदेवभद्रोपाध्याय जीके शिष्य लिखके उनसे इनकी परम्परा मिलाने में न मालूम न्यायांभोनिधिजीको किस कारणसे लज्जा होगी सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने इसमें लज्जाका तो कोई कारण नहीं है, क्योंकि श्रीदेवभट्टोपाध्यायजी के शिष्य श्रीजगचन्द्र सूरिजी को लिखके श्रीचैत्रवाल गच्छसे परंपरा मिलाने में तो श्री जिनाज्ञाकी आराधना रूप महान् लाभका कारण था सो न किया। इससे यदि इनको श्रीचैत्रवाल गछको श्री महावीर स्वामी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... [ ६०१ ] की परम्परानुसार अनुक्रमसे श्रीजगचन्द्र सूरिजी तक पहावली मिलाने संबंधी कोई पहावली वा पुस्तक नहीं मिल सकी होवे तो उससे बिना परम्पराके रहनेके भयसे श्रीचैत्रवालगच्छसे परम्परा मिलाना छोड़कर श्रीबड़गच्छसे परम्परा मिलाकर श्रीमहावीर स्वामीके परम्परा वाले बननेके लिये "श्रीजगचंद्रसूरिजी पहिले वडगच्छुके थे" ऐसा आलम्बन लेना मान्य किया होवे तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने परन्तु तो भी इसमें श्री जिनाज्ञाकी विराधनाका कारण होनेसे ऐसा आलंबन लेना उचित नहीं है क्योंकि श्रीचैत्रवाल गच्छ भी तो श्रीमहावीर स्वामीकी परम्परा वाला है इस लिये ऊपरका आलम्बनको छोड़कर उसही गच्छसे परम्परा मिलाना उचित है, जिसमें काल दोषादि कारणोंसे पूरी पहावली नहीं भी मिल सके तो भी कोई हरजा नहीं है क्योंकि श्री महावीर स्वामीके शासनमें अनुक्रमसे परम्परागत कितने ही नैमित्त कारणोंसे कितने ही गच्छ, कुल, शाखा, वगैरह अनेक हुए थे उन्होंमेंसे किसीके विशेष ज्यादा समुदाय होगया, किसीके कम, तथा किसीकी बहुत पीढ़ियों तक परम्परा चली किसीकी थोड़ी पेढ़ियों तक ही, और कितने ही विच्छेद भी होगये और कितनोंके यद्यपि परम्परासे पूर्वाचार्य होते आये तो भी काल दोषादि कारणोंसे पहावली नहीं मिलती और कितनोंके वीचमें से त्रुटक पहावली मिलती है, कितनोंके पाठांतरसे मतभेदकी मिलती है और किसीके बिलकुल नहीं मिलती तो क्या वे संयमी गण श्रीमहावीर स्वामीकी परम्परा वाले नहीं गिने जावेंगे सो तो कदापि नहीं किन्तु अवश्यमेव गिने जावेंगे, इस लिये यदि श्रीचैत्रवाल गच्छकी पूरी पहावली नहीं मिल सके तो भी कोई नुकसानकी बात नहीं परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७२ ] जितनी मिल सके उतनीहीमें भी श्रीजगचन्द्रसूरिजीसे लेके वर्तमानिक भीतपगच्छके समुदाय तक परम्परा मिलाना शास्त्रानुसार प्रोजिनाज्ञा मुजब है परन्तु पूरी पहावलीके अभावसे परम्परागत शुद्ध संयमियोंकी पहावली छोड़करके प्रत्यक्षपने शास्त्र मर्यादा और लौकिक विरुद्ध हो करके पूरी पहावली मिलानेके लिये झूठे आलम्बनसे असंयमियोंकी अशुद्ध परम्परामें मिलाना उचित नहीं है तिस पर भी श्रीजिनाज्ञाकी विराधना रूप बड़गच्छसे परम्परा मिलाकर भद्रजीवोंके आगे आप वडगच्छके अधिपति बनना चाहते हो सो भी नहीं बन सकते क्योंकि आजतक परम्परागतसे भी बड़गच्छके-आचार्यादिकोंका और भावकोंका समुदाय विद्यमान कालमें भी मौजूद है इसलिये वडगच्छसे आप अपनी परम्परा मिलावो तो भी वडगच्छके अधिपति नहीं बन सकते किन्तु अपनी कल्पनाके लेखसे भी आप लोग श्रीजिनाज्ञाकी विराधाना करके भी शाखारूप बनो तो आपकी खुशी इसमें हमारा कोई नुकशान नहीं परन्तु शास्त्रप्रमाणानुसार श्रीचैत्रवाल गच्छसे अपनी परम्परा मिलाते तो संयमियोंकी शुद्धपरम्परा वाले ठहर सकते अन्यथा नहीं आगे इच्छा आपकी। ___ और हम लोग तो न्यायांभोनिधिजीके उपरोक्त लेख मुजब, जिनाज्ञानुसार तथा श्रीदेवेन्द्रसूरिजीके श्रीधर्मरत्न प्रकरणके पाठसे और श्रीक्षेमकीर्ति सूरिजी कृत श्रीरहत्कल्प उत्तिके अन्तमें प्रशस्तिके पाठसे श्रीजगचन्द्रसूरिजीको दूसरी बार शुद्ध संयम ब्रहण करने वाले श्रीचैत्रवाल गच्छके मानते हैं तथा इसी गच्छसे उनकी शुद्ध परंपरा भी मानते है और वोही परम्परा आप लोगोंकी भी ठहरती है नतु वड़गच्छकी सो विवेक बुद्धि हृदय में लाके पक्षपात दूष्टिरागसे अन्धपरम्पराके आग्रहको छोड़ करके तत्व दृष्टिसे अच्छी तरहसे विचार लेना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७३ ] अब यहां पर पाठक गणको विशेष निःसंदेह होनेके लिये प्रीतपगच्छके श्रीक्षेमकीर्तिमूरिली कृत श्रीवहत्कल्पत्तिकी प्रशस्तिका पाठ इस जगह दिखाता हूं सो नीचे मुजब हैं। सौवर्णविविधार्थ रत्नकलिता एतेषडुद्देशकाः॥ श्रीकल्पेर्थनिधौ मता:मुकलशा दौर्गत्यदुःखापहे ॥ दृष्ट्वाचूर्णिसुबीजकाक्षरततिं कुष्याथगुर्वाज्ञया ॥ खानखानममीमयास्त्र परयो थैस्फुटार्थीकृताः ॥९॥ श्रीकल्पसूत्रममृतंविवुधोपयोगयोग्यं ॥ जरामरणदारुणदुस्खहारि॥ योनोद्धृतंमतिमथामथितान् श्रुताब्धेः। श्रीभद्रबाहूगुरवेप्रणतोऽस्मितस्मै ॥२॥ येनेदं कल्पसूत्र कमलमुकलवत् कोमलंमंजुलाभिार्गोभिदोषापहाभिः स्फुट विषय विभागस्यसंदर्शिकाभिउत्फुलोद्देशपत्र सुरसपरिमलोद्गारसारं वितेने। तंनिःसंबंध बंधुनुतमुनि मधुपा भास्कर भाष्यकारं ॥३॥ श्रीकल्पध्ययनेस्मिन्नति गंभीरार्थ भाष्यपरिकलिताविषमपदे विवरणकृते श्रीचूर्णिकृते नमः कृतिने॥४॥ श्रुत्तदेवताप्रसादादिदमध्ययनं विवण्वता कुशलं ॥ यदवापिमया तेन प्राप्नुयांबोधिमहसमलं ॥५॥ गमनयगभीरनीरश्चित्रोत्सर्गा पवादवादोर्मियुक्तिशतरत्नरम्यो जैनागमजलनिधिर्जयति ॥६॥श्री जैनशासन नभस्तलत्तिग्मरस्मिः, श्रीसद्मचान्द्रकुलपद्मविकाशकारिवज्योतिरावृतदिगंबरडंवरोऽभूत, श्रीमान्धनेश्वरगुरु प्रथितः पृथव्य॥श्रीमच्चैत्रपुरेकमंडनमहावीरप्रतिष्ठाकृत स्तस्माञ्चित्रपुरप्रबोधतरणिःश्रीचैत्रगच्छजिनि तत्रत्रीभुवनेन्द्रसूरिसुगुरुभूषणंभा सुर, ज्योतिसद्गुणरत्नरोहणगिरिः कालक्रमेणाभवत् ॥॥ तत्पादांबुजमंडनसमभवत्पक्षद्वयीशुद्धिमा नीरक्षीर सदृक्षदूषणगुणत्याग ग्रहकव्रतः॥ कालुष्यंचजडोद्भवं परिहरन्दूरेणसन्मानसं॥ स्थायीरा जमरालवद्गणिवरः श्रीदेवभद्रप्रभुः॥ ॥ तस्यःशिष्याःत्रयस्तत्पद सरसिरुहोत्संगशृगारभृङ्गा॥ विध्वस्तानंगसंगाः मुविहित विहितो तुंगरंगाबभूवुः॥तत्राद्यः सच्चारित्रानुमतिकृतमतिः श्रीजगच्चंद्रसूरिः। ८५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७४ ] श्रीमद्देवेंद्रसूरिः सरल तरल सच्चित्तत्तिद्धितीयः ॥ १०॥ तृतीय शिष्यः श्रुतवारिवाईयापरीषहाक्षोभ्यमनः समाधयः॥जयंतिपूज्या विजयेन्द्रसूरयः। परोपकारादि गुणोघभूरयः ॥ १९॥ प्रौढंमन्मथ पार्थिवं त्रिजगती जैत्र विजित्यैयुष॥ येषांजैनपुरेपरेणमहसाप्राक्रात्तकांतोत्सवे ॥ स्थै यमेरुरगाधतांचजलधिः सर्वं सहत्वौं मही॥ सोमः सौम्यमहर्पत्तिं किल महत्तेजोग्कृतप्राभृतं ॥ १२॥ वापं वापं प्रवचनवचोवीजराजीविनेय॥ क्षेत्रबातेसुपरिमलितेशब्दशास्त्रादिसीरैः॥१३॥ यः क्षेत्रज्ञैः शुचिगुरुजनानायवाक्सारणीभिः॥ सिक्त्वा तेनेसुजनहृदयानंदिसंज्ञानशस्यं ॥ १३॥ यैरप्रमत्तैः शुभमन्त्रजापैवैतालमाधायकृतं स्ववश्यं ॥ अतुल्यकल्याण मयोत्तमार्थ सत्पुरुषः सत्वधनैरसाधिः ॥ १४॥ किंबहुना ॥ ज्योत्स्ना मंजुलया ययाध वलितं विस्वंतरामंडल।यानिशेषःविशेषविज्ञजनताचित्तश्चमत्कारिणी ॥ तस्याश्री विजयेन्दुसूरिसुगुरोनि कृत्रिमायागुण ॥ श्रेणेःस्याद्यदि वास्तवस्तवकृतौविज्ञः सचावांपति ॥१॥तत्पाणि पङ्कजरजः परिपूतशीर्षाः। शिष्याः स्त्रयोदधतिसंप्रतिगच्छभारं॥ श्रीवत्रसेन इतिसद्गुरुरादिमोत्र । श्रीपद्मपन्द्र गुरुस्तु ततोद्वितीयः ॥१६॥ तात्तीयीकस्तेषांविनेयपरमाणुरनणुशास्त्र ऽस्मिन् ॥ श्रीक्षेमकीतिसूरिविनिर्ममेवितिकल्पमिति ॥१७॥ श्रीविक्रमतःक्रामति नयना निगुणेन्दुपरिमितेवर्षा ज्येष्ठश्वेतदशम्यांसमर्थितेषाचहस्ताकै ॥१८॥ प्रथमादर्श लिखता नयप्रभप्रभृतियतिभिरेषा ॥ गुरुतरगुरुभक्ति भरोध्वहनादिवननितशिरोभिः॥ १९ ॥ इहवा ॥ सूत्रादर्शषुयतो भयसोवाचनाविलोक्यंते ॥ विषमाश्चमाध्यगाथाः प्रायः स्वल्पाश्वचूर्णिगिरः॥ २०॥ ततः॥ सूत्रेवा भाष्येवा यन्मत्तिमोहान्मयाउन्यथा किमपिलिखितंवाविरतं वा तन्मिथ्यात्कृतंभयात् ॥२१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७५ ] देखिये ऊपरके पाठमें श्रीजगच्चन्द्रसरिजीको श्रोचैत्रवालगच्छके श्रीदेवभद्रोपाध्यायजीके शिष्य लिखे परन्तु श्रीवडगच्छके श्रीसोमप्रभसूरिजीके तथा श्रीमणिरत्नसूरिजीके शिष्य तो नहीं लिखे सो इसी तरहसे श्रीदेवेंद्रसूरिजीने भी श्रीधर्मरत्नप्रकरणकी त्तिकी प्रशस्तिके पाठमें श्रीजगच्चन्द्रसूरिजीको श्रीवडगच्छके श्रीसोमप्रभसूरिजी तथा श्रीमणिरत्नसूरिजीके शिष्य न लिखके श्रीचैत्रवालगच्छके श्रीदेवभद्रोपाध्यायजीके शिष्य लिखे है सो पाठ तो न्यायांभोनिधिजीनेही “चतुर्थस्तुति निर्णय" की पुस्तकमें लिख दिखाया है सो ऊपरमें भी छप चुका है तो फिर उपरोक्त प्राचीन प्रभावक विद्वान् पुरुषोंके कथन किये हुए पाठोंका उत्थापनरूप और किसी भी शास्त्र प्रमाण बिना अपनी कल्पना मुजब मिथ्या आलम्बनोंसे दूसरी वार शुद्ध संयम ग्रहण करने वाले श्रीजगच्चन्द्रसूरिजीको श्रीवडगच्छके शिथिलाचारी श्रीसोमप्रभसूरिजी तथा श्रीमणिरत्नमूरिजीके शिष्य लिखना मानना यह कोई आत्मार्थी का तो काम नहीं हैं इसका विशेष खुलासा ऊपरमें छप चुका हैं। __और श्रीवडगछमें भो तो बहुत आत्मार्थी शुद्ध शंयमी पूर्वाधार्य होगये परन्तु कर्मों की विचित्रतासे श्रीजगचन्द्रसूरीजी के ही गुरुजी वगैरहोंकी थोडीसीही पेढियों में शिथिलाचारकी प्रति होगई होगी किन्तु सब बड़गच्छमें नहीं इसलिये श्रीवडगच्छके आत्मार्थी शुद्ध संयमी सबको शिथिलाचारी नहीं समझना चाहिये । अब न्यायांभोनिधिजीके समुदाय वाले वगैरह महाशयों को मेरा यही कहना है कि उपरोक्त "चतुर्थ स्तुति निर्णय"को पुस्तकके ऊपरके लेखमें न्यायांभोनिधिजीने तीन थुईके मतको प्ररूपणा करनेवाले श्रीरत्न विजयजी ( श्रीराजेन्द्रसूरिजी ) के गुरुजी वगैरह ३।४ पेढीवालेसंयमी नहीं थे इसलिये श्रीरत्नShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७६ ] विजयजीको किसी संयमी गुरुके पास क्रिया उद्धार करके पुनर्दीक्षा लेने सम्बन्धी 'भवभीरू' 'आत्महितार्थी वगैरह शब्दों पूर्वक उनको आगमकी आज्ञा भङ्ग रूप दूषणसे वचनेके लिये खूब सुस्पष्टतासे उपदेश दिया तथा जबतक श्रीराजेन्द्रसूरिजी क्रियाउद्धार करके दूसरे शुद्ध संयमी गुरुको धारण न करे तबतक उनको साधुमाननेकी मनाई करी जिसपर भी भोलेजीव उनको साधुमाने तो असाधुको साधु मानने रूप मिथ्यात्वी ठहराये और क्रिया उद्धार सम्बन्धी शास्त्र मर्यादाके पाठ भी दिखाये और उसके दृष्टान्तरूपमें श्रीदेवेन्द्रसूरिजी कृत पाट भी दिखाया तो फिर श्रीजगचन्द्रसूरिजी महाराजने क्रिया उद्धार करके दूसरेको गुरु माने थे तिसपर भी उन्होंकी गुरु परंपरामें लिखनेका छोडकर श्रीजिनाज्ञाभङ्गसे अपने संसार बढनेका भय न करके पहिलेकी परंपरा में लिखनेका ऐसा प्रत्यक्ष विरुद्ध आचरण न्यायांभोनिधिजीने तो अन्धपरंपरासे कर दिया परन्तु अब उन्होंकी समुदाय वालोंको अभिनिवेशिक मिथ्यात्व का हठवाद अन्धपरंपराको छोडकर श्रीजिना. जानुसार प्रोजगधन्द्रसूरिजीको वडगच्छमें लिखना मानना छोडकर श्रीचैत्रवालगच्छ, लिखना अवश्यही मान्य करना चाहिये परन्तु विद्वत्ताके अभिमानादि कारणोंसे विरुद्ध बातको ही अन्धपरंपरासे पुष्टकरके चलाते रहना उचित नहीं है। अब पाठकगणसे मेरा (इस ग्रन्धकारका) इतनाही कहना है कि 'हीर सौभाग्य काव्य' तथा 'विजयप्रशस्ति महाकाव्य' और श्रीमुनि सुन्दरसूरिजी कृत 'त्रिदश तरंगिणी' और धर्मसागरजी कृत 'पहावली' वगैरह जोजो श्रीतपगच्छकी पहावलियों में और अन्य ग्रन्थों में जिस जिस जगह पर श्रीजगच्चन्द्रजीने अपने वह गच्चमेसे शिथिलाचारको छोड़करके श्रीचैत्रवाल गच्छमें दूसरीवार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [99] शुद्ध दीक्षा अङ्गिकार करी थी जिस पर भी इन महाराजको श्रीचैत्रवालगच्छकी परम्परामें न लिखकर भद्रजीवोंको भरमाने के लिये साह्यता वगैरहके कल्पित आलम्बनोंसे श्रीवडगच्छकी परम्परा में लिखे हैं सो उपरोक्त कथनानुसार सर्वथा श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध होनेसे अप्रमाणिक समझना परन्तु जिस जिस ग्रन्थ में श्री चैत्रवाल गच्छकी परम्परा लिखी होवे सो श्रीजिनाज्ञानुसार प्रमाणिक समझना चाहिये । और वर्तमानिक कितनेही गच्छवाले यति लोग, चैत्रवालगच्छ के चैत्यवासी श्रीजगन्चन्द्रसूरिजी से तपगच्छ नाम प्रगट हुआ. कहते हैं सोभी प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि यह महाराज पहिले वडग में शिथिलाचारी थे परन्तु पीछेसे शिथिलाचार छोड़कर क्रिया उद्धार करके चैत्रवालगच्छ में तो दूसरी बार शुद्ध संयम ग्रहण किया था और पीछेसे वैराग्यभावसे खूब कठिन तपश्चर्या जीवित पर्यन्त आंबीलकी तपस्या करने लगे थे तब राजाने बहुत तपस्वी दुर्बल शरीरवाले देखकर " महातपा" विरुद दिया था परन्तु कालांतर में लोग 'महातपा' का 'महातमा ' ऐसा कहने लग जायेंगे इसलिये 'महा' शब्दको छोड़ कर 'तपा' कहने लगे उस दिनसे इन महाराज के समुदायवाले श्रीतपगच्छके कहलाने लगे है इसलिये इन महाराजको चैत्रवाल गब्बके चैत्यवासी कहना मिथ्या है। और वर्तमानिक तपगच्छवालोंका वड़गच्छसे तपगच्छ हुआ ऐसा कहना भी उपरोक्त लेखसे जिनाजा विरुद्ध मिथ्या ठहरता है सो तो विवेकी जन स्वयं विचार लेवेंगे । और वर्तमान कालमें जो जो आत्म कल्याणाभिलाषी जन अपना शिथिलाचारको छोड़कर क्रिया उद्धारसे दूसरी बेर शुद्ध संयम लेनेवाले महाशयोंको भी किसी संयमीको गुरु धारण करना उचित है परन्तु श्रीराजेंद्रसूरिजी की तरह दूसरा गुरु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७८ ], धारण किये विना स्वयं क्रिया उद्धार करना शास्त्र मर्यादा विरुद्ध है और क्रियाउद्धार करने में देशकालानुसार व्यवहार शुद्ध देखलेना और न्यूनाधिक विद्वत्ता वगैरह सब गुणतो वर्तमानकाले दूसरेमें मिलने मुश्किल है इसलिये अभिमान छोड़कर छिद्रग्राही न होते हुए जिनाज्ञा आराधन करनेके लिये शास्त्रोक्त प्रमाणानुसार श्रीजगच्चन्द्रसूरिजी महाराजकी तरह क्रिया उद्धार करना चाहिये। __ और श्रीजगचन्द्रसूरिजीकी वडगच्छमें तथा चैत्रवाल गच्छमें दोनों गच्छों में परंपरा लिखना मान्य करो तो भी आत्मार्थी शुद्ध संयमियोंको तो श्रीचैत्रवालगच्छकी परंपरा मान्य करनी पडेगी और शिथिलाचारियोंको वडगच्छको सो इस न्यायसे भी तो श्रीदेवेंद्रसूरिजी वगैरह महाराजोंकी परंपरा श्रीचैत्रवाल गच्छसे मिलाना ठहरता है नतु वडगच्छसे इसको भी तत्वज्ञजन स्वयं विचार लेवेंगे। बस इसी तरहसे न्यायांभोनिधिजीने श्रीजगच्चन्द्रसूरिजी महाराजको श्रीचैत्रवालगच्छके श्रीदेवभद्रोपाध्यायजीके शिष्य पने लिखने, मानने का छोडकर श्रीवडगच्छके श्रीसोमप्रभसरिजीके तथा श्रीमणीरत्नसूरिजीके शिष्य लिखने मानने रुप अपनी विरुद्धाचरणकी बातको दबादेनेके लियेही तो श्रीजिनेश्वरसूरिजी, श्रीअहिलपुरपट्टणमें श्रीदुर्लभराजाकी पाठांतरसे श्रीभीमराजा की राज्य सभामें चैत्यवासियोंसे साधुके वर्ताव सम्बन्धी विवाद करके उन्होंकी अविधि उत्सूत्रता शिथिलताको सबके सामने प्रगट करते हुए शास्त्रोक्त साधुके वर्ताव में आप विशेष सच्चे ( अतिशयखरे ) रहे तब राजाने उन चैत्यवासियोंको कहा कि तुमतो साधुके वर्तावमें कवले (शिथिल ) हो और श्रीजिने खरसूरिजीको कहा आप खरतर ( अतिशय विशेष सच्चे ) हो इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९ ] तरहसे उस दिनसे उन चैत्यवासियोंकी परंपरावाले 'कवले' कहलाये और इन महाराजके परंपरा वाले 'खरतर' कहलाये इसलिये श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजके शिष्य श्रीजिनचन्द्रसरिजी तथा श्रीनवांगीत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी श्रीजिनवल्लभसरिजी श्रीजिनदत्तसरिजी वगैरह शासन प्रभावक महाराज सबी श्रीखरतरगच्छकी परंपरामें हुए हैं सो शास्त्रोंके प्रमाणोंसे और युक्तियोंके अनुसार प्रगटपने स्वयं सिद्ध हैं तथा ऐसेही श्रीतपगच्छादिके पूर्वाचार्यों ने भी अपने बनाये ग्रन्थों में खुलासा पूर्वक लिखा है तिसपर भी न्यायांभोनिधिजीने अपने पूर्वज पुरुषोंके कथनको और शास्त्र प्रमाणानुसार सत्य बातको उत्थापन करके श्रीजिनेश्वरसरिजीको खरतर विरुद नहीं मिलनेका ठहरा करके श्रीनवांगीत्तिकारक श्रोअभयदेवसूरिजी खरतरगच्छमें नहीं हुए ऐसा कहते हुए व्यर्थ द्वेष बुद्धिसे प्रत्यक्ष मिथ्या जूठे आलंबनोंसे शासन प्रभावक परमोपकारी श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज पर कितनीक बातोंके झूठे दोष लगाके इन महाराजसे सम्बत् १२०४ में खरतरगच्छकी उत्पति होनेका “जैन सिद्धांत समाचारी” परन्तु वास्तव में “उत्सूत्रोंकी कुयुक्तियोंको अन्धखाड" नामक पुस्तकमें तथा 'जैनतत्वादर्श' वगैरहोंमें लिखने वाले (न्यायांभोनिधिजी वगैरहों ) ने अपने महाव्रतका भंग करके मिथ्या भाषणके लेखोंसे भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरकर अपने और दूसरे भद्र जीवोंके संसार बढ़ानेका कारण करते हुए आपसमें कदाग्रहका झगड़ा बढ़ानेका कारण किया जिसका निवारण करनेके लिये तथा ऊपरकी बात पाठकगणको विशेष निःसन्देह होनेके लिये यहां पर थोड़ेसे शास्त्रोंके प्रमाणों सहित, प्रत्यक्ष प्रमाणों पूर्वक युक्ति के साथ संक्षिप्तसे निर्णय करके दिखाता हूं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 50 ] सो प्रथम तो श्रीतपगच्छ नायक सुप्रसिद्ध श्री सोमसुन्दर सूरिजी के शिष्यश्री चारित्ररत्नगणिजी के शिष्य श्री सोमधर्मगणिजीने विक्रम संवत् १५ सौके अनुमानमें श्री "उपदेश सत्तरी” नामा ग्रन्थ बनाया है उसमें श्रीजिनेश्वरसूरिजी से खरतरगच्छ तथा नत्रांगी वृतिकारक श्रीअभयदेव सूरिजी खरतरगच्छ में हुए हैं ऐसा खुलासा पूर्वक लिखा है जिसका पाठ नीचे मुजब है । जयत्यसौ स्तंभन पार्श्वनाथः प्रभावपूरैः परितः सनाथः ॥ स्फुटीचकाराभयदेवसूरि भूमिमध्यास्थित मूर्त्तिसिद्धं ॥ १ ॥ पुरा श्री पत्तने राज्यं ॥ कुर्वाणे भीमभूपतौ ॥ अभूवन् भूतलाख्याताः ॥ श्री जिनेश्वर सूरयः ॥ २ ॥ सूरयो भयदेवाख्यास्तेषां पट्टे दिदीपिरे ॥ येभ्यः प्रतिष्ठामापन्नो गच्छः खरतराभिधः ॥ ३ ॥ तेषामाचार्याणां मान्यानां भूभृतामपि ॥ कुष्टव्याधिरभूद्देहे, प्राच्यकर्मानुभावतः ॥४॥ ततः श्री गूर्जर यात्रायां, स्थंभनकपुरं प्रति ॥ शक्त यत्पत्येपिते चक्रे विहारं मुनिपुंगवाः ॥५॥ रोगग्रस्ततयात्यंतं । संभाव्यस्वायुषः क्षयं ॥ मिथ्यादुः कृतदानार्थं । सर्व श्रीसंघ माहूयत् ॥ ६ ॥ तस्यामेव निशीथिन्यां स्वशासनदेवता ॥ प्रभोखपिषि जागर्षि, किंचेत्या हगुरुप्रति ॥ 9 ॥ रोगेणक्का स्तिमेनिद्रेत्युक्त देवी गुरु जगौ ॥ उन्मोहयततर्ह्येषा सूत्रस्यनवकुर्कुटीः ॥८॥ शक्तेरभावात् किंकुर्वे, साइमेवंचोवद ॥ त्वमद्यापि नवांग्या यदुवृत्तीः स्फीताः करिष्य सि ॥९॥ श्रीसुधर्मकृत ग्रन्थान् कथमन्याम्यहं ॥ पंगोः प्रत्येतिको नाम मेर्वारोहण कौशलं ॥ १० ॥ देव्याह यत्र संदेहः स्मत्तंव्याई वयातदा ॥ यथाभिनद्भितान् सर्वान्पृष्ट्वा सीमंधरं जिनं ॥ ११ ॥ रोगग्रस्तः कथंमातः, करोमि वितीरहं ॥ सावादीत्तत्प्रतीकारं किंतू पायमिमं शृणु ॥ १२ ॥ अस्तिस्तंभनक ग्रामे खेढीनाम महा नदी ॥ तस्यां श्रीपार्श्वनाथस्य प्रतिमास्त्यतिशायिनी ॥ १३ ॥ यत्र च क्षरति क्षीरं प्रत्यहं कपिलेतिगौः तत् सुरोत्खा भूमीच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८१ ] द्रक्षसि प्रतिमा मुखं ॥१४॥ तदेवं स प्रभाव तदिबं बंधे स्वभावतः॥ यथा त्वं स्वस्थ देहस्या दिति प्रोच्यगता सुरी॥ १५॥ प्रातर्जागरित स्तेय स्वप्नार्थ मप्रबुद्धयच ॥ समं समग्र संघेन चेलु स्तंभनक प्रति ॥ १६॥ तत्र गत्वा यथा स्थाने प्रेक्ष्यपार्श्वजिनेवरं। उल्ल सत्सर्व रोमांच एवं ते तुष्टुवुर्मुदा ॥१७॥ जय तिहुअण वर कप्परुख जय जिण धन्वंतरि, जय तिहुअण कल्लाण कोस दुरिम ककरि केसरि ॥ तिहुअण जण अविलंघिआण भुवण त्तय सामिय कुणम् सुहाई जिणेसपास थंभणय पुरद्विय ॥ १८ ॥ बत्त तुषोडशे सार्चा सर्वाङ्गा प्रगटाभवत् ॥ अतएवाग्र हत्तेतैः पच्चख्खेतिपदं कृतं ॥ १९ ॥ फणि फण फार फुरन्त रयण कर रंजिय नहयल, फलिणी कंदल दल तमाल नीलुय्पल सामल ॥ कमठा सुर उवसग्ग वग्ग संलग्ग अगंजिय, जय पच्चख्ख जिणेस पास थम्भणय पुर द्विय ॥ २०॥ एवं द्वात्रिंशता तैस्तुष्टवुः पार्वतीर्थपं ॥ श्रीसंघोपि महापूजा द्युत्सवान्तत्रनिर्ममे ॥ २१ ॥ अंत्यवृत्त्यद्वयं तत्र त्यक्त्वा देव्यपरोधतः ॥ चक्रिरेत्रिशताबत्तः स प्रभावं स्तवंहिते ॥ २२॥ तत्काल रोगनिर्मुक्ताः सूरयः स्तेपि जज्ञिरे ॥ नव्य कारित चैत्येच प्रतिमा सा निवेशिता ॥ २३ ॥ स्थानांगादि नवांगानां चक्रुस्ते विकृतीः कमात्॥ देवता वचनं नस्यात्कल्पांतेपिहिनिःफलं ॥ २४ ॥ सौवर्ण नव्य निष्पन् ग्रंयपुस्तक संचयं ॥ दृष्ट्वा उत्तरिकाभूपादिभिर्दिव्यानुभावतः ॥ २५ ॥ पत्तने भीमभूपालो द्रव्यलक्षत्रय व्ययात्॥ लेखया मास ताः सर्वात्तोः स्वपरसूरिषु ॥ २६ ॥ एवं ते सूरयो भरिकालं श्रीवीरशासने ॥ चिरं प्रभावनां चक्रुः प्राप्त सार्व त्रिकोदया ॥ २७ ॥ आज्ञायमानादिरमर्त्य नायक, श्रीरामकृष्णोरूगपांडुगादिभिः ॥ नाना विधस्थान कृतार्चनश्चिरंपाव, प्रभुः पातु भावात् सदेहिनः ॥२८॥ अथवा पार्श्वे श्रीकुंथुनाथस्य,मम्मण व्यवहारिणा॥पृष्टं मोक्षः कदाभावी, ममस्वाभ्यपितं जगौ ॥२९॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८२ ] तीर्थे श्री पार्श्वनाथस्य तव सिद्धिर्भविष्यति ॥ अचीकरदिमामची ततो साविति केचन ॥ ३०॥ इत्युपदेशसप्तत्यां 'द्वादशोपदेशः ॥ देखिये ऊपर के पाठ में श्रीतपगच्छ वालोंनेही अपने बनाये ग्रंथ में पत्तननगर में श्रीभीमराजा और श्रीजिनेश्वर सूरिजी - तथा इन्ही महाराजके शिष्य श्रीनवांगी वृत्ति कारक श्री अभयदेव - सूरिजी को " गच्छः खरतराभिधः” याने श्रीखरतरगच्छ में होनेक प्रगटपने लिखा है और इन महाराजके शरीर में बहुत व्याधि उत्पन्न होजानेसे स्वप्न में शासन देखीने आकर रोग निवारण करने के लिये स्थंभनक ग्रामके पास सेढीनामा नदीके नजीक महा प्रभावशाली अतिशय युक्त श्री पार्श्वनाथजीकी प्रतिमा भूमिके अंदर है उसपर कपिला गऊ नित्य दूधसे स्नान कराती है वहां जाकर उस प्रतिमाको प्रगट करनेसे रोग मुक्त होनेका और नवांग सूत्रोंको टीका करने को कहा तब महाराजने श्रीसंघ सहित वहां जाकर "जयतिहुयण" इत्यादि भगवान्‌को स्तुतिकरनें लगे सो " फणफण" इत्यादि १६वींगाथा बोलतेही प्रतिमा प्रगट होगई और श्रीसंघने भक्ति सहित महापूजा करी उस स्नात्रपूजाके न्हवण जलसे महाराजका शरीर अच्छा हुआ और अनुक्रमे श्रीस्थानांगादि नवअंगों की वृत्तियें करके श्रीवीरप्रभुके शासनकी उन्नति करते हुए बहुत भव्यजीवों का उपकार करके देवलोक पधारे सो खुलासा लिखा है ऐसे महाप्रभावक नवांगी वृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजको उपरोक्त 'उपदेशसम्प्रति' केपाठ में खरतरगच्छके लिखे हैं । २ और दूसरा " मोहन चरित्र” के दूसरे सर्ग में भी भीमराजाने श्रीजिनेश्वर सूरिजी को खरतर विरुद देनेका लिखा है जिसका पाठ मीचे मुजब हैं महावीरात्सुधर्मार्थ- जम्बू श्रीप्रभवादयः । आचार्याः क्रमशोअभूवन् नवत्रि ंशत्सुसंयताः ॥ ४१ ॥ चत्वारिंशास्ततो भूव-न्यूर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] यः श्रीजिनेश्वरः । अणहिलं पत्तनं ते विहरन्तः समागमन् ॥ ४२ ॥ धर्मोद्योतं कृतं तत्र श्रीजिनेश्वर सूरिभिः । वीक्ष्य भीमनृपः सद्यः प्रससाद महामनाः ॥ ४३ ॥ प्रतिवादि मतोत्साद एते खरतरा इति । तेभ्यः खरतरेत्याख्यं विरुदं प्रददौनृपः ॥ ४४ ॥ गगनेभव्योमचन्द्र - मितेविक्रमसंवदि । अलभन्त नृपादेतद् विरुदं श्रीजिनेश्वराः ॥ ४५ ॥ शासने वर्धमानस्य कुलचन्द्रंपुरातनम् । तस्मादारभ्यलोकेऽस्मिन्नाप्नोत्खरतराभिधाम् ॥ ४६ ॥ तत्पहेजिनचन्द्राख्या अभवन्सूरयस्ततः । संवेगरङ्ग शालादि ग्रन्थरत्नविधायकाः ॥ ४७ ॥ सूरयोऽभयदेवाख्या - स्तेषांपट उतिविश्रुताः । नवांङ्गो सिकर्तारोऽभूवंस्तीर्थप्रभावकाः ॥ ४९ ॥ ततस्तेषां पहुआसन्सुरयो जिनवल्लभाः । संघपहादिकर्तारो भव्य बोध विशारदाः॥ ४९ ॥ तेषां जज्ञिरेऽथ जिनदत्तादयोऽमलाः । सूरयः संयममिताः शासनोन्नति कारकाः ॥ इत्यादि ॥ देखिय ऊपरके पाठ में भी श्री अणहिलपुर पहणर्मे प्रतिवादि को जीतने से श्री भीमराजाने विक्रम संवत् १०८० में श्रीजिनेश्वर सूरिजीको खरतरविरुद दिया और इन्हीं महाराजके शिष्य श्री जिनचंद्रसूरिजी तथा श्रीनवांगी वृत्तिकारक श्रीअभयदेव सूरिजी और श्री जिनवल्लभ सूरिजी वगैरहों को अनुक्रमे पट्टधर लिखे हैं । ३ तीसरा फिर भी श्री तपगच्छके श्री हेमहंस सूरिजीने श्री “कल्पांतरवाच्य” में भिन्न भिन्न गच्छोंके प्रभावक पूर्वाचार्यो के संबंध में श्री नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरिजोको तथा इन महाराजके शिष्य श्रीजिनबल्लभ सूरिजीको श्रीखरतरगच्छ के लिखे हैं जिसका लेख नीचे मुजब है । नवांग वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि. जेणे थंभणइ गामह श्री सेढ़ो नदी नइ उपकंठइ श्रीपार्श्वनाथ तणी स्तुतिकीधी धरणेंद्र प्रत्यक्ष कीधन शरीरतणड कोढ रोग उपसमाव्यत तेहना शिष्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८४ ] श्रोजिनबल्लभसूरि थया ते चारित्र निर्मल अनेक ग्रन्थ तणउ : निर्माण कीधड इणइ अनुक्रमइ ! श्रीखरतरपक्षइ अनेक सूरिवर ! सातिशयइ थया, इत्यादि ॥ ४ चौथा और भी श्रीतपगच्छ के श्रीमुनिसुंदर सूरिजी ने " त्रिदश तरंगिणी" में उपरोक्त 'उपदेश सत्तरी' तथा 'कल्पांतरवाच्य' मुजब ही श्रीनवांगी वृत्तिकारक श्री अभयदेव मूरिजी के शिष्य श्री जिनवल्लभ सूरिजी और इनके शिष्य श्रीजिनदत्त सूरिजी को लिखे है जिसका पाठ नीचे मुजब है यथा व्याख्याताभयदेव सूरि रमल प्रज्ञो नवांग्या पुनः, प्रौढिं श्री जिनवल्लभोगुरुरधीत् ज्ञानादि लक्ष्म्याः पुनः ॥ भव्यानां जिनदत्त सूरिरददद्दीक्षां सहस्त्रस्यतु, ग्रन्थान् श्रीतिलकञ्चकार विविधान् चन्द्रप्रभाचार्यवत् ॥ १ ॥ ५ पांचवां श्रीतपगच्छके श्रीरत्नशेखरसूरिजी ने भी श्रीआचार प्रदीप मे श्रीजिनदत्त सूरिजीको श्रीखरतरगच्छ के लिखे हैं सो ग्रन्थ अबी मेरेपास नहीं है इसलिये उस पाठको यहां नहीं लिख सकता परन्तु 'आचारप्रदीप' मूल ग्रन्थ तथा भाषांतर छपा हुआ प्रसिद्ध है सो पाठक गण स्वयं देख लेवेंगे ६ छटा और भी देखो खास न्यायांभो निधिजीने ही 'चतुर्थं स्तुति निर्णय' की पुस्तक में श्री अभयदेव सूरिजी को खरतरगच्छ के लिखे हैं जिसके पृष्ठ १०० की पंक्ति २० से पृष्ठ १०८ की पंक्ति १० तकका लेख नीचे मुजब है तथा श्री अभयदेवसूरिने तथा तिनके शिष्यने देवसि पडिक - मोकी आदिमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है और श्रुतदेवता अरु क्षेत्र) देवताका कायोत्सर्ग करना तथा तिनकी यह कहनी कही है तथा सम्यक्त्व देशविरत्यादिके आरोपणेकी चैत्य वंदना में प्रवचन देवी, भुवन देवता, खेत्र देवता, वेयावच्चगराणं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८५ ] इनके कायोत्सर्ग और इन सर्वो की पृथग् पृथग् थुइ कहनी कही है इस समाचारोके अंत श्लोक में ऐसें लिखा है के श्री अभयदेवसूरि के राज्य में यह समाचारी रची गई है और इसी पुस्तककी समाप्ति में ऐसे लिखा है इति श्रीखरतरगछे श्री अभयदेवसूरि कृता समाचारी संपूर्णा । यह पुस्तकभी हमारे पास है किसीको शंका होवे तो देख लेवे ॥ देखिये ऊपर के लेख में न्यायांभोनिधिजीने तीनथुइ वालों के कदाग्रहको हटानेके लिये श्रीअभयदेवसूरिजी को श्रीखरतर गच्छ के लिखके इन महाराजके कथनसे प्रतिक्रमणमे च्यारथुइ कहना ठहराया और श्रीखरतर गच्छके अभयदेवसूरिजी कृत समाचारीके लेखमें किसी को शङ्का होवे तो खास उस पुस्तकको देखा करके लोगोंको शंकाकानिवारण करनेकेलिये खुलासा सूचना करी है । 9 सातवा और भी सुप्रसिद्ध १४४४ ग्रन्थकारक श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज कृत श्री 'अष्टक' जी नामा ग्रन्थकी टोका श्री जिनेश्वरसूरिजोने विक्रम सम्बत् १०५० में बनाई है और उस टीकाको श्री अभयदेवसूरिजीने शुद्ध करो है सो वो श्री अष्टकजी नामा ग्रन्थ भाषान्तर सहित छपकर प्रकाशित हो चुका है उसकी 'प्रस्तावना' में उपरोक्त इन तीनों महाराजोंके संक्षिप्त चरित्र लिखे हैं उसमेंसे यहां श्री जिनेश्वरसूरिजी के तथा श्रीअभदेवसूरिजी के चरित्र लिख दिखाता हूँ सो नीचे मुजब है । श्रोजिनेश्वरसूरिजी महाराज । आ " अष्टकजी” नामना ग्रन्थनी टीका करनारा श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराज विक्रम संवत् एक हजारना सैकामां विद्यामान हता एम संभवे छे। ते श्रीवर्द्धमानसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य हता, अने श्रीअभयदेवसूरिजी जिनचद्रसूरिजी, तथा जिनभद्रसूरिजीना गुरु हता । ते ओ संसारी पणामां सोम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ ] नामना ब्राह्मणना पुत्र हता । तथा तेमनु नाम शिवेश्वर हतु तथा मालवाना रहेवासी हता. तेओ गुजरातना राजा दुर्लभसेनना समयमां चैत्यवासीओ साथे धर्मवाद करवाने पोताना भाई बुद्धिसागरजीनी साथे गुजरातमां आव्या इता; तथा त्यां दुर्लभसेनराजानी सभामां सरस्वती भाण्डागारमांधी मंगावेलीदशवेकालिकनी टोकामांथी साध्वाचार प्रकरण वांचीने तेमणे चैत्यवासीओने इराव्या हता; अने एवी रोते सभाने जीतवाथी राजाए तेमने “खरतर" नामनुं विरुद आप्यु इतु, तेमने अ अष्टकनी टीका विक्रम सम्बत् १०५० मां जावालपुर नामना गाममां बनावी छे; वली तेमणे पञ्चलिंगोप्रकरण, वोरचरित्र, तथा सम्वत् १०९२ मां आसापलीमां रहोने लीलावती कथा, तथा डौंडीयानक मां रहोने कथानककोश विगेरे ग्रन्थो बनाया छे । श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज । आ ग्रन्थनी टीकाना शोधनार श्री अभयदेवसूरि महाराज पण विक्रम संवत् एक हजारना सैकामां विद्यमान हता, तेम कहेवुं निर्विवादज छे, तेमनो जन्म धारा नगरीना व्यापारी घननो स्त्री धनदेवीनी कुक्षिये थयो हतो, तथा संसारीपणामां तेमनुं अभयकुमार नाम हतु ते श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराजना शिष्य इता, तेमने विक्रम संवत १०८८ मां सोल वर्षनी वयेज आचार्य पदवी मली इतो, अने तेथी तेमनो जन्म विक्रम संवत् १०१२ मां होवानुं साबित थाय छे, वली विचारामृत नामना ग्रन्थमां कहेलु छे के, तेमणे विक्रम संवत् ११२५ मां धोलकामां रहीने श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजना बनावेला पञ्चाशक नामना ग्रन्थपर टोका रची छे, तेम तेमणे त्रणथी मांडीने अग्यार सुधिना एटले नव अङ्गोनी टीका ओ, जयतिहुअणस्तोत्र, जिनचन्द्रगणिजीए बनावेला नवतत्वप्रकरणनी टोका, निगोदषट् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [9] त्रिंशिका, पञ्चनिग्रन्यविचारसंग्रहणी पुद्गलषट्त्रिंशका, संग्रहणी जिनभद्रजीए बनामेला विशेषावश्यकभाष्यपर टोका, हरिभद्रसूरिजीना बनावेला षोडशकनी टीका, देवेन्द्र महाराजे बनावेला सतारिकप्रकरणनो टोका विगेरे अनेक ग्रन्थो बनावेला छे, एवोरीते ६० वर्षोनु' आयुष्य संपूर्ण करीने विक्रम संवत् १९३९ मां कपडवंजमा तेमनु देवलोकगमन थयुं, एवी रीते महान् आचार्योनो संक्षपथी इतिहास जाणवो । ८ आठवा और भी श्री जैनधर्मके प्राचीन इतिहासको दोनों पुस्तकों में श्री जिनेश्वरसूरिजीका चरित्र नीचे मुजब लिखा है । जिनेश्वरसूरि - आ महान् आचार्य, उद्योतनसूरिना शिष्य वर्धमान सूरिना शिष्य हता, तथा नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरिना गुरु हता । खरतरगच्छ आ आचार्यथी चाल्यो छे, ते विक्रम संवत् १०८० मां विद्यमान हता । तेमणे जावालपुरमां रहोने हरिभद्रसूरिजीना अष्टकपर टीका रचेली छे । तेमने गुजरातना राजा दुर्लभसेन तरफथी खरतरनु विरुद मल्युं हतुं । वली तेमणे पंचलिंगीप्रकरण, वीरचरित्र, लीलावतीकथा, कथारत्नकोष विगेरे अनेक ग्रंथों रचेला छे। तेमने माटे प्रभाविकचरित्रमां प्रभाचंद्रसूरिओ नीचे प्रमाणे वृत्तांत आपेलु छे । मालवा देशमां आवेठी धारा नगरीमां ज्यारे भोज राजा राज्य करता हता त्यारे त्यां लक्ष्मीपति नामनो एक महाधनाढ्य व्यापारी रहेतो हतो । एक दहाडो त्यां महा विद्वान् श्रीधर अने श्रीपति नामना ब्राह्मणना पुत्रो देशो जोवानी इच्छाधी आवी चड्या, तथा भिक्षा माटे ते लक्ष्मीपतिने घेर आववाथी तेणे तेओने भक्तिपूर्वक भिक्षा आपी । ते शेठना घरनी भींतपर हकेशां लेख लखाता हता । ते लेखने आ बुद्धिवान बन्न ब्राह्मणो हमेशां जोता । अने तेमनी अपूर्व याद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८८ ] शक्तिथी ते लेख तेओने कंठे थइ गयो। एक दहाडो ते नगरमा आग लागवाथी ते शेठनु घर धनमाल सहित नष्ट थयुं । ते दिवसे ज्यारे ते बन्ने ब्राह्मणपुत्रो ते शेठनेघेर आव्या, त्यारे तेओ ते शेठने शोकमां निमग्न थलो जोइ अत्यंत दिलगीर थया। शेठे तेओने कह्य के, हे ब्राह्मणपुत्रो! मने मारा द्रव्यादिकमी हानिथी शोक थतो नथो, पण मारा लेखनी हामिथी मने घणुं दुःख थाय छे। त्यारे ते ब्राह्मणपुत्रो का के, हे यजमान ! अमो गरीब भिक्षुको आपने बीजो उपकार करवाने तो असमर्थ छैये, तो पण तमोने तमारा ते लेखनी जो इच्छा होशे तो अमो ते आपने यथास्थित लखी आपोशु। ते सांभलो अत्यन्त हर्षित थला ते लक्ष्मीपति शेठे तेमने उचा आसन पर बेसाडी अत्यंत सन्मान आप्यु। पछी तेओले तिथिवार पूर्वक ते समस्त लेख शेठने लखी आप्यो, ते जोद शेठे विचायु के, अहो ! आ तो मारा पूर्वभाग्यना प्रबलथी कोइक मारा गोत्रदेवोज मने प्राप्त थया छ !! पछी ते शेठे तेमने उत्तम भोजन तथा वस्त्रादिकथी सन्मान आपीने पोताने घेर चाकर राख्या। बाद तेओ बन्नेने जितेंद्रिय अने शांतस्वभावी जोइने शेठे विचार्य के, आमने जो मारा आचार्य शिष्यो करे, तो खरेखर जैनशासनने दीपावनारा तेओ थाय। अटलामा त्यां श्रीवर्धमानसूरि पधारवाथी ते लक्ष्मीपति शेठ ते बन्ने ब्राह्मणपूत्रोने साथे लेइने तेमने वांदवामाटे तेमनी पासे. गयो। तेओनां हस्तरेखा आदिक चिन्हो जोइने गुरु तेमने दिक्षायोग्य जाणीने लक्ष्मीपतिनी अनुज्ञापूर्वक दीक्षा आपी। दीक्षाबाद तेओ योगवहनपूर्वक सर्व सिद्धांतोनो अभ्यास करीने पंच महाब्रतो निरतिचारे पालवा लाग्या। छेवर्ट तेओने. योग्य जाणीने गुरु महाराज आचार्यपद आपी तेओनां अनुक्रमे . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८९ ] जिनेखरसूरि तथा बुद्धिसागरसूरि नाम पाड्यां पछी भीवर्द्धमानसूरिजीओ तेओने कह्यु के आज कल अणहिलपुर पाटणमा चैत्यवासीओनु घj जोर होवाथी त्यां शुद्ध मुनिराजोने रहेवाने स्थानक मलतु नथी, माटे ते उवद्रवने तमो बन्ने तमारी शक्ति अने बुद्धिथी त्यां जइ निवारण करो? केमके, आ सांप्रतकालमा तमारा सरखा बीजा विचक्षणो नथी। गुरु महाराजनी ते आज्ञाने मुकुटरूप करीने तेओ बन्ने त्यांथी विहार करीने अनुक्रमे पोताना धरणन्यासोथी पृथ्वीने पवित्र करता थका गुर्जर देशमा आवेला अणहिलपुर पाटणमा पधार्या, ते समये ते नगरमा महा विद्वान् तथा नीतिशास्त्रमा विचक्षण दुर्लभसेन नामे राजा राज्य करतो हतो, त्यां अक सोमेश्वर मामनो पुरोहित बसतो हतो, तेने घेर आ बन्ने जैनाचार्यों गया, तथा वेदपाठोच्चार करवा लाग्या, ते सांभली पुरोहित तेने अत्यन्त आदरसत्कार आप्यो, त्यारे तेओले पण तेने आशिष आपी के, 'अपाणि पादो यवनो गृहीता। पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः स वेत्ति विश्वं न च तस्य वेत्ता । शिवो ह्यरूपी स जिनोग्वताब्दः॥१॥ पछी ते पुरोहिते तेओने आदर पूर्वक पूज्यु के तमो अहीं कह जगोपर निवास कर्यो छ,? त्यारे तेओ कां के, अहीं चैत्यवासि यतिओनु जोर होवाथी अमोने रहेवाने स्थानक मल्यं नथी, ते सांभली निर्मल मनवाला पुरोहिते तेओने रहेवा माटे पोतानी चन्द्रशाला आप्याथो त्यां परिवार सहित तेओओ निवास कार्यो, त्यां तेओ लोलता रहित मिरवद्य आहार पाणी लेता थका विद्याविनोदथी पोतानो 'समय निर्गमन करवा लाग्या। अटलामा त्यां चैत्यवासिओमा नोकरो भावीने तेओने कहेवा लग्या के, अरे! साधुओ!! तमो तुरत मा मगरनी बाहर निकली जाओ? केम के, अहीं ८७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८० ] चैत्यवासीओ सिवाय बीजा श्वेतांबर मुनिओने रहेवाजो हुक्म नथी, ते सांभली पुरोहिते कं के, आ बाबतनो मारे राजापासे जइ राजसभामा निर्णय करवो छे अम कही ते दुर्लभराजा पासे गयो, अने त्यां ते चैत्यवासीओ पण आव्या, पछी पुरोहिते राजाने विनती करी के हे राजन् ! आ नगरमां बे उत्तम जैनमुनिओ पोताने स्थानक नहीं मलवाथी मारे घेर पधार्या छे, तेओ महा गुणी होवाथी में तेओने रहेबाने स्थानक आप्युं छे, पण आ चैत्यवासी यतिओओ पोताना मांणसो मारे घर मोक्ली तेओने नगरनी बाहर नीकली जावानु कहेवराव्यु ं छे, ते सांभली तुल्यदृष्टिवाला दुर्लभराजाओ जरा हसीने का के, मारा नगरमा जे गुणी माणसो देशान्तरथी आवीने वसे छे, तेओने कोइ पण निवारी सक्तु नथी तो, आवा महात्माओने अहीं नहीं वसवा देवा माटेशु प्रयोजन छे, ? त्यारे चैत्यवासीओ बोली उठ्या के, हे महीपति ! पूर्वे श्रीवनराज नाममा जे महापराक्रमी राजा आहीं थभेला छे, तेमने बाल्यपणानां चैत्यवासी देवचन्द्रसूरिओ ( बीजा मत प्रमाणे शिलगुणसूरिओ) आश्रय आपी पोष्या हता, अने ते उपकारना बदलानां वनराजे संप्रदाय विरोधना भयथी आ नगरमा फक्त चैत्यवासीओ भेज रहेवु अनेबीजा श्वेतांबर जैनसाधुओंओ अही रहेषु अवो लेख करी आप्यो छे, अने तेथी अमो तेमने अहीं वसवा माटे मना करीओ छोओ, अने आपे पण आपना ते पूर्वजोंनी आज्ञा पालवी जोइओ, त्यारे राजाओ का के, अमारा पूर्वजोमी आज्ञा अमारे पालवी जोइओ ते व्याजवीज छे, केमके, आप जेवा मुनिओनी आशिषोथी अमारा जेवा राजाओ ऋद्धिवंत थाय छे, अने टुकामां कहीये तो आ राज्य आपनुज छे, तेन कई पण महीं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९ ] सन्देह नथी, वली तमो पण जैन मुनिओ छो, तो मुनिओनो आचार शुछे? ते सांभलवानी मने इच्छा छे, अने ते आचारमां जो बन्ने मुनिमोनु विरोधपणु मालुम पड़े, तो तेओओ आ नगरमा रहेवू नहीं, अम कही ते दुर्लभराजाले पोताना सरस्वती भण्डारमा रहेलु, जैन मुनिना आचारना स्वरूपवालु दशवैकालिक सूत्र मंगाव्यु, अने तेमां कहेला आचार प्रमाणे आ बन्ने आचार्यो'ने प्रवर्तता जोइने तेमने 'खरतर' विरुद आपी रहेवामाटे त्यां निवास आप्यो, अने चैत्यवासीओ झंखवाणा थइने पोताने स्थानके गया, तथा त्यारथी ते अणहिलपुरमा शुद्ध जैन मुनिमोने निवास मलवा लाग्यो, अने चैत्यवासीओनु जोर धीमे धीमे कमी थतु चाल्यु त्यां बुद्धिसागराचार्य बुद्धिसागर नामनु आठ हजार श्लोक नव्याकरण रच्यु, अवी रीते आ खरतरगच्छना स्थापन करा श्रीजिनेश्वरसूरि आचार्य महाप्रभाविक थल छ। नवम औरभी सर्वगच्छोंकेमान्य श्रीनवांगीत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजुके शिष्य श्रीप्रसन्नचन्द्रसूरिजीकी आज्ञानुसार श्रीसुमतिविमलवाचकके शिष्य श्रीगुणचन्द्रगणजीने श्रीअभयदेवसूरिजी स्वर्ग पधारे उसी वर्षे, याने सम्बत् ११३८ वर्षे प्राकृत भाषाने १२००० प्रमाणे श्रीवीरप्रभुका चरित्रकी रचना करी है उसके अन्तकी प्रशस्तिमें भी श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजसे "मुविहित" अर्थात् खरतर संतती प्रचलीतहोनेका खुलासा लिखा है जिसका पाठ नीचे मुजब है। स्य मुकज्जाणानलनिदढ । घण घाइ कम्मदारुस्स । गोयम पहुस्स सहस्सा । उपन्नं केवलं नाणं ॥१॥ वारस वासाणि विवोहिकण । भवे सिवंगए तम्मिः ॥ भयवं मुहम्मसामी। शिवाण पां पयासे ॥ २ ॥ संनिविचिरकालं विहरिकण। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९२ ] सिरिजंबूसामिणो दाउं । गच्छ गणाण मणुरणं । संपत्ते सिद्धि वासंमि ॥३॥ एवं विज्जाहर सुर नर । सुरिंद सन्दोह वंदणिज्जेनु समइक्कन्तेनु महा । पहुसु सेज्जभवाईसु ॥ ४ अइसय गुणरयण निही । मिच्छत्त तमंघलोग दिणनाहो ॥ दूरिच्छारिय वइरो। वारसामी समुप्पन्नो ॥५॥ सहाइतस्स चंदे। कुलंमि निप्पडिम पसम कुल भवणं। आसि सिरि वडुमाणो। मुणिनाहो संजम निहिव्व ॥६॥ बहु कलिकालतम पसर। पूरिया सेस विसम सम भागो। दीवेणंव मुणीणं। पयासिओ जेन मुत्तिपहो ॥७॥ मुणिवइणो तस्स हरदूहास। सिअजस पसाहिआसस्स आसि दुवेवर सीसा । जयपयडा सूर ससिणोव्व ॥८॥ भवजलहि वीइसंभंत । भविय संताण तारण समत्यो । बोहित्योव्व महत्थो सिरि सूरि जिणेसरो पढमो ॥ ॥ गुरुसीराओ धवलाओ।मुवि हिया साहू संतती जाया। हिमवंताज गंगुब्व मिग्गया सयल जण पुज्जा ॥१०॥ भगोयपुरिणमाचन्दो। सुन्दरी बुद्धि सागरो सूरी ॥ निम्म विय पवर वागरण । छन्द सत्यो पसत्यमई ॥ ११॥ एगंतवाय विल सिर । परवाह कुरंग भंग सीहाणं ॥१२॥ तेसिं सीसो जिण चन्दी। सूरि नामा समुप्पानो ॥ १२ ॥ संवेगरंगसाला । न केवलं कव्वविरहणाजेण । भग्वजण विलयकारी। विहिया संयम पवित्तीवि ॥ १३ ॥ ससमय पर समयन्नू । विसुद्ध सिद्धांत देसमा कुसलो। सयल महिवलय वित्तो । अन्नो अभयदेव मूरित्ति ॥ १४॥ जेण लंकार धरी । सलक्षणावरपया पसन्नाय ॥ मवांगवित्तिरयणेण । भार: कामिणिव्वकया ॥ १५ ॥ तेसिं अस्थिविणेओ। समस्य सत्थत्य बोह कुसलमई । सूरि पसन्नचन्दो । चन्दोइव जणमणाणंदो ॥ १६ ॥ तव्वयणेणं सिरिखमह । वायगाणं विनेयलेसेण ॥ गणिणा गुणचन्देणं । र सिरि वीरचरिय मिणं ॥ १७ ॥ इत्यादि देखिये जपरके पाठकी "भवजलहि वीर संभंत भविय संताण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९३ ] तारण समत्थो बोहित्थोव्व महत्थो सिरि सूरिजिणेसरो पथमो॥॥ गुरु सीराओ धवलाओ सुविहिया साहु सन्तती जाया हिम वंताऊ गंगुत्व निग्गया सयल जण पूज्जा ॥१०॥इन गाथाओंमें भव्यजीवोंकों भवजलधिके दुखसे पार उतारने में नाव समान श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजसे सब जनोंके पूज्यने योग (हीमवन्त पर्वतसे गङ्गानदीके निकलनेकी तरह ) सुविहित याने खरतर सन्तती चली अर्थात् साधुके वर्तावने शुद्ध चलने रूप सुविहित खरतर परम्परा चली ऐसा खुलासा पूर्वक लिखा है सो सुविहित कहों अथवा खरतर कहो दोनों शब्द पर्याय वाची एकार्थ वाले हैं क्योंकि पहिले श्रीअणहिलपुर पहनने चैत्यवासिलोगोंने वहांके राजाको अपने वशीभूत करके उनसे पहा (हुकुम नामा) लिखा लिया था कि इस नगरमें हम लोगोंके समुदाय (चैत्यवासियों) के सिवाय अन्य जैन श्वेतांबर मुनि रहने न पावे सो इस तरहकी श्रीवमराज चावडासे अपनी स्वार्थ सिद्धताकी बात मंजूर कराके क्रियापात्र शुद्ध मुनियों के आभावसेअपना मनमाना उपदेशसे भद्रजीवोंको अपने गच्छ परम्पराके और दूष्टि रागके फन्देमें फँसाकर शिथिलाचारी होते हुए कितनीक बातों में अविधि करके उत्सूत्रतासे अपनी बात जमा बैठे थे इसलिये इस नगर में चैत्यवासियोंके सिवाय अन्य शुद्ध संयमी जैन मुनियोंको रहनेका स्थान भी नहीं मिल सकता था उससे साधुओंका माना जाना इस मगरमें प्रायः बन्ध हो गया था तब श्रीवर्द्धमानसूरिजी महाराजकी आज्ञानुसार श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराज उपरोक्त अनर्थका निवारण करके भव्यजीवोंको विधिमार्गकी सत्य बातोंने प्रवर्तमान करनेके लिये और शुद्ध संयमी साधुओंका आना जाना शुरू करानेके लिये इस अणहिलपुर पहणने पधारे सो जब चैत्यवासियोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] सीखाने ( कहने) से उनोंके नोकर लोगोंने श्रीजिनेश्वरसूरिजी को नगर छोड़कर बाहिर चले जानेका कहा तब इन महाराजने सोमेश्वर नामा राज्यपुरोहितकी सहायतासे श्रीदुर्लभराजाकी राज्यसभामें उन चैत्यवासियोंके साथ विवाद करके उन्होंको हटाये तब राजाने इन महाराजको खरतर याने साधुके वर्ताव-अतिशय विशेष सच्चे मार्गमें चलने वाले मुविहित अर्थात् शुद्धसाधु आप हैं ऐसा कहके अपने नगरमें ठहरनेकी आज्ञा दी। ___ तबसे महाराजका वहां रहना हुआ तथा अन्य भी शुद्ध संयमियोंका आना जाना शुरू होगया और चैत्यवासियोंकी पोल भी खुलती गई उन्होंकी माया फंदसे बहुत भव्य जीवों का छुटकाराई होगया और विधिमार्गका शुद्ध व्यवहारसे श्रीजिनामाकी आराधना करके आत्म कल्याणके रस्ते लगे और इन महाराजके उपदेशसे तथा शुद्धवर्तावके देखनेसे राजा भी महाराजका भक्त होगया और महाराजके पास धर्मशास्त्रोंका अध्ययन भी करने लगा और जीवदया वगैरह धर्म कार्यो में और न्याय वर्तने लगा था और उपरोक्त कारणले ही तो इन महाराजके समुदाय वाले उस नगरमें शुद्ध संयमी मुविहित (खरतर) कहलाने लगे सो ही नामसे गच्छ प्रसिद्ध होगया इसीलिये श्रीगुणचन्द्र गणिजीने विक्रम संवत् ११३८ वर्षे पीवीरप्रभु का चरित्रकी रचना करी उसके अन्तकी प्रशस्तिने श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजसे खरतर (सुविहित ) साधुनोंकी सन्तती परम्परा जाता अर्थात् शुरू होनेका खुलासा पूर्वक लिखा हैसो सुविहित कहो अथवा खरतर कहो दोनों शब्द पर्यायवाची एकार्थ सूचक है और वसति वासी' याने निर्दोष मकान ठहरने वाले शुद्ध साधु कहो तो भी सुविहित-खरतरके तात्पर्य को प्रगट करनेवाला होनेसे तीनों एम एकावाले। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ ] और श्रीमहाविदेह क्षेत्रकी अपेक्षासे तो अनादिसे मुधिहित खरतर वसतिवासी शुद्ध संयमियोंकी सन्तती शुरू है तथा इस भरत क्षेत्रकी इन्ही अवसर्पिणीकी अपेक्षासे श्रीऋषभदेव स्वामीजीसे शुरू होनेका कहो अथवा निज निज शासनकी अपेक्षासे शासन नायक श्रीवर्द्धमान स्वामीजीसे मुविहित खरतर वसतिवासी शुद्ध संयमियोंकी संतती शुरू समझो, परन्तु भगवान्के मोक्ष पधारे बाद अनुमान हजार वर्षे किचित् किंचित् किसी किसीने शिथिलाचार चैत्यवासकी प्रत्ति करी थी सो श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजके समय एकरें तो अणहिलपुर पहण जैसे ग्राम नगरों में चैत्यवासी लोगोंने अपना पूरा जोर जमा लिया था, तथा अपने क्षेत्रों में शुद्ध संयमियोंका विहार राजाओंके हुक्म से बन्ध करा दिया और अपनी मति कल्पना मुजब इहलोक स्वार्थके लिये उत्सूत्रतासे और कुयुक्तियोंसे भव्यजीवोंको अपनी माया जालमें फँसाकर अविधि रूप उन्मार्गमें गेरकर अपने अपने गच्छकी अन्धपरम्पराके और दृष्टिरागके बन्धनसे भव्य जीवोंको खूब बांध लिये थे इस तरहका महान् अनर्थ करके अन्य शुद्ध संयमियोंके और विधि मार्गके द्वषी बना लिये थे तब श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराज अपने गुरु भाई श्री बुद्धिसागर सूरिजीके साथ उपरोक्त महान् अनर्थका निवारण करके शुद्ध संयमियोंका बिहार शुरू करनेके वास्ते अणहिलपुर पट्टणमें पधारे और राज्य सभाने चैत्यवासियोंसे शास्त्रार्थ करके उन्होंको पराजय किये उससे संयमियोंका विहार होने लगा और इन महाराज की समुदायमें उग्रविहारी शुद्धसंयमी शासन प्रभावकोंकी परम्परागत बात शिष्य प्रशियादिकी समुदायमें साधुओंकी वृद्धि हुई। सो चैत्यवासियोंको हटा करके राजासे खरतर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९६ ] विरुद पाये और शुद्ध संयमियोंका अणहिलपुर पट्टणमें विहारखुला कराने वाले होनेसे इन्होंको सुविहित खरतर वसतिवासियोंके जन्मदाता अर्थात् संतती चलानेवाले कहने में आते हैं इस लिये श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराज खरतर सुविहित सन्ततीके जन्मदाता याने सुविहित खरतर समुदायकी परम्पराके चलाने वाले माने तो क्या पहिले सुविहित सन्तती तीर्थंकर महाराजोंसे नहीं थी ऐसी किसी तरह की शंका करनेका कोई भी कारण नहीं है । देखिये दुर्लभराजा जैसे बुद्धिमान् भी शुद्ध संयमियोंके दर्शन और उपदेशके अभावसे अपने नगर निवासी द्रव्य लिंगी शिथिलाचारी आचार्थ नाम धारक चैत्यवासियों को ही शुद्ध संयमी जैनी साधु मानता था परन्तु यह तो श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराजके संसगंसे ही सब भेद खुल गये तबसे ही तो दिनों दिन चैत्यवासियोका जोर घटता गया और शुद्ध संयमियोंकी समुदाय भी बढ़ती गई तथा देशान्तरों में विहार मी होने लगा तबसे विशेष रूपसे सुविहित सन्तती प्रसिद्धिको प्राप्त होती भई इससे इन महाराजको खरतर समुदाय की सन्तती चलाने वाले कहने में किसी तरह की विरुद्धता नहीं आ सकता है । और उपरोक्त पाठमें खरतर शब्दके अर्थ वाला ही सुविहित शब्द शास्त्र करने कथन किया परन्तु दुर्लभराजाकी सभा में चैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थ होने सबन्धी खुलासा पूर्वक विस्तारसे नहीं लिखा जिसका कारण तो यही है कि प्रशस्तिके पाठ कथानक रूपकी बात विस्तारसे या संक्षिप्तसे भी प्रायः करके नहीं लिखी जाती किन्तु जिन जिन पूर्वाचार्यों का संबंध आवे उन्होंके विशेषण सहितसे नाम मात्र ही लिखने में आते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७ ] सो ऐसा तो बहुत प्रशस्तियों के पाठों में देखने में आता है, देखिये ? श्री जगच्चन्द्रसूरिजी महाराजने तपस्पा करी उससे इन्होंको राणाकी तरफ से 'तपा' का विरुद मिला ऐसा वर्त्त मानिक सब तपगच्छवाले मानते हैं, परन्तु इन्ही महाराजके शिष्य श्री देवेन्द्रसूरिजी महाराजने श्रीधर्मरत्नप्रकरणकी वृत्तिके अन्तको प्रशस्तिके पाठ में तथा श्रीक्षेमकीर्त्ति सूरिजीनें श्रीबृहत्कल्प शृत्तिकी प्रशस्तिके पाठ में, इत्यादि अनेक पाठोंमें श्री जगच्चन्द्रसूरिजीका नाम मात्र ही देखने में आता है परन्तु उन्होंने आंबीलकी तपस्या करी उससे राणानें 'तपा' विरुद दिया, उस दिनसे तपगच्छ प्रसिद्ध हुआ, ऐसा नहीं लिखा और 'तपस्वी' या 'तपा विरुद' धारक तपगच्छकी सन्तती चलाने वाले ऐसा भी किसी तरहका विशेषण नहीं लिखा तो क्या यह बात नहीं मानी जाती, सो तो नहीं ? किन्तु विशेषरूप से प्रगटपने माननेमें आती है, इसलिये कथानक रूपकी बातको प्रशस्तिकार खुलासा पूर्वक लिखे, या न लिखे यह तो ग्रन्थकारको इच्छाकी बात है, परन्तु प्रशस्तिमें कथानककी बातको न लिखने पर प्रसिद्ध प्रचलित बातको नहीं मानना या निषेध करनेका व्यर्थ हठवादका कदाग्रह करना सो न्याय विरुद्ध होनेसे आत्मार्थियोंकों सर्वथा त्यागने योग्य है, तिसपर भी कोई अभिनिवेशिक कदाग्रही हठवाद करें, तो अब यहां दुर्लभराजाकी सभा में चैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थं होने सम्बन्धी नीचे में प्राचीन पाठ दिखाने में आवे सो देखो । १० दशवा - और भी ऊपरकी बात सम्बन्धी सुप्रसिद्ध सवा लक्ष ब्राह्मण क्षत्री महेश्वरी वगैरह के कुटुम्ब्रोंकों प्रतिबोध करके जैनी श्रावक बनाने वाले तथा चौसठ योगनी और बावन वीर वगैरह अनेक देवी देवताओंको अपने वश में करके जैनधर्मकी महान् उन्नति करने वाले बड़ेही शासन प्रभावक, जङ्गम युग ८८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८ ] प्रधान श्रीदादाजी नाम से प्रख्यात श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजने विक्रम सम्बत् १९८० के अनुमान श्री " गुरुवार तंत्रय" नामास्तोत्र बनाया है उसमें श्रीदुलंभराजाकी राज्यसभा में श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजने चैत्यवाशियोंके साथ में विवाद ( शास्त्रार्थ ) करके उन्होंको हटाये ऐसा खुलासा पूर्वक कथन किया है सो छपा हुआ श्री " गुरुपारतंत्र्य" के पृष्ट १० से १४ का मूल व्याख्या भावार्थ सहित पाठ नीचे मुजब है । अथ वसति मार्ग प्रकाशक श्रीजिनेश्वरसूरि स्तुतिं गाथा त्रयेणाह ॥ "सुहसील चोर चप्परण पञ्चलो निञ्चलो जिण मयंमि ॥ जुग पवर बुद्ध सिद्धन्त जाणउ पणय सुगुण जणो ॥ ९ ॥ पुरठ दुल्लहमहि वल्लहस्स अणहिलवाडए पयडं ॥ मुक्काविआरिणं सीहेण व दव्वलिंगिगया ॥ १० ॥ दसमच्छेरय निसिविष्फुरंत सच्छन्दसूरि मयतिमिरं ॥ सूरेणव सूरिजिणेसरेण हयमहिय दोसेण ॥ ११ ॥ " व्याख्या ॥ सुखशीलचौर निराकरण समर्थः, जिनमते निश्चलः, युगप्रवर शुद्ध सिद्धान्त ज्ञातः प्रणत सुगुण जनः (चटपरण पञ्चल शब्दौ क्रमेण निरास समर्थ वाचकौ ) ॥ ९ ॥ ( येन ) अणहिल्लपाटके दुर्लभमही बल्लभ रय पुरतः विर्चाय सिंहेन गजा इव प्रगटं लिंगिनः मुक्ताः ॥ १० ॥ अहित दोषेण सूरिजिनेश्वरेण दशमाश्चर्य निशि विस्फुरत्स्वच्छन्दसूरि मत तिमिरं सूरेणेव हतम् ॥ ११ ॥ भावार्थ - विषय सुखमें लंपट केवल साधु वेषकोहि धारण करने वाले, भक्त जनोंके जैन सम्यक्त्व बोधि रत्नोंको असदुपदेश द्वारा चुराने वाले, ऐसे लिङ्गी साधुओं को जिनराज सिद्धान्तोक्त युक्ति पूर्वक बलात्कारसे मत खण्डन में समर्थ और जिन मत में निश्चल और युगप्रवर सुधर्मस्वामी के निर्दोष अङ्गोपाङ्गरूप सिद्धान्तके निरन्तर अभ्यास से प्रसिद्ध और प्रणाम करते हैं सद् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] गुणी जन जिणको ऐसे ॥६॥ अणहिल पाटक नामके नगरमें दुर्लभ संज्ञक राजाके समक्ष श्रीजिनेश्वरसूरिने शिपिलाचारी साधुओंसे वादप्रतिवाद किया और जैसे सिंह हाथिओंसे सामना कर उन्हें चीरकर फेक देता है वैसेही श्रीजिनेश्वरसूरिने शास्त्रार्थ में उन शिथिला चारियों को पराजित किया ॥ १०॥ जैसे सूर्य रात्रिके अन्धकारको सत्वर नष्ट करता है वैसे ही रागादि दोष रहित सूरिजिनेश्वराचार्यने दशम असंयमीरूप पूजा लक्षण आश्चर्यरूप रात्रिमें स्फुरायमाण स्वच्छन्द शिथिलाचारियोंके मतरूप अन्धकारको शीघ्र नष्ट किया ॥ ११॥ ११ और इन्हीं महाराजने भीगणधर साई शतकमें ऊपर की बातको खुलासा पूर्वक कही है जिसका पाठ नीचे मुजब है __ अथ-वसति वासोद्धारकरा भारधारण धोरेयान् ॥ श्रीजिनेश्वरसूरि युगप्रवरान् शरणी कुर्वन् गाथा प्रयोदशकमाह ॥ तेसि पय पउम सिवा रसित भमरुव्व सव्व भमरहिऊ ॥ ससमय पर समय पयत्य सत्थ वित्थारण समस्यो ६४॥ अणहिल वारयनाड इव्व दंसिय सुपत्तसंदोहे ॥ पसरपए वर्क विदूसगेय सन्नायगा णुगए ॥६५॥ सठिय दुलहराए सरसह अंको वसोहिय ॥ सहए मज्जेरायसहं पविसिऊण लोयागमाणु मयं ॥ ६६ ॥ नामाय रएहिं समं करियं वियारं॥ वियार रहिएहि वसहि निवासी साहुण ठावित ठावि भी अप्पा ॥६॥ परिहरिय गुरुकमागय वरवत्ताएय गुजरत्ताए वसहि निवासीजेहिं.फुडी कठ गुजरत्ताए ॥६॥ इत्यादि ऊपरके पाठकी लघु कृत्तिका पाठ नीचे मुजब है :व्याख्या॥वक्षमाण त्रयोदश गाथांतं स्थितंतेसि जिणेसरसूरीणां धरणसरणं पवजामीति संबंधः॥ यः कीदृशः तेषां श्रीवर्द्धमानाचार्याणांपाद पद्म सेवा रसिक चरणारविन्दपर्युपासिगाढासक्तकिंवदित्याहाभ्रमरवत् मधुकरराव सर्वेषु शास्त्रेषु भ्रमेण संशयगरहितः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 900 ] सर्व भ्रम रहितः ॥ अतएव स्वसमय परसमय पदार्थ सार्थः विस्तारण समर्थ स्वसिद्धांत पर सिद्धांतानां पदार्थ सार्थास्तत्रपदानि विभक्तितानि तेषां अर्था पदार्थास्तेषां सार्थासमूहास्तेषां विस्तारणे विस्तर प्रकाश नेपटुः ॥ ६४ ॥ यै श्रीजिनेश्वराचायें नाममात्र धारकाचायैः समं सह विचारं धर्मवादं कृत्वा वसतौ निवासोऽवस्थानं साधूनां स्थापित प्रतिष्ठापितः प्रतिष्ठितस्थापितः स्थिरीकृतः आत्मकोयलंकृत इत्यर्थः ॥ किंविशिष्टयै विवादे क्ववसत्ति व्यवस्थापनं, अणहिल पाटके अणहिल्ल पाटकाख्य पत्तने कीदृशे पाटके नाटक इव, दशरूपाख्ये शास्त्रविशेषे इव कीदृशे ॥ अणहिल्ल पाटके नाटके च, उभयोरपिश्लिष्टंविशेषण सप्तक माह ॥ दसिय सुपत्त संदोहे, दर्शितचक्षुर्विषयतांनीतः सुपात्राणां संज्ञाजनानां स्थालक कच्चो खादीनां हस्थापितानां संदोहः समूहो यत्र ॥ नाटक पक्षे, राम लक्ष्मण सीता लंकेश्वर विभीषणादीनि सुपात्राणि ज्ञेयानि, तस्मिन् दर्शित सुपात्र संदोह ॥ ९ ॥ संदेहे इति पाठेतु, पत्तने पत्त नपक्षे समंजसचारित्र साधुवेषबिडंबक कुर्याति दर्शनेन भव्यानां मनस्य यं संशयः यदुत किमस्ति क्वापि सत्पात्र' नवेति, अतउक्तं, दर्शित सुपात्र संदेहे ॥ नाटक पक्षे, दर्शितानि सुपात्राणां रामादीनां संसम्यक् देहाः शरीराणि यत्र, तस्मिन् दर्शितसुपात्र संदेहे ॥ ९ ॥ तथा ॥ परपए इति प्रचुराणि प्रभूतानि प्रतिगृहद्वारकुपिका सहस्र लिंग महातड़ाग वाप्यादिसद्भावेन पयांसि जलानि यत्र, तस्मिन् प्रचुर पयसि ॥ नाटक पक्षे ॥ प्रचुराणि प्रलम्बानि दीर्घसमासानि पदानि यत्र तस्मिन् प्रचुर पदानि ॥ २ ॥ बहुकवि दूसगे इति, बहूनि अनेकानि कवयः काव्य कर्त्तारः दुष्यानिवस्वाणि च यत्र तस्मिन् बहुकविदूषके । नाटक पक्षेतु ॥ बहुकाः प्रभूता विदूषका क्रिडा पात्राणि यत्र तस्मिन् बहुक विदूषका ॥ ३ ॥ तथा ॥ संनध्यगा युगये इति, शोभन नायके वशिष्ट मण्डल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६०१ ] गृह ग्रामादिस्वामिभिरनुगते ॥ नाटक पक्षेतु, ललित शांत उदानुउद्भुत संज्ञश्चतुर्विधैनायकैरनु गतो ॥ ४ ॥ तथा सद्दियदुलहराए इति सहऋध्यावर्त्ततेतिसर्द्धिक ऋद्धमान् दुर्लभ राज्ञो महीपति यत्र तस्मिन् सार्द्धिक दुर्लभ राजा || नाटक पक्षे ॥ सती शोभना वेराग्य युक्ता धोर्बुद्धिर्येषांते सार्द्धिका स्तेषां दुर्लभोदुःप्रापो राग श्वेतशोऽनुबंधो यत्र तस्मिन सर्द्धिक दुर्लभ राग ॥ ५ तथा ॥ सर सहअंको वसोहिए इति, सरस्वती नाम नदी तस्या अंक उत्संगस्तेन उपशोभिते विराजिते । नाटक पक्षे च ॥ सरस्वती भारतीलक्षणा वृत्तिः ॥ अंकाश्वर साम्रया स्तैरुपशोभितेतेषां स्वरूपं नाटकादवगन्तव्यं ॥ ६ ॥ तथा ॥ सुहए इति, शोभना हया अश्वा यत्र तस्मिन् सुहये ॥ नाटकपक्षेतु ॥ सुखदे कौतकप्रियाणां शर्मंदे ॥ ७ ॥ इति पक्षविशेषण सप्तकार्थः ॥ किंकृत्वा विवादः कृतःमध्ये राजसभं राजसभामध्ये प्रविश्यरूपविश्य कथं विवादक तःलोकश्च आगमञ्च तयोरनुमतं सम्मतं यथा भवतीति गाथा ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ ६१ ॥ श्रयार्थः ॥ अमुमेवार्थं पुनः सविशेषमाह । वसत्या चैत्यगृह निराकरणेन परगृहावस्थित्य सह विहारः ॥ समय भाष या ग्रामनगरादौ विचरणं वसति विहारं सयैर्भगवद्भिः स्फुटीकृतः सिद्धान्तोकोपि पुनः प्रकटी कृतः कस्यां गूर्जर यात्रायां सप्ततिसहस्र प्रमाण मण्डलमध्ये किं विशिष्टायां प्रगटीकृत गुरुक्रमागतवरवा - र्तायामपि परिहृता अवगणिता गुरुक्रमागता गुरुपारंपर्यसमायाता वरवार्त्ताविशिष्टधर्मवार्ता वपातत्स्यामपि अपिसंभावने नास्तिकिमप्यत्रा संभाव्यं घटतएवैतदित्यादि ॥ देखिये ऊपर के पाठ में श्रीवर्द्धमान सूरिजी के चरण कमलको सेवा भक्ति में भ्रमर की तरह विशेषरक्त और सर्व प्रकार के संदेहरूप भ्रमसे रहित और श्रीजैन शास्त्रोंके तथा अन्य मतके शास्त्रों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७०२ ] के अर्थको विस्तार करने में समर्थ, ऐसे श्री जिनेश्वर सूरिजी महाराजने गुजरात देशमें श्रीअहिलपुर पट्टणमें श्रीदुर्लभ राजाकी राज्य-सभा, चैत्यवासी आचार्य नामधारकोंके साथ साधुके क्रिया कर्त्तव्यका व्यवहार सम्बन्धी युक्ति और आग. मानुसार धर्मवाद करके,वहां साधुका वसति मार्ग स्थापित किया उससे इन महाराजको देश देशान्तरोंमें शोभा प्रसिद्धिको प्राप्त होती भई। यद्यपि शास्त्रों में तो वसतिमार्गको प्रकट ही कथन किया हुआ है परन्तु इस क्षेत्रमें शिथिलाचारी द्रव्यलिंगियोंसे लुप्त प्रायः होगया था इसलिये इन महाराजने प्रगट किया और इन्हीं अणहिलपुर पट्टणको “दशरूप" नामा नाटक सदृश ओपमा देकर सात विशेषणोंकी समानता दिखाई है सो तो खुलासा ही लिखाहै और ऊपरके पाठसे वसतिमार्ग प्रकाशक कहो या खरतर मार्ग प्रकाशक कहो अथवा वसतिवासी मुविहित मार्ग प्रकाशक कहो सबका भावार्थ एकही है सो तो ऊपरके लेखसे विवेकीतस्वज पाठकगण स्वयं समझ सकते हैं:___ और इसी तरहसे उपरोक्त पाउकी वहत्ति तथाश्रीसंघपहककी बत्ति और षट् स्थानक प्रकरण इत्ति वगैरह अनेक शास्त्रों में दुर्लभराजाकी राज्य सभामें श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराज नेचैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थ करके उन्होंको हटाये और संयमियोंका विहार शुरू करानेका खुलासापूर्वक लिखा है उन सब पाठोंकों विस्तारके कारणसे यहां नहीं लिखता हूं, परन्तु जिसके देखनेकी इच्छा होवे सो उपरोक्त शास्त्र पाठ स्वयं देख लेवेगे। १२ बारहवां और भी सीखरतरगच्छकी गुर्वावली श्रीआचार रत्नाकर के दूसरे प्रकाश छप कर प्रसिद्ध हुई हैं उसके पृष्ठ १०४ । १०५। १०६ में नीचे मूजिब लिखा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७०३ ] श्रीवर्द्धमानसूरिके पाट ऊपर श्रीजिनेश्वरसूरि हुए सो, सं० १०७९ में आचार्य पदको प्राप्त होके श्रीबुद्धिसागरसूरिके साथ मरुस्थल देशमें विहार करके क्रमसे गुर्जर देशमें अणहिल्लपुर पणमें गए, वहांदुर्लभ राजाका पुरोहित शिवशर्मा नामें ब्राह्मण जो अपना मामाचा तिसके घरमें गए, वहां शिवशर्मा ब्राह्मण अपने लड़केको वेद पदोंका अर्थ बतला रहाथा, उसमें कितनेक वेद पदोंका उलटा अर्थ बताने लगा, तब गुरु बोले, इस मुजब नहीं है, हम कहैं उस मुजब है, तब सच्चा अर्थ सुनके प्रोहित बोला कि आपको इस माफक वेदके अर्थका जाणपणा किसतरें हुआ, आप संसारी अवस्थाले कौन नगरके अरु किसके पुत्र थे, तब महाराजने कहा कि, हम वणारसी नगरीके, सोम नामें ब्राह्मणके पुत्र हैं, तब शिवशर्मा पुरोहितने पिछानें कि ये तो मेराभाणेज है, ऐसा जाणके बहुत भक्ती मान हुआ, बहुमान पूर्वक अपने मकानमें रक्खे, वहां रहते और भी केई पदार्थों में पुरोहितके दिलमें सन्देहथे सो सर्व दूर किये, तब शिवशर्मा पुरोहित बहुत महाराजका रागी हुआ, तब वहांके चैत्यवासियोंने विचारा कि श्रीजिनेश्वरसूरिके इहां रहनेसे अपना पडदा खुल जायगा, अपनेको कोई न मानेगा, सर्व लोक इनोंके रागी हो जायेंगे, इसमें कोई उपाय करना चाहिये, ऐसा विचारके दुर्लभराजाके पास जायके चगली किया कि दिल्लीसे ग्रन्थ छोटक चोर आये हैं, सो आपके पुरोहितके इहां ठहरे हैं, तब राजा एसा बचन सुनके पुरोहितको बुलाकर पूछने लगा कि तेरे घर चौर आये सुना है, तब पुरोहित बोला कि, मेरे घरमें चौरतो कोई नहीं आए है, परन्तु शुद्धक्रिया पात्र साधु आये हैं जो उनोंको चौर कहते होंगे सो आप चौर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ७०४ ] होंगे, तब राजाने शुद्धाचार देखनेके लिये श्री जिनेश्वर सूरी को अपने पास बुलाये और चैत्यबाससियोंको भी बुलाये, जब श्रीजिनेश्वर सूरि राजाकी सभा में आए तब राजानें नमस्कार करा, तब गुरू महाराजने धर्मलाभ आशीर्वाद देके अपने बैठने योग्य स्थान में, कंबली बिछाके इरियावही पडिमके जमीनकी पडि डेहणा करके बैठें। तब राजाने विचारा कि शुद्ध आचार ऐसा ही होता है और चैत्यवासी जो आये सो राजाको आशीर वाद देके, इसी तरह विस्तरोंके ऊपर बैठ गये तब राजाने चैत्यवासियोंका विरुद्ध आचार देखके श्री जिनेस्वरसूरि महराजको साधुका आचार पूछा तब महाराज बोले आपका देवाधिष्टित ज्ञानका भण्डार है जिसमें सर्व मत स्वरूप निवेदक पुस्तक है उसमें से आपके पण्डितोंके पास एक या दो पुस्तक मंगवाइये तब राजाने भण्डारमेंसे पुस्तक मंगवाया सो पण्डितों के दशवै कालिक पुस्तक हाथ लगी। सो जब राजसभा में लेके आये । तबगुरू महाराजने कहा, इस पुस्तककों चैत्यवासियोंके हाथमें देके आप साधुका आचार सुनों, तब चैत्यवासी पुस्तक बाचने लगे, सो जहां बहुत साधुका आचार आने लगा वहांके पाठ वे छोड़नें लगे, तब गुरूमहाराज बोले, कि राजसभा में दिन को चौरी होती है, तब राजाने पूछा किस तरेसें, गुरूनें कहा, कि यहां इणोंनें साधुके आचारके कई पन्ने छोड़ दिये हैं, तब राजा बोला कि, आप वांचो। तब गुरूमहाराज नें कहा हमारे बांधने से ये लोग फिर कल्पित बात कहेंगे, इससे आपके बड़े पण्डितोंके पास ये पुस्तक वंचावो, तब राजाने अपने पण्डितोंके पास उस पुस्तक मेंसे साधुका आचार सुना, तब उसी आधारमुजिब श्रीजिनेश्वर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७०५ ] सूरिका सत्य आचार देखा, और चैत्यवासियोंका उस पुस्तकसे विरुद्ध आचार देखा, इससे सारी सभाके सामनें राजाने कहा ॥ अतिशय पणे करके श्रीजिनेश्वरसूरि सच्चा हुवा, इससे ये खरतरा है, और चैत्यवासी हारगया, इससेती ये कवला हे ॥ हारा सो कवला थया ॥ जीता खरतर जाणिया ॥ तिणीकाल श्रीसंघमें। गच्छ दोय वखाणिया ॥१॥ इसी तरे सुविहित पक्षधारक श्री जिनेश्वर सूरि, वीर संवत् १५५० ॥ विक्रम संवत् १०८० में खरतर विरुदकों प्राप्त भए। तबसें कोटिक गच्छ, चन्द्रकुल, वयरी शाखा, खरतर विरुद, जैसा भेद स्थिवर साधु, नवीन साधुओंसे कहने लगे, इहांसे मूल कोटिक गच्छका नाम खरतर गच्छ प्रसिद्ध हुआ, अतिशयेन खरा सत्य प्रतिज्ञा ये ते खरतराः, इत्यादि खरतर विरुदकों प्राप्त होनेवाले श्री जिनेश्वर सूरि बड़े प्रभावीक भए ॥ ४०॥" । १३ तेरहवां-और भी अन्यमतके न्यायवान् मध्यस्थ विद्वान्ने अगरेजी भाषामें सभा, व्याख्यान (भाषण ) करते समय अनेक शास्त्रानुसार जैनधर्मके प्राचीन इतिहास संबंधी बहुत खुलासा किया था उसमें खरतरगच्छ तथा तपगच्छकी पहावलियोंका कथन करने में तपगच्छकी पदावलीको पहिले कथन न करके खरतरगच्छकी पहावलीको पहिले कथन करी थी और इसके बाद तपगच्छकी पहावलीको कथन करी थी उसी खरतरगच्छकी पहावलीमें भी श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजसे 'खरतर' विरुदलिखाहै उसका गुजरातीभाषा अनुवाद सन् १९०८ जुलाई मासके "सनातन जैन" नामा मासिकपत्रके पृष्ट ३७४ से ३८१ तक में प्रसिद्धहुआ था जिसका उत्तरानीचेमुजबहै :___ “डाकुर जहॉन्नेस कलाह पी० एच० डी० (बर्लिन) ए उखेलो अंगरेजी निबन्ध-डाकृर भाउदाजी रॉयल ऐसीमाटीक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७०६ ] सोसाइटीनी मुंबई शाखा पासे (१२ मी डिसेंबर १८६० ने दिने) निबंध वांच्यो हतो तेमां तेणे मेरुतुङ्गनी थेरावलि अने बीजां पुस्तकाने आधारे जैमोना प्राचीन इतिहास पर घणो प्रकाश प्राइयों हतो । आ पृष्ठोमां जैनोना बे मुख्य गच्छ खरतर अने तप गच्छमी पहावलिओमांथी सौथी अगत्यनी तारीखकाल हुं आपोश आ सर्व २२ लिखीत प्रतोमाथी ठीधुं छे । तेनांथी २० प्रतो मुंबईथी, के. एम. चॅटफिल्ड मुंबईना केलवणी खाताना डायरेकटरनी सहायता थी मली के तेथी तेनो उपकार मानु छु अने बीजी बे प्रतो बर्लिनमांथी मेलवी छे । खरतर गच्छनी पहावलि । , महावीर - कुल इक्ष्वाकु, गोत्र काश्यप, पिता क्षत्रियकुण्ड ग्रामना राजा सिद्धार्थ, माता त्रिशला, जन्म चैत्र शुदि त्रयोदशमां, निर्वाण चतुर्थ आराना अंत पहेलां ३ वर्ष अने ८ ॥ महिनें पापाशहेर मां १२ वर्षनी उमरे कार्तिक अमावास्याने दिने, तेमने १९ शिष्यो ( गणधरो ) हता । तेना प्रथम शिष्य गौतम उर्फे इन्द्रभूति हता. तेमना गोत्रनु नाम गौतम, पितानुं नाम ब्राह्मण वसुभूति, मातानु नाम ब्राह्मणी पृथ्वी हतां, जन्म मगधदेशना गोबर ग्राममां थयो. निर्वाण वीरना निर्वाण पछी १२ वर्षे श्वषंनी उमरे राजगृहीमां पाया. गौतमे दीक्षित करेला साधुओ पोतानी पहेलां गत थवाथी, अने बीजा नव गणधरोम पोताना शिष्य साधुओ सुधर्माने सोंपी देवा थी, पांचमा गणधर सुधर्मानीपाट गणाई अने ते पाट पाँचमा आराना अंते घनार दुःप्रसहरि सुधी चालशे । वीर पछी १४ वर्ष गयां पछी जमालि नामनो पहेलो निन्हव जाग्यो, अने १६ वर्ष गयां पछी तिश्यगुप्त ( प्रादेशिक ) लामनो बीजो निन्हव थयो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 99 ] २ सुधर्मा-जन्म कोल्लाक ग्राममा, गोत्र अग्नि वैश्यायन, पिता धम्मिल, माता भहिला; गृहस्थपणे ५० वर्ष, छद्मस्थ तरीके ४२ वर्ष अने केवली तरीके आठ वर्षे रह्या. निर्वाण वीर पछी २० वर्षे १०० वर्षमी वये पाम्या। ३ जम्बू-जन्म राजगृहीमां, गोत्र काश्यप, पिता श्रेष्ठी ऋषभदत्त, माता धारिणी ; गृहस्थ तरीके १६ वर्ष, छद्मस्थ तरीके २० अने कवली तरीके ४४ वर्ष रह्या, निर्वाण वीर पछी ६४ वर्षे ८० वर्षनी वये पाम्या, आ छेल्ला केवली हता।। ४ प्रभव-गोत्र कात्यायन, पिता जयपुरना राजा विद्या गृहस्थपणे ३० वर्ष, सामान्य व्रती तरीके ४४ वर्ष (कोई ६४ कहे छे) अने आचार्य तरीके १९ वर्ष रह्या. मरण वीरना निर्वाण पछी १५ वर्षे, ८५ ( अथवा १०५) वर्षनी वये थयं। ५ सय्यम्भव-जन्म राजगृही, गोत्र वात्स्य ; तेमणे शांतिजिननी प्रतिमानां दर्शन करवायी जैन दीक्षा लीधी, पोताना पुत्र मनक वास्ते दशवैकालक सूत्र रच्यु, २८ वर्ष गृहस्थाश्रममां, ११ व्रती तरीके, अने २३ वर्ष आचार्य तरीके गाल्यां वीर पछी ८ वर्षे, ६२ वर्षनी वये पंचत्व पाम्या। ६ यशोभद्र-गोत्र तुंगीयायन, गृहस्थ पणे २२ वर्ष, व्रती तरीके १४ वर्ष, अने आचार्य तरीके ५० वर्ष रह्या. वीर पछी९४८ वर्षे ८६ वर्षनी वये मृत्यु पाम्या। सम्भूति विजय अने तेना लघु गुरु भ्राता भद्रबाहु । ७ सम्भूति-विजय गोत्र माढर, गृहस्थपणे ४२ वर्ष, व्रती तरीके ४०, युग प्रधान तरीके ८ गाल्यां अने वीर पछी १५६ वर्षे ० वर्षनी उमरे गत थया। भद्रबाहु-गोत्र प्राचीन, तेमणे उपसर्गहरस्तोत्र, कल्पसूत्र, भने मावश्यक दवैकालिक बगैर १०शासत्रों पर निर्यक्तिमो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat स्व पाम्या। www.umaragyanbhandar.com Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 905 ] • रवी गृहस्थपणे वर्ष ४५ व्रती तरीके १७ अने युगप्रधान तरीके १४ वर्ष रह्या, अने वीर पछी ११० वर्षे १६ वर्ष मी वये पंचत्व पाम्या । स्थूलभद्र - ( सम्भूति विजयना शिष्य, अहीं भद्रबाहुना शिष्यो सूकी दीधा छे) जन्म पाटलीपुत्र, गोत्र गौतम, पिता शकडाल (तपागच्छनी पहावलीमा शकटाल) के जे नवमा नंदना मन्त्रीहता, माता लाउलदेवी ( हेमचंद्रना परिशिष्टमां लक्ष्मtant ) तेओ कोश्यानामनी वेश्याने जैनधर्ममां लाव्या. ते १४ पूर्वना जाणनारमां छेल्ला हता. पण तेमां फेरफार नीचे प्रमाणे करवो जोईओ : दय पूर्वाणि वस्तुद्वये न न्यूनानि सूत्रतोऽर्थतश्च पपाठ अन्त्यानि चत्वारि पूर्वाणि तु सूत्रत एवाधीतवान्नार्थत इति वृध्धप्रवादः ते गृहस्थ तरीके ३० वर्ष व्रती तरीके २० अने सूरि तरीके ४९ वर्ष रह्या, वीर पछी २१९ वर्षे, ९० वर्षनी वये मृत्यूशरण पया वीर पछी २१४ वर्षे अव्यक्त नामनो श्रीजो निन्हव आषाढाचा उत्पन्न कर्यो, वीर पछी २२० वर्षे समुम्छेदिक नामनो चो थो मिन्हव अश्वमित्रे उत्पन्न करचो भने वीर पछी २२८ वर्षे गंग (द्विक्रिय) नामनो पांचमो निन्हव थयो । १०-११ आर्यमहागिरि अने तेना लघुगुरुभ्राता आर्यसुहस्ति आयं महागिरि - गोत्र अलापत्य, गृहस्थ तरीके ३० वर्ष व्रती तरीके ४० वर्ष, अने सूरि तरीके ३० वर्ष रह्या । वीर पछी २४९ वर्षे ( सामान्य रोते २४५ वर्षे ) १०० वर्षनी उमरे मृत्यु पान्या । सुहस्तिन् - गोत्र वाशिष्ठ, गृहस्थ तरीके ३० वर्ष व्रती तरीके २४ वर्ष अने सूरि तरीके ४६ वर्ष रह्या । वीर पछी २६५ वर्षे १०० वर्षनी वये मरण पाया । तेो वीर पछी २३५ बर्षे राज्य करता राजा अने श्रेणिकमी १७ मी पेढीओ उतरी आवेला संप्रति राजाने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 506 ] पोताना जैनधर्ममा लाव्या, अने त्रिखंडोने प्रसाद, बिम्बो मादि थी सुशोभित कर्य अने अनार्य देशमा विहार करवानी स्थापना करी अवन्तिसुकुमाल अने बीजा घणाओने तेमणे जैन दीक्षित कर्या। १२, आर्यसुस्थित-(आ मुहस्तिना शिष्य हता। आर्य महागिरिने बहुल अने बलिस्सह नामना बे शिष्यो हता। वलिस्सह ना शिष्योनी टीप आवश्यक अने नन्दीसूत्रनी स्थविरावलिमा आपेल छे) आमने कोटिक अने काकन्डिक नाममा बे बिरुद हता। गोत्र व्याघ्रापत्य, गृहस्थ तरीके वर्ष ३१, व्रती तरीके १७ अने सूरि तरीके ४८ वर्ष रह्या अने वीर पछी ३१३ वर्षे ९६ वर्षनी वये पञ्चत्व पाम्या। मामनामाथी कोटिकगच्छ जन्म पाम्यो, आमना लघुभ्रातानु नाम सुप्रतिबुद्ध हतुं। १३, इन्द्र दिन। १४ दिन १५ सिंहगिरि-जातिस्मरण शामवान् । माखते पादलिप्ताचार्य, वृद्धवादिसूरि अने रद्धवादिसुरीना शिष्य सिद्धसेन दिवाकर (अपर नाम कुमुदाचार्य) थया। सिद्धसेन दिवाकरे उज्जयिनिना महाकाल मन्दिरमा रुद्रनु लिंग तोडी तेमाथी पोताना कल्याण मन्दिर स्तवनना प्रभाव पार्श्वनाथनी प्रतिमा प्रगट करी बातावी। तेणे वीरना निर्वाण पछी ४७० वर्षे विक्रमादित्य जैन बनाव्या। १६, वन-गोत्र गौतम पिता धनगिरि माता सुनन्दा, जन्म तुम्बवनग्राममा वीर पछी ४६ वर्षे थयो। गृहस्थ तरीके वर्ष व्रती तरीके ४४ वर्ष अने सूरि तरीके ३६ वर्ष रह्या। वीर पछी ५८४ वर्षे ८ वर्षनी उमरे कालवश थया। तेओ सिंह गिरि पासेयी ११ अङ्ग शिख्या, त्यार पछी तेओ १२ मुं दृष्टिवादांग दयपुर पी भवन्ति (उज्जयिनि) मां भद्रगुल पासे शिखबा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com (२० Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७९० ] गया । १० पूर्व जाणनारामां ते छेल्ला हता (वज्रस्वामितो दशम पूर्व चतुर्थ संहननादि व्युच्छेदः ) अने तेणे जैन धर्मनो प्रचार दक्षिण तरफना बौद्ध राज्यनां कर्यो आ वज्र मां थी वजशाखा थइ ! वीर पछी ५२५ वर्ष पछी शत्रुंजय तीर्थने तुटेलु देखवामां आव्यं अने वीर पछी ५७० मां ते तीर्थंनो जावडे पुनरुद्धार कर्यो । वीर पछी ५४४ मां त्रैवार्तिक नामना छट्टो निन्हव रोहगुप्ते उत्पन्न कर्यो । ११ वज्रसेन - गोत्र उत्कोसिक तेमणे सोपारकमां श्रेष्ठी जिनदत्त अने तेनी स्त्री ईश्वरीना चार पुत्र नामे नागेन्द्र, चन्द्र, निवृति अने विद्याधर के जे चारे चार कुलोना स्थापक हता । तेमने जैन धर्म दीक्षित कर्या । १८ चन्द्र-गृहस्थी तरीके ३७ वर्ष, व्रती तरीके २३ अने सूरि तरीके 9 वर्ष भेटले बधां मली ६१ वर्ष जीव्या । तेज समये पुरोहित सोमदेव अने तेनी भार्या रुद्रसोमाना पुत्र आर्य रक्षित दशापुरमा वसता हता, ते पोते वज्र पासेथी । नव पूर्व अने ९० मा पूर्वनो अक खण्ड शीख्या अने ते सर्व पोताना शिष्य दुर्बलिका पुष्प मित्रने शिखाव्या । वीर पछी ५८४ वर्षे गोष्टामाहिल नाममो सातमो मिन्हव उत्पन्न थयो । वीर पछी ६०० वर्षे दिगम्बरोनी उत्पत्ति थई । १० समन्तभद्र - तेनुं वनवासी पण नाम हतु २० देव - अपर नाम वृद्ध, २१ - प्रद्योतन, २२ मानदेव - शान्तिस्तवना कर्ता, २३ मानतुङ्ग - भक्तामर अने भयहर स्तोत्रोना कर्ता । २४ वीर-वीर पछी ८० वर्षे वलभी परीषद्मां लोहित्य सूरिना शिष्य देवगिणि क्षमाश्रनयो ( आनु देववायक पण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७११] नाम कहे छे अने तेना गुरुनु नाम दुशगणि कहे छे ) सिद्धान्तो लेखबद्ध कर्या । देवर्द्धिना समयमां अंकज पूर्व रह्यौं हतुं । वीर पछी ९९३ वर्षे कालकाचार्ये भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीमां थी चतुर्थीपर पर्युषण पर्व फेरव्यं । अहीं हस्त लिखीत प्रतो Inter calate थाय छे भेटलेके अंकज नामना बे आचार्यो कालक पहेला थया । तेमांना अंक नामे श्यामे प्रज्ञापना रची हती अने निगोदोपर टीका करी हती अने बीजाये गर्दा भिल्लने वीर पछी ४५३ वर्षे हांकी कहाड्यो । वली हस्त लिखित प्रतो वधारे उमरे छे के जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण हता । तेओओ विशेषावश्यकादि भाष्य रच्युं छे । तेना शिष्य नामे शिलांक अपर नाम कोटयाचार्ये प्रथम अने द्वितीय अङ्गो ऊपर वृत्ति रची छे । हरिभद्र - जन्मे ब्राह्मण हता, तेमने जिन भट्टे (उर्फ जिनभद्रे) जैन धर्ममां दीक्षा आपी हती । हरिभद्रना बे शिष्यो हंस अने परमहंसने भोट देशना बौद्धोओ मारी नांख्या हता । तेणे १४४४ ( केटलाक १४०० कहे छे जिनदत्तना गणधर सार्द्ध शतक ऊपर थयेली टीकामां हरिभद्रना लगभग ३० ग्रन्थोनी टीप आपी छे तेमांना घणा हस्त लिखित छे ) ग्रन्थों लख्या छे जेवां के – अष्टक, पञ्चाशक । २५ जयदेव, २६ देवानन्द, २१ विक्रम, २८ नरसिंह, २० समुद्र ३० मानदेव, ३१ विबुध प्रभ, ३२ जयानन्द, ३३ रविप्रभ, ३४ यशोभद्र, ३५ विमलचन्द्र, ३६ देव, सुविहित पक्ष गच्छना स्थापक, ३१ नेमिचन्द्र । ३८ । उद्योतन आमना शिष्योथी वर्त्तमानना ८४ गच्छोनी उत्पत्ति थई उद्योतन पोते माथे लोघेली यात्रामां मृत्य पाम्यां । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११२ ] आ यात्रा ॠषभने वांदवा माटे मालवक देशथी शत्रुंजय ज वानी हती । सुस्थितना मरण अने विक्रमादित्य वच्चेना १५७ वर्षना अंतरामां ( १३ थी १५ ) ऐ त्रण नामो जाणवा । ३९ । वर्द्धमान खरतर गच्छना प्रथम सूरि । ते पहेलां : चैत्यवासी जिनचन्द्रना शिष्य हता पण पाउलथी उद्योतनना थया हता । तेणे सोम नामना ब्राह्मणना शिवेश्वर अने बुद्धिसागर नामना बे पुत्रोने अने कल्याणवती नामनी पुत्रीने दीक्षा आपी हती । दीक्षा वख्ते शिवेश्वरे जिनेश्वर नाम धारण करें। तदा त्रयोदश सुरत्राण छत्रोट्टालक चन्द्रावती नगरी स्थापक पोरवाड जातीय श्री विमलमन्त्रिणा श्री अर्बुदाचले ऋषभदेवप्रासादः कारितः तत्राद्यापि विमलवसही इति प्रसिद्धिरस्ति । ततः श्री वर्द्धमान सूरिः संवत् १०८८ मध्ये प्रतिष्टां कृत्वा प्रान्तेऽनशनं गृहीत्वा स्वर्गं गतः ॥ ४० । जिनेश्वर पोताना भ्राता बुद्धिसागर ने लड़ मरुदेशथी गुर्जरदेशमां चैत्यवासी साथै वाद करवा गया । ( बुद्धिसागरना सम्बन्धमां श्लोक छे के श्री बुद्धिसागर सूरिचक्रे व्याकरणं नवं । सहस्त्राष्टक मानं तत् श्री बुद्धिसागराभिधं ॥ प्रभावकाचार -१९-९१) गुर्जरदेशमां अणहिल्लपुरना राजा दुर्लभनी राजसभामां सरस्वतिभांडागारमाथी दशवैकालिक सूत्र लावी साध्वाचार विषयपरमी गाथाओ वांची समजावी। जिनेश्वरे चैत्यवासीनो पराभव. कर्यो । आधी तेमणे 'खरतर' ए नामनु' विरुद मेलव्युं । ४१ । जिनचन्द्र - संवेगरङ्गशाला प्रकरणना कर्ता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११३ ] ४२ अभयदेव - जिनचन्द्रना लघुभ्राता, पिता धारा नगरीना श्रेष्ठीधन अने माता धनदेवी, तेमनु मूल नाम अभयकुमार हतु, अतिशय आत्मपीडन करवा थी तेने कोढ थयो हतो, हाथ तूटी पड्या हता पण एक चमत्कार थी सर्वरोग नाश पान्यो हतो, अने ते स्तंभनक पासे पाश्वनी प्रतिमाने 'जयतिहुपण' स्तोत्र थी विनति करो हती, तेमणे नव अङ्ग पर टीकाओ लखी, अने गुर्जर देशमां कप्पडवणिज ग्राममा मृत्यु पाया । ४३ जिनवल्लभ - पहेलां तेओ जिनेश्वरसूरि के जे कूचंपुरगच्छना चैत्यवासी हता तेना शिष्य थया पछी थी अभयदेवना शिष्य हता, तेना रचित ग्रन्थो आ छे ;-पिंडविशुद्धि द्विप्रकरण, गणधर सार्द्धशतक, षडशीति वगेरे. संवत् १९६० मां तेमने देवभद्राचार्ये सूरिपद आयु अनेत्यार पछी छ महिने पंचत्वपाम्या । हेमना वखतमां मधु खरतरशाखा जुदी यह अने आधी पहेलो गच्छभेद थयो । ४४ । जिनदत्त - पिता वाछिग मंत्री, माता विहद देवी, गोत्र हुम्बड, जन्म संवत् ११३२, मूल नाम सोमचन्द्र, दीक्षाकाल संवत् १९४९ अने सूरिमंत्र संवत् १९६९ ना वैशाख वदी छट्टने दिने चित्रकूटम देवभद्राचार्य पासेथी मल्यो । तेमणे घणा शहेरोमां चमत्कार दर्शाया, आधी जैनधर्म घणो फेलाव्यो | तेमणे संदेहदोलावलि अने बीजाग्रन्थों रच्या (जेत्री रीते गणधर सार्द्धशतक जे जिनवल्लभे रच्यो हतो तेज नामनो ग्रन्थ आमणे पण लख्यो हतो ) संवत् १२१९ ना आषाढ शुदी अकादशिओ अजमेरमां मरणवश थयां । संवत् १२०४ मां जिनशेखराचार्य रुद्रपल्ली आगल रुद्रपल्लीय खरतर शाखा स्थापी, आ बीजो गच्छभेद थयो । 0 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७१४ ] ४५. जिनचन्द्र - जन्म संवत् १९९७ भाद्रपद शुदि अष्टमी पिता शाह रासल अने माता देल्हण देवी, दीक्षाकाल अजमेरमां सं० १२०३ ना फाल्गुन वदी नवमीने दिने आचार्यपद जिनदत्ते विक्रमपुरमां संवत् १२११ ना वैशाख शुदी छट्टने दिवसे आप्यु ( उमर १४ ! नी हती ) मरण संवत् १२२३ ना भाद्रपद वदी चतुर्दशीने दिने दिल्लीमां थयुं त्यां तेमना नामनो स्तूप करवामां आध्यो, तेमना मस्तकमां मणि होवानु कहेवाय छे । ४६, जिनपति – जन्म सं० १२९० चैत्र वदी ८, पिता शाह यशोवर्द्धन, माता सुहवदेवी, दीक्षा संवत् १२१८ ना फाल्गुन वदी ने दिने दिल्लीमां लोधी, संवत् १२२३ ना कार्तिक शुदी त्रयोदशी तेमनु' पद स्थापन जयदेवाचार्ये कयुं, अने संवत् १२99 मां ६० वर्षनी वये पाहणपुरमां मरण थयुं । संवत् १२९३ मां आंचलिकमतनी उत्पति थई, अने संवत् १२८५ मा मां चित्रावालगच्छना जगचन्द्रसूरिओ तपगणनी उत्पत्ति करी 1 ४१, जिनेश्वर - जन्म मरोटमां संवत् १२४५ मार्गशीर्ष शुदी ११, पिता भांडागारिक नेमिचन्द्र, अने माता लक्ष्मी, मूलनाम अम्बद, खेडानगर मां संवत् १२५५ मां दीक्षा ली घी ते समये वीरप्रभ नाम धारण कयुं, संवत् १२१८ ना माघ शुदी ६ दिने सर्वदेवाचार्ये तेमनु जालोर नगरमा पदस्थापन कयुं, सं० १३३१ ना आश्विन वदी ६ने दिने मरण थयुं । तेज वर्षमा जिनसिंहसूरिओ त्रीजो गच्छभेद नामे लघु खरतर शाखा स्थापी (जिनेश्वरना शिष्य धर्मतिलकगणिये संवत् १३२२ मां जिनवल्लभना अजितशान्ति, स्तव पर 'उल्ला सिक्कम' थी शरु पती वृति लखी ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७१५ ] ४८ जिनप्रबोध - दुर्गप्रबोध व्याख्याना कर्ता, पिता शाह श्रीचन्द, माता सिरियादेवी, जन्म संवत् १२८५ मूलनाम पर्वत, दिक्षा संवत् १२९६ ना फाल्गुन वदी पञ्चमीने दिने थिरापद्र नगरमा लई प्रबोधमूर्ति नाम धारण कयुं, तेमनो पहाभिषेक संवत् १३३१ ना आश्विन वदी पञ्चमीने दिने थयो अने तेज वर्षना फाल्गुन वदी अष्टमीने दिने तेमनो पदमहोत्सव थयो, तेओ संवत् १३४१ मां मरण पाम्या । ४९, जिनचन्द्र – जन्म संवत् १३२६ ना मार्गशीर्ष शुदी चतुर्थीने दिने, स्थान समियाणाग्राममां, पिता मन्त्रि देवराज, गोत्र छाजेड, माता कमलादेवी, मूलनाम शम्भराय दीक्षा जालोरमां सं० १३३२ मां पदमहोत्सव सं० १३४१ वैशाख शुदी त्रीजने सोमवारे, तेमणे चार राजओने जैमी कर्या, अने कलिकालकेवली नामना विरुदथी प्रसिद्ध थया, मरण संवत् १३१६ मां कुसुमाणग्राममां थयुं । ५० जिनकुशल - (चैत्यवन्दन कुलक वृत्तिना रचनार) प्रसिद्ध दादोजी नामथी थया, जन्म सं० १३३० समियाणा ग्राममां, पिता मन्त्रि जिल्हागर, माता जयतश्री, गोत्र छाजेड दीक्षा संवत् १३४७ मां, सूरिमन्त्र राजेन्द्राचार्य पासेथी सं० १३७७ ना ज्येष्ठ वदी अकादशी दिने लोधो, मरण देरावर मां सं० १३८० ना फाल्गुन वदी अमावस्याने दिने थयु । ५१, जिनपद्म-वंश छाजेड, जन्म पंजाबमां, सूरिमन्त्र तरुण प्रभाचार्य पासेथी लीधो अने पाटणनां सं० १४०० ना वैशाख शुदी १४ मे दिने मरण घयुं । ५२, जिनलब्धि - नागपुरमा संवत् १४०६ मां मृत्यु थयुं । ५३, जिनचन्द्र - स्तम्भतोर्थमां संवत् १४९५ ना आषाढ़ 'बदि १३ मे दिने मृत्यु युं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७१६ ] ५४. जिनोदय-पिता शाह रंदपाल पाल्हणपुरमा बसता हता, माता धारलदेवी जन्म सं० १३७५, मूलनाम समरो । तेमर्नु पदस्थापन स्तम्भतीर्थमा तरुणप्रभाचार्य संवत् १४१५ ना आषाढ़ शुदि २ ने दिने कर्य । तेज जग्याए जिनोदये अजितनाथना चैत्यनी प्रतिष्ठा करी। अने शत्रुजय उपर तेमणे पांच प्रतिष्ठा करी। मरण सं० १४३२ ना भाद्रपद वदि एकादशीने दिने पाटणमां थयु ।। तेमना समयमां सं० १४२२ मां चोथो गच्छभेद नामे वेगड खरतर शाखानी उत्पत्ति थई। तेना स्थापक धर्मबल्लभ गणिहता। ५५, जिनराज-सं० १४३२ ना फाल्गुन वदि ६ ने दिने पाटणमा तेमने सूरिपद मल्यु। मरण देवलवाड (हालनु देलवाडा आबु पासे) सं० १४६१ मां थयु। ५६, जिन मद्र-पहेलां जिनवर्द्धन पूरिने सं० १४६१ मां जिनराजनी पाटे स्थापित कर्या हता पण चतुर्थ व्रतनो भङ्ग कर्याथी तेमने अपात्र ठेराव्या अने तेमनी जग्या जिनभद्रने सं० १४७५ ना माघ शुदि पूर्णिमाने दिने आपवामां आवी। जिनभद्रनु गोत्र भणशालिक हतुं । मूलनाम भादो। तेणे घणी प्रतिमामो स्थापी, घणा मन्दिरो नी प्रतिष्ठा करी अने घणा पुस्तकालयो स्थाप्यां। अने संवत् १५१४ ना मार्गशीर्ष वदि नवमीने दिने कुम्भलमेरुमा मरण पाम्या उपर्युक्त जिनवर्द्धनबुरिए सं० १४१४ मां पांचमो गच्छ मेद नामे पिप्पलक खरतर शाखा स्थापी। ५७, जिमचन्द्र-पिता शाह बच्छराज माता वाहलदेवी। गोत्र चम्न, जन्म संवत् १४८७, स्थान जेसलमेरुमा, दिक्षा सं० १४९२, मूरिपद सं० १५१४ मा वैशाख वदि २। मरण जेसलमेरुमा संवत् १५३० मा । सं० १५०८ मां लेखक डॉक महमदाबादपी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११७ ] मूर्ति दूर करी अने संवत् १५२४ मा पोताना नामथी ओलखातो मत उभो कर्यो। (तद्वारके सं० १५०८ अहमदावादे लौडाख्येन लेखकेन प्रतिमा उत्थापिताः) ५८, जिनसमुद्र-पितादेकाशाह, माता देवणदेवी। गोत्र पारख, दीक्षा, सं० १५२१, पदस्थापना सं० १५३० माहा शुदी १३ मरण सं० १५५५ अहमदावादमां। ५९, जिनहंस-पिता शाह मेघराज माता कमलादेवी, गोत्र चोपडा, जन्म सं० १५२४ दीक्षा सं० १५३५, पदस्थापना सं० १५५५ अहमदावादमां, मरण सं० १५८२ पाटणमां थयु। सं० १५६४ मा मरु देशमा छटो गच्छ भेद नामे आचार्यिक खरतर शाखा आचार्य शान्तिसागरे स्थापी। ६०, जिन माणिक्य-पिता शाह जीवराज, माता पद्मादेवी, गोत्र कुकडाचोपडा, जन्म सं० १५४९, दिक्षा सं० १५६०, पद स्थापना सं० १५८२ ना भाद्रपद वदि , मरण सं० १६१२ मा आषाढ़ शुदि पंचमीने दिने थयं। ६९, जिनचन्द्र-पिता शाह श्रीवन्त, माता सिरियादेवी, गोत्र रीहड, जन्म तिमरी नगर पामेना वडली ग्राममा संवत् १५८५, दिक्षा १६०४, सूरिपद जेसलमेरुमा सं० १६१२ ना भाद्रपद शुदी नवमीने दिने, तेमणे अकबर बादशाहने जैन धर्मी बनाव्या अम कहेवाय छे, तेमणे ९५ शिष्यों हता-समयराज, महिमाराज, धर्मनिधान, रत्ननिधान, ज्ञानविमल वगेरेह अने तेमनु मरण वेनातटे सं० १६७० ना आश्विन वदि बीजने दिने ययु। ___ सं० १६२१ मां भावहर्षोपाध्याये ७ मो गच्छमेद नामे भावहर्षीय खरतर शाखा स्थापी। ६२, जिनसिंह-पिता शाह चांपसी माता चतुरङ्गादेवी, गोत्र गणधरचोपडा, जन्म खेसर ग्राममा संवत् १९९५ ना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७१८ ] मार्गशीर्ष शुदि पूर्णिमाने दिने, मूल नाम मानसिंह, दिक्षा बीकानेरमा संवत् १६२३ ना मार्गशीर्ष वदि ५, वाचकपद जेशलमेरुमां सं० १६४० माघ शुदि ५, आचार्यपद लाहोरमा सम्बत् १६४९ फाल्गुन शुदि २, सूरिपद वेनातटमा सम्वत् १६७०, मरण मेडतामा सम्वत् १६७४ पौष वदि १३ ने दिने थयं । ६३, जिनराज-पिता शाह धर्मसी, माता घारलदेवी, गोत्र बोहित्थरा, जन्म सं० १६४७ वैशाख शुदि७, दिक्षा बीकानेरमां सं० १६५६ ना मार्गशीर्ष शुदि ३, दीक्षा नाम राजसमुद्र, वाचकपद सं० १६६८ अने सूरिपद मेडतामां सं० १६७४ ना फाल्गुन शुदि ने दिने मल्यु, तेमणे घणी प्रतिष्टाओ करी। दाखला तरीके सं० १६७५ ना वैशाख शुदि १२ ने शुक्रवारे शत्रजय ऊपर तेणे ऋषभ अने बीजा जिनोनी ५०१ मूर्तिओ नी प्रतिष्ठा करी, तेणे नैषधीय काव्य पर जैनराजी नामनी वृत्ति लखी अने बीजा ग्रन्धों लख्या छे; मरण पाहणमा सं० १६९० ना आषाढ़ शुदि हने दिने थयु। ___ सं० १६८६ मा आचार्यजिनसागर सूरिओ आठमो गच्छभेद नामे लध्वाचार्थिय खरतर शाखा उत्पन्न करी अने समय सुंदरना शिष्य हर्षनन्दने वधारी, (हर्षनन्दन ऋषिमंडल टीकाना कर्ता हता) ___ सं० १७०० मां रंगविजयगणीओ नवमो गच्छभेद नामे श्री रंगविजय खरतर शाखा उत्पन्न करी, अने आ शाखामांथी श्री सारोपाध्याये १० मो गच्छभेद नामे श्री सारीय खरतर शाखा उत्पन्न करी । एकादशस्तु हत्खरतर मूलगच्छ एवमेकादशभेदः खरतरगच्छः ॥ इत्यादि। ___ यह उपरोक्त पहावली मुंबईसे प्रगट होने वाला 'सनातन जैन' नामा मासिक पत्रके दूसरे पुस्तकके अंक १२ वें में सन् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७१९ ] १९०७ के जुलाई मासमें प्रकाशित हुई थी ( ऊपर में १०५ पृष्ठकी २२ वीं पंक्ति में १९०८ लिखा गया सो भूलसे समझना ) और हस्त लिखित प्रतोंसे अमेरिकन देशके बर्लिन नगरके डाकूर जहांनेस कलाह पी० एच० डी० ने अंग्रेजीमें पहावली लिखी थी उसको गुजराती भाषा में उपरोक्त मासिक पत्रमें प्रकाशित करी उसमें कितनी जगह नामोंका गोत्रोंका शब्दोंका रूपान्तर हो गया है सो अन्य पहावलियोंसे मिलान कर लेना और इसके बाद सन् १९०८ डीसेंबर फेब्रुआरीके अंक ५-६, पुस्तक तीसरे में तपगच्छकी पहावली प्रकाशित उपरोक्त मासिकमें हुई हैं । १४ चौदहवां और भी ऊपर मुजब ही खास न्यायांभोनिधिजी ( श्री आत्मारामजी ) ने अपने बनाये " जैनमत वृक्ष में" श्री खरतरगच्छ की पहावली में नीचे मुजब लिखा है यथा - श्री नेमिचन्द सूरिजी १, श्री उद्योतनसूरिजी २, श्री वर्द्धमान सूरिजी ३, श्री अष्टक वृत्ति पंचलिंगी प्रकरणकर्त्ता श्रीजिनेश्वरसूरिजी और इन्हींके गुरु भाई “बुद्धिसागर " व्याकरण कर्त्ता श्री बुद्धिसागर सूरिजी ४, संवेगरंगशाला कर्त्ता श्रीजिनचन्द्र सूरिजी ५, श्रीनवांगी वृत्तिकर्ता तथा श्रीस्थंभन पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगटकर्ता श्रीअभयदेवसूरिजी ६, पिंड विशुद्धि १, भवारिवारण २, वीरचरित्र २, संघपटक प्रमुख ग्रन्थकर्ता श्री जिनवल्लभ सूरिजी 9, संदेह दोलावली. गणधर सार्द्धशतककर्ता श्री जिनदत्त सूरिजी ८, इत्यादि इसी तरह से श्री जिनचन्द्र सूरिजी श्री जिनपति सूरिजी १० वगैरह वर्त्तमान समय तक खरतरगच्छ की पहावलीमें उपरोक्त पूर्वाचार्यों के नाम लिखे हैं सो छपा हुआ " जैनमत वृक्ष" प्रसिद्ध है । और भी इसी ही तरहसे अनेक ग्रन्थोंमें, अनेक पहावलियोंमें, अनेक प्रशस्तिओंमें, तथा अनेक ऐतिहासिक कथानक : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२० ] ग्रन्थों में, चरित्रों में, और यावत् श्री आबुजी, विजापुर वगैरहके जैन मन्दिरोंके शिला लेखोंमें भी ऊपर मुजब ही पूर्वाचार्यों की परम्परा लिखी है परन्तु यहां विस्तार के कारणसे सब पाठ नहीं लिख सकता जिसके देखने की इच्छा होवे तो “सामाचारी शतक" तथा "शुद्ध समाचारी प्रकाश” और “जैन इतिहास" वगैरह ग्रन्थोंको देख लेवें; और कितनी ही जगह तो श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजको अणहिलपुर पट्टणमें संवत् १०८४ में श्री दुर्लभ राजाने चैत्यवासियोंको जितनेसे 'खरतर' विरुद दिया ऐसा भी लिखा है परन्तु ऊपरके प्रमाणों में तो १०८० लिखा है। और ऊपरके बहुत प्रमाणोंमें तो दुर्लभ राजा लिखा है परन्तु श्री तपगच्छके सोमधर्मगणिजीने “उपदेश सत्तरि" नामा ग्रन्थमें तथा "मोहन चरित्रमें" और कितनी ही पहावलियों में भीमराजा भी लिखा है, इस लिये संवत १०८० का, या, १०८४ का, और दुर्लभ राजा था, या भीमराजा, इन दोनों बातोंके पाठांतर मतभेदका निर्णय तो श्री ज्ञानीजी महाराजके सिवाय वर्तमान कालमें होना कठिन है, और कितनी जगह श्री जिनेश्वरसूरिजीके संसारी नामों में और चरित्रों में भी मतभेद मालूम होता है जिसका निर्णय तो श्री ज्ञानी जाने और कितनी जगह तो श्री जिनेश्वरसूरिजी अपने गुरु भाई श्री बुद्धिसागरजीको साथ लेकर पाटण गये थे ऐसा लिखा है और कितनी ही जगह श्री वर्द्धमान सूरिजी वगैरह १८ साधुओंके साथ पाटण गये थे ऐसा भी लिखा है। परन्तु चाहे जो हो यह बात तो सभी प्रमाणोंसे अच्छी तरहसे सिद्ध होती है कि भी जिनेश्वरसूरिजीसे विहित (खरतर ) सन्तती अर्थात खरतर (सुविहित ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२९ ] गच्छके मामकी परंपरा शुरू हुई है सो तो श्री तपगच्छादिके सबी पूर्वाचार्यों को भी मान्य है। और दृढ़तर शास्त्र प्रमाणोंसे भी सिद्ध होता है इसलिये कोई निषेध भी नहीं कर सकता तथापि कोई कदाग्रहसे निषेध करने का आग्रह करे तो अन्धपरम्परा और शास्त्र प्रमाण शून्य होनेसे मान्य नहीं हो सकता, इस बातको निष्पक्षपाती विवेकी पाठकगण स्वयं विचार सकते हैं। ___ और कितनी ही जगह तो संवत् १०८० या १०८४ कुछ भी नहीं लिखा इसलिये दुर्लभ राजाने अपने राज्यासनके समय में किसी वर्ष श्रीजिनेश्वर सूरिजीको खरतर विरुद तो अवश्यमेव दिया होगा परन्तु संवत् नहीं लिखनेके कारण यदि श्रीजिनेखर सूरिजीने संवत् १००० में श्रीहरिभद्र सूरिजी कृत श्री अष्टकमी नामा ग्रन्थकी वृत्ति रची थी उससे भी १०८० का संवत् चल पड़ा होवे तो भी श्रीज्ञानीजी महाराज जाने। ___ अब विवेकी पाठक गणसे मेरा यही कहना कि उपरोक्त शास्त्र प्रमाणानुसार श्रीजिनेश्वरसूरिजीने राज्य सभामें शास्त्रार्थ करके चैत्यवासियोंको हराये और आप साधुके वर्तावने सच्चे रहे तबसे 'खरतर' 'सुविहित' वसति मार्ग प्रकाशक कहलाने लगे इसलिये श्रीतपगच्छवाले वगैरह सब कोई भीजिनेश्वरसूरिजी महाराजसे खरतरगच्छ और मीनवाङ्गीति कारक श्रीअभयदेव सूरिजी खरतरगच्छीय ऐसा मानते हैं और पहावली वगैरह अनेक प्रत्यक्ष प्रमाणभी इस बातमें मिलते हैं मौजूद है जिसपर भी न्यायांभोनिधिजीने 'जैन सिद्धान्त समाचारी' नामक पुस्तक में और धर्मसागरजीने प्रबचन परीक्षा वगैरहमें श्रीजिनेश्वरमूरिजीसे खरतर विरुदका निषेध करनेके लिये मायावृतिसे एकांत हठवाद करके कल्पित अवलम्बनोंसे जो परिमम किया है उससे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२२ ] उनमें मृषा वादका त्यागरूपी दूजा महाव्रत कैसे माना जावे सो विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं। और अब इन दोनों महाशयोंके झूठे विकल्पोंका निर्णय आगे करने में आता है उससे सबको निःसन्देह हो जावेगा । और श्रीन्यायां भोनिधिजीने 'प्रबन्ध चितामणी' 'गुर्जरदेश भूपावली' 'वनराज चावड़ा प्रबन्ध' और फारबस साहिबकी रची 'रासमाला' वगैरह इतिहास पुस्तकों का प्रमाण बतलाकर संवत् १०99 में दुर्लभ राजाकी मृत्यु होने का ठहराके संवत् १०८० में श्रीजिनेश्वर सूरिजीको खरतर विरुद देनेका निषेध किया सो भी एकान्त हठवाद रूप अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका कारण ही मालूम होता है क्योंकि ऊपरके इतिहासिक पुस्तकों में अनेक जगह परस्पर विरुद्धताकी बातें बहुत जगह लिखी हुई हैं और एक ही बातमें अनेक तरहके मतभेद लिखे हुए हैं। तो भी 'रासमाला' वगैरह इतिहासिक पुस्तकोंसे भी श्रीदुर्लभ राजाने श्रीजिनेश्वर सूरिजीको 'खरतर ' विरुद दिया ऐसा सिद्ध होता है सो उसका लेख नीचे दिखाता हूं। प्रथम फारबस साहिबकी रची 'रासमाला' नामकी गुजरातके इतिहासकी पुस्तक दूसरी आवृति पृष्ठ १०५ में नीचे लिखे मूजिब लेख है । “दुर्लभ राजे राज्य सारी रीते चलाव्यु असुरोने तेणे बहादुरी थी जीत्या देशं बांध्यां अने घणां धर्मनां काम कर्या अणहिल वाग्मां तेणे एक दुर्लभ सरोवर बांध्यं श्रीजिनेश्वरसूरि पासे ते भणतो हतो तेथी जैनधर्मनो बोध पामी जीवता प्राणियो ऊपर दया करवाना सारा मार्गमां चालतो" इत्यादि । दूसरा और भी गुजरात देशका इतिहाश मराठी भाषामें मुम्बई निर्णयसागर छापाखानामें छपा है जिसमें भी नीचे मुजिब लिखा है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " [ ७२३ ] “दुर्लभ राजाने ही आपले राज्य फार चांगल्या चालविलें होतें यानें देवलें वगैरह बांधवून आपल्या राज्यांत पुष्कल धार्मिकतामें केलीं होतीं अम्हिलवाड़ ये थें दुर्लभ सरोवर नावाचा एक मोठा तलाव आहे, तो याच राजाने बांधविला असल्याची साक्ष त्या सरोवराचें नांव देत आहे । दुर्लभ सेनाने थोडींची वर्षे राज्य केलें । त्यानें आपला गुरु श्रीजिनेश्वर सूरिजी म्हणून होता त्याचे उपदेशानें जैनधर्माची शिक्षा स्वीकारून त्या धर्मान्त तो मोठा प्रवीण जाला होता त्याने जीव दया उत्तम प्रकारें पालिली" इत्यादि । अब उन इतिहासिक लेख पर भी विवेक बुद्धिसे विचार करके देखा जावे तब तो श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजको दुर्लभ राजाने खरतर विरुद दिया जिसका निषेध करना कदाग्रहका सूचक व्यर्थ मालूम होता है क्योंकि जैनधर्मके इतिहा सिक ग्रन्थोंसे और श्रीजिनेश्वर सूरिजी के चरित्रोंसे यह तो खुलासा ही मालूम पड़ता है कि अणहिलपुर पट्टणमें चैत्यवासियोंने राजासे करार करवा लिया था कि हम लोगों के सिवाय अन्य जैन मुनि इस नगर में रहने न पावे, इसलिये उस नगर में शुद्ध संयमियोंका आना नहीं होता था, जब श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजने इस अनर्थको तोड़नेके लिये पाटण पधारे तब चैत्यवासियोंने अपने आदमियोंको भेजकर इन महाराजको नगर में से बाहिर चले जानेको कहलाया नगर में ठहरने भी नहीं देते थे जब महाराजने राज्य सभा में शास्त्रार्थमे चैत्यवासियों को पराजय किये उससे इन महाराजको खरतर विरुद राजाने दिया तबसे शुद्ध संयमियों का आना जाना बिहार होने लगा और इन महाराजका भी वहां ठहरना हुआ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७९४ ] अब विचार करनेकी बात है कि यदि श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजने उन चैत्यवासियोंका पराभव करके वहां शुद्ध संयमी मुनियोंका विहार खुला करानेके लिये वहां राजासे परिचय न किया होता तो राजा महाराजका भक्त होकर महाराजके पास जैन शास्त्रोंका अभ्यास कैसे करता और जैन धर्मानुरागी होकर विशेष न्यायवान् दयावान् कैसे बनता इससे भी साबित होता है कि यह बात अवश्य बनी होगी तभी तो रासमाला में और मराठी इतिहास में श्रीजिनेश्वर सूरिजीको दुर्लभराजाके गुरु लिखे हैं और राज्यसभा में शास्त्रार्थ होनेसे जितने वाले विद्वान्को राजाकी तरफसे उनको सत्कार रूप पदवी मिलती है सो यह तो अनेक राजाओंको सभामें अनेक विद्वान् जैनाचार्यों ने अनेक तरहके विरुद प्राप्त किये हुए शास्त्रों में सुनने में आते हैं इसी तरहसे रासमाला और मराठी भाषा के इतिहास से भी दुर्लभराजाने श्रीजिनेश्वर सूरिजीको खरतर विरुद दिया सिद्ध हो जाता है अन्यथा जहां अणहिलपुर पहणमें संयमियोंका जाना और ठहरना नहीं होता था तहां श्रीजिनेश्वर सूरिजी के पास राजाके शास्त्राध्ययन करनेका और जैनधर्मकी शिक्षा पाकर दयावान् होना यह कैसे बन सके सो विवेकी स्वयं विचार लेंगे । और 'प्रबन्ध चिन्तामणी' के नामसे दुर्लभ राजाकी मृत्यु सं० १०99 में होनी ठहराई सो तो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि 'प्रबन्धचिन्तामणी' में तो १०99 में दुर्लभ राजाके पाटणसे काशीकी यात्रा जानेको लिखा है परन्तु मृत्यु होनेका संवत् नहीं लिखा इसलिये 'प्रबन्धचिन्तामणी' के नामसे सं० २०99 में मृत्यु होने का ठहराना सो भट्टजीवोंको भरम में डालकर अपने दूजे महाव्रतमें हानि पहुंचाना उचित नहीं है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ ] और रासमाला वगैरह गुजरातके इतिहासिक पुस्तकोंके आधारसे सं० १०७७ में मृत्यु होनेका ठहरानेका आग्रह किया सो भी बड़ी भूल है क्योंकि रासमालादि इतिहासिक पुस्तक किसी सर्वज्ञके कथन किये हुए तो नहीं हैं किन्तु अर्वाचीन जैन व अन्य कथानक इतिहासोंके आधारसे और चारण भाटादि. कोंकी परम्परागत कथा कहानियोंके आधारसे रासमालादि इतिहासिक ग्रन्थ लिखे गये हैं इसलिये इन पुस्तकोंकी सब बातोंपर निश्चय विश्वास करना उचित नहीं है और जो बात जैनधर्मके इतिहासिक वगैरह बहुत पुस्तकोंके प्रमाणानुसार होवे सो तो मानना चाहिये और जो बात बहुत शास्त्रोंके विरुद्ध होवे उसको भी माननेका आग्रह करना सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका कारण बनता है, जैसे श्रीजिनेश्वरसूरिजीको संवत् १०८० में दुर्लभराजाने 'खरतर' विरुद दिया सो यह बात बहुत शास्त्रोंके प्रमाणोंसे सिद्ध है इसलिये चारण भाटादिकोंकी कथा कहानियां वगैरहों के आधारसे 'रासमाला' वगैरहमें सं० १०७१ में दुर्लभराजाकी मृत्यु लिखी उनको निश्चय मान लेना और बहुत शास्त्रानुसार तथा श्रीतप गच्छादिके पूर्वाचा. र्यों के सम्मत उपरोक्त विरुदका निषेध करना सो वर्तनानिक गच्छ कुदाग्रहकी अज्ञानताकी तुच्छ बुद्धि के सिवाय क्या होगा। ___ और यद्यपि रासमाला वगैरह गुजरातके इतिहासों में तथा इतिहासोंके ही आधारसे किसी अन्य जगह जैनोंके इतिहासिक पुस्तकों में भी १०७७ का लिखा देखने में आता है परन्तु इससे श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजको चैत्य वासियोंके जितनेसे जो दुर्लभ राजाने सं० १०८० या १०८४ में खरतर विरुद दिया इसका निषेध नहीं बन सकता। बोंकि देखो ऐसे तो श्रीस्थूलभद्रजीके जन्म दीक्षा स्वर्ग गमनके वर्षों में व्यार२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२६ ] वर्षों का मतभेद देखा जाता है, श्रीनवांगी कृत्तिकारक नीअभ. यदेव सूरिजीके स्वर्गगमनमें ४।४ वर्षो का मतभेद देखा जाता है, तथा कलिकाल सर्वज्ञ विरुद धारक श्रीहेमचन्द्राचार्यजीके दीक्षा और आचार्य पदमें भी ४४ वर्षों का मतभेद है और श्रीभद्रबाहु स्वामीजी, श्रीजिनेश्वरसूरिजी, श्रीमल्लवादीसूरिजी, तथा धनपाल पण्डित वगैरहके चरित्रों में भी पाठांतर मतभेद देखा जाता है और इसी तरह तपगच्छकी पहावलीमें भी यावत् श्रीहीरविजयसूरिजी तकको पाटानुपाटमें कोई कितने पाटपर और कोई कितने पाटपर, कोई कितने पाटपर मतांतरोंसे मानते हैं सो “सेन प्रश्न” देख लेना और इसी तरहसे 'सम्यक्त्वसल्योहार' वगैरह में लिखे मूजिब सूत्रों में भी पाठान्तर देखा जाता है और भी कितने ही चरित्रादिकों में और इतिहासिक बातों में मतभेद पाठान्तर देखने सुनने में आता है और श्रीउद्योतन मुरिजीसे ८४ गच्छकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें भी ३४ मतान्तर होगये हैं और ओसवाल पारवाल श्रीमाल श्रीश्रीमाल वगैरह जैनी प्रावकोंकी उत्पत्ति, गौत्र, कुल, स्थापनमें भी कितने ही वर्षों का मतभेद देखा जाता है इत्यादि। इन बातों में, सो यदि कोई हठवादी एकान्त एक बातको पकड़कर मतभेद पाठान्तरकी दूसरी बातका निषेध करनेके आग्रहमें पड़नेवालेको अभिनिवेशिक मिथ्यात्वीके सिवाय और क्या कहा जावेगा क्योंकि मतभेदकी बातोंका पूरा निर्णय तो श्रीज्ञानीजी महाराजोंके सिवाय वर्त्तमानने अल्पज हठवादी कदापि नहीं कर सकते हैं। तैसे ही यदि संवत् १०८० पाठान्तरे १०८४ में दुर्लभ राजा विद्यमान होनेसे श्रीजिनेश्वर मूरिजीको खरतर विरुद दिया हो तो पा इतिहासिक पुस्तकों में १०७७ में मृत्युक लिखनेको देख कर सपरकी बातका निषेध करना योग्य है सो तो कदापि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२७ ] नहीं क्योंकि इन उपरोक्त बातोंका पूरा स्पष्ट खलासे निश्चयके साथ निर्णय तो श्रीज्ञानीजी महाराजके सिवाय और कोई भी नहीं कर सकता इसलिये १०७७ के मृत्युके इतिहासिक लेखको आगे करके अनेक शास्त्रों में और तप गच्छके ही पूर्वजोंने अपने ग्रन्थों में श्रीजिनेश्वर मूरिजीसे खरतर गच्छ, और श्रीनवांगी वृत्तिकारक श्रीअभयदेव मूरिजी तथा श्रीजिनवल्लभ सूरिजी श्रीजिनदत्तसूरिजी वगैरह पूर्वाचार्य खरतर गच्छमें हुए ऐसा लिखा है इसको झूठा ठहरानेका उद्यम करना सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका ही कारण मालूम होता है अन्यथा कदापि ऐसा एकान्त हठवादका साहस न होता खैर; और नवीन या पुरानी जीर्ण पुस्तकोंका उतारा करने में बहुत भूलें भी हो जाती हैं इसलिये अक्षर और अंकोंका नम्बर लिखने में दृष्टि दोषसे यदि दर्लभ राजाकी मृत्यु १०८७ में हुई होवे उसके लिखनेकी जगहपर भूलसे १०८७ के १०७७ लिखे गये होवे उसमें ८ का ७ बन गया होवे तो भी ज्ञानी जाने। अथवा १०७० या १०७४ में दुर्लभ राजाने श्रीजिनेश्वर सूरिजीको खरतर विरुद दिया होवे उसके लिखनेकी जगहमें भी 9 की जगह लिंखा गया होवे उसमें १०७०। बदसे १०८० बन गये होवे या २०७४ की जगह १०८४ बन गये होवे और वोही परम्परा चल पड़ी होवे तो भी श्रीज्ञानीजी महाराज जाने । परन्तु भोजिनेश्वर सूरिजीने दुर्लभ राजाकी सभामें चैत्य वासियोंका पराभव किया और संयमियोंकी विहार खुला कराया तबसे वसतिवासी सुविहित खरतर कहलाने लगे यह बात तो संवत् ११३८ में बना हुआ श्रीवीरचरित्र भीअभयदेव मूरिजीके सन्तानीय श्रीगुणचन्द्रगणिजी कृतसे, तथा दादाजी श्रीजिनदत्त मूरिजीकत ११८० के अनुमान श्रीगुरुपारतंत्रघ और भीगणधर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२८ ] सार्द्धशतक वगैरह प्राचीन ग्रन्थोंसे भी सिद्ध है तथा अन्य इतिहासिक ग्रन्थोंसे और परम्परासे भी सिद्ध है इसलिये थोड़ेसे वर्षो के मतभेदके देखनेसे मूल बातका निषेध करना सो बड़ी भूलं है इसको निष्पक्षपाती विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं ; और १०८४ में भीमराजाने खरतर विरुद दिया यह माना जावे तब तो इतिहासिक पुस्तकोंसे भी कोई विरोध नहीं आ सकता सो यह बात भी तो पाठांतरसे लिखी हुई देखने में आती है इसलिये भीमने दिया या दुर्लभने सो तो श्रीज्ञानीजी जाने परन्तु श्रीजिनेश्वर सूरिजीको खरतर विरुद मिला यह सब प्रकारसे सिद्ध होता है । और जब श्रीनवांगी वृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरिजी वगैरह जैनाचार्यो के सम्बन्धमें भी वर्षों का भेद देखा जाता है तो फिर दुर्लभ राजाके सम्बन्धमें निश्चय कैसे कह कसते हैं जिसपर भी निश्चय कहनेवाले प्रत्यक्ष हठवादी ठहरते हैं सो विवेकी जन स्वयं विचार लेवेंगे । और धर्मसागरजीने भी विवेक शून्यता से 'प्रबन्ध चिन्तामणि' 'बनराज चावड प्रबन्ध' वगैरह इतिहासिक पुस्तकर्कोके प्रमाणसे दुर्लभ राजाकी १०99 में मृत्यु होनेका ठहरानेका एकान्त हठवाद करके श्रीजिनेश्वर सूरिजी से खरतर विरुदका विषेध करनेका परिश्रम उठाया और उसी अंधपरम्परासे वर्त्तमानिक कदाग्रही जन आग्रह करते हैं सो उपरोक्त लेखसे सब व्यर्थ ठहरता है इसका विशेष निर्णय सत्यग्राही जन स्वयं कर सकते हैं । शङ्का - अजी आप पूर्वोक्त शास्त्रोंके प्रमाणोंसे श्रीजिनेश्वरजीने चैत्यवासियोंके साथ दुर्लभ राजाकी सभा में शास्त्रार्थ करके राजसभामें खरतर विरुद्ध प्राप्त किया ऐसा सिद्ध करते हो परन्तु " गुरु पारतंत्र्य” तथा “ गणधर सार्द्धशतक" मूल और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२९ ] उसकी व्याख्यामें तो शास्त्रार्थ करके चैत्यवासियोंको पराजय करनेका लिखा है परन्तु दुर्लभ राजाने खरतर विरुद दिया ऐसा तो नहीं लिखा तो फिर कैसे माना जावे। ___ समाधाम-भो देवानुप्रिय ! तेरेको पीजैनशास्त्रों के अतीव गहनाशयको गुरुगम्यतासे या अनुभवसे मालूम होती तो ऐसी शङ्का कदापि नहीं उठाता क्योंकि जैनशास्त्रों में किसी जगह किसी नय आश्रपि पूर्व कारण रूपकी बातको लिखी होवे वहां सम्बन्धसे उत्तर कार्य रूपकी बातका ऊपरसे अध्याहार करने में आता है और किसी जगह उत्तर रूपर्ने कार्यकी बात लिखी होवे वहां सम्बन्धानुसार पूर्व कारणकी बातका ऊपरसे अध्याहार करने में आता है और किसी जगह थोड़ेसे प्रसङ्ग मात्रका दर्शाव किया होवे वहां सम्बन्ध पूर्वक पूर्व और उत्तरका सब विवरण ऊपरसे करने में आता है। देखो ! जैसे-किसी जगहपर अमुक तीर्थंकर भगवान्के उपदेशसे अमुक राजा दीक्षा लेता भया इतना लिखा होवे तो वहां-तीसरे भवमें तीर्थंकर गौत्र बांधनका, जन्म होनेका, दीक्षा लेनेका, केवल ज्ञान प्राप्त करनेका, प्रामानुग्राम विचरनेका, समवसरणकी रचना होनेका, चौसठ इन्द्रादिकोके आनेका, और रा. जाको वधाई जानेसे भक्ति पूर्वक परिवार सहित बन्दनाको जानेका, भगवानके देशना देनेका, देशना सुनकर वैराग्य उत्पन्न होनेका, दिक्षा लेनेका, और शास्त्रार्थका अध्ययन करनेका, निरतिचार संयम पालनेका, यावत् तपश्चर्यादि पूर्वक आयु पूर्ण करके मोक्षगमन पर्यन्तका सब वृत्तान्त सम्बन्ध पूर्वक कहा जासकता है। तथा दूसरा और भी सुना जैसे किसी जगह अमुक राजाने अमुक पूरिजीको शास्त्रार्थके लिये बुलाये सिर्फ इतनाही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७३० ] लिखा होवे तथा अन्य जगह वही अमुक सूरिजी अमुक विरुद धारक थे इन्हीं महाराजके सन्तानीये अमुक गच्छवाले कहलाते हैं एसा लिखा होवे तो वहां राजसभामें विद्वानोंसे शास्त्रार्थ होनेका आप विजय प्राप्त करनेका राजाने खुश होकर उनके सत्कार रूप विरुद (पदवी) देनेका और अमुक विरुद धारक अमुक आचार्य के परम्परावाले उस पदवीके कारण पदवीके नामका गच्छवाले कहलाने लगे इत्यादि सब सम्बन्ध पूर्वक माना जाता है। तैसेही श्रीजिनेश्वरसूरिजीने भी राज्यसभामें शास्त्रार्थ करके लिङ्गधारियोंका पराजय किया यह बात तो पूर्वोक्त शास्त्रों में खुलासाही लिखी हुई है तथा राज्यसभाने या विद्वानोंकी सभामें शास्त्रार्थ में विजय पानेवालेको राजाओंकी तरफसे या विद्वानोंकी तरफसे उनको पदवी मिलति थी और मिलति भी है इस बातके तो शास्त्रों में भी अनेक प्रमाण मिलते हैं और वर्तमानमें प्रत्यक्षपने में भी अनेक प्रमाण विद्यमान है। और अन्य शास्त्रोंमें तथा पहावलियोंमें, शिलालेखों में, चरित्रों में, चैत्यवासियोंके जीतनेसे राजाने खरतर विरुद दिया ऐसा खुलासा लिखा है उसके कितनेही प्रमाण तो ऊपरमें भी छप चुके हैं और उपरोक्त शास्त्रों में जब शास्त्रार्थ का कारण लिख दिया तो विजय प्राप्तिसे सत्काररूप राजाकी तरफसे खरतर विरुदके कार्यका तो ऊपरसे भी सम्बन्ध जोड़ना चाहिये सो इसका दृष्टान्त ऊपर में लिखा गया है इसलिये उपरोक्त शा. स्त्रों के प्रमाणोंसे भी कारण कार्य भाव ग्रहण करके खरतर विरुदकी प्राप्ति मानना चाहिये। ___ और पहिली बार जो कार्य होता है वही प्रधानरूपसे गिना जाता है परन्तु पीछे तो कईवार वैसा कार्य होवे तो भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७३९ ] पहिले जैसा नहीं गिना जाता इसलिये यद्यपि पीछे तो चैत्यवासियोंको बहुत आचार्यादिकोंने हटाये थे परन्तु श्रीजिनेश्वर सूरिजीनेही पहिली वार प्रगटपने राज्यसभा, चैत्यवासियोंको हटाये थे इसलिये इन महाराजको विशेषता मानी जाती है और पहिली वारका कार्य परम्परागतसे चिरकाल तक समरणीय रहता है इसलिये इन महाराजका पहिलाही कार्य खरतर विरुदका परम्परा करके आज तक समरणीय हो रहा है और आगे होता रहेगा उसी कारणसे भी इन महाराजसे खरतर विरुद निषेध नहीं हो सकता है। अथवा कितनेही ऐसा भी कहते हैं कि दुर्लभ राजाकी सभामें जब चैत्यवासियोंसे शास्त्रार्थ हुआ था तबसे ही सं० १०८० में मुविहित (खरतर) कहलाने लगे और राजाने इन महाराजको अपने नगरमें ठहरनेकी आज्ञा दी पीछे कालान्तरमें भीम राजाकी सभामें १०८४ में बड़े बड़े विद्वानोंकोशास्त्रार्थ में जीतनेसे “खरतर" विरुदको विशेष प्रसिद्ध हुई और इन महाराजका समुदायवाले खरतर गच्छके कहलाने लगे हैं सो ऐसा माना जावे तो भी दुर्लभ या भीम और १०८० या १०८४ का पाठान्तर ऊपरमें लिखा गया है सो इस बातसे भी श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे सुविहित (खरतर) गच्छकी उत्पत्ति होना परम्परा चलना तो अवश्यमेव मानना चाहिये जिसपर भी हठवादसे कुविकल्प करना सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे संसार बढ़नेका कारण है सो भवभीरू आत्मार्थी सत्यग्राही निष्पक्षपातियोंको करना उचित नहीं है और अन्ध परम्पराके कदाग्रहको छोड़कर उपरोक्त सत्य बातको ग्रहण करनाही अयकारी है। और जैसे पूर्वाचायोंके दीक्षा, स्वर्गवास वगैरहके कालमानमें कितनेही वर्षाका मतभेद हो रहा है तथा कितनेही चरित्रों में, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 732 ] कितनेही सूत्रों में और भावी चौवीशीके वर्तमानिक जीवोंके गतिके नामों में और युगप्रधान गंडिकाओंमें और इतिहासिक कथाओं में इत्यादि अनेक बातोंमें ज्ञानी महाराजोंके अभावसे और काल दोषादि कारणोंसे जूदेजूदे मतभेद पाठान्तर हो गये हैं परन्तु उन बातोंमेंसे एक बातको पकड़के दूसरीको निषेध नहीं कर सकते हैं तैसेही खरतर विरुद प्राप्तिमें भी कालदोषादि कारणोंसे मतभेद हो गया है परन्तु श्रीजिनेश्वर सूरिजीको खरतर विरुदको प्राप्ति होनेरूप यह मूल बात सत्य होनेसे 1017 में दुर्लभ राजाके मृत्यु होने सम्बन्धी, अन्धपरम्पराके अर्वाचीन इतिहासिक पुस्तकोंको आगे करके श्रीजिनेश्वर सूरिजीसे खरतर परम्पराकी मूल सत्य बातका निषेध करनेका आग्रह करनासो आत्मार्थियोंका काम नहीं है। ___ और श्रीजिनेश्वर सूरिजीसे खरतर गच्छकी परम्परा शुरू होने सम्बन्धी यहांपर प्रत्यक्ष प्रमाण भी दिखाता हूँ सो विवेक बुद्धि हृदयमें लाकरके विचार लो देखो-जैसे श्रीजगच्चन्द्र मूरिजीको 'तपा' विरुद मिला इससे इन महाराजके परम्परा वाले तप गच्छके कहलाने लगे और उन्हीं तप गच्छमें से वृद्धपौशालिये तथा लघुपौशालिये वगैरह अनुक्रमसे वर्तमान समय तकमें करण योगोंसे 13 / 14 भेद होगये सो 13 / 14 गट्टी तो प्रसिद्ध ही हैं। तैसे ही श्रीजिनेश्वर मूरिजीके परम्परावाले खरतर गच्छके कहलाने लगे सो उन्हीं खरतर गच्छमें से श्रीजिनवल्लभ मूरिजीके समयमें अनुमान 1170 के लगभगमें श्रीअभयदेव सूरिजीके अन्य दूसरे शिष्य की तरफसे 'मधुकर खरतर' नामा खरतर गच्छकी प्रथम शाखा निकलि और श्रीजिनदत्त सूरिजी महाराजके समय संवत् 1204 में श्रीजिनवल्लभ मूरिजीके शिष्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 733 ] श्रीजिनशेखर मूरिजी "रुद्रपल्लीय खरतर" नामा खरतर गच्छकी दूसरी शाखा निकाली सो इस तरहसे अनुक्रमे कारणका योगोंसे (तप गच्छकी तरह ) खरतर गच्छमें भी वर्तमान समय तक में 12 / 13 भेद होगये हैं सो 12 / 13 गद्दी प्रसिद्ध हैं इस मुजन खरतर तप इन दोनों गच्छोंके 12 / 13 भेद दोनों गच्छवाले प्रायः सब कोई मान्य करते हैं यह तो प्रत्यक्ष ही प्रमाणकी बात है। और जैसे तपगच्छकी वृद्धपौशालिक शाखामें श्रीविजयचन्द्र सूरिजी श्रीक्षेमकीर्ति सूरिजी हुए हैं तथा लघुपौशालिक शाखामें श्रीदेवेन्द्र सूरिजी श्रीधर्मघोषसूरिजी वगैरह आचार्य हुए हैं और रुद्रपल्लीय शाखामें श्रीजि नशेखर सूरिजी वगैरह आचार्य हुए हैं और मूल रहत्खरतर गच्छमें श्रीजिनवम्लभ सूरिजी त्रोजिनदत्तसूरिजी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी श्रीजिनपति सूरिजी वगैरह बड़े बड़े शासन प्रभावक आचार्य हुए हैं सो तो आज तक भी प्रसिद्ध है और इसीलिये न्यायांभोनिधिका विशेषण धारण करनेवाले श्रीआत्मारामजी भी “चतुर्थस्तुति निर्णय” की पुस्तकमें श्रीजिनपति सूरिजीको उहत् खरतरगच्छ के लिखे हैं सो पुस्तक तो छपी हुई प्रसिद्ध ही है। इस बात किसीको सन्देह होवे तो उक्त पुस्तक देख लेना ___ अब यहांपर विवेक बुद्धिसे विचार करना चाहिये कि-जब श्रीनवांगी वृत्तिकारक श्रीअभयदेव सूरिजी महाराजके शिष्योंसे ही खरतर गच्छकी शाखा अलग हो गई तो इन महाराज पहिलेसे ही खरतर गच्छ तथा इन महाराजके खरतर गच्छमें होनेका स्वयं ही सिद्ध हो चुका इसलिये खरतर गच्छके 13 भेदोंका प्रत्यक्ष प्रमाणसे भी श्रीजिनेश्वर सूरिजीसे खरतर विरुद सिद्ध होता है इसलिये इन महाराजसे खरतर विरुदका निषेध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 734 ] करना और श्रीनवांगी वृत्तिकारक श्रीअभयदेव सूरिजीको खरतर गच्छमें न होनेका ठहराना सो प्रत्यक्ष महामिथ्या है इसको विशेषतासे तो निष्पक्षपाती विवेक बुद्धिजन स्वयं विचार लेवेगे। ___ अब मेरेको बड़े आश्चर्य सहित खेदके साथ लिखना पड़ता है कि न्यायांभोनिधिजीका विशेषण धारण करनेवाले श्रीआत्मारामजी जैसे भी धर्मसागरजीकी धर्म धूर्ताईको ठगाई के अन्ध परम्परामें गड्डरीह प्रवाहकी तरह फंस गये और विवेक बुद्धिकी शून्यतासे विना विचारे ही कुविकल्प और जूठे मालम्बनोंका सहारा लेकर व्यर्थ द्वेष बुद्धिसे अपने दूसरे महाव्रतके भड़का भय न करके श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजसे खरतर परम्परा चलनेका निषेध करते थोडासा कुछ भी विचार क्यों नहीं किया, क्योंकि देखो भला जब श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजके सन्तानीय श्रीनवांगी वृत्तिकारक श्रीअभयदेव सूरिजी के शिष्योंसे ही गच्छ भेदसे जुदी शाखा होगई और संवत् 1204 तक श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजके समय तक तो खरतर गच्छकी दूसरी शाखा भी जुदी हो गई और मूल उहत् खरतर गच्छ सहित दो शाखा अलग होकर तीन भेद भी होगये तो फिर श्रीजिनदत्तसूरिजीसे 1204 खरतर गच्छकी उत्पत्ति कहना लिखना बालकपनके सिवाय और क्या होगा। और जब 'मुधकर' तथा 'रुद्रपल्लीय' यह दोनों शाखा खरतर गच्छकी आज तक इतिहासोंमें और पहावलियों में प्रसिद्ध है तो फिर सं० 1204 में खरतर उत्पत्ति कहने लिखने मानने वालोंको 1204 के पीछे 'मधुकर' और 'रुद्रपल्लीय' यह दोनों खरतर गच्छकी शाखा न माननेका हठ करनेवालोंको भी 'मधुकर' और 'रुद्रपल्लीय' यह दोनों शाखा किस गच्छकी है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 735 ] किस 2 आचार्यसे किस 2 वर्ष उत्पन्न हुई इसका भी तो खुलासा अवश्यमेव करना पड़ेगा क्योंकि इन दोनों शाखाओंका प्रत्यक्ष प्रमाण खरतर गच्छमें मिलता है इससे इन दोनों शाखाओंसे भी खरतर गच्छ पहिलेका ही सिद्ध होता है जिसपर भी कितने ही अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे इस प्रत्यक्ष प्रमाणको सत्य बातको भी नहीं मानकर इनका निषेध करनेका आग्रह करनेवालोंको ऊपरकी दोनों शाखाओंका खुलासा अवश्य दिखलाना पड़ेगा अन्यथा जिस गच्छके आचार्यो के शिष्य प्रशिष्यादि परम्परामें मूल गच्छकी शाखा प्रशाखा भी जिसके पहिले अलग हो चुकी उस गच्छको शाखा प्रशाखाओंके पीछे उत्पन्न होनेका ठहरानेका साहस करना सो तो पोता प्रपोताकी उत्पत्ति पहिले, और उनके दादाकी उत्पत्ति पीछे मानने जैसी न्यायांभोनिधिजी वगैरहोंका कथन बाललीला समान ठहरता है उसको विवेकी तत्वज्ञजन अच्छी तरहसे विचार सकते हैं। तथा और भी न्यायांभोनिधिजीके समुदाय वालोंको इस बातपर भी विचार करके निर्णय दिखाना पड़ेगा कि खास न्या. यांभोनिधिजीने 'चतुर्थ स्तुति निर्णय' की पुस्तकमें श्रीजिनपति सूरिजीको वृहत् खरतर गच्छके लिखे हैं और “जैनतत्वादर्श" तथा “जैनसिद्धान्त समाचारी" की पुस्तकमें 1204 में खरतर गच्छकी उत्पत्ति लिखते हैं तो 1204 पीछे किस वर्ष किस आचार्यसे किस कारण किस ग्राममें खरतर गच्छकी कौन कौन शाखा अलग अलग जुदी 2 निकली उससे वहत खरतर लघु खरतर वगैरह कहलाने लगे क्योंकि लघुके बिना तो वहत् नहीं हो सकता है और न्यायांभोनिधिजी श्रीजिनपति सूरिजीको 'चतुर्थस्तुतिनिर्णय' की पुस्तक रहत् खरतर गच्छके लिख चुके हैं इसलिये लघु होनेका और मधुकर रुद्रपल्लीय वगैरह गट्टी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 736 ] अलग होनेका कारण खुलासा पूर्वक बतलाना होगा, नहीं तो हम ऊपरमें लिख आये हैं उस मुजब मानना पड़ेगा अन्यथा अन्तर मिथ्यात्वियोंमें अन्याय सूप अधर्म रहता ही है सो तत्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेगे। ___ और खरतर गच्छ वालोंके लिखे मूजब रहत् खरतर लिखा मानो तो उनके लिखे मूजब इस गच्छकी उत्पत्ति और गच्छभेद भी मान लो अन्यथा एकको मानोंगे एकको नहीं यह तो प्रत्यक्ष अन्यायकी बात है। ___ और कलिकाल सर्वज्ञ समान श्रीहेमचन्द्राचार्यजी, वादिवेताल श्रीशान्ति सूरिजी, न्यायविशारद श्रीयशोविजयजी, मीखरतर गच्छकी रुद्रपल्लीय शाखाके वादीसिंह श्रीअभयदेव रिजी, वगैरह अनेक प्रभावक पुरुषोंको विरुद मिलने सम्बन्धी कारण, कार्य, सभा, विषय, राजा, विद्वानोंका समुदाय, संवत्, वगैरह कितनीही बातोंका प्रमाण नहीं मिलता है तो भी वे सब विरुदतो मानने में आते हैं और श्रीजिनेश्वर सूरिजी सम्बन्धीअनेक शास्त्रोंके, पहावलियोंके, चरित्रोंके, प्रमाण मिलते हैं और श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्य मान्य करते हैं और 13 भेद वगैरह प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिलते हैं जिसपर भी व्यर्थ कुयक्तियोंकी आड़ लेकर सत्य बातके निषेध करनेके आग्रहमें फसना सो तो प्रत्यक्ष ही अभिनिवेशिकका कारण मालूम होता है पोंकि सब विरुदोंको तो मानना और एकको नहीं मानना यह अन्याय आत्मार्थियोंसे कदापि नहीं हो सकता इसको विशेषतासे विवेकीजन स्वयं विचार लेवेंगे। शङ्का-अजी आप श्रीजिनेश्वर सूरिजीसे खरतर गच्छकी परम्परा शुरू होनेका मानते हो और मीनवांगी वृत्तिकार श्रीअभयदेव मूरिजीको खरतर गच्छके कहते हो तो इन महाराजने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 737 ] तो श्रीनवांगी वृत्ति और पञ्चाशक रत्ति वगैरह अनेक शास्त्रोंकी रचना करी है और मीजिनेश्वर सूरिजीसे अपनी परम्परा भी मिलाई है परन्तु इन महाराजको खरतर विरुद धारकका विशेषण तथा मैं खरतर गच्छमें हूँ ऐसा किसी भी ग्रन्थमें नहीं लिखा तो फिर इस महाराजको खरतर गच्छके कैसे माने जावे सो बतलाओ। समाधान-भो देवानु प्रिय ? तेरेको उन महापुरुषों के अभिप्रायकी मालूम नहीं है इसलिये ऐसी शङ्का करता है परन्तु अब हम तेरे तथा अन्य सत्य ग्राही विवेकी भद्र पाठक गणके सन्देहको दूर करनेके लिये उन महापुरुषोंके अभिप्रायको दिखाते हैं सो निस्पक्षपातसे विवेक बुद्धिको हृदयमें स्थिर करके देखो जेसे ? प्राचीन समयमें श्रीशीलांगाचार्यजी, श्रीमलयगिरिजी, 1444 ग्रन्थकर्ता मोहरिभद्रसूरिजी, 500 ग्रन्थकर्ता भीउमा स्वातिवाचकजो, श्रीजिनभद्रगणी क्षमाप्रमणजी, श्रीदेवर्द्धिगणी क्षमाश्रमणजी, श्रीश्यामाचार्यजी, पूर्वधर चूर्णिकार श्रीजिनदास गणी महत्तराचार्यजी मोशान्तिसूरिजी श्रीयशोदेवसूरिजी वगैरह अनेक महापुरुषोंने, किसीने तो अपने बनाये ग्रन्थमें अपने गच्छका नाम नहीं लिखा, किसीने अपने गुरु तकका भी नाम नहीं लिखा, तो भी अन्य ग्रन्थों के आधारसे उन पुरुषोंकों उनके गच्छके मानने में आते हैं। तैसेही श्रीअभयदेव सूरिजीने भी अपने बनाये ग्रन्थों में खरतर नाम नहीं लिखा तो भो न्यायानुसार तो अन्य ग्रन्थों के प्रमाणसे और परम्परा पहावलीके प्रत्यक्ष प्रमाणसे इन महाराजको खरतर गच्छमें मानने चाहिये। और उपरोक्तादि अनेक महापुरुषोंने अपने गुरुका और गच्चका नाम नहीं लिखा तो भी उसी मुजब मान लेना और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 38 ] श्रीअभयदेवसूरिजीके न लिखनेकी आड़ लेकर नहीं मानना, यह तो प्रत्यक्षही कदाग्रहका कारण दिखता है सो आत्मा. र्थियोंको करना उचित नहीं है। और यदि श्रीअभयदेवसूरिजीके खरतर गच्छ न लिखनेकी आड़ लेकर न मानोंगे तो श्रीदेवेन्द्रसूरिजीने,श्रीधर्मघोषसूरिजीने, श्रीक्षेमकीर्तिसूरिजीने, भी तो श्रीजगच्चन्द्रसूरिजीको भीवडगच्छके नहीं लिखे हैं, और अपनी परम्परा भी बड़गच्छसे नहीं मिलाई है, और श्रीजगच्चन्द्रसूरिजीको तपा विरुद धारक भी नहीं लिखे हैं, तो फिर श्रीअभयदेवसूरिजीके खरतर न लिखनेके आड़की तरह तो वर्तमानिक सब तपगच्छवालोंको भी भीदेवेन्द्रसूरिजी वगैरह अपने पूर्वजोंके वड़गच्छ तथा तपाविरुद न लिखनेको भी नहीं मानना चाहिये सो तो नहीं किन्तु विशेष रूपसे मानते हैं। सो यह तो प्रत्यक्षही अन्याय रुप अधर्म ठहरता है क्योंकि अपने पूर्वाचार्यों के म लिखनेको भी मान लेना और दूसरोंके पूर्वाधार्यो के न लिखनेकी आड़ लेकर निषेध करना यह बाललीलाके सिवाय और क्या होगा सो विवेकीजन स्वयं विचार लेवेंगे। और श्रीअभयदेवसूरिजीके खरतर न लिखनेकी आड़ लेकर इन महाराजको खरतरगच्छ में नहीं होनेका मानते हो तोइसीके अनुसार तो श्रीजिनवम्लभमूरिजी, श्रीदेवभद्रसूरिजी, श्रीवर्द्धमानसृरिजी, श्रीदेवेन्द्रसरिजी, श्रीविबुद्धप्रभसूरिजी, श्रीजिनदत्तमूरिजी, श्रीजिनचन्द्रसूरिजी, श्रीजिनपतिमूरिजी वगैरह खरतरगच्छके बहुत आचार्योंने अपने बनाये ग्रन्थों में अपना खरतरगच्छ नहीं लिखा है तथा ऐसेही तपगच्छवालोंने भी कितनेही ग्रन्थों में अपना तपगच्छ नहीं लिखा है। और दूसरे भी प्राचीन तथा थोड़े कालके कितनेही ग्रन्पोंमें ग्रन्थकारोंने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 739 ] अपना गच्छ नहीं लिखा है ऐसे बहुतही अन्य दृष्टिगोचर आते हैं तो या उन सबी ग्रन्थकारोंको उनके गच्छके न मानोगे सो तो कदापि नहीं तो फिर व्यर्थका हठ बादमें क्या सार निकलेगा सो विवेक बुद्धि हृदय, लाकरके स्थिर चित्त पूर्वक न्याय दृष्टिसे विचारनेकी बात है। ___ और जैसे श्रीजगच्चन्द्रसूरिजीको तपाविरुद मिला था सो श्रीदेवेन्द्रसूरिजी तथा श्रीक्षेमकीर्तिपूरिजी जानते थे, तो भी (इन महाराजको इसी ग्रन्थके पृष्ठ 656 से 676 तकमें छपेमुजब बड़गच्छको छोड़कर चैत्र वालगच्छसे ही परम्परा मिलाई) तपाविरुदको नहीं लिखा। तैसेही श्रीनवाड़ी वृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी भी अपने गुरुजी श्रीजिनेश्वरसूरिजीको खरतर विरुदकी प्राप्ति और चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ वगैरह सब बाते जानते थे तो भी खरतर विरुद न लिखा और चन्द्रकुलादिसे अपनी श्रीजिनेश्वरसूरिजीकी परम्परा मिलाई है। ___और श्रीअभयदेवसूरिजी, श्रीजिनवल्लभसूरिजी, श्रीजिनदत्त. सूरिजी, श्रीजिनचन्द्रसूरिजी, श्रीजिनपतिसूरिजी, मीनुमतिगणी श्रीजयन्तविजयंत:काव्यकर्ता वादीसिंह विरुद धारक नीअभयदेव सूरिजी वगैरह इन महाराजोंको तो खरतर विरुदका आग्रह नहीं था इसलिये वर्तमानिक समयवत् आप लोगोंकी तरह अपने गुरुको लम्बी चौड़ी पदधी लिखते चले जावे परन्तु इन महा. राजोंको तो अशुद्ध प्रतिको हटाके, शुद्ध मार्ग प्रकाश करनेका आग्रह था, इसलिये 'मागम अठोत्तरी' “संघ पहक" सन्देह दोला वली, संघ पहककी और इसीकी रहत् तथा लघु दोनों बत्ति, गणधर सार्धशतक बहत तथा लघु दोनों मृत्ति, षट्स्थामकप्रकरणत्ति वगैरह शास्त्रों में द्रव्यलिङ्गी शिपिलाचारी उत्सूत्रShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 740 ] भाषियों, सम्बन्धी क्या क्या लिखा है सो तो उपरोक्त महा. राजोंके रचे हुए ऊपर के ग्रन्थोंको देखनेसे मालूम हो जावेगा और तुमारी शङ्का मुजब तो यह सबी महाराज खरतरगच्छके तथा मोदेवेन्द्रसूरिजी वगैरह तपगच्छके नहीं ठहरेंगे सो कदापि नहीं हो सकता और बहुतसे ग्रन्थकारोंने तो अपना चान्द्रकुलादि भी नहीं लिखा परन्तु तुमारी शङ्का मुजब तो उनोंके चान्द्रकुलादि भी नहीं मानने चाहिये ऐसा कभी नहीं हो सकता सो इसलिये अज्ञानतासे ऐसी शङ्का करना व्यर्थ है इसको विवेकी पाठकगण विशेषतासे तो स्वयं विचार लेवेंगे। और श्रीनवांगी वृत्तिकारक श्रीअभयदेवमूरिजी श्रीजिनवलमसूरिजी श्रीजिनदत्तसूरिजी वगैरह इन महाराजोंने अपना खरतर गच्छ नहीं लिखा जिसका कारण तो यही है कि इन महाराजोंको इस खरतर विरुदके लिखने ऊपर इतना आग्रह अभिमान नहीं था क्योंकि श्रीजिनेखरसूरिजी महाराजने चैत्यवासियोंकी अविधि उत्सूत्रता शिथिलताका निषेध करके संयमियोंका शुद्ध व्ववहार विधि मार्गको भगवान्की आज्ञानुसार प्रगट किया था सो ऐसे करना तो सभी आत्मार्थी जैनी आ. चार्य उपाध्याय साधुका कर्तव्य रूप मुख्य धर्म ही है सो वोही श्रीजिनेश्वरसूरिजीने किया परन्तु विशेष कोई नवीन आश्चर्यकी अपूर्व बात नहीं करी थी, तो भी इस पञ्चमकालमें उस समय लिङ्गधारी चैत्यवासियोंका उपद्रव बढ़ गया था शिथिलताका प्रचार बहुत हो गया था और अपने नगरमें संयमियोंको आने भी नहीं देते थे और किसी किसी क्षेत्रमें संयमी अल्प रह गये थे इसलिये श्रीजिनेश्वरसूरिजीने अपने शुद्ध संयमका बर्ताव पूर्वक चैत्यवासियोंके उपद्रवका भय न करते हुए साहस करके महिलपुरपणमें आये और उन्होंको हटाने पूर्वक संयमी मुनि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७४१ ] योंका विहार कराना शुरू किया उससे वहां विधि मार्ग और संयमी साधुओंका प्रकाश होने लगा इसलिये इन महाराजके इस कर्तव्यको विशेष रूपसे भी मान सकते हैं इसलिये इन महाराजका इस कर्तव्यको श्रीजिनदत्तसूरिजी श्रीजिनपतिसू. रिजी श्रीमुमतिगणी जी दूसरे श्रीमभयदेवसूरिजी वगैरह पूर्वाचार्य अपने ग्रन्थों में विस्तारसे लिखते आये हैं परन्तु खरतर विरुद पर इतना आग्रह न होनेसे इसको जगह जगह नहीं लिखा तो भी इसीका कारण लिखा हुआ है सो कार्यका सम्बन्ध जोडकर मान सकते हैं इसलिये उपरोक्त महाराजोंने खरतर विरुद नहीं लिखा तो भी कोई हरजा नहीं है। ___ और श्रीअभयदेवरिजी महाराजके तो श्रीजिनेश्वरसूरिजीने चैत्यवासियोंको जीते उसको तथा खरतर विरुदको लिखनेका प्रसङ्ग भी नहीं था क्योंकि प्रशस्तियोंके लेखोंमें कथानकरूपकी बातको नहीं भी लिखे तो कोई हरजा नहीं है और कोंकी विचित्रताके कारणसे चैत्यवासी होगये थे, परन्तु वे लोग भी तो श्रीवीरप्रभुको परम्परावाले तथा सूत्रपत्ति आदि पञ्चाङ्गी और प्रकरणादि माननेवाले थे और श्रीमभयदेवसूरिजीने श्रीनवांग वृत्ति वगैरह जैनीमात्र सबगच्छवालोंके माननेके लिये बनाई थी किन्तु किसी एक पक्षके माननेके लिये नहीं और खरतर विरुद सम्बन्धी बात तो चैत्यवासियोंको और अन्य शिथिलचारियोंको मान्य नहीं थी इसलिये यदि श्रीनवांग रतिमें मीमभयदेवसूरिजी खरतर विरुदकी बात लिखते तो चैत्यवा. सियोंके और अन्य शिथिलाचारियोंके तथा खरतर विरुदके द्वेषी अन्य गच्छ वालोंके श्रीनवांग वृत्ति वगैरह इन महाराजके बनाये शास्त्रोंको मान्य करने में बाधा खड़ी हो जाती, और मीनवाङ्ग बत्ति सबगच्छवाले शिथिलाचारी चैत्यवासी या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७४३ ] संयमी सबके एकसमान उपगारी होनेसेही तो इन महाराजने सर्व मान्य चान्द्रकुल लिखा परन्तु खरतर न लिखा सो तो इन महापुरुषोंने बहुतही अच्छा किया जो गच्छके आग्रहके निमित्त कारणको जड़कोही नहीं लिखा अन्यथा जैसे वर्तमानकालने कितनेही विवेक शून्य गच्छकदाग्रही जैनी नाम घरानेवाले, किसी गच्छवालेने अपने गच्छके नामसे कोई अच्छा भी पुस्तक बनाया होवे तो भी उसको नहीं मानते हैं। सो मानना तो दूर रहा हाथ में लेकर वांचने में भी सङ्कोच करते हैं, और कितनेही आदमी उस पुस्तककी बातों सम्बन्धी सत्यासत्यका निर्णय किये बिना ही बोलने लगते हैं कि इसमें क्या है यह तो अमुक गच्छ वालेने बनाया है सो अपनी बातें लिखी होगी इसलिये इसको नहीं बांचना चाहिये सो ऐसे दृष्टान्त वर्तमानमें बहुत देखने में माते हैं सो ऐसा न होनेके लियेही तथा भाष्यचूर्णिकारोंकी और हरिभद्रमूरिजी वगैरह महाराजोंकी तरह इन महाराजने भी स्वभाविकसे खरतर विरुद न लिखा परन्तु आप खरतर विरुदमें ही थे सो स्वयं अच्छी तरहसे जानते थे। और दूसरा यह भी कारण है कि श्रीअभयदेवसूरिजी श्री. जिनवल्लभमूरिजी वगैरह उपरोक्त महाराज अपने अपने बनाये शास्त्रों में अपना खरतरगच्छ को जगह जगह पर लिखते जावे और उस समयके चैत्यवासियों की तरह गच्छरूप वाईके आग्रहका बन्धनको दृढ़ होनेका कारण करें, ऐसा उन महाराजोंसे कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि देखो उस समय चैत्यवासी लोग अपने अपने भक्तोंको अपने दृष्टिरागमें फसानेके लिये अपने अपने गच्छकी परम्पराका नाम लेकर विवेक शून्य भोले जीवोंको अपनी मायाजालमें फसाते थे और आराधक, विरा. धक, सम्बन्धी शुद्ध वर्तावके विचारोंको भूलाकर अपनी स्वार्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४३ ] सिद्धता करनेके लिये, ब्राह्मण चारण भाट और कुलगर ( गृहस्थ लोगोंके वंश परम्परा सुनानेवाले ) वगैरहोंकी तरह चैत्यवासियोंने भी गच्छ परम्पराके बहाने भोले जीवोंको अपने वाड़ेनें रख छोड़े थे इसलिये ही तो श्रीसङ्गपटकको व्याख्या वगैरह शास्त्रकारोंने गच्छोंके पक्षपात परम्परा रूप वाड़ के बन्धनको तोड़नेके लिये और दृष्टिराग छोड़कर शुद्ध विधि मार्ग श्रीजिनाशा अङ्गिकार करनेके लिये बहुत लिखा है सो तो छपा हुआ सङ्घपटक प्रसिद्धही है इसलिये श्रीअभयदेवसूरिजी श्री जिनवल्लभसूरिजी श्रीजिनदत्तसूरिजी श्री जिनपतिसूरिजी वगैरह महापुरुषोंने गच्छ बन्धन के वाड़ेके कारणभूत पिछाड़ी परम्परागतमें न होनेके लिये अपने खरतर विरुदको अलग करके न लिखा और चन्द्रकुलके अन्तरगत उस समयके सर्वमान्यचन्द्रकुलादिको लिखते रहे हैं, आत्मकल्याण और परोपकार तो मीजिनाज्ञा पूर्वक सत्योपदेशमें है किन्तु गच्छके पक्षपातके बन्धनरूपवाड़ में नहीं है । अब मेरेको बड़े ही अफसोस के साथ लिखना पड़ता है कि वर्त्तमानिक श्रीतपगच्छ में बड़े बड़े विद्वान् कहलाते हैं परन्तु धर्मसागरजी आत्मारामजी वगैरहोंकी अन्धपरम्परा में फसकर गड्डरोह प्रवाहकी तरह एक एककी देखादेखी विवेक बुद्धिसे कारण कार्यको तथा उन महापुरुषों के भाष्यचूर्णिकारा पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों के अभिप्रायको और उस समय के चैत्यवासियोंकी गच्छके नामसे अपना अपना वाड़ा बांधने की खोटी प्ररूपणा वगैरहका विचार किये बिना और श्रीदेवेन्द्रसूरिजी श्री क्षेमकीर्त्तिसूरिजी श्रीधर्मघोषसूरिजी के बनाये ग्रन्थोंकी प्रशस्तिके लेख रूप अपने घरको देखे बिनाही श्रीनवाङ्गी वृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरिजीने 'खरतर न लिखा' 'खरतर न लिखा' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७४४ ] ऐसे लिखते कहते चले जाते हैं और आपसमें कदाग्रह बढ़ाते हैं उन्हींकों उपरोक्त लेख बांचकर लज्जित होना चाहिये और अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके हठवादको छोड़कर सरलता पूर्वक सत्य बात ग्रहण करनी चाहिये। ___ और अपना घर भी तो देखना चाहिये कि श्रीदेवेन्द्रसूरिजी श्रीक्षेम कीर्तिसूरिजी वगैरहोंने वडगच्छको छोड़कर चैत्रवालगच्छ को खुलासा पूर्वक लिखा है जिसको तो मानने में न मालूम किस कारणसे उज्जा करते हो और इन पूर्वाधार्यो के लिखे चैत्रवाल गच्छसे परम्परा मिलाना छिपाकर श्रीजिनाजा और अपने पूर्वाचार्योके विरुद्ध होकर प्रत्यक्ष विपरीत वहगच्छसे परम्परा मिलाते हो सो “अकरतोगुरुवयणं, अणन्त संसारीओ, भणिओ" इस वाक्यानुसार माप लोगोंका कितना संसार माना जावे सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने और अपने घर में तो बिना लिखे भी मनमाना चाहे जैसा विपरीत वर्तावको भी मान बैठना और दूसरे महापुरुषोंके अभिप्रायको समझो बिना कुविकल्प उठाना सो बाल लीलाके सिवाय और क्या होगा। इसलिये दूसरेके वास्त कुयुक्ति करना वोही अपने सिरपर गिरने लगे वैसे कदाग्रहको छोड़नाही आस्मार्थो अल्पकर्मियोंका काम है। शङ्का-अजी आप तो उपरोक्त पूर्वाचार्यों ने अपनी अपनी गच्छ परम्पराके पक्षपातरूप बन्धनके वाई का कारण न होनेके डिये अपना खरतर विरुद नहीं लिखा ऐसा कहते हो तो फिर १४००।१५०० से तो खरतर गच्छके बहुत आचार्य अपना खरतर गच्छ लिखने लगे थे और वर्तमानिक समयमें तो बड़े जोर शोरसे लिखते हैं जिसका क्या कारण है। उत्तर-भोदेवानु प्रिय? संवत् १४००।१५००से तथा वर्तमानमें खरतर लिखनेका तो यही कारण है कि यद्यपि श्रीजिनेश्वर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) सूरिजीने पहिलेही पहिल राज सभा में चैत्य वासियोंका पराभव किया था, तबसे ही उन्होंका जोर दिनो दिन कमती होने लगा, सो जैसे जैसे - संयमियोंने चैत्यवासियोंके अनुचित वर्तावके भेद खोलकर भव्य जीवोंको शुद्ध मार्गमें लानेका खूब प्रचार किया तैसे तैसे ही वे चैत्यवासी जन अपने अनाचारोंका विचार करके उनोंको छोड़ तो नहीं सकते थे, परन्तु विशेष रूपसे संयमियों के द्वेषी बनते थे, और जबसे श्रीजिनवल्लभ सूरिजीने, तथा श्रीजिनदत्तसूरिजीने, उन चैत्यवासियोंकी अविधि उत्सूत्रता सिथिलताको बड़े जोर शोर से निषेध करी और भव्य जीवोंके उपकार के लिये भगवान्‌की आज्ञानुसार शुद्ध विधिमार्गकों प्रकाशित किया, और कठिन क्रियाके वर्ताव से शिथिलाचारियोंको लज्जित किये, और चमत्कारोंसे तथा उपदेश से हजारों लाखों अन्यमत वालोंको प्रतिबोध देकर जैनी ओसवाल वगैरह श्रावक बनाये, और विशेष रूप से चैत्यवासियोंकी मायाजाल रखेड़ डालने के लिये अनेक ग्रन्थों की भी रचना करो, और चारों तरफ से श्रीजैनशासनकी बहुत बड़ी भारी उन्नति करके दूसरे उदयको प्रकाशमान किया, तबसे चैत्यवासी लोग और अन्य गच्छवाले भी शिथिलाचारीजन इन महाराजोंसे बहुत द्वेष रखने लग गये थे, ( सो तो छपा हुआ श्रीसङ्गपक वांचनेसे मालुम हो जावेगा ) उससे इन महाराजोंकी अनेक तरहसे निन्दा करके अवर्णवाद बोलने लगे, तथा खरतर (सुविहित ) विरुद से बहुत द्वेष हो गया, परन्तु खरतर विरुद धारकोंकी बनाई हुई श्री नवाङ्गसूत्र वृत्ति वगैरह शास्त्रोंकों मान्य किये बिना काम भी नहीं चल सकता था, इसलिये उन द्वेषी लोगोंने १३०० के लगभग श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजको खरतर विरुदको प्राप्ति होनेका निषेध ୯୫ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) करना शुरू किया, और श्रीनवाड़ी इत्तिकारक श्रीमभयदेव पूरिजी महाराज खरतर गच्छमें नहीं हुए ऐसा कहते हुए ? नवाङ्ग वृत्ति मानने रूप अपना अभीष्ट सिद्ध करनेके लिये, और श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजपर झूठे कल्पित दोषोंका अवलम्बन लगाके १२०४ में खरतरगच्छकी उत्पत्ति कहने लगे, तबसे १३००।१४०० सौ से शिथिलाचारको हटानेके मूल कारण भूत और श्रीनवाड़ी वृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज खरतर याने सुविहित गच्छमेंही हुए ऐसा सबको विशेष रूपसे मालुम होनेके लिये श्रीजिनेश्वरसूरिजीको खरतर विरुदकी प्राप्तिक लिखनेका कारण बन गया। अन्यथा पूर्वे तो जैसे प्राचीनाचार्योके गच्छ लिखनेका सूढी नहीं थी, तैसेही श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतर विरुद लिखने की प्रवृत्ति भी नहीं थी, जिस का विशेष खुलासा तो श्रीअभयदेवसूरिजीके खरतर न लिखने सम्बन्धी शङ्काके समाधानमें ऊपर ही छप चुका है। और जैसे जैसे द्वेषी लोगोंने श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतर विरुदका निषेध सम्बन्धी विवाद बढ़ाया, तैसे तैसेही खरतर विरुदके लिखने की प्रवृत्ति भी बढ़ती चलती गई है? __ और जबसे कालदोषादि कारणोंसे श्रीतपगच्छकी समुदाय भी कितनीही वातोंमें शास्त्र विरुद्ध प्रवृत्ति होने लगी, तबसे खरतर विरुदधारकोंने उसका निषेध करना शुरू किया, उसी समयसे इन दोनों गच्छोंके आपसमें द्वेषका कारण होने लगा, और जैसे जैसे आपसमें खण्डन मण्डन वादविवाद बढ़ने लगा, तैसे तैसेही एक एकके-थाप-उत्थापसे निन्दा-इर्षा भी बढ़ने लगी; जिसमें भी तपगच्छके कितनेही आचार्यादि महाराजोंने तो पीवीरप्रभुके छ कल्याणक, तथा अधिक मासकी गिनति पूर्वक दूसरे मावण पर्युषण पर्वका माराधन, और सामायिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४७ ) धिकारे पहिले करे मिभन्ते पीछे इरियावही, और भीजिनेश्वर सूरिजी से खरतर विरुदकी उत्पत्ति, और श्रीनवाङ्गी वृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी श्रीजिनवल्लभसूरिजी, श्री जिनदत्तसूरिजी वगैरह शासन प्रभावकाचार्य्यं श्रीखरंतरगच्छ में हुए इत्यादि बहुत सत्य बातें मान्यकरी थी और अपने अपने बनायें ग्रन्थों में खुलासा पूर्वक इन बातोंको लिखते रहे, इन्होंसे खरतर वालोंका पूर्ण प्रीति भाव सहित संपसे वर्ताव होता था और आपसमें एक एकको वन्दना स्तुति-गुण गान करते रहते थे, परन्तु जबसे उपरोक्त बातों में भी चैत्यवासियों का अनुकरण होने लगा, तबसे विशेष विरोध भाव बढ़ गया, जब खरतर गच्छवाले भी उपरोक्त बातोंको बड़े जोर शोर से शास्त्रप्रमाणानुसार सिद्ध करने लगे, तब तपगच्छवाले भी कितनेही कदाग्रहीजन तो चैत्यवासियोंकी तरह कुयुक्तियोंका और कदाग्रहका साहरासे अपना इष्ट स्थापन करने लगे, परन्तु नवाङ्ग वृत्ति वगैरह माने विना काम नहीं चल सकता था, इसलिये श्रीजिनेश्वर सूरिजी से खरतर विरुद निषेध करके नवाङ्गवृत्तिकारक श्री अभय देवसूरिजी को खरतर गच्छकी परम्परासे अलग करनेका परिश्रम करने लगे, और कालान्तर में चैत्यवासियोंकी और अपने गच्छ के कदाग्रहियों की अन्धपरम्परा में पड़कर श्री अनन्त तीर्थहूर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उत्थापनसे संसार बढ़नेके भयको छोड़कर अपने पूर्वाचार्यो के कथनको भी उन्मूलन करके - धर्मसागर जीने-षट् कल्याणक, अधिकमास, दूसरे श्रावणमें तथा प्रथमभाद्र में पर्युषणा, सामायिक में प्रथम करेमिभन्ते, भोजिनेश्वर सूरिजी से खरतर विरुद वगैरह शास्त्रानुसार आज्ञामुजब सत्य बातोंको निषेध करनेके लिये और उत्सूत्रोंसे तथा कुयुक्तियों से इन वालोंके विरुद्ध प्रत्यक्ष मिथ्या झूठी वार्ताको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat · www.umaragyanbhandar.com Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४८) स्थापन करनेके लिये खरतर गच्छके प्रभावक युग प्रधान पुरुषोंको निन्दा पूर्वक खूब दृढ़तर कदाग्रह बढ़ानेका परिश्रम किया। और उत्सूत्रों के भण्डार तथा कुयुक्तियोंकी अन्धखाहरूप कितनेही ग्रन्थोंकी भी रचना करके तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके कथनको छोड़कर अपनी अन्धपरम्परामें चलनेवाले पञ्चमकालके गुरुकर्मी कदाग्रहियोंके संसारको बढ़ाने के कारण रूप प्रगट किये सो यद्यपि उस समयके कितनेही आचार्यादि महाराजोंने इनके कदाग्रही वचनोंका अनादर करके उन ग्रन्थों को जलशरण करा दिये, जिससे भविष्यतमें कदाग्रह बढ़ने नहीं पावे, तो भी कलयुगी महिमाके कारण कितनेही भारी कर्म उन बातोंको पकड़ने लगें, और कालान्तरमें-जयविजयजी, विनयविजयजी, वगैरहोंने भी उसी मुजब-कल्पदीपिका, मुखबोधिका, वगैरहमें षट्कल्याणक, अधिक माससे दूसरे मावणमें पर्युषणा सम्बन्धी लिखा, उसकी समीक्षा इसी ग्रन्थ में हो चुकी हैं। और वर्तमान समय में न्यायाम्भोनिधिजी नाम धारक श्रीआत्मारामजीने भी धर्मसागरजीको मानो अपने परम गुरुमान करके उनकी बातोंके फेर में भद्रजीवोंको गेरनेका खन विशेष रूपसे परिश्रम किया और भोले जीवोंको श्रीजिनाज्ञाके शत्रु बना दिये, उसी मुजब वर्तमानमें उन्होंके समुदायवाले-न्यायरत्न जी, वल्लभ विजयजी वगैरह भी वर्तावकर रहे हैं, सो तो इस ग्रन्थको पूर्ण वांचनेवाले स्वयं समझ लेवेंगे और खासकरके वल्लभविजयजीके कत्तव्य परही मेरेको इस ग्रन्यकी रचना करनी पड़ी है। और खास न्यायाम्भोनिधिजीके तथा धर्मसागरजीके. परम पूज्य श्रीवपगच्छनायक श्रीसोमसुन्दरसूरिजीके सन्तानीय प्रीहोमवर्मगणीजीने संवत १४९२ के वर्ष, “श्रीउपदेश सत्तरी"मामा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४९) ग्रन्थ बनाया है। उसमें भीभीमराजासे श्रीजिनेश्वरमूरिजीको खरतर विरुद, श्रीनवाङ्गीतिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी खरतर गच्छमें हुए, ऐसा खुलासा पूर्वक लिखा है, जिसका पाठ भी इसी ग्रन्धके ६८० में छप चुका है, उस पाठको मान्य करना छोड़ करके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके कदाग्रहसे अपने पूर्वजो की तथा अपने पूर्वजोंके कथनकी अवहिलना करते हुए, उनपर अनाभोगका दूषण लगाते हैं, अर्थात् तपगच्छाचार्य श्रीसोमसुन्दरसूरिजीके सन्तानीय (प्रशिष्प ) ने संवत् १४१२ में 'उपदेश सत्तरी में श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे-खरतरगच्छ श्रीनवाङ्गीतिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी खरतरगच्छमें हुए, ऐसा लिखा है उसको झूठा ठहरा करके किसीकी देखादेखी बिना उपयोगसे लिखा होगा-ऐसा उपरोक्त धर्मसागरजी तथा न्यायाम्भोनिधिजी दोनों महाशयोंने लिखा है, अन्य भी कदाग्रहीजन ऐसा कहते हैं, सो बड़ी अज्ञानता है, क्योंकि प्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतरगच्छकी उत्पत्ति सम्बन्धी अनेक शास्त्रोंके प्रमाण मौजूद हैं, तथा परम्परागतसे १३ भेद-वगैरह प्रत्यक्ष प्रमाण भी देखने में आते हैं, इसलिये अपने पूर्वजके सत्यकथनको विना उपयोगअनाभोग अनादरनीय कहके-पूर्वजकी: आशातना और झूठा कदाग्रह करना सर्वथा अनुचित है,। जिसपर भी अनाभोग कहनेका आग्रह करोंगे, तो, अनाभोगका कारण भी बतलामा होगा, यदि कहोंगे, कि पोजिनेश्वरसूरिजीको भीमराजाने खरतर विरुद नहीं दिया, तो यह भी कहना भर्वपा व्यर्थ है, क्योंकि न देने सम्बन्धी आप कोई शास्त्रीय दृढ़ प्रमाण देखा सकते हो, सो तो नहीं। तो फिर आपके मति कल्पनाका आग्रहमात्रको कौन मान्य करेगा, अपितु कोई भी नहीं। और ९००० या पाठान्तरे १०८४ में, श्रीजिनेश्वरमूरिजी तथा श्रीभीम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५०) राजा दोनों विद्यमान थे, और श्रीजिनेश्वरमूरिजीको परम्परामें अनुक्रमें-मीजिनचन्द्रसूरिजी तथाश्रीनवाङ्गीतिकारक श्रीअभय देवमूरिजी, श्रीजिनवल्लभसूरिजी श्रीजिनदत्तसूरिजी,वगैरह महा पुरुषोंकी परम्परा आजतकचलरहीहैतथाश्रीजिनेश्वरमरिजीसे खरतर विरुद सम्बन्धी प्राचीन शास्त्रोंके प्रमाण भी मिलते हैं, उसोके अनुसार आपके पूर्वजने भी लिखा है इसलिये संवत् १०७७ में दुर्लभ राजाके परलोक जाने सम्बन्धी बातकी आड ले करके श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतर विरुदका निषेध करना चाहो सो भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि-कितनी जगह दुर्लभराजा लिखा है और कितनी जगह भीमराजा लिखा है यह दोनों नाम पाठान्तरसे मानने में आते हैं और आपके पूर्वजने भीमराजा लिखा है इसलिये सं१०७७ में मृत्युकी आइसे, १०८० या १०८४ की बातका निषेध नहीं हो सकता । उसी समय भीमराजा मौजद था । तथा और भी यहां पर विवेक बुद्धिसे विचार करना चाहिये कि जब आपके पूर्वजने १४०० में श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतर गच्छ लिखा तो इसके पहिले १२००।१३०० सौ में यह बात जैनमें प्रगटपने प्रसिद्ध होनी चाहिये, तथा उसी समयके शास्त्रों में भी लिखा हुआ होना चाहिये और तपगच्छके आचार्यादि भी इसी बातको मान्य करनेवाले होगे, तभी तो सं०१४०० में आपके पूर्वजने यह बात लिखी होगी अन्यथा कैसे लिखते, और उस समयके किसी भी पूर्वजने इस बातका निषेध भी नहीं किया इसडिये अभी थोड़े कालके धर्मसागरजी जैसे कदाग्रहियोंको कल्पनाको पकड़के प्राचीन सत्य बातको अस्वीकार करना और अपने पूर्वजको भनाभोगका दोष लगाना आत्मार्थियोंका काम नही है। और भी धर्मसागरजी तथा व्यायाम्भोणिधिनी इन दोनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) महाशयोंने, खरतरगच्छकी पांच पहावठी लिखके उसमें पूर्वाचार्यों के नामोंका पाठान्तर सम्बन्धी आक्षेप करके अपनी विद्वत्ता दृष्टि रागियों को दिखाई है, परन्तु विवेकी विद्वान् तो उनकी कुटिलताही समझते हैं, क्योंकि-श्रीमहावीरस्वामीके शासन में अनेक गच्छ, कुल, शाखा, अलग अलग निकली, जिसमें किसीका समुदाय बहुत बढ़ गया, किसीका कम हो गया और किसीकी बहुत काल तक परम्परा चली, किसीकी थोड़े काल तक, और कालदोषादि कारणोंसे किसीकी तो पट्टावली मिलती भी नहीं, किसीकी त्रुटक मिलती है, किसीकी पाठान्तरसे मिलती है, और यद्यपि परम्परागतसे-आचार्य, साधु, होते चले आते हैं, परन्तु पूरी पहावलीके अभावसे उनको कोई दोष नहीं लग सकता, और अपने अपने हाथों से अपना अपना नाम पहावली में पूर्वाचार्यो के लिखने की रूढी भी नहीं है और पिछाड़ी पहावली लिखनेवाले सर्वज्ञ भी नहीं होते हैं, किन्तु जैसे जैसे परम्परासे वा, दूसरोंसे सुननेमें आवे वैसीही पहावली बनानेवाले लिख देतेहै इसलिये पहावलीके पाठान्तर सम्बन्धी दोनों महाशयोंका आक्षेप करना सो गच्छकदाग्रहके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका कारण ठहरता है, इसको विवेकीजन स्वयं विचार सकते हैं। - और खास दोनों महाशयोंने जो अपनी पहावली लिखी है, सो भी तो कोई सर्वज्ञके कथनसे नहीं लिखी, और पीहीरविजयपूरिजीके पाठान्तर सम्बन्धी २३ मतान्तर “सेन प्रश्न" मामा ग्रन्थ में लिखे हैं और जहां गच्छ भेद-आपसमें विरुद्धता हो जाती है, वहां अपनी मूल पहावली वगैरह पुस्तक एक दूसरेको नहीं देते हैं, और कुसंप-अभिमानादि कारणोंसे दूसरे के पास कोई मांगनेको भी नहीं जाता, और जैसा सुनने में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) माया याद होवे वैशाही लिख रखते, इत्यादि कारणोसे वर्तमानिक तपगच्छ खरतरगच्छ वगैरहोंकी पहावलियोंमें पाठान्तर देखने में आता है। खास मैंने तपगच्छकी ३४ पहावलियोंमें ३३४ मतान्तरसे पाट परम्पराके नामोंका भेद देखा है और पहिलेके समय में, मुसलमानी राजाओंके भयसे जिसके पास जो पुस्तक पहावली-आदि होते वो भण्डारादिमें बन्ध करके रखते थे उससे किसी अन्यको देना भी मुश्किल था और प्राचीन पुस्तक पहावली वगैरह हजारों लाखों शास्त्रोंको धर्मद्वेषी मुसलमानादिकोने नष्ट भी कर दिये थे, उस समय में पहावली लिखने में प्राचीन शास्त्रों के अन्तकी प्रशस्ति देखनेको नहीं मिल सकती थी, इत्यादि कारणोंसे जैसा याद आया वैसा लिखके पहावली बनाते थे इसलिये पाठान्तर होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है जिसपर कोई आक्षेप करे तो उनकी अज्ञानताके सिवाय और क्या कहा जावे सो विवेकीजन स्वयं विचार सकते हैं। __और वर्तमामिक तपवा खरतरकी पहावलीके मतभेदका तो कहनाही क्या परन्तु पहिले पूर्वधरादि प्राचीनाचार्यों की तो पहावडी बिलकुल नहीं मिलती तो क्या वे महाराज श्रीवीरप्रभु की परम्परावाले नहीं माने जावेंगे. या उन महाराजोपर किसी तरहका आक्षेप कर सकते हैं. सो तो कदापि नहीं तो फिर वर्तमानिक मतभेदको व्यर्थ झूठी आड़ लेकर श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतर उत्पत्तिका निषेध करमा यह क्या विवेकियों का काम है सो कदापि नहीं जिसपर भी दोनों महाशयोंने खरतरगच्छकी परम्परावालोंपर बड़ा भयङ्कर आक्षेप किया तो फिर इनोंकी बुद्धि मुजब तो चरित्र प्रकरणादिकोंमें पाठांतर मतभेद है वे भी चरित्र प्रकरणादि सब दोषी ठहर जावेंगे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) धन्य है ऐसी कदाग्रहकी कुटिल बुद्धिको, अब विवेकी सत्यग्राही पाठकगणसे मेरा यही कहना है, कि वर्तमानकालमें सर्वज्ञ के अभावसे पाठान्तरकी बातको झूठी कहना या एकको मान्य, दूसरीका खण्डन, वगैरह न करके मध्यस्थ विचार से बर्ताव करनाही उचित है इसलिये चरित्र प्रकरण पहावली वगैरहोंके पाठान्तरोंको देखके वितर्क करना और कदाग्रह बढ़ाना सर्वथा अनुचित है । महान् कर्मबन्धका कारण है । और इन दोनों महाशयोंने पहावलीके पाठान्तरपर आक्षेप किया तो श्रीकल्पसूत्रको स्थिविरावली के व्याख्याकारोंके लेखक दोषादि भेदभाव के अभिप्रायको तथा चरित्र प्रकरणादिकोंके पाठान्तरोंको देखके दोनों महाशयोंकी अन्धपरम्परामें चलनेवालोंको लज्जित होना चाहिये और कदाग्रहको छोड़कर सरलता से न्यायपूर्वक सत्यको मान्य करना चाहिये,— और पहावलियों में पूर्वाचार्यों के नामोंका मतभेद है, परन्तु सभी पहावलियों में श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतर विरुद तथा श्रीनवाङ्गीटत्तिकारक श्री अभयदेवसूरिजीको खरतरगच्छ में लिखे हैं, इसलिये पाठान्तरकी पहावलियोंसे खरतर विरुदका तथा श्रीनवाङ्गीवृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरिजी के खरतरगच्छ में होनेका निषेध कदापि नहीं हो सकता सो तो निष्पक्षपाती विवेकीजन स्वयं विचार सकते है, - और कितनेही प्रोजिनवल्लभसूरिजी महाराजसे खरतर गच्छकी उत्पत्ति होने का कहते हैं सो भी मिथ्या है, क्योंकि इन महाराजसे खरतर गच्छकी नवीन उत्पत्ति होने सम्बन्धी कोई भी कारण नहीं बना, किन्तु इन महाराजसे खरतर गव्छ की विशेष प्रसिद्धि होनेके, और शिथिलाचारों दूव्यलिङ्गी गच्छ कदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५४ ) पहियोंके साथ खरतर गच्छवालोंसे विशेष ध्वेष बुद्धि होनेके कारण तो बन गये सोही दिखाता हूँ। देखो जब पहिलेसे श्रीजिनेश्वरसूरिजीने प्रगटपने राज्य सभा में चैत्यवासियोंका पराभव किया, और शुद्ध क्रिया पूर्वक अणहिलपुर पहणमें संयमियोंका विहार खुला कराया तबसेही वसतिवासी (खरतर) कहलाने लगे उससे चैत्यवासियोंका कपट क्रियाका भेद खुला होने लगा, जिससे वे लोग संयमियोंसे विरोध भाव रखने लगे, इसके बाद श्रीनवाडीवत्तिकारक श्री अभयदेवमूरिजीमहाराजने भी चैत्यवासी वगैरहों की शिथिलता और उत्सूत्रता श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध वर्तावको मागमअठोत्तरी" नामा ग्रन्थ में, चैत्यवासियोंका प्रगट नाम न लेते हुए गुप्त नाम से (मोगम) खूब खण्डन किया परन्तु प्रगट नाम न लेने के कारण इन महाराजसे चैत्यवासियोंने इतना विशेष विरोध न किया, परन्तु इन्हीं महाराजके शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजीने तो चैत्यवासियोंका प्रगट नाम लेकर देश देशान्तरों में खूब जोर शोरसे खण्डन किया तथा उस विषय सम्बन्धी 'सडपट्टक' वगैरह अन्य भी बनाये, और कठोर (कठिन ) क्रिया तथा विद्वत्ता हिम्मत और चमत्कारोंसे बहुत भद्रजीवोंको चैत्यवासियोंकी अन्ध परम्परा और अविधिकी मायाजालसे छोड़ाके शुद्ध मार्गमें लाये, उसीसे इन महाराजसे खरतर वसतिवासी सुविहित नाम की बहुत प्रसिद्धि हुई है और चैत्यवासियोंसे बहुत विरोध भाव हो गया सो भी छपा हुआ 'सङ्घपहक'के देखनेसे मालूम हो जावेगा, परन्तु इन महाराजसे खरतरकी नवीन उत्पत्ति नहीं हुई थी पोंकि खरतरकी उत्पत्ति तो इन महाराजसे पूर्व तीसरी पिढीने पोजिनेश्वरसूरिजी महाराजसे हो गई थी उसका विशेष निर्णय पहिले छप चुका है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (755) और श्रीजिनवल्लभसूरिजीने पहिले वाचनाचार्यगणीपद, कूर्चपुरीय गच्छके चैत्यवासी अपने गुरु श्रीजिनेश्वरसूरिजीके पास एक समय कल्पसूत्रवांचते “तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे भगवं महावीरे पञ्चहत्थुत्तरेहोत्था” तथा “सापणापरिनिव्वुडेभयवं" इस पाठके अर्थ में श्रीवीरप्रभुके पांचकल्याणक हस्तोत्तरेमें और छठा स्वाति नक्षत्र में मोक्ष हुआ, इसतरह भगवान्के छ कल्याणक कहने लगे तब गुरुने मना किया सो न मानके क्रोधसे लड़ाई करके अपने चैत्यवासी गुरुको छोड़कर निकल गये और छ कल्याणकोकी प्ररूपणा करने लगे तबसे इसी कारणसे “कोहामओ खरहरो जाओ” अर्थात् क्रोधसे खरतर कहलाने लगे इस तरहसे धर्मसागरजी वगैरहोंने अपने कदाग्रही उत्सूत्र भाषणोंके संग्रहवाले ग्रन्थों में लिखा है और ऐसेही कितनेही अन्ध परम्परावाले मानते हैं सो अज्ञानतासे और अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे प्रत्यक्षही महामिथ्या अन्ध परम्परा चल रही है क्योंकि चैत्यवासी मीजिनेश्वरसूरिजीने इनकों न्याय, व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द शास्त्रादि और ज्योतिषादि पढ़ाये बाद अपनी राजी खुशीसे वाचनाचार्यगणीपदने स्थापन करके श्रीनवाङ्गीत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजीके पास जैनशास्त्रोंका गुरुगम्यतासे अध्ययन कराने के वास्ते भेजा था सो इन महाशयने भी उनको पूरण विद्वान् और शासनप्रभावक विनयादिगुण युक्त जानके थोड़ेही समयमें शास्त्राध्ययन करा दिया, और संसारद्धिकारक तथा दुर्गति देनेवाला चैत्यवास छोड़कर क्रिया उद्धार (पुनर्दीक्षा )से शुद्ध संयममें वर्ताव करने सम्बन्धी उपदेश दिया, उसको अङ्गिकार करके अपने चैत्यवासी गुरुकी आज्ञा लेकर श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज पासही पुनःक्षासे क्रिया : उद्धार किया था, और गुरु गम्यताके शास्त्राध्ययमको धारणा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५६) मुजब भीतीथंङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों के कथन किये प्रमाण श्रीकल्पसूत्रके पाठार्थसे श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक भाष्यचूर्णिवृत्त्याद्यनुसार कथन किये थे, इसलिये गुरुसे लड़ाई करके क्रोधसे चैत्यवास त्यागने से खरतर कहलानेका और नवीन छ कल्याणकोंकी प्ररूपणा करनेका कहने तथा लिखने और माननेवाले प्रत्यक्ष मिथ्यावादी हैं, इसको विशेषतासे तो इस ग्रन्थको निष्पक्षपातसे सम्पूर्ण पढ़ करके सत्यग्रहण करनेवाले विवेकी आत्मार्थी जन स्वयं विचार लेवेंगे । और धर्मसागर जीने तथा न्यायाम्भोनिधिजीने श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजसे खरतर विरुद निषेध करनेके लिये, अनेक तरह की कुयुक्तियों करके भद्रजीवोंको भरम में गेरे हैं, उन सब कुयुक्तियों की समीक्षा यहांपर करके पाठकगणको दिखाने की दिलमें बहुत है, परन्तु कितनेही कारण योगोंसे नहीं कर सकता हूँ, तो भी कितनी ही कुयुक्तियों की समीक्षा तो " आत्मभ्रमोच्छेदमभानुः " में छप चुकी है, और सब कुयुक्तियोंका विशेष निर्णय " प्रवचन परीक्षा निर्णय" नामाग्रन्थ में विस्तार से करनेमें मावेगा ; और धर्मसागरजीने श्री जिनदत्तसूरिजी से खरतर उत्पत्ति ठहराने के लिये इन महाराजपर अनेक तरहके आक्षेप करके चामुण्डीक, औष्ट्रिक, खरतर लिखके कल्पित बातोंसे भद्रजीवों को भरमाये हैं, और मिथ्यात्वके साथ बाहीका काम किया है, वही अन्ध परम्परा विवेक शून्य कदाग्रही गुरुकर्मे लोग चला रहे हैं, जिसका निर्णय “आत्मभ्रमोच्छ दनभानुः” की पीठिकानें छप चुका है, और यहां पर भी विस्तार पूर्वक लिखनेका दिल था, परन्तु मेरे शरीरकी व्याथियोंके और थिरके दर्द के कारण से नहीं लिख सकता हूं, सो जिसके देखनेकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५७ ) इच्छा होवे सो "आत्मभ्रमोच्छदनभानुः" को देख लेना, उससे सब निर्णय हो जावेगा;__ और श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतर विरुदका निषेध करना, तथा श्रीजिनदत्तसूरिजीसे खरतर उत्पत्ति ठहराना सो प्रत्यक्ष मिथ्या है। क्योंकि श्रीजिनेश्वरसूरिजी सम्बन्धी अनेक प्रमाण मौजूद है। सो शास्त्र प्रमाण और युक्ति पूर्वक उपरनेही सब खुलासा छप चुका है। और श्रीजिनदत्तसूरिजी सम्बन्धी तो द्वेषी मिन्दक लोगोंके अन्ध परम्पराका गड्डरीह प्रवाही मिथ्या प्र. लापरूप कथनके सिवाय अन्य कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है। इसलिये श्रीजिनेश्वरसूरिजीसे खरतर विरुद निषेध करनेका और प्रीजिनदत्तसूरिजीसे स्थापन करनेका प्रत्यक्ष मिथ्या कदाग्रहको छोड़ देनाही श्रेयकारी है। नहीं तो सत्य बातका निषेधसे और युगप्रधान शासन प्रभावकाचार्यको झूठे दूषण लगाके मिथ्या बातके स्थापनके लिये भद्रजीवोंको महापुरुषोंको निन्दा में गेरनेसे संसार वृद्धि और दुर्लभ बोधिके कारणसे संसारका पार होना मुश्किल है। आगे इच्छा आपकी- . ___ अब सत्य ग्रहण करनेवाले आत्मार्थी सज्जनोंसे मेरा इतना ही कहना है, कि अपने अपने गच्छकी अन्ध परम्पराके हठवादके दृष्टि रागको, और समुदायको मान पूजा प्रतिष्ठाके लोभको, और लज्जाको, छोड़ करके श्रीजिनाज्ञानुसार सत्य बातोंकों ग्रहण करो। इस अमादि अनन्त संसार भ्रमण, बारम्बार मनुष्य जन्म जैनधर्मकी योगवाई प्राप्त होना अतीव मुश्किली से है। इसलिये गच्छ कदाग्रहकी तुच्छ बातोंके विचार, चिन्ता मणीरत्नसे भी अधिक मीजिमाज्ञाको ग्रहण करने किचित् भी कदापि विलम्ब नहीं करना चाहिये। और उपरोक्त खोसे सत्यके भेदोंको तो निष्पक्षपाती विवेकीजमस्वयंसमझ सकेंगे। इसडियेबीवीरम के छठे कल्याणShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५६ ) कको। तथा-अधिक मासकी गिनतीसे दूसरे प्रावण या प्रथम भाद्रपद, पर्युषणपर्वाराधनको। तथा सामायिकाधिकारे प्रथम करेमि-भन्ते पीछे इरियावहीको। और श्रीजिनेश्वरमूरिजीको खरतर विरुद मिला था, उससे श्रीनवाङ्गीत्ति कारक श्रीअभयदेवसूरिजी खरतरगच्छ में हुए उसको। और वहगच्छके नहीं किन्तु चैत्रवालगच्छके श्रीजगच्चंद्रसूरिजीसे तपगच्छ हुआ। इत्यादि इन सत्य बातोंको निषेध करने के लिये जो जो कुयुक्तिये कोई अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी गुरुकमै भद्रीकजीवोंको अपने कदाग्रहमें फंसानेके वास्ते उत्पन्न करें, तो वे सब जिनाजा विरुद्ध होनेसे, सर्वथा व्यर्थ समझकर उनको कदापि ग्रहण नहीं करना। और इस ग्रन्थमें उपरोक्त बातें शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक दिखाने आई है। उसको ग्रहण करके अपनी आत्म कल्याणके कार्य, उद्यम करना। तथा अन्य भव्य जीवोंको भी सत्य ग्रहण करवाके सत्यकाही उपदेश द्वारा विशेष प्रकाश करना। और अपने मनुष्य जन्ममें जैनधर्मकी प्राप्तिको सफल करना, परन्तु जमालि आदि निन्हवोंकी तरह संसार वृद्धि और दुर्लभ बोषिके निमित्त भूत उत्सूत्री होकर देशविरती और सर्वविरतीकी हानी करके सम्यक्त्वको उन्मूलन करना उचित नहीं है। इति-न्यायाम्भोनिधिपदधारकस्य षट्कल्याणकादि प्रतिषेध विषयी लेखस्य श्रीमत् परमपूज्य गुरुवर्य श्रीमुमतिसागर महाराजस्य लघुशिष्य मुनिमणीसागरनेयं समीक्षा सम्पूर्णा कृता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५९ ) अब न्यायाम्मो मिथिनीके लेखकी समीक्षा के अनन्तर प्रकृते धर्मसागरजी के लेखकी भी समीक्षा करना उचित समझ कर करता हूं। जिसमें अब यह ग्रन्थ बहुत बड़ा हो गया, तथा सुखशोधिका के और जैन सिद्धान्त समाचारीके लेखकी समीक्षा में विशेष रूप से वर्त्तमानिक सब सन्देहोंका निवारण हो गया है । इसलिये इनके लेखकी समीक्षामें तो श्रीतपगच्छकी उत्तमताको उठाकर उत्सूत्र प्ररूपणाका हर वर्षे प्रचार करनेके लिये जो पर्यु - षणाजीके व्याख्यान में प्रथमही षटकल्याणकों का खंडन करके मिश्रवकी वृद्धि करते हुए श्रीजिनाशाका नाश करके भद्रजीवों को कुयुक्तियोंके विकल्पों में फंसाकर उन्होंके सम्यक्त्वरूपी शुद्ध श्रद्धाके धनको उम्मार्ग के उपदेशरूपी तस्कर वृत्तिसे हरण करनेवाले गाढ अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका अज्ञानतासे धर्मसागरजीने जो जो शास्त्रविरुद्ध बातें लिखी हैं। जिसका नमूना मात्र दिखाता हुआ संक्षिप्तसे थोड़ासी दिग्दर्शन मात्र समीक्षा करता हूं। उससे भी तत्वज्ञजन तो सब पाखण्डकी मायाजालके परदोंके भेदको अच्छी तरह से समझ लेंगे, सो प्रथम तो श्रीकल्पसूत्रकी किरणावली नामा अपनी बनाई टीका श्रीवीर प्रभुका चरित्र कथन करने सम्बन्धी धर्मसागरजी ने लिखा है कि [ साम्प्रतं तीर्थाधिपतित्वेन प्रत्यासन्नोपकारित्वादादावेव श्रीभद्रबाहुस्वामिपादास्तद्भव व्यतिकरावाप्त पंच कल्याणकनिबंध बंधुरं श्रीवीर चरित्र सूत्रयन्त उद्देश निर्देश सूचक प्रायः जघन्य मध्यम वाचनात्मकं प्रथमं सूत्रमादिशन्ति "तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे भगवं महावीरे पञ्चहत्युत्तरेहोत्या- तंजहाहत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गम्भं वक्कतो ॥ १ ॥ हत्थुत्तराहिं गम्मा ओ गम्भं साहरिये ॥२॥ इत्युत्तरा हिं जाए ॥ ३ ॥ इत्युत्तरा हिं मुडेभविता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ ४ ॥ इत्थुत्तरा हिं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) गणन्ते अणुत्तरे निव्वाधाए गिरावरणे कसिणे परिपुत्र केवल वर जाणदंसोसमुपके ॥५॥ साइणा परिमिव्वुडे भयवमिति ॥६॥" अत्र यत्तदोमित्योक्तसम्बन्धात् यत्रासौस्वामि दशम देवलोकात् पुष्पोत्तर प्रवर विमानाद्देवानन्दा कुक्षाववातरदिति । तेणन्ति, तस्मिन्, णमितिवाक्यालङ्कारे, कालेवर्तमाना वसर्पिणाश्चतुर्थार कलक्षणे, णङ्कारपूर्ववत् । अथवाऽर्षत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीयामधिकृत्य, तेणं कालेणन्ति तस्मिन् काले, तेणं समयेणन्ति, तस्मिन् समये। परंसमयोजीर्णशाटकस्फालन दृष्टान्तेन प्रागुक्त कालान्तर्गत एव परमनिकृष्टं कालविशेषः यद्वा हेतो तृतीया ततश्च पूर्वन्यायादेव-यौकालसमयौ श्रीऋषभादिजिनैः॥ श्रीवीरस्यषणां यवनादीनां वस्तूनां हेतु तया प्रतिपादितौ न च च्यवनादीनां कल्याणकत्वेन व्याख्यात मनागमिकं चूगर्यादिषु तथैव व्याख्या नात् ॥ यतः॥ जो भगवता उसभ सामिणा सेसतित्थमरेहिय भगवतो वढमाण सामिणो चवणादीणं छरहंवत्थुणं कालोणातो दिठोवागरहोम, तेण कालेणं तेण समयेणन्ति, इति पर्युषणा कल्पचूणों ] ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकगणको दिखाता हूं, हे सज्जन पुरुषों प्रथम तो धर्मसागरजीने साम्प्रत वर्तमानकाल तीर्थके नायक भीवर्द्धमान प्रभुको नजीक उपकारी जान कर श्रीभद्रबाहु स्वामीजीने जघन्य मध्यम उत्कृष्ट वाचना पूर्वक मीवीर भगवान्का चरित्र कथन करनेका लिखा सो मूल सूत्र में तो सूत्रकार महाराजने 'पञ्च हत्थुत्तरे' 'साणापरिनिव्वुडे, ऐसा करके च्यवनगर्भापहार जन्मादि छहों कल्याणकोंका कथन किया हुआ है तिसपर भी इसीही मूल पाठकी व्याख्या करते हुए धर्मसागरजीने "पंचकल्याणक निबन्ध बन्धुरं पीवीरचरित्रं" ऐसा रिसकर च्यवन नामादि पांच कल्याणकोवाला पीवीर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६१ ) प्रभुका चरित्र ठहराके छठे गर्भापहारके मूलपाठको उड़ा दिया तो गर्भापहारके मूल पाठके उत्थापन रूप उत्सूत्रताकी तस्कर वृत्ति करके संसार वृद्धिका कारणभूत भद्रजीवोंको अपनी माया जालमें फंसाना उचित नहीं था। और “पञ्चकल्याणक निबन्ध बन्धुरं श्रीवीर चरित्रं" इस वापसे धर्मसागरजीने श्रीकल्पसूत्रमें कहे हुए श्रीवीरप्रभुके च्यवनादिकोंको कल्याणकत्वपना ठहरा करके फिरभी अभिनिवेशिककी अज्ञानतासे भगवान्के गर्भापहार रूप दूसरे च्यवन कल्याण कत्वपनेका निषेध करने के लिये “योकाल समयी श्रीऋषभादि जिनैः। पीवीरस्य च्यवनादीनां वस्तूनां हेतुतया प्रतिपादितौ न च च्यवनादीनां कल्याणकत्वेन व्याख्यातं" ऐसा लिखकर उसी समय कालको श्रीऋषभदेवजी आदि २३ तीर्थकर महाराजोंने श्रीवीर भगवान्के च्यत्रनादि छ वस्तुओंके हेतु रूप कषन करने का ठहराते हुए च्यवनादिकोंको वस्तु कहके फिर उसी च्यवनादि सबको सर्वथा कल्याणकत्वपने रहित ठहरा दिये। और श्रीदशामुत स्कन्धकी पर्युषणा कल्पचूर्णि कारके पाठका वस्तु कल्याणक एकार्थसम्बन्धी अभिप्रायको समझे बिनाही उसी चूर्णिका थोडासा पाठ लिखकर च्यवनादि छहोंको वस्तु सिद्ध करके कल्याणकत्वपनेका अभावही दिखा दिया सो भी विवेक शून्यतासे गच्छकदाग्रहकी ममत्वरूप अज्ञानताके अन्धकारमें पड़कर शास्त्र कारके विरुद्धार्थ में उत्सूत्र प्ररूपणाके विपाकोंका बोझा सिरपर धारण करते हुए भद्रजीवों को शुद्ध प्रवासे भ्रष्ट करके उन्मार्गके मिथ्यात्वमें गेरनेका और अपनी विद्वत्ताकी हंसी करनेवाला पाही प्रयास किया है क्योंकि वस्तु शब्दका अर्थ प्रसङ्गानुसार कल्याणकपनेका होनेसे श्रीवीरप्रभु के व्यव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) मादि छ वस्तु कहो अथवा छ कल्याणक कहो दोनों शब्दों का तात्पर्य एकही है उसका विशेष खुलासा श्रीविनय विजय जीके और न्यायाम्भोनिधिजीके लेखकी समीक्षा, विस्तारसे ऊपर ही छप चुका है इसलिये धर्मसागरजीने वस्तु शब्दके अर्थ में कल्याणकपनेका निषेध करने के लिये अज्ञानताके अन्धकार का साहससे पीवीरप्रभुके च्यवनादि छहोंको वस्तु ठहरा कर छहोंमें कल्याणकपनेका अभाव दिखाया सो कदापि नहीं हो सकता है। __ तथा और भी देखो खास धर्मसागरजीनेही अपनी बनाई श्रीकल्पसूत्रकी इसी कल्पकिरणावलीनामा टीकामें जहां स्थि विरावलीको व्याख्या करी है वहां खास आपनेही श्रीजम्बू स्वामीका मोक्षगमन हुए बाद-"मनः पर्यव ज्ञान १, परमावधि २, पुलाकलब्धी ३, आहारक शरीर लब्धी ४, क्षपक श्रेणी ५, उपशम भणी ६, जिनकल्प 9, परिहार विशुद्धि वगैरह तीन संयम ८, केवल ज्ञानको उत्पत्ति , और मोक्ष गमन १०"-यह दश वस्तुओंके विच्छेद होनेका लिखा है सो इसमें-परमावधिको मनः पर्यवको केवल ज्ञानोत्पत्तिको और मोक्षगमनको वस्तु कहा और-"कारणगुणाकार्य गुणा भवन्ति"-इस व्यवहारिक न्यायके अनुसार कारणके अनुसार कार्यकी उत्पत्ति मानना सो प्रसिद्ध बात है इसलिये भगवान्के केवल जानकी उत्पत्ति तथा मोक्षगमनको वस्तु कहने में क्या हरजा है अपितु कुछ भी नहीं और जब धर्मसागरजीके कथन करने लिखने मुजब भगवान्के केवल ज्ञान की प्राप्तिको तथा मोक्षमगमनको वस्तु कहना सिद्ध हुआ तथा इसी केवल ज्ञानकी प्राप्तिको और मोक्षगमनको सब कोई कल्याणक भी कहते हैं वैसेही धर्मसागरजी भी केवल जान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) की प्राप्तिको और मोक्षगमनको कल्याणक भी मानते हैं लिखते हैं कथन भी करते हैं इससे तो धर्मसागरजीके कथन करने लिखने मानने के अनुसारही केवल ज्ञानकी प्राप्ति और मोक्षगमन रूप वस्तु सोही कल्याणक अर्थात् वस्तु कल्याणक दोनों का भावार्थ एकही धर्मसागरजी के कथनसे सिद्ध हो गया तो फिर वस्तु करके कल्याणकपनेका निषेध करना सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके वा “ममवदने जिद्दानास्ति" की तरह बाल लीलाके सिवाय और क्या कहा जावे। और अब इस प्रकार धर्मसागरजीके अन्धपरम्परा में चलकर वस्तु करके कल्याणकपनेका निषेध करनेवाले गच्छकदाग्रहियोंको भी लज्जित होना चाहिये और अबी भी गच्छाग्रहका मिथ्या पक्षपात छोड़कर श्रीजिनाज्ञानुसार इस ग्रन्थको बांधकर सत्यको अङ्गिकार करना चाहिये ; तथा फिर यहां पर यह भी विचार करने योग्य बात है किअनादि कालसे सभी तीर्थङ्कर महाराजके ध्यवनादिकों को कल्याणकपना अनन्त तीर्थंङ्कर महाराज कहते आये हैं और अविसंवादी केवली भाषित जैन प्रवचन में श्रीऋषभदेवजी आदि २३ तीर्थङ्कर महाराज श्रीवीरभगवान्‌के च्यवनादिकोंको वस्तु कहके कल्याणकपने रहित कथन कर देवें ऐसा तो कदापि न हुआ, और न हो सकेगा, इसलिये इससे भी वस्तु कहने से कल्याणकपनेका परमार्थ सिद्ध होता है तिसपर भी धर्मसागर जोने सभी अनन्त तीर्थङ्कर महाराजोंके विरुद्ध होकर यवनादिकोंको वस्तु ठहरा कर कल्याणकपने रहित जनाये सो विवेक शून्यतासे अन्ध परम्परा रूप का ग्रहको भ्रमजाल में गिरने वालोंके सिवाय आत्मार्थी तो कदापिकाल मान्य नहीं करेंगे । बस | इसी तरहसे प्रथम स्यवमवत् गर्भहरण रूप दूसरे ध्यव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६४ ) नमें भी त्रिशलामाताके १४ स्वप्न देखने वगैरह सब गुण लक्षणोंका विस्तारसे खुलासा पूर्वक शास्त्रकारोंने कथन किया हुआ होनेपर भी गच्छकदाग्रहके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके जोरसे धर्मसागरजीने प्रथम च्यवनको कल्याणकपना और दूसरे च्यवनको कल्याण कपणा नहीं ठहरानेके लिये शास्त्र कारोंके कथनका रहस्यको समझे बिना उत्सूत्रों की कुयक्तियों से अपना संसार बढ़नेका भय न रखके भोले जीवों की शुद्धश्रद्धा भ्रष्ट करनेके लिये अनेक तरह के उत्सूत्रोंकी कुयुक्तियोंसे कितनेही कुविकल्प उठाकर लिखे हैं उन सबोंको तत्वज्ञजन तो स्वयंहि व्यर्थ समझ लेवेंगे। तो भी अल्प बुद्धिवाले पाठकगणको फिर भी विशेष निस्सन्देह होने के लिये थोडासा नमूना दिखाता हूं सो देखो। ____ “उसमेणं अरहा कोसलिए पंचउत्तरासाढ़े अभिइ छ? होत्यत्ति सूत्रवत् समणे भगवं महावीरे पचहत्थुत्तरे साइणा छह होत्यत्ति सूत्रं बक्तु युक्तं तथापि सूत्रकाराणां विचित्रगतिरिति नाधृतिविधेया" इस लेख में धर्मसागरजीने गर्भापहारके पाठ को राज्याभिषेकके पाठके समान ठहरा करके अपनी अज्ञानतासे सूत्रकार महाराज पर भी आक्षेप किया और संसार बढ़नेके भयको न करते हुए गर्भापहारके दूसरे च्यवन कल्याणकको निषेध करनेके लिये लिखा सो सबही भद्रजीवोंको उन्मार्गमें गेरने रूप मिथ्यात्वका कारण है क्योंकि ऊपरके लेख में श्रीकल्पसूत्रके श्रीमहावीर स्वामी सम्बन्धी “समणे भगवंमहावीरे पञ्चहत्थुत्तरे" के पाठके समान श्रीजम्बूद्वीप प्राप्तिके श्रीऋषभदेवजी सम्बन्धी “उसमेणं मरहा कोसलीए पञ्च उत्तरा साढ़े" के पाठको भी कपन करना युक्त ठहराया सो नहीं बन सकता क्योंकि कल्पसूत्रके पाठकी तरह जघन्य मध्यम उत्कष्ट वाचना पूर्वक उन्होंके मास पक्ष दिवसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) खुलासा सहित कथन श्रीजम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके पाठका किसी भी शास्त्र में खुलासा न होनेसे तथा गर्भापहारकी तरह राज्याभिषेकको कल्याणकत्वपना प्राप्त न होनेसे दोनों पाठोंको समान बनाना अज्ञानताका कारण है और पहिले इसका विशेष निर्णय श्री विनयविजयजी तथा श्रीन्यायाम्भोनिधिजी इन दोनों महाशयोंके लेखकी समीक्षा में इसीही ग्रन्थमें छप चुका है और ऊपरके दोनों पाठोंके कथन करने में " सूत्रकाराणां विचित्र गतिरिति नाधृति विधेया" इस तरहका लिखके दोनों सूत्रकार महाराजों पर आक्षेप रूप लिखा सो भी इनके दीर्घ संसारीपनेका लक्षण मालूम होता है अन्यथा दोनों सूत्रकारों के भिन्न भिन्न विषय सम्वन्धके अभिप्राथको समझे बिना अपनी कुबुद्धिकी विकल्पना से सूत्रकारोंपर ऐसा आक्षेप कदापि न करता खैर और अनादि अनन्तकालसे सर्वदा हमेशा सभी श्रीतीर्थङ्कर महाराजोंके च्यवनादि पांच पांच कल्याणकही होते हैं परन्तु इन पांचोंके सिवाय अन्य कोई भी छठा कल्याणक नहीं हो सकता और श्रीवीरप्रभुके तो कर्मानुसार कालानुभावसे आश्चर्यजनक दो वार च्यवन होनेसे दो अलग अलग भव गिने गये और दो माता तथा दो पीता भी अलग अलग गिने गये और प्रथम च्यवनकी तरह दूसरे च्यवन रूप गर्भापहारमें भी च्यवन कल्याणक के सभी कर्त्तव्य हुए सो तो प्रसिद्ध है इसीलिये श्रीवीर प्रभुके दो च्यवन मान करके ही दो च्यवन रूप दो कल्याणकों की गिनती से छ कल्याणक ठहरते हैं परन्तु श्रीऋषभदेव स्वामीके राज्याभिषेक के कर्त्तव्यमें तो पांचो कल्याकोंमें से किसी भी कल्याणकके कर्त्तव्य नहीं बने और पांचो कल्याणकोंमेंसे किसी भी कल्याणके लक्षण राज्याभिषेकमें न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होनेसे श्रीकल्पसूत्रादिमें प्रगटपने राज्याभिषेकको अलग करके "चउ उत्तरा साढ़े अभिइपञ्चमें" ऐसा खुलासा पाठकहके राज्याभिषेकके बिना शेष च्यवनादि पांच कल्याणक कथन किये हैं इसलिये राज्याभिषेक की आड़ लेकर गर्भापहारके कल्याणकत्वपनेको निषेध करना पूरी अज्ञानता है इसको विशेष तत्वज्ञजन स्वयं समझ सकते हैं। और गर्भापहारको इन्द्र महाराजका कार्य समझके कल्या. णकपना नहीं मानते क्योंकि इन्द्र तो अन्य भी अनेक कार्य करता है परन्तु सब कार्यों में कल्याणकपना नहीं माना जाता (जैसे श्रीआदि नाथजीकी वंशस्थापना, पाणी ग्रहण, राज्याभिषेक इत्यादि) किन्तु गर्भापहारमें तो च्यवन कल्याणकके गुण लक्षण स्वभाव होनेसे कल्याणकपना मानने में आता है इसका विशेष खुलासा इस ग्रन्थको पढ़नेवाले विवेकी स्वयं समझ लेवेंगे। और फिर भी धर्मसागरजीने गर्भापहारका कल्याणकपना निषेध करनेके लिये नक्षत्र सामान्यताका तथा असङ्गतिका बहाना लिया सो भी अज्ञानता है क्योंकि श्रीस्थानाङ्गजी सूत्रमें तो नक्षत्र सामान्यता तथा असङ्गतिका कुछ भी प्रसङ्ग ( कारण) नहीं है क्योंकि वहां तो सामान्य व्याख्यासे श्री. पद्मप्रभुजी आदि १३ तीर्थङ्कर महाराजो के च्यवनसे यावत् मोक्ष गमन पर्यन्त पांच पांच कल्याणक बताये हैं उसी मुजब विशेष रूपसे श्रीवीरमभुके भी च्यवनसे यावत् गर्भापहारको कल्याणकपने में सामिल ले करके केवल ज्ञान पर्यन्त पांच कल्याणक दिखाये हैं और वृत्तिकार श्रीअभयदेवमूरिनीने छठा कल्पाणक स्वाति नक्षत्र मोक्ष गमन खुलासा मग बतलाया हैसपा श्रीसमवायाजी बत्ति, गर्भापहारको अलग मवर्ने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) गिना है उसी मुजब "लोक प्रकाश" में भी देवलोकके च्यवनको और देवानन्दा माताकी कूक्षिसे त्रिशला माताकी कुक्षिमें जाने रूप गर्भापहारको इन दोनों को अलग अलग भव गिने हैं, और प्रथम च्यवनके तथा गर्भापहार रूप दूसरे च्यवनके दोनों' जगहों पर खास श्रीकल्पसूत्रकार श्रीभद्रबाहु स्वामीजीने जघन्य मध्यम उत्कृष्ट वाचनापूर्वक अलग अलग व्याख्या विस्तार से करी है इसलिये नक्षत्र सामान्यता तथा असङ्गतिका बहाना लेना सो अज्ञानता से भद्र जीवों को व्यर्थही भ्रमानेसे संसारका कारण है इसको विशेष विवेकी तत्वज्ञजन स्वयं विचार सकते हैं। और यदि नक्षत्र सामान्यताका हठ किया जावे तो तुमारी कल्पना मुजब तो श्रीआदिनाथजी के राज्याभिषेकको भी तुम लोग नक्षत्र सामान्यता करते हो तो फिर श्रीपद्मप्रभुजी आदि तीर्थङ्कर महाराजों के पांच पांच कल्याणकोके साथ श्रीवीर प्रभुके भी पांच कल्याणक दिखाये उसी तरहसे श्री आदिनाथजीके भी पांच श्रीस्थानांगजी सूत्रमें क्यों नहीं दिखाये तथा जैसे श्रीवीरप्रभुके चरित्रो में सभी जगहों पर पांच पांचका व्याख्यान है वेसे श्रीआदिनाथजीके भी कल्पसूत्रादिमें एक नक्षत्र में पांचका व्याख्यान सूत्रकारने क्यों नहीं किया और "चउ उत्तरासाढ़" ऐसा क्यों कहा और वीर चरित्र में तो ४ हस्तो तरामें किसी जगह नहीं कहे और विशेषतासे श्रीसमवायांगजी तथा लोकप्रकाश वगैरह में अलग अलग भव गिने हैं और स्थानांग आचारांग कल्पसूत्रादिमें पांच हस्तोशर में छठा स्वातिमें' खुलासा कह दिया है इसलिये नक्षत्र सामान्यता करना व्यर्थ है इसका विशेष खुलासा विनय विजयजीके लेखकी समीक्षा में पहिले छप चुका है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) तथा और भी सुनो जब खास सूत्रकारनेही च्यवन गर्भहरण जन्मादिका भिन्न भिन्न व्याख्यान विस्तारसे कथन कर दिया तथा इस विषयमें पूर्वाचार्योने वीर चरित्रादि, तथा कल्पसूत्र की टीकाओं में हजारों श्लोकोंकी विस्तार पूर्वक व्याख्या करी है और राज्याभिषेक सम्बन्धी विशेष खुलासा किसी जगह पर किसी भी पूर्वाचार्यने नहीं किया इसलिये गर्भहरणके समान राज्याभिषेकको ठहराना कदाग्रहके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है और गर्भहरण सम्बन्धी हजारों श्लोकोंकी व्याख्या प्रसिद्ध होनेसे असङ्गति रूपी शङ्काके गन्धकी भी सम्भावना नहीं हो सकती इसलिये असङ्गतिका कहना भी व्यर्थ है क्योंकि असङ्गति तो जब कह सकते थे कि-१४ स्वप्न त्रिशलामाताने आकाशसे उतरते और अपने मुखमे प्रवेश करते वगैरह च्यवन कल्याणकके लक्षण गर्भापहारमें न होते तथा सूत्रकारने "चठ हत्थुत्तरे" कहके च्यवन देवानन्दा जन्म । त्रिशला कह देते और इस विषय में किसी तरहका खुलासा न करते तब तो असङ्गति रूपी शङ्काका कहना बन सकता और इस विषयमें टीकाकारों को समाधान करनेकी जरूरत पड़ती सो तो नहीं किन्तु खास सूत्रकारादिकोंनेही "पञ्चहत्थुत्तरे" कहके विस्तारसे कथन किया है तथा उसमें कल्याणकत्वपके लक्षण प्रत्यक्षही देखने में आते है इसलिये असङ्गति वगैरह कुविकल्पों की कुयुक्तियों को छोड़कर सत्यग्रहण करनाही प्रेयकारी है इसका भी विशेष निर्णय विनयविजयजीके लेख की समीक्षा पहिले छप चुका है। __और "सन्देहविषौषधी" में गर्भापहारको कल्याणकत्वपने में गिनकर छ कल्याणक प्रतिपादन किये जिसका निषेध करनेके लिये धर्मसागरजीने गर्भापहारको कल्याणकरवपने किसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९ ) भागममें कथन नहीं करनेका कहके आगम में बाधा ठहराया मीर आचाराङ्गजी में 'पचहत्त्तरे' की व्याख्या में (पञ्चसुस्थानेषुगर्भाधान, संहरण, जन्म, दीक्षा, ज्ञानोत्पत्ति लक्षणेषु) इत्यादि यहां पर पांच स्थान कहे परन्तु पांच कल्याणक नहीं कहे ऐसा लिखके 'सन्देहविषौषधी' से विसंवाद दिखाया सो भी पूरण अज्ञानता प्रगट करी है, क्योंकि स्थानाङ्गादि अनेक आगम, नियुक्ति, चूर्णि वृत्ति वगैरह शास्त्रों में छ कल्याणक प्रगटपने कथन किये हैं, इसलिये 'सन्देहविषौषधी' कारका छ कल्याणको सम्बन्धी कथन आगमानुसार होनेसे आगम बाधा कहना प्रत्यक्ष मिथ्या है। और श्रीआचाराङ्गजी सूत्रकी दूसरी चूलिकाको आदिमे वीरचरित्राधिकारे कल्पसूत्रकी तरह ही “पञ्चहत्थुत्तरे” तथा “साइणा परिनिबुडे" कहके च्यवन, गर्भहरण, जन्मादि प्रगटपने छही कल्याणक दिखाये हैं और टीका कारने च्यवन गर्भहरण जन्मादिकोंको स्थान कहे सो स्थान कहो अथवा कल्याणक कहो दोनों एकार्थवाची हैं इसलिये स्थान शब्द देखके टीकाकार महाराजके अभिप्रायको सम बिना तीर्थङ्कर महाराजके चरित्रको कल्याणकपने रहित ठहरानेका परिश्रम किया सो उत्सूत्र भाषणरूप होनेसे आत्मार्थी कोई भी मान्य नहीं कर सकते । और स्थान शब्दका कल्याणकार्थ प्रसङ्गानुसार अरिहन्त सिद्धादि वीश ( २० ) स्थानक, तथा १४ गुणस्थान कोंकी तरह एकही है इस बातका विशेष निर्णय न्यायां भोनिधिजीके लेखकी समीक्षा मे पहिले छप चुका है इसलिये आचाराङ्गजीके और सन्देहविषौषधि के विसंवाद नहीं हो सकता, इस बातको विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं । और आगे फिर भी धर्मसागरजीने पञ्चाशकजीके पाठसे पांच कल्याणक दिखाके छ का निषेध किया सो भी विवेक शून्यता की の Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) अनामतासे मायाचारीकी ठगाईयोंकि वहां तो "पचमहाकल्लाणा सव्वेसिं जिणाणं होंति णियमेण" इत्यादि पूर्व भागके सम्बन्धकी ३ गाथा छोड़ दी है तथा “अहिगय तित्थ विहाया भगवन्ति णिदंसिया इमेतस्स। सेसाणवि एवंचियणियणिय तित्थेनु विणणेया इत्यादि पिछाड़ीके सम्बन्धकी भी गाथा छोड़ दी है और पूर्वापर सम्बन्ध सहित उन गाथाओंकी टीकाका पाठ भी छोड़ दिया है और पूर्वापर सम्बन्ध रहित बीच से थोडासा अधूरा पाठ दिखाया और मूलग्रन्थकर्ता भी. हरि भद्रमूरिजीके तथा वृत्ति (टीका) कारक भीअभयदेवमूरिजी के अभिप्रायको छुपा करके इन महाराजोंके अभिप्राय विरुद्ध हो करके अधूरे पाटसे मायाचारी करके भद्रजीवोंको भरमानेका काम किया है क्योंकि यदि पूर्वापर सम्बन्ध सहित सम्पूर्ण पाठ लिख दिखाते तब तो सामान्य विशेषके भेदको और शास्त्रकारों के अभिप्रायको विवेकी जन स्वयं समझ लेते, और मायाघारीकी तस्कर त्तिके सब भेद खुल जाते खैर इस विषय सम्बन्धी शास्त्रकारों के अभिप्राय सहित सम्पूर्ण पाठ पूर्वक हमने विस्तारसे समाधान न्यायरत्नजी तथा विनय विजयजी और न्यायाम्भोनिधिजीके लेखकी समोक्षामें लिख दिखाया है इसलिये पञ्चाशकजी के सामान्य पाठको बालजीवोंके आगे करके कल्पसूत्रादिके विशेष पाठोंमें छ कल्याणक कथन किये है उसका निषेध करना सो अज्ञानता और गच्छकदाग्रहके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है इसका विशेष निर्णय हमारे पूर्वोक्त लेखोंसे विवेकी जन स्वयं समझ लेबैंगे; देखिये कितने बड़े आश्चर्यकी बात है कि-पीतपगच्छ में पतमानिक समय में अनेक विद्वान् नाम धराते हैं तिसपर भी शास्त्रकारोंके अभिप्रायको समझे बिना अनन्त दीर्थकर महाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७१ ) राज सम्बन्धी पञ्चाशकजी के सामान्य पाठको आगे करके श्री कल्पसूत्रादि अनेक शास्त्रोंमें विशेष रूपसे प्रगटपने वीर प्रभुके छ कल्याणक लिखे हैं उसको निषेध करनेके लिये "यदि वीर प्रभुके छ कल्याणक होते तो पञ्चाशक में उसके मास पक्ष दिन दिखलाते" ऐसी कुयुक्ति मायाचारी करने वालोंको लज्जित होना चाहिये। क्योंकि विशेष रूपसे श्रीकल्पसूत्र में तथा उसकी १९ व्याख्याओंमें और आवश्यक नियुक्ति चूर्णि वगैरह अनेक शास्त्रों में छहीं कल्याणकोंके भिन्न भिन्न मास पक्ष तिथि नक्षत्रका व्याख्यान शास्त्रकारोंने खुलासे कर दिया है उसको छोड़ देना और पञ्चाशक में छ लिखनेका प्रसङ्ग न होनेसे वहां छ न लिखे जिसपर तर्क करना क्या ऐसी मायाचारीमें विद्वत्ता है बड़ी शर्म की बात है, खैर । और भी देखो विशेष व्याख्या में सामान्य पाठ आवे उसका खुलासा टीकाकार करते हैं जैसे वीर प्रभुकी माताके १४ स्वप्नाधिकारे प्रथम हस्तीका वर्णन किया परन्तु वीर प्रभुकी माताने प्रथम सिंह देखा था उसका खुलासा टीकाकारोंने किया परन्तु सामान्य पाठ में विशेष पाठ आवे उसका खुलासा करनेकी विशेष आवश्यक नहीं रहती क्योंकि देखो जैसे २४ तीर्थङ्कर महाराजों के नाम, गोत्र, माता, पिता, दीक्षादि कल्याणक तिथि और साधु साध्वयों के प्रमाण वगैरह के यन्त्रों कोष्टक ) में तथा २४ बोशोके स्तवन वगैरहों में १९वें भगवान्को स्त्री अपने में न लिखके सामान्यपनेसे पुरुषत्वपने में लिखते हैं । तैसेही यद्यपि वीरप्रभुके छ कल्याणक होनेपर भी पचाशकर्मे छ न लिखके सामान्यतासे पांच लिखे तो उसमें कोई इरना नहीं, तथा -इससे निषेध भी नहीं हो सकते इस बातको भी विवेकी जम स्वयं विचार सकते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७२ ) तथा और भी देखो श्रीआदिनाथजीको दीक्षा लिये बाद १ वर्ष पर्यन्त आहार न मिला यह बात सामान्यतासे कहने में आती है परन्तु विशेषतासे तो चैत्र कृष्ण अष्टमी (गुजराती फागण बदी ८) को दीक्षाके दिनके हिसाबसे वैशाख सुदी ३ के दिने पारणेको १३ मास और ऊपर ११ दिन होते हैं तो भो सामान्यतासे वर्ष कहने में आता है इसी तरहसे तीर्थङ्कर महाराजोंके गर्भ स्थिती वगैरह सामान्यता विशेषताके हजारों दृष्टान्त शास्त्रों में देखने में आते हैं इसलिये अक्षरार्थकों न पकड़के भावार्थको देखना चाहिये उसके बिना समझे व्यर्थ झगड़ा करके कर्मवन्धक और उत्सूत्री न होना चाहिये । ___ और फिर कुलमण्डनसूरिजीने कल्पावचूरिमें छः कल्याणक डिखे हैं उसको धर्मसागरजीने बिना उपयोगसे और सन्देहविषौषधि के अनुसार लिखनेका ठहराया सो भी गच्छकदाग्रहकी अभिनिवेशिकतासे व्यर्थही मिथ्या प्रलाप किया है क्योंकि सर्वशास्त्राने खुलासा पूर्वक छ कल्याणक लिखे हैं इसलिये बिना उपयोगसे नहीं किन्तु जान बूझकर शास्त्रानुसार लिखे हैं और सन्देहविषौषधि के अनुसार लिखे वैसा धर्मसागरजीको कोई ज्ञान नहीं था इसलिये सन्देहविषौषधिका अनुसरणका कहना व्यर्थ है और सत्य बातमें एक एकके कथनका पूर्वाचार्य अनुसरण करतेही हैं इसमें कोई हरजकी बात नहीं है इसलिये उपरोक्त सत्य बातमें यदि अनुसरण किया माना भी नावे तो उससे छकल्याणकका निषेध नहीं हो सकता इसका विशेष निर्णय न्यायाम्भोनिधीजीके लेखकी समीक्षा, पहिले उप चुका है। और जिस विषयका वादविवाद चलता हो उस विषय जो लिखेगासो विचारकही लिखेगा इसके न्यायानुसार कल्या. 'नक सम्बन्धी विवाद तो श्रीकुलमबहमसूरिजीके पहिलेही चला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७३ ) आता था उनके समय में भी चलता था जिसपर भी उनोंने छ क० लिखे उससे सिद्ध होता है कि उन्होंने जानबूझ करके ही छ कल्याणक लिखे हैं नतु बिना उपयोग । और उस समय इनके कथमका किसीने निषेध भी नहीं किया इससे उस समयकी तपगच्छ समुदायव उनके पूर्वज सब छ माननेवाले सिद्ध होते हैं। और आगे फिर भी धर्मसागरजीने अपने मिथ्यात्वके उदयसे श्रीगणधरसार्द्धशतकके पाठका तथा उसकी वृत्तिके पाठका और श्रीजिनवल्लभसूरिजीके कथनके भावार्थको समझे बिना इन महाराज पर छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करनेका मिथ्या दूषण लगानेके वास्ते पूर्वापरका सम्बन्धको छोड़कर बीचमेसे थोडासा अधूरा पाठ लिखके फिर उसका विपरीत उलटा अर्थ करके अन्धपरम्परामें चलनेवाले विवेक शून्योंको तथा भद्रजीवों को अपने भ्रममें गेरनेका काम करके मिथ्यात्वके सार्थवाहीका काम किया है उसकी भी समीक्षा करके पाठकगणको दिखाता हूं सो धर्मसागरजीका लेख नीचे मुगब है। “षष्ट कल्याणक प्ररूपणा मूलं तावत् चित्रकूटे चण्डिका गृहस्थिती नवीनमतव्यवस्थापनहेतवे जिनवल्लभवाचनाचार्य एव यत माह। तत्र कृतचातुर्मासिकानां श्रीजिमवल्लभवाचनाचार्याणामाश्विनमासस्य कृष्ण पक्षस्य त्रयोदश्यां श्रीमहावीरगर्भापहार कल्याणकंसमागतं, ततः श्राद्वानां पुरो भणितं जिन. वल्लभगणिमा भी प्रावका अद्य श्रीमहावीरस्य षष्टंग पहार फरवाणकं समागतं । ततः पाद्वानां पुरोमणितं षष्टंग पहार कल्याणकं 'पञ्चात्युत्तरेहोत्था-सारणापरिनिन्धुडेभयवमिति' प्रगटाररव सिद्वान्त प्रतिपादनात मन्यच तथावि किमपिविचित्यमातितो अब चैत्यवामित्वगत्वा यदि दवाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 99४ ) वन्द्यते तदा शोभनं भवति गुरुमुख कमल विनिर्गत वचनाराधकैः आवकै सूक्तं भगवन् यद्युम्माकं सम्मतं तव क्रियते ततः सर्वश्रावका निर्मलशरीरा निर्मलवस्वा गृहीतनिर्मलपूजोपकरणा गुरुणा सह देवगृहे गन्तु प्रसत्ता। ततो देवगृहस्थितयार्यकया गुरुश्रावक समुदायेनागच्छतो गुरुन्दृष्ट्वा पृष्टको विशेषोद्य केनापि कथितं वीरगर्भापहार कल्याणक करणार्थमेते समागच्छन्ति तयाचिन्तितं पूर्व केनापि न कृतमेतदधुना करिष्यंतीति न युक्त पश्चाशंयती देवगृहद्वारे पतित्वास्थिता द्वारप्राप्तान् प्रभूनवलोक्योक्तमतयादुष्टचित्तया मया मृतया यदि प्रविशत तादूगप्रीतिक जात्वा निवयं स्वस्थानंगताः पूग्या-इत्यादि जिनदत्ताचार्य कृतगणधरसाईशतकस्य वृत्तौ ॥ तथा ॥ असहाएणा विवही पसाहिो जो न सेससूरीणां । लोयणपहेविवच्चइ पुणजिणमयणूणं-इति गणघरसार्द्धशतकेद्वाविंशतिशतमी गाथा तद्त्तिर्यपा-ततो येन भगवता असहायेनाप्येकाकिनापि परकीय सहाय निरपेक्ष अपिर्विस्मये अतोवाश्चर्यमेतत् विधिरागमोक्तः षष्टकल्याणकरूपञ्चत्यादि विषयः पूर्व प्रदर्शितश्वप्रकारः प्रकर्षणे दमित्यमेवमति योग्त्रार्थ सहिष्णुः सवावदाविति स्कन्धास्फालनपूर्वकं साधितः सकललोक प्रत्यक्ष प्रकाशितः। यो न शेष सूरीणामजातसिद्धान्तरहस्यानामित्यर्थः। डोधनपऽपि दृष्टिमार्गेऽपि मास्तां श्रुतिपणे ब्रजति याति । उच्यते पुनर्जिनमत भगवन्प्रवचनवेदिभिरिति गाथार्थः॥तथा॥ पूर्ण मूल पडिमंपि साविमा चिडनिवासि सम्मतं। गभ्भापहार कल्लाणगंपि नहुं होर वीरस्स ॥१॥ इति जिनदत्ताचार्य कृतोत्सूत्रपदोद्घाटन कुलके इत्यादि बचो पविता, श्रीहरिभद्रसूरि श्रीअभयदेवसूर्या. दिनां पञ्चकल्याण वादीनां क्वचिदमामोदावनेन क्वचिचोत्स. अमापन होलमा कुर्वन् प्रागुक्तरोत्यार्षिकया निवार्यमाणोपि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) निजमताविष्करणाथै षष्टंकल्याणकं व्यवस्था स्थापयत्।" ऊपरके लेखकी समीक्षा करके आत्मार्थी सत्यग्रहणभिलाषी निष्पक्षपाती सज्जनोको दिखाताई, सो देखो-ऊपरके लेख में धर्मसागरजीने शास्त्रकारके उपरोक्त पाठोंका अभिप्रायको समझे बिना विवेक शून्यतासे मिथ्यात्वके उदयसे भद्रजीवोंको उन्मार्गमें गेरने के लिये शास्त्रकारोंके अभिप्राय विरुद्ध होकर पूर्वापर सम्बन्ध रहित अधूरा थोडासा पाठ लिखके व्यर्थही निजपरके संसार बढ़ानेका कारण किया है क्योंकि श्रीगणधरसार्द्धशतककी सहत्तिके उपरोक्त पाठसे श्रीजिनवल्लभमूरिजीको नवीन छठे कल्याणककी प्ररूपणा करनेवाले ठहरा कर श्रीहरिभद्रसूरिजी श्रीअभयदेवसूरिजीकी आशातना हीलमा करनेवाले उत्सूत्र प्ररूपक ठहराये सो निम्केवल बड़ी भारी अज्ञानतासे अपनी वाचालता प्रगट करी है, क्योंकि श्रीजिनवमभसूरिजीने छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा नहीं करी किन्तु मोऋषभदेव आदि २३ तीर्थकर महाराजोंके तथा श्रीगणधरपूर्वधर पूर्षाचार्यो के कथन मुजबही आगमोक्त रीतिकी प्राचीन सत्य बातोंको प्रगट करी है नतु शास्त्र विरुद्ध अपनी कल्पनासे, इस लिये नवीन प्ररूपणा कहना प्रत्यक्ष मिथ्यात्वका हेतु भूत संसारका कारण है इसका विशेष निर्णय ऊपरमें न्यायाम्भो. निधिजोके लेखकी समीक्षामें इसी ग्रन्यके पृष्ट ५६१ से ५७२ तक तथा ६१० से ६३७ तकमें छप गया है उसको विवेक बुद्धिसे पढ़नेवाले तत्वार्थी पाठकगण सत्यासत्यका निर्णय स्वयं कर सकेंगे। और ऊपरमें धर्मसागरजीने श्रीजिनवल्लभसूरिजीको नवीन मत स्थापन करने के लिये चोतोड़में चण्डीकाके मन्दिरमें ठहरनेका लिखा सो भी अज्ञानता व द्वेष बुद्धिसे .जिनाज्ञा प्रकाशको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्मार्ग ठहरानेहप मिथ्यारवका कारण किया, क्योंकि बीममयदेवमूरिजीने इन महारालको शास्त्राध्ययन कराये बाद क्रिया उद्धारका उपदेश दिया उसी मुजब चैत्यवासी अपने गुरु की आज्ञासे भीअभयदेवसूरिजी महाराजके पास क्रिया उद्धारसे शुद्ध संयम अङ्गिकार किया और कितनेही काल गुजरातने बिहार करते हुए विशेष लाभ जानकर मेवाड़ देशमें विहार किया यहां चितौड़में अविधिमें पड़ेहुए चैत्यवासियोंके भक्तोको श्रीजिनाजानुसार शास्त्रोक्तविधि मार्गमें स्थापन किये थे नतु अपने कल्पित मार्गमें जिनाज्ञा विरुद्ध-इसलिये जिनाज्ञाका प्रकाश करनेको धर्मसागरजीने द्वष बुद्धिसे नवीन मत व्यवस्था स्थापनका लिखा सो प्रत्यक्ष मिथ्या है इसका विशेष खुलासा इस ग्रन्यके पढ़नेवाले विवेकी जन स्वयं कर लेवेंगे। और चितोडमें श्रीजिनवल्लभसूरिजीने चौमासा किया तब आश्विन बदी १३ को मीमहावीरप्रभुके छठे गर्भापहाररूप दूसरे च्यवन कल्याणकका दिन आया उसकी आराधना करने के लिये प्रावकोंके साथ चैत्यवासियोंके मन्दिरमें देववन्दन करनेको जाने लगे, उसको देखके चैत्यवासिनी मार्या (जतनी) ने विचारा कि-पूर्व किसीने नहीं किया तो यह कैसे करेंगे ऐसा विचारके चैत्य ( मन्दिर ) के दरवाजे आडि गिर गई और महाराजको चैत्यके दरवाजेपर आये हुऐ देखकर वो चैत्यवासिनी जतनी साध्वी बोली कि, मेरे जीवते हुए तो मेरे मन्दिरने न जाने दूंगी, परन्तु मेरेको मारकर मेरे-मरे पीछे जावो तो तुमारी खुसी तब महाराज उसका ऐसा क्रोधयुक्त दुष्ट अध्यवसायका क्लेश बढ़ानेवाला अप्रीतिका बचन सुन कर पीछे लौट आये। इसपर धर्मसागरजीने चैत्यवासिनी साध्वीके कहने मुजब छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७७७] और चीतोड़ नगर में श्रीजिन वल्लम सूरिजी महाराजने चातुर्मास किया उस समय चीतोड़नगर में चैत्यवासियोंने अपने अपने गच्छ परंपरा रूप वाडेके दृष्टिसंगका अंघ परं परामें भोले जीवोंको फंसा लिये थे तथा मंदिरों (चैत्यों ) के मालिक बन बैठे थे और चैत्यादिमें रहते हुए चैत्यका पैदास पूजारी सेवक गोठीकी तरह खाते थे और अविधिसे सावद्यानुष्टान पूर्वक संयम मार्गको छोड़ कर भ्रष्टाचार में पड़े थे इस लिये चीतोड़ में उस समय जितने मंदिर थे वह सब पक्षपाती कदाग्रही चैत्य वासियोंके हाथमें होनेसे अविधि चैत्य थे परन्तु पक्षपात रहित विधि मार्गका एक भी मन्दिर वहां नहीं था इस लिये महाराजने श्रावकको कहा किअन्यच्च तथा विधं किमपि विधि चैत्य नास्ति ततो अत्रैव चैत्यवोस चैत्येगत्वा देवावंद्यतेतदाशोभनं भवति " अर्थात् इस नगर में चैत्यवासियोंके अविधि चैत्योंके सिवाय विधि चैत्य कोई नहीं' है इसलिये चैत्यवासी चैत्यमें जाकर देव वंदन करना अच्छा है तब महाराज के साथ में अन्य भी बहुत श्रावक लोग पवित्र वस्त्रादि धारण करके मन्दिर में लेजाने योग्य पूजा की सामग्री लेकरके देव वंदन के लिये चले इस तरहसे महाराज को भावकों के साथ में श्रीवीर प्रभुके गर्भापहार दूसरे च्यवन रूप छठे कल्याणक संबन्धी देव बंदन करनेको किसीके मुख से अपने चैत्यमें आते हुए सुनकर चेत्यवासीनी साध्वीने विचारा कि - " पूर्व केनापिनकृतंअधुना करिस्यतीति न युक्तं पश्चात्संयतो देव गृहद्वारे पतित्वास्थिता द्वार प्राप्तान् प्रभूनव लोयोक्त "6 तया दुष्टचितया मया मृतया यदि प्रविशत तादूगमीतिक ज्ञात्वा निवत्यं स्वस्थानं गताः पूज्या " अर्थात् मेरे मंदिर मैं पहले किसीने ( वीर प्रभुके गर्भापहार कल्याणक संघ १३ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७८] देव वंदनादि विधान किया नहीं और यह अभी करेंगे हो युक्त नहीं है इस लिये इनको मेरे मन्दिरमें ऐसा नहीं करने देना चाहिये ऐसा विचार करके अपने मन्दिर के दरवाजेके अगाडी आडी गिर गई और महाराजको भावकोंके साथ मन्दिरके दरवाजे पर आये हुए देखकर वो चैत्यवासीनी साध्वी दृष्टवित्त से कोष युक्त होकर बोलने लगी कि मेरे जीवते हुए तो मेरे मंदिरमें आपको न जाने दंगी परन्तु मेरेको मारो मेरे मरे बाद पीछे यदि मंदिरके अन्दर प्रवेश करो तो तुमारी खुशी तब महाराज उस चैत्यवासीनीका एसा कोष युक्त दुष्ट अध्यवसायका कलेश बढ़ाने वाला अनीतिका बचन सुनकर जानकरके वहाँसे पीछे स्थान पर भागये। इस प्रकारसे चैत्यवासीनीने (पूर्व केनापि न कृतमेतदधुना करिस्यतीति नयुक्तं) ऐसा विचार किया और पीछे (पश्चात् संयती देवगृह द्वारेपतित्वास्थिता द्वारप्राप्ता प्रभूनवडोपोक मेतया दुष्टचितया मयामृतया यदि प्रविशत) इस तरह का अपना कदाग्रह करके दिखाया इस बात पर भी जो ब्ठे कल्याणकको नवीन प्ररूपण कहते हैं सो बड़ी अज्ञानता १क्योंकि यह चैत्यवासीनी अपने गछ परंपरा रूप हिने बन्धी दुई सावधानुष्टानको करनेवाली आगमार्थको जिनामा को नहीं जाननेवाली थी और चीतोड़ने उस समयके चैत्यवासी भाचार्यादि लोग भी अपने अपने गच्छका द्रव्य परंपरा रूप वाड़ाके दृष्टि रागमें बंधे हुए अपने अपने गच्छ वासीयोंके सिवाय अन्य दुसरे गच्छ वालोंको अपने चैत्यमें अपनी इच्छाके विरुद्ध कोई भी कार्य नहीं करने देते थे और खास भापही उन चैत्योंके मालिक बने एदुबैठे र डिये उस समय पाक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १] बांव मुजब सत्यवासीनीने भी अपने स्वमहाराषको . प्रवेश करने दिया। और (पूर्वकेनापि न कतमेतदधुना फरिग्यतीति मयुक्त) एस का अर्थ तो सिद्ध इतना होता है कि-पूर्व मर्यात पहले किसी ने भी मेरे चैत्यने एसा न किया और यह अभी करेंगे सो युक्त नहीं है, ऐसा उस चैत्यवासीनीने अपने चैत्य संबंधी विचारापा परन्तु सर्व जगह सर्व देशों तथा शास्त्रोंमें भी यह बात नहीं स तरहका नहीं विचारा था सो तो ऊपरके पाठसे प्रगटपने दिखता है इसलिये उसने सर्वत्र नहीं किन्तु चैत्य सबंधी विचारा था तबही तो इस तरहका विधारके अपने चैत्यके दरवाजेके माडिगिरी थी सो यह तो उन चेत्यवासीनीने अपने गड कदाग्रहके क्रोधके उदयकी महानतासे बिन बिचारा बर्ताव किया था और जब उस समयके वहाँके चैत्य वासि भाचार्य नाम घराने वाले विद्वान् कहलाते थे तोमी छठे कल्याणकका स्वरूप नाहि जानतेथे (जिसका खुलासा न्यायाम्भोनिधि जीके लेखकी समीक्षा, पहले छपचुका है) तोफिर यह तो विचारी स्त्री जाति तुच्छ बुद्धि वाली अजानि चैत्यवासिनी उसका स्वरूप कैसे जान सक्तीथी और जिसका स्वरूप नहि जान सके सस विषय में प्राणि अज्ञानतासे चाहे जैसा अनुचित वांवभि करे तो क्या उसका ज्ञानीके वर्तावसे शास्त्रोक्त मूल सत्य बात झूठी हो सक्ती है सो तो कदापि नहि और वह अज्ञानि प्राणि उसका स्वरूपनहीं जानने से तथा अपना कदाग्रहके क्रोध उदयसे विपरीत वर्ताव करे तो क्या उसका देखा देखी विधेकी विद्वानोंको भी वैसा बर्ताव करना चाहिये सो भी कदापि नहीं तो फिर उस अज्ञानी चैत्यवासीनी गच्छ कदाग्रही स्त्री जातिको तुच्छ बुद्धिकी अपने चैत्य सबन्धी अनुचित वर्तावका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८०.] विचारणेको देखा देखी वर्तमानिक विद्वान् नाम धरने वाले होकरके भी सत्यासत्यका निर्णय किये बिना शास्तोत छठे कल्याणकको सत्य बातको मूठी ठहरानेके लिये उपसेक चैत्य वासिनीका अनुचित बर्तावको आगे करके गच्छ कदापहले महान् पुरुषोंको मिथ्या दूषण लगाते हैं जिन्होंको उपरोक लेख बांचकर लज्जित होना चाहिये और अपनी विद्वत्ताको हांसी कराने वाला अंध परंपराका, हठवादको छोड़कर सत्य ग्रहण करना चाहिये इसका विशेष निर्णय निष्यक्षपाती विवेकी तस्व. सुजन स्वयं समझ लेवेंगे और आज उपरोक्त विषयमें सत्य ग्रहणाभिलाषी पाठक गणको विशेष निस्संदेह होने के लिये यहां पर प्रत्यक्ष दृष्टान्त दिखाता हूं सो देखो-आज काल वर्तमान में जितने ही विवेक 'शून्य कदाग्रही मत वासियों में उन चैत्यवासियोंके जैसा दुष्टा ग्रहका वर्ताव देखने में आता है जो जैसे कितने ही शहरों में कितने ही अज्ञानी दढियें लोगोंने " जिनेश्वर भगवान्की रथ यात्राका वर घोड़ा वाणित्रादि सहित. गीत गान पूर्वक" अपने स्थानकके आगेसे होकर नहीं जाने देनेका मान रक्खा है उन शहरों में कोई आचार्यादि मुनिराज पधारहों वे वहांके भारम कल्याणार्थी भक्त प्रावकोंको धर्मोपदेश द्वारा अठाई उच्छव जिन पूजन रथ यात्रादिसे शासनका प्रभावना करने वाले को बोधिबीजकी प्राप्ति सम्यक्त की शुद्धि और अनंत लाभका कारण बतलाया होवे उसको सुनकर हृदयमें धारके कितने ही भक्त प्रावकोंने श्रद्धा पूर्वक श्रीजिनेश्वर भगवान्की भक्तिके लिये और शासन प्रभावनाके वास्ते अठाई उच्छवी रथ यात्रा का वर घोड़ा वाजिनादि सहित भगवानके गुणोंका कीर्तन पूर्वक जय बनिसे निकालना शुरू किया होवे वहां बाजार या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ ] गली के रास्ता ढूंढियोंका स्थानक नाजाये तब ढूंढिये लोग वाजिनादि गीतयान जय ध्वनी सहित रथ यात्राका वर घोड़ा ( भगवान् की असवारी ) को अपने स्थानकके आमेसे जाने सबन्धी विरोध करें और बहुत कहने सुनने पर भी वहीं माने तो अपने हठवाद रूपी मतकदाग्रहके कारण अभिमानसे क्रोध कदाग्रह करके मार पीट लड़ाई दङ्गा भी करने लगजावे और बकवाद करने लगजावे कि हमारे स्थानकके जानेसे रथ यात्रा वर घोड़ा व जत्रादि गीत गान जय ध्वनी पूर्वक आज तक भी नहीं निकला तो आज कैसे जाने देखेंगे इस प्रकार क्लोससे कर्म बंधनका कारण जानकर बिवेकी बुद्धिमान् शांत स्वभावी आत्मार्थी भक्त जनोंने उस भगवान् को असवारीको वाजिनादि ध्वनि पूर्वक ढूढियोंके स्थानकके आगेके रस्तेके बदले दूसरे रस्ता से ले जावे तो क्या वह रथ यात्रा भगवान्‌को असवारी अठाई उच्छव पूजन कल्पित शास्त्र विरुद्ध हो सकता है सो तो कदापि नहीं तथापि कोई अज्ञानी मत कदाग्रही ढूंढक कहने लगे कि देखो उस दिन रथ यात्राका वर घोड़ा हमारे स्थानके आगे होकर नहीं जाने पाया इस लिये यह रथ यात्रादि सब झूठे ढङ्ग: हैं तो क्या वह अज्ञानी ढूंढकका कहना सत्य कदापि हो सकता है सो तो कभी नहीं और उस अज्ञानी ढू ढक़के अनुयायियोंकी अन्ध परम्पराका कथन भी सत्य नहीं हो सकता तथा रथ यात्रा अठाई उच्छव: जिन पूजन वगैरहका उपदेश और कक्तव्य कल्पित शास्त्र विरुद्ध नवीन प्ररूपणा नहीं ठहर सकती किन्तु शास्त्रानुसार बिनाका मुजब आत्म कल्याण कारक प्राचीन ही माननेमें जाते हैं तिस पर भी कोई कदाग्रही भारी कर्मा अपना झूठा हठवादको नहीं छोड़ तो उनके कर्मो का दोष परन्तु आत्मार्थी जन तो ऐसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८२ ] कल्पित झूठा कदाग्रह कदापि नहीं कर सकते हैं इसी तरहसे उस समय तम चैत्यवासियोंने अपने अपने गच्छममत्व रूप दाडे बन्धन में अपने अपने दृष्टि रागियोंको फंसा लिये थे तथा अपने गच्छके अविधिसे मंदिर बनवाये और भ्रष्टाचार में पड़कर आजिजीका करते हुए काल व्यतीत करते थे और अपनी र कल्पित कपनाके माने हुए मन्तव्य के विरुद्ध चाहे वो जिनाचा मुजब शास्त्रानुसार होवे तो भी अपने अधिकार के मंदिर (चेट) में दूसरे गच्छ वाले किसीको भी कोई भी कार्य नहीं करने देते थे इस लिये उन चैत्यवासीनी जतमीने भी अपने गच्छ के मन्दिर में श्रीजिनवल्लभ सूरिजी महाराजको देव बन्दनादि नहीं करने दिये तथा गच्छ| कदाग्रहसे मन्दिर के दरवाजे माडी गिर गई और अविचार से क्रोध युक्त अनुचित बर्ताव करके आगमार्थको समझे बिना स्त्री जातिको तुच्छ बुद्धिसे अपनी कल्पना मुजब कहने लगी कि पहिले किसोने भी मेरे मन्दिर में एसा नहीं किया तो यह कैसे करेंगे; इस तरहसे उस चैत्य वासीनी गच्छ कदाग्रही अज्ञानी जतनी (साध्वी ) का कथन सत्य नहीं हो सकता तथा श्रीजिनवल्लभ सूरिजीका भी वीर प्रभुके छठे कल्याणक संबन्धी कथन तथा उसीके लिये मन्दिर में देव बन्दना के लिये जाना भी शास्त्र विरुद्ध कल्पित नहीं हो सकता किन्तु इन महाराजका कथन तो आगमानुसार जिनाना मुजब ही समझना चाहिये । तिस पर भी उस चैत्य वासीमी अद्यानि जतनिका कदाग्रही कथनकी विवेक बुद्धि गुरुगम्यआगमार्थसे सत्यासत्यका निर्णय किये बिना गम्भरोह प्रवाहकी तरह अन्ध परंपराका गच्छ कदाग्रह से आगे करके उसी तरहका दृढ़ कदाग्रहसे आगमोक्त छठेकल्यणक संबंधी भी जिनवल्लम सूरिजी के सत्य कथनको झूठा ठहरानेका उद्यम करने वाले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८३ ] धर्म सागरजी व उनके अनुयायियों को गच्छ कदाग्रही अशानियों के सिवाय और क्या कहा जाबे सो इस बातको निष्पक्षपाती आत्मार्थी विवेकी बिनाशाभिलाषी पाठक गण स्वयं बिचार सकते हैं तथा दूसरा और भी सुनो वर्तमानमें गच्छ वासी यति तथा श्री पूज्प लोगोंमें अपने २ गच्छके मंदिरोंमें मात्र पूजाका पढ़ाना सतरह भेदी पूजन तथा शांतिक पूजन प्रतिष्ठा उजमणादि कर्तव्य जो जो यति लोग कराते हैं वहां दूसरे गच्छवाले यतिको स्नान पूजा प्रतिष्ठादि क्रिया कभी नहीं करने देते जिस पर भी दूसरे गच्छ वालायति करने जावे तो वे लोग बोलने लगते हैं कि ऐसा कभी हुआ नही होने भी नहीं देवेंगे यह बात भी प्रत्यक्ष देखने में आती है इससे दूसरा गच्छ वालेका स्नात्र पढ़ानादि क्रिया करवाना शास्त्र विरुद्ध नहीं हो सकती परन्तु निषेध करने वालोंका गच्छ कशग्रह अन्ध परंपरा ही समझनी चाहिये और कितने ही संवेगी नाम घराने वाडे साधु लोग तथा उन्होंके दृष्टिरागी भावक लोग भी दूसरे गच्छ वाले साधू साध्वियों को अपने गच्छके उपाश्रय व धर्मशालामें उतरने नहीं देते एसे ही अन्यमत वाले मिथ्यात्वी लोगोंनें भी देखने में आता है कि अपने मतके मठ देवलमें वा अपने भक्तोंके घरमें पूजन व अनुष्ठानादि कार्य अपने कुटुम्बके आदमीके सिवाय दूसरे आदमीको नहीं करने देते जिस पर भी कोई करने जावे तो उस पर अपने से बन सके तब तक मारपीट बड़ाई दङ्गा शिर फोड़ना वगैरह करें परन्तु अपने विरुद्ध दूसरेको नहीं करने देते इसी तरह से वे चैत्यवासी भी अपने सिवाय दूसरे गच्छ वालेको नहीं करने देते थे उससे उन चैत्यः बासोनी जवनोने भी श्रीजिन वल्लभ सूरिजी को दूसरे गच्छवाडे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८४ ] , जानकर अपने गच्छ के मंदिर में प्रवेश भी नहीं करने दिया और मन्दिरके आडि गिर गई सो तो उनकी अज्ञानताका कदाग्रह समझना चाहिये परन्तु इन महाराजका कथन तो शास्त्रोक्त सत्य ही मानना चाहिये तथा तीसरा और भी सुनो-जब चोतोड़ नगर में जिस समय श्री जिनवल्लभ सूरिजी महाराज विहार करते हुए पधारे उ समय वहां के जैनी नाम घराने वाले चैत्यवासियोंके दृष्टिरागी भक्तोंने नगर भरमें महाराजका ठहरने के लिये कोई भी स्थान न दिया तथ महाराज चामुंडा देवीके मन्दिर में ठहरे और वहां धर्मोपदेश द्वारा चैत्यवासियों की अविधिको निषेध करके विधि मार्ग जिनाज्ञाको प्रगट करने लगे तत्र वहां के चैत्यवासी लोग इन महाराज पर ध्वेष करके पांच सौ ( ५०० ) आदमी एकट्ठ े होकर लाठी लेके महाराजको मारने के लिये आये यह बात के इतिहास छपे हुए संघपटकमें तथा श्रीगणधर सांई शतक वृत्ति प्रकरणादिमे प्रसिद्ध है इस पर भी विचार करना चाहिये कि जब वे चैत्यवासी लोग नगर में ठहरने की जगह तक भी नहीं देने देवे तथा अपनी खराव आचरण के अवगुणों को देखे बिना उनको मारनेके लिये जावे पूरा द्वेषभाव रखे तो फिर उनको अपने मन्दिर में कैसे प्रवेश करने देवे अपितु कभी नहीं इस लिये उन चैत्यवासीनी जतनीने द्वेष बुद्धिसे अपने मन्दिर में महाराजको प्रवेश तक भी नहीं करने दिया यह तो द्वेषका कारण प्रत्यक्ष दिखता है और उनहीं अज्ञानी कदाग्रही चैत्यवासिनीका अनुकरण करके सत्यासत्यको परीक्षा किये विना आगमोक्त छठे कल्याणकका निषेध करनेके लिये श्री जिनवल्लभ सूरिजी महाराज पर कल्पित प्ररूपणका दूषण लगाने वाले उन चत्यवासीनी जैसे हो गच्छ कदाय ही जिनझाके और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८५ ] पूर्वाचार्यो शत्रु मज्ञानी समझना चाहिये इस बातको विशेष सूपसे तत्वज्ञ सज्जन स्वयं विचार सकते हैं और भी गणधर सार्द्धशतकको १२२ वी गाथाकोटीका का विशेष निर्णय इस ग्रन्थके पृष्ठ ६१० से ६३७ तक छपचुका है वहांसे समझ लेना इस लिये इस गाथाको टीकासे भी छठा कल्याणक आगमोक्त गणघरादि महाराजोंका कथन किया हुमा उसके अनुसार इन महाराजने भी कहा है अब पाठकवर्गसे मेरा यहीं कहना है कि-धर्म सागरजीने मीगणधर सार्द्धशतकको मृत्तिकारके अभिप्रायको तथा इस पाठके पूर्वापर सम्बन्ध के भावार्थको समझे बिना या अभिनि वेशिक मिथ्यात्वसे माया वृत्ति करके बीच से थोडासा अधूरा पाठ वालजीवोंको दिखाके अपनी कल्पनासे छठे कल्याणक की नवोन प्ररूपणा करनेका उद्यम किया सो गच्छ कदाग्रह अन्ध परंपरा वालोंको और भोले जीवोंको मिथ्यात्वमें गेरने वाला होनेसे संसार सृद्धिका हेतु है इस बातका निर्णय इस ग्रन्थके पढ़ने वाले अपरके लेखसे विवेकी पाठकगण स्वयं कर लेवेंगे___ और चैत्यवासीनीका क्रोधयुक्त अनुचित वर्तावको देख कर मन्दिर में प्रवेश न किया पीछे लौट कर स्वस्थान आगये सो तो बहुत ही अच्छा किया क्योंकि आत्मार्थी जिनामा राधक शांत स्वभावो महात्माजन कलेश झगड़े के कारण कर्म बंधके हेतुसे दूर रहते हैं इस लिये यद्यपि महाराज मावकों के साथ मन्दिरजीमें देव बन्दन करनेको जाते-थे सो महाराज का कर्तव्य सत्य था तिस पर भी उन चैत्यवासिनीका गच्छ कदाग्रह देख कर पीछे लोट आये उससे इन महाराजका कथन शास्त्र बिरुद्ध कदापि नहीं हो सकता इस बातको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 9 ] विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं क्योंकि देखो वर्तमान में तुम्हारे तप गच्छ के मुनि श्रीआनन्द सागरजी सुम्बई बन्दर से श्रीसंघ के साथ में श्रीअन्तरिक्ष पार्श्वनाथजीकी यात्रा करने के लिये वहां गये थे तब साथमें भगवानकी प्रतिमा भी थी इस लिये जब तक सन्घ वहां दर्शनके लिये ठहरे तब उन प्रतिमाजी को श्री अन्तरीक्ष पार्श्वनाथजी महाराजके मंदिर में बिराजमान करनेके लिये संघवाले गये सो बात उचित थी तिस पर भी वहांके दिगम्बर लोगोंने कितने दिन तक मंदिर में प्रतिभाजी को बिराजमान करनेका विरोध किया बिराज मान नहीं करने देने लगे तब आपसमें खींचातान होनेसे श्वेतांबर दिगम्बर श्रावकों के आपस में मारपीट लड़ाई दङ्गा हो गया कोर्ट कचेरीमें हजारोंका खर्चा हुआ लोगों को बड़ी तकलीफ उठानी पड़ी साथवाले साधुओं को भी कोर्टनें खड़ा रहना पड़ा इत्यादि बहुत नुकशान हुआ सो जैनमें प्रगट है और श्रीजिनवल्लभ सूरिजी तो कलेशका कारण देख कर पीछे लौट आये सो बहुत अच्छा किया किसी तरह का नुकशान नहीं हुआ परन्तु उससे महाराजका कथन शास्त्र विरुद्ध नहीं समझना चाहिये जिस पर भी कोई इस बातको विरुद्ध समझे तो उनको अज्ञानता है इसको विवेकी जन स्वयं बिचार लेवेंगे और आगे फिर भी धर्म सागरजीने पूयई मूलपडिमंदि साविआ थिई निवासी सम्मंतं " गर्भापहार कल्याणगं पिनहु होई वीरस्स ॥ १ ॥ " इस गाथाको लिख कर छठे कल्याणक को निषेध करनेके लिये बाल जीवोंको अपनी चतुराई दिखाई परन्तु विवेकी विद्वानोंके आगे तो बाल बुद्धिकी वाचालता दिखाकर अपनी हांसी करानेका कारण किया है क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८७ ] देखो ऊपरको गाथासे छठा कल्याणक निषेध नहीं हो सकता किन्तु शास्त्रोक्त सिद्ध होता है क्योंकि देखो भोजिनदत्त सूरिजी महाराजने “उत्सूत्रपदोद् घाटण कुलक" में ऊपरकी गाथा कथन करी है इस गाथाका भावार्थ ऐसा है कि इन महाराज के समय में चैत्यवासी लोग शिथिला चार में पड़कर अनेक तरहकी शास्त्रोक्त विधि मार्गको सत्य बातोंको छोड़ बैठे थे और शास्त्र विरुद्ध अविधिकी कितनी ही बातें करने लग गये थे उसमें श्रीवीर प्रभुके गर्भापहार रूप दूसरे च्यवन कल्याणकको माननेका निषेध करते थे तथा मन्दिर में रात्रिको स्नात्र पूजा प्रतिष्ठा बलि विधान स्त्रियोंका आगमन दीवा बत्तियों की धूमधाम और सधवा सयोवना अनियमीत रजस्वला होनेवाली अविवेकी तरुण स्त्रियाँको नगरका श्री संघ के मंदिर में चमत्कारी प्रभावक सूल नायककी प्रतिमाकी केशर चन्दनादिसे अङ्ग पूजा करनेका और अधिक मासके ३० दिनोंको गिनती में लेनेका निषेध बगैरह कितनी ही विरुद्धा चरणके वर्तावको अनुचित बातोंकी प्रवृत्ति करने लग गये थे और आत्मार्थी आज्ञाके आराधक शुद्ध संयमी विधि मार्गनें चलने वाले बहुत थोड़े रह गये थे उनका मन्तब्य तो वीर प्रभुके गर्भापहार रूप दूसरे च्यवनको कल्याणकस्वपने मे माननेका तथा मंदिर में रात्रिको स्नात्रादि करनेका दीवा बत्तीयोंकी धूम धाम स्त्रियोंका रात्रिमें मंदिर में आगमन और अनियमीत रजस्वलाके कारण अविवेकी सयोवना सधवा स्त्रीको संघके मन्दिर में मूलनायककी प्रतिमाको अङ्ग पूजा नहीं करनेका था इस लिये आगमानुसार तथा आत्मार्थी पूर्वा चार्यों की कालानुसार लाभालाभके विचारको आचरणानुसार श्रीजिनदत्त सूरिजी महाराजने “उत्सूत्रपदोंद् घाटनकुलक? www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७८८ ] में ऊपरकी गाथा कथन करी है उससे यह बात प्रगटपने दिखती है कि वर्तमान कालमें कलयुगी प्राविका नाम धारण करने वाली स्त्री मूलनायकको अङ्ग पूजा करनी और वीरप्रभुके गर्भ हरणको कल्याणक नहीं मानना यह मन्तव्य उन चैत्यवासियों के सम्मत है ऊपरकी दो बातें चैत्यवासी मानते हैं इससे यह सिद्ध हुआ कि वे जपरकी दो बातें पूर्वाचार्यों को सम्मत नहीं है अर्थात भ्रष्टाचारी चैत्यवासी वैसा मानते हैं परन्तु आज्ञा आराधक पूर्वाचार्य तो वीरप्रभुके गर्भहरणको दूसरे च्यवन रूप कल्याण करवपने में माननेका तथा नगरके संघके मन्दिरमें चमत्कारी प्रभावक मूलनायककी प्रतिमाजी का प्रभाव चमत्कार आशातनासे कम न होनेके लिये तथा आशातनासे अधिष्टायक देवके न चले जाने के लिये और शासन की रद्धि होती रहनेके लिये सघवासयोवना अविचारवान् तरुण स्त्री मूलनायककी केसर चंदनादिसे अङ्ग पूजा न करे एसा मानते हैं इस मूजब उपरकी गाथासे सिद्ध होता है इस लिये ऊपरकी गाथा, चैत्यवासियोंका मन्तव्य इम महाराजने दिखाया है परन्तु गर्भापहारको कल्याणकत्वपने में निषेध नहीं किया हैं इस लिये धर्मसागरजीने ऊपरकी गाथासे छठे कल्याणकका निषेध किया सो अपनी अज्ञानतासे हासीका कारण किया है इस बातको विवेकी पाठकगण स्वयं बिचार लेवेगे और यद्यपि पूर्वकालमें विवेकी द्रोपदी वगैरह सतीयोंने मूलनायककी अङ्ग पूजा करी थी ऐसे शास्त्रों में बहुत प्रमाण मिलते हैं तोभी कालानुभावसे वर्तमानमें वो बात मुख्यतयानहीं रही और बाल कुमारिका तथा रजस्वलाके रोध वा वृद्ध स्त्रीय मूलनायकको अङ्ग पूजा करें किन्तु अकालरितु भाव (रजस्वला) हो मके कारण मूलनायकको महान् भाशातनासे उनका चमत्कार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ ] प्रभाव कम हो जावे उनके अधिष्ठायक देव वहांसे चले जावे तथा सम्पर्क पड़ती दशा होवे और रजस्वलासे आशातना करनेवालीको संसार परिभ्रमण करनेका कर्म बंध होवे इत्यादि कारणोंसे पूर्वाचार्थ्यांने मूल नायककी अङ्ग पूजाका निषेध किया है इसलिये पूर्वकालको सती श्राविकाओंके दृष्टान्त बतलाके उन सतियोंके जैसी श्रद्धाभक्ति, शुद्धशीयल और पतिव्रता धर्मकी दृढ़ता शरीरको निरोगता मजबूत संहयनसे नियमित रजस्वला होनेवाली, वगैरह पूर्ण उपयोगयुक्त शुद्ध भाविकाओंके विवेकादि गुणोंका विचार किये बिना वर्तमान में अनियमित रजस्वला होनेवालो अविवेकी कलयुगी स्त्रियों को मूलनायककी अङ्ग पूजा करनेकी बातको स्थापन करनेका आग्रह करके रजस्वला वगैरहने मूल नायकको आशातमासे पूर्वोक्तादि अनेक तरहके नुकसानका कारण करना और उससे भगवान्को आशातनाके भागी होकर लाभके बदले हानि करके अपने संसारका कारण रूप ऐसा आग्रह करना उचित नहीं है इस बात में समुद्र जैसी बुद्धिवाले गीतार्थ लाभालाभके जानने वाले पूर्वाचार्थ्यांने जो आचरण मान्य करा है उन्होंके कथन को और आचरणको जिनाज्ञाके आराधन करनेवाले आत्मार्थी सज्जनको मान्य करना चाहिये और इस बातका आचरण श्रीजिनदत्त सूरिजी महाराजके पहिलेके पूर्वाचाय्यों से चली आतो है देखो नोपार्श्वनाथजी संतानीये मीरत्नप्रभ सुरिजीकृत समाचारी में ऋतुवतीका जिन पूजा निषेध लिखा है जब तो गछकदा ग्रहों का बाडा नहीं था इसलिये वर्तमानमें कितने ही गच्छकदा ग्रहां अज्ञानो धर्मसागरजी वगैरह और इनकी अंधपरंपरामें चलनेवाले श्रीजिनदत्त सूरिजी महाराजको स्त्री पूजा निषेध करनेका दूषण लगाते हैं सो व्यर्थही युगप्रधान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६० ] शासन प्रभावक परमोपकारी महाराजको प्रत्यक्ष झूठी निन्दा करके पापसे दुर्लभ बोधिपनेका और संसार भ्रमण करनेका हेतु करके भोले जीवोंको मिथ्यात्व गेरनेके कारण करते हैं क्योंकि कालानुभावसे अनियमित अकालसे अकस्मात ऋतुमाव के दूषणसे पूर्वोक्तादि भनेक बातोंकी हानि न होनेके लिये तरुण स्त्री मूलनायकको अङ्ग पूजा न करे और कुमारि बद्ध कर सकती हैं यह आचरण इन महाराजके पहिले पूर्वाचार्योका है और यद्यपि चौबीश (२४) ही तीर्य कर महाराजकी प्रतिमा पूज्यभावमें तो सभी बरोबर है। परन्तु राज्यगद्दीकी तरह मन्दिर तथा अधिष्ठायक मूलनायकके नामसे होते हैं उसके चमत्कार प्रभावसे जैन शासनको विशेष उन्नति होती है इसलिये यदि पूजा करनेके समय अकालसे अकस्मात् ऋतुभाव हो जाबे तो मूलनायकका तेज कांति प्रभाव हट जावे अव्यबस्थीत प्रतिमाजीहो जाति है तथा महा मलीन अशुद्धताकी बडीमाशातनासे अधिष्ठायक कोपसे आशातना करनेवाली को तो जो शिक्षा मिले सो मिलेही परन्तु शासनको प्रभावना उन्नति होनेने बाधा पहुचे बड़ीभारी हानि होवे और संघभी रोगमारी जन हानि दलिद्रता वगैरह भयङ्कर उपद्रव होनेका भय रहता है यह बातें तो वर्तमानमें बहुत जगह बनी हुई है उसके प्रत्यक्ष बहुत दृष्टान्त है इसलिये लाभके बदले विशेष हानिके कारण इस प्रवृत्तिको पूर्वाचार्यो ने नियत करो है परन्तु जिस स्त्रीके अङ्गपूजा ही करनेका विशेष भाव होवे तो वो अपने शरीरकी व्यवस्था देखकर पूरण उपयोग युक्त पवित्रतासे मीपञ्चतीर्थको नवपदजीका तथा मूडनायकके विना आजुवाजुकी अन्य प्रतिमाजीकी अङ्ग पूजा करके अपनी भावना पूरण कर लेवें उसमें कदाचित् अकस्मातसे माशातना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६१] भी हो जावे तो उसके विपाक वोही इस भव पर भव, भोगेगी परन्तु मूलनायकके प्रभाव तथा अधिष्ठायकके कोपसे शासनकी उन्नतिकी बाधा और संघमें भयंकर उपद्रवकी तो सम्भावना न होगी, और तरुण स्त्री मूलनायकको अङ्ग पूजा न करे परन्तु अग्रपूजा पुष्प प्रकरको रचना धूप दीपादि और भावपूजा चैत्य बंदन स्तवन गीतगान नाटकादि करके अपनी भावनानु. सार अपनी आत्माको पवित्र करें इसका खुलासा श्रीमान् समय सुन्दरजी उपाध्यायजी विरचित मी समाचारीशतक'मामा ग्रन्यसे तथा मोमजिजनयशस्सूरिजी महाराजके आज्ञाके अनुयायी प्रोमान् पं० केशर मुनिजी रचित "प्रश्नोत्तर विचार" मामा पुस्तकके देखनेसे हो जावेगा और विस्तार पूर्वक विशेष निर्णय इसी ग्रन्धकारका बनाया हीरधर्मात्मा तिमिरोच्छेदन भास्कर 'अपरनाम "प्रबधनं परीक्षा निर्णय" नामा ग्रन्थके अवलोकमसे अच्छी तरहसे हो जावेगा यह ग्रन्थ थोड़े समय, प्रकाशित होनेका सम्भव है इसलिये स्त्रीपूजा निषेध सम्बन्धी प्रोजिनदच मूरिजी महाराजको धर्मसागर जी वगैरह दूषण लगाते हैं सो मिथ्यात्वकी रद्धि करनेवाला प्रत्यक्ष मिथ्या है इस पातको निष्पक्षपाती पाठकगण अपरके लेखसे स्वयं विचार लेखेंगे। और आगे फिर भी धर्मसागरजीने 'मी हरिभद्रसरिजी भीअभयदेवसूरिजी आदि पांच कल्याणकबादियौंकी अज्ञानता करके उत् सूत्र भाषणसे तुलना करते हुए पूर्वोक्त चैत्य वासिनी जतनौने निवारण किये जिसपर अपना मत प्रगट करनेके लिये हठसे छठे कल्याणकको व्यवस्था स्थापन करनेका लिखा सो श्रीहरिभद्र सूरिजी श्रीमभयदेव सूरिजी मीजिमवल्लभ सरिजी महाराजले सामान्य विशेषरूप कथनके भावार्थको समझ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७९२] विना श्रीजिनवलभसूरिजी महाराज पर ब्यर्थही झूठा दूषण लगाके प्रभाधिक आचार्यों के अवरण वादसे निज परकै दर्लभ बोधिका कारण किया है क्योंकि सामान्यता से सर्व तीर्थकरोंकी अपेक्षासे २४ ही तीर्थ कर महाराजोंके पांच पांच कल्याणक कहे जाते हैं उसी अपेक्षासे श्री अभय देव पूरिजीने पंचाशकमें पांच कल्याणक कथन किये हैं तैसे ही श्री जिनवल्लभ सूरिजीने भी चौवीस जिनस्तवनाधिकारे सामान्यतासे वहां पांच कल्याणक कहे हैं वैसे हम लोग भी सब तीर्थकरों की अपेक्षासे सामान्यता करके पांच ही मानते हैं परन्तु जैसे बी अभयदेव सूरिजीने ही खास भी स्थानांग सूत्र की टीका करते हुए सूत्रके मूलपाठानुसार भी पद्म प्रभुजी आदि १३ तीर्थ कर महाराजोंके सामान्यतासे पांच पांच कल्याणक बतलाये और विशेष रूपसे भी पद्म प्रभुजी आदि १३ तीर्थ करोंकी तरह ही २४ वें वीर प्रभुके पांच कल्याणक हस्तोतर नक्षत्र और छठा निर्वाण कार्तिक अमावस्याको स्वाति नक्षत्रमें खुलासा दिखाके विशेष रूपसे छ कल्याणक कथन किये उसी तरहसे यो जिनवल्लभ सूरिजीने भी भी कल्प सूत्र और आचारांग सूत्रादिके मूल सूत्र पाठके अनुसार विशेष रूपसे वीरप्रभु के छ कल्याणक कथन किये हैं वैसे हम लोग तथा जिनाज्ञा माराधक आत्मार्थी सब कोई विशेषतासे छ कहते हैं इसलिये सामान्य विशेषके भेदसे पांच छ दोनों बात मानने में और कथन करने में किसी तरका मत भेद अज्ञानता उत्सूत्रता होलना न समझना चाहिये जिस जगह जैसा प्रसंग हो वे वहां वैसा ही कथन करने में आता हैं इस सामान्य बातमें विशेष बात न दिखावे और विशेष बातमें सामान्य बात न दिखावे तो मा किसो सरहका हरजाकी www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७९३ ] बात नहीं है कुतर्फ करना ही अज्ञानताका कारण हैं और शास्त्र कारोंके अभि प्रायको समझे बिना एकांत पक्षपाती होकर गच्छ कदाग्रहसे पांच कल्याणकको सामान्य बातको माननेका आग्रह करके स्थानांग आचारांग कल्प सूत्रादि मूल आगमों में लिखो हुई छ कल्याणककी विशेष बातको निषेध करनेका हठवाद करनेवाले तीर्थंकर गणधर पूर्वाचार्यों की और जैनागमोंकी आशातमा होलमा करने वाले मज्ञानी उत्सूत्र भाषी ठहरते हैं परन्तु आत्मार्थियोंको तो दोनों बाते माननी चाहिये इस बातको विशेष विवेकी तत्वज्ञ सज्जन गण स्वयं विचार सकते हैं। और श्रीजिन वल्लभ सूरिजी महाराजने हठसे अपना मत स्थापन करने के लिये नहीं आगमोक्त सत्य बातको प्रगट करी है इस लिये छठे कल्याणकका कथन करने में किसी तरहका दूषण नहीं किन्तु हठवादसे निषेध करनेसे आगम पाठउत्थापनका दोष लगता है तथा उन चैत्यवासिनी जतमीने तो आगमार्थको और महाराजके कथन को विवेक बुद्धिसे समझे बिना गच्छममत्वसे व्यर्थ हठ किया था जिसका निर्णय ऊपर में लिखा गया है परन्तु उस अज्ञानी चैत्यवासिनी जतमीको स्त्री जातिकी तुच्छ बुद्धि गच्छ कदाग्रहकी मूर्खताके अन्ध परंपरामें पड़कर विवेक शून्यतासे धर्मसागरजी वगैरहोंने भी उसी जतनीका अनुकरण करके छठे कल्याणकको निशेध करने के लिये उसका दृष्टान्त दिखाते हैं और अनेक तरहको कुयुक्तियोंसे आगमोक्त सत्य शातको झूठा ठहराने के लिये श्रीजि नवल्लभ मूरिजी महान् प्रभावक युग प्रधान उत्तम पुरुषको मूठा दूषण लगाने वाले बर्तमानिक विद्वान् नाम घराने वाले कदाग्रहियोंको लज्जित होकर ऐसा कदाग्रह छोड़ना चाहिये और १०० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको त्यागके सत्य बात अङ्गीकार करनी चाहिये - ज्यादा क्या लिखें और हम लोग शक्रन्द्रने गर्भहरण करवाया उससे शक्रइन्द्र कर्तव्य मानकर गर्भहरणको कल्याणकत्वपना नहीं कहते किन्तु श्रीसमवायांग सूत्र वृत्तिके अनुसार गर्भहरणको दूसरे भवर्षे गिनकर के श्रीस्थानांग आचारांग कल्प सूत्रादि शास्त्रोंके पाठ प्रमाणसे और त्रिशला माताने १४ स्वप्न आकाश से उतरते हुए देखे वगैरह कारणोंसे गर्भहरणको दूसरे भवमें गिनकर दूसरा च्यवन रूप कल्याणक मानते हैं इस लिये इन्द्रकृत राज्या भिषेकके दृष्टान्तये वीरप्रभुके छठे कल्याणकको निशेध करने के लिये इन्द्रकृतको समानता संबन्धी अपनी कल्पना सुजब शङ्का समाधान करके धर्म सागरजीने भोले जीवोंको भ्रममें गिरानेका कारण किया है सो सब व्यर्थ है । और आगे फिर भी धर्मसागरजीने भोले जीवोंको मिथ्यावके भ्रममें गेर अपनी अंध परंपराकी माया जाल में फंसाने के लिये अपने संसार बढ़नेका भय न करते हुए श्रीजिनवलभ सूरिजी तथा प्रीजिनदत्त सूरिजी और उन्होंके परंपरा वालोंको अनेक तरहके दूषण लगानेके लिये अनेक तरह से कुयुक्तियों के विकल्प करके मन मानी कल्पनासे पूर्वपक्ष लिखके उसके उत्तर में अपनी धर्मठगाई की वाचालता प्रगट करी है जैसे चौथ ( ४ ) का पर्युषण करना आगसमे नहीं लिखा तो भी प्रवचन पूजाकी अभि बृद्धिके लिये कालिकाचार्य जीने ४ को पर्युषणा वार्षिक पर्व किया सो उन्होंके अनुयायी परंपरा वालोंको प्रमाण है तैसे ही गर्भापहार कल्याणक शास्त्रोंमें नहीं कहा तो भी जिनवल्लभ वाचना चार्यने प्रवचन पूजाकी अभिवृद्धि के लिये गर्भापहारको कल्याणक ठहराया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७५ ] तो उनके परम्परा वालोंको माननेमें कौन निवारण कर सकता है" इस प्रकार पूर्वपक्ष लिखके उसके उत्तर में धर्म सागर जीने अपनी माया बुसिकी ठगाईसे भोले जीवोंको भरममें गेरनेका कारण किया सो सब अज्ञानता से प्रत्यक्ष मिथ्या और व्यर्थ ही परिश्रम किया है क्योंकि श्रीकालिकाचार्यजीने तो देश कालानुसार राजाके आग्रहसे विशेष लाभ जानकर चतुर्थीका पर्युषणा किया था और श्री जिनवल्लभ सूरिजीने तो कालिकाचार्यजीकी तरह देश कालको देखकर किसीके कहने से गर्भापहारको कल्याणक नहीं ठहराया किन्तु इन महाराजने तो आगमोंके मूल पाठानुसार शास्त्रोक्त रीतिसे गर्भापहार रूप दूसरे व्यवन कल्याणकको आश्विन मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी ( आसोज बदी १३) के दिन आराधन करने का उपदेश दिया था सो गर्भापहार रूप दूसरे च्यवन कल्याणक के मास पक्ष तिथिका वर्णन आचारांग सूत्र कल्पसूत्र तथा इनकी व्याख्यायोंमें और त्रिषष्टशलाका पुरुष चरित्र में आवश्यक व्याख्यायोंमें प्राकृत वीर चरित्रादि अनेक शास्त्रों में कथन किया हैं उसी दिन उसके आराधन सम्बन्धी देव बन्दना दिके लिये कहांसे इन महाराजका कथन आगमानुसार युक्ति युक्त है शास्त्रानुसार बातको कोई प्राणी नहीं जानते होवें तो उनके सामने उन बातका उपदेश देनेमें किसी तरहका हरजा नहीं है इस लिये धर्मसागरजी का ऊपर मुजब पूर्व पक्ष लिखना और उसके उत्तर में अपनी मनो कल्पित कुयुक्तियें लिखना सब व्यर्थ है तथा और भी धर्मसागरजीको धर्म ठगाई की कुयुक्तियोंका विशेष निर्णय इस ग्रंथको पढ़ने वाले विवेकी सत्य ग्राही सज्जन विद्वान्जन स्वयं कर लेवेंगे अब विशेष लिखने की जरूरत नहीं है आगमोक्त छ कल्याणक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६ ] माननेका निषेध करने वालोंकी कुयुक्तियों विकल्पोंकी सब शङ्काओं को निवारण करने में यह ग्रन्थ समर्थ ही है इसलिये तत्वाभिलाषी जन स्वयं समझ लेवेंगे और श्रीजिनवल्लभ वाचना चार्यने चेत्यवासी अपने गुरूकी आज्ञा लेकर श्रीनवगो वृत्ति कारक श्री अभयदेव सूरीजी महाराजके पास में जैनागमोका अध्ययन किया और क्रिया उद्वार उप संपल पुनर्दिक्षा लिया है इस बातका उल्ल ेख इसी ग्रन्थ में पहले होगया है तथा श्रीगणधर सार्द्धशतक बृहदवृत्ति लघु वृत्ति गणधर सार्द्धशतकांतरगत प्रकरण, खरतर गच्छ पहावली और इतिहासिक ग्रन्थ समाचारी शतकादि देख लेना इसलिये भोजिनवल्लभ सूरिजी के क्रिया उद्धार संबन्धी झूठी कल्पना करके वैश्या सतीको निन्दा करें उसी तरह से बड़े पुरुषोंकी निन्दासे धर्मसागरजी को भी संसार भ्रमणका भय रखना उचित था खैर इस बातका विशेष निर्णय धर्मसागरजीके तथा इनके साथ वाले और इनके पिछाड़ीके अनुयाइयोंकी मिथ्यात्व के तिमिरच्छे दम करनेके लिये "हीर धर्मात्मा मिथ्यात्वतिमिरोच्छेदन मास्कर" अपर नाम “प्रवचन परीक्षा निर्णय में लिखा जावेगा ॥ इति ॥ और भी श्रीज्ञान विमल सूरिजीने 'पर्युषण महात्म्य' में छ कल्याणकका निषेध सम्वन्धी लिखा उसका भी प्रसंगवशमे घोड़ा सा निर्णय लिखना उचित समझ कर लिखता हूँ' सो उनका लेख मीचे मुजब है "श्री महाबीर स्वामीने पांच कल्याणक कह्या छे अहीयां कोई एक छ कल्याणक कहे छें ते निःकेवल भ्रान्ति छे अने तेममी मोटी भूल छे केमके धोबीश तीर्थं करना एकशोने बीस कल्याणक शास्त्र मां कह्या छे पण एक शौने एक बीस कल्याणक तो कोई शास्त्र मां देखाता नथि पछीतो श्री गुरु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 969 ] महाराज जागे धणा एकने कल्याणक सम्बन्धी सम्देह छे वे संदेह तो भी केवली भगवान् टालीशके परंतु महारु सामर्थ्य न थी " इस प्रकारका श्रीज्ञान बिमल सूरिजीका लेख देखकर हमको बड़ा अश्चर्य्यं उत्पन्न होता है क्योंकि बहुत लोगोंको कल्याणक संम्बन्धी संदेह है सो वो सम्देह केवल भगवान् निवारण कर सके परन्तु ज्ञान विमल सूरिजीको सामर्थ्य नहीं है शास्त्र में १२१ कल्याणक देखाते नहीं हैं "पछीतो श्रीगुरुजी महाराज जाणे" इन अक्षरोंसे ज्ञान विमल सूरिजी के भी छ कल्याणक संबन्धी संदेह है इसलिये इसका निर्णय गुरुपर गेर दिया आज इस जगह विचार करना चाहिये कि छ कल्याणक सम्बन्धी आप सन्देहमें पड़े हैं और दूसरोंका सन्देह मिटानेकी शक्ति नहीं तो फ़िर कल्याणकोंके मानने वालोंकी निःकेवल भ्रांति और बड़ीभूड कह देना यह गच्छ कदा ग्रहका दृष्टि रागके सिवाय और क्या होगा सो विवेकी तत्वज्ञ जन स्वयं विचार सकते हैं । और शास्त्र में १२१ कल्याणक देखाते नहीं हैं इसपर तो मुझे सिर्फ इतना कहना है कि शास्त्र में पुरुष तीर्थंकर होवे परन्तु स्त्री नही होवे ऐसा लिखा है तिस पर भी इस अवसर्पिणी में कालानुभावसे कर्मानुसार १० में मल्लीनाथ स्त्रीपने में हुए सो मानते हैं तथा तीर्थंकर उत्तम कुलमें अवतरे परन्तु भिक्षारी दलिट्री के कुलमें अवतरे नहीं ऐसा शास्त्रमें लिखा है तिस पर भी वर्तमान चौबीसी में कर्मानुसार २४ वें वीर प्रभु भगवान् ब्राह्मणके कुलमें अवतरे सो मानते हैं और सर्व तीर्थंकर महाराजोंके एक एक माता एक एक पिता होवे परन्तु दो दो माता तथा दो दो पिता न होवे ऐसा शास्त्र में लिखा है तिस पर भी २४ वें भगवान् के दो माता हो पिता दो भव दो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ ] च्यवन हुए सो आचारांग, आवश्यक वृत्ति भगवती समवायांग वीर चरित्र और कल्पसूत्रादि अनेक शास्त्रोंमें लिखा है सो इस बातको सब कोई मानते हैं इसी तरह से १२० कल्याण क लिखे हैं तिसपर भी दो भव दो च्यवन दो वार माताओंने स्वप्न देखे दो माता दो पिता इत्यादि कारणसे वीरके दो व्यवन कल्याणकके हिसाब से १२१ होते हैं सो न्यायानुसार मानने ही पड़ेंगे इस लिये ज्ञान विमल सूरिजी का १२१ कल्याणक तो शास्त्रमें देखते नहीं लिखा यह तर्क व्यर्थ है इस बातको भी निस्पक्षपाती विवेकी तत्वज्ञजन स्वयं विचार सकते हैं । और आगे फिर भी भगवानके पांच कल्याणक दिखानेके लिये उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र देवतानुं शरीर छोड़ी माताने उदर मां अवतरघां १ “उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रे जन्म कल्याणक थयूं २, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र दीक्षा लिधी ३, उत्तरा फाल्गुणी नक्षत्र मां केवल ज्ञान पाम्यां ४, स्वाति नक्षत्रमां मोक्ष पहोच्या ५ इस तरहसे वीर प्रभुका चरित्रको आदिमें कल्पसूत्रकी व्याख्या लिखते हुए पांच दिखाये परन्तु मूलसूत्रमें और उसकी व्याख्या ओंमें तथा आचारांग स्थानांगादि अनेक शास्त्रों में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र मे” गम्भाओ गम्भंसाहरिए इस पाठसेगर्भापहार रूप दूसरा च्यवन खुलासा पूर्वक मासादि तिथि सहित लिखा है इसलिये मूलसूत्र पाठको बातको उठा देना या तस्कर वृत्ति करके गच्छ कदाग्रहसे छुपा देना ज्ञान विमल सूरिजी को उचित नहीं था खैर आत्म हितार्थी पाठकगण से मेरा यही कहना है कि मूल आगमों में श्री वीर प्रभुके चरिप्राधिकारे सर्वत्र छ कल्याणक खुलासा स्पष्ट लिखे हुए हैं इस लिये इस बातको निषेध करनेको कोई भी समर्थ नहीं है ज्यादा क्या लिखूं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७९ ] प्रश्न-अजी आप आगमोक्त प्रमाणोंसे और यक्तियों के अनुसार श्री वीरप्रभुके छ कल्याणक दिखाते हो परन्तु तीर्थ कर महाराजके च्यवन जन्म दीक्षादि पांचों कल्याणकोमें तीन जगतमें उद्योत होता है सब संसारी जीवोंको क्षणमात्र सुखकी प्राप्ति होती हैं तथा इन्द्र महाराज उसी समय नमोत्थुणं से नमस्कार करते हैं और ६४ इन्द्रादि अनेक कोटाकोटी देवता देवी नंदीश्वर नामा आठमैं द्वीपमें जाकर वहां साश्वते मन्दिरों में अठाई उच्छव करते हैं इस लिये उनोंको कल्याणक मानते हैं परन्तु श्री वीर प्रभुके गर्भ हरणमें तो ऊपरको बातें होनेका देखने में नहीं आता तो फिर गर्भ हरणको कल्याणक कैसे माना जावे। उत्तर-भो देवानुप्रिये ! अतीव गंभीरार्थयुक्त नय गर्मित अपेक्षावाले स्यादवाद शैलीके जैनागम शास्त्रोंको विनय पूर्वक गुरु गम्यतासे पढ़ते तथा विवेक बुद्धिसे आगमोंके भावार्थको हृदयमें धारण करते ओर गच्छ के पक्षपात कदाग्रह रहित होते तो वीर प्रभुके गर्भहरण रूप दूसरे च्यवन कल्याणक में नमोत्थुणं वगैरह न होने का कदापि न कहते और गीतार्थ मुगुरु से इस बातका निर्णय किये बिना अपनी कल्पना मुजब मान लेना आत्मार्थियों को उचित नहीं है क्योंकि देखो अनादिकालसे उसीको च्यवन कल्याणक कहते है तीर्थ कर देवलोकसे यष करके माताकी कूक्षिमें उत्पन्न होते हैं उसमें जो जो कर्तव्य बनते हैं सो वे ही सब कर्त्तव्य श्रीवीरप्रभुके गर्भहरण रूप दूसरे च्यवन कल्याणकरें भी होनेका समझना चाहिये जिस पर भी कोई कहेगा, कि गर्भहरण तो एक आश्चर्य रूप हुआ है उस आश्चर्य ने ममोत्थुणं वगैरह होनेका कैसे सम्भव हो सके तो इसके उत्तरने हमको सिर्फ इतना ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 20 ] कहना पड़ता है कि - मिथिलानगरी में कुम्भ राजाकी प्रभावती रानीको कूक्षिमें १९ वें भगवान श्रीमलानाथ स्वामी स्त्रीपने में आकर उत्पन्न हुए सो भी आश्चर्थ रूप हुआ उसमें तो नमोत्थुणं वगैरह आप लोग भी मानते हों तो फिर श्री वीर प्रभुके गर्भ हरण दूसरे च्यवन कल्याणक रूप आश्चर्य में नमोत्थुणं नहीं मानना यह तो प्रत्यक्ष अन्याय आत्मार्थियोंको नहीं करना चाहिये अर्थात श्री मल्लोनाथजी के स्त्रोपने में उत्पन्न होंने रुप आश्चर्यमें जैसे नमोत्थु णं मानते हों बैसे हां श्रीवीर प्रभुके दूसरे च्यवन रूप आश्चर्य में भी नमोत्थूण मानना न्यायानुसार आत्मार्थियों को उचित है । और जब श्री ऋषभादि २३ तीर्थंकर महाराजोंने गणधर पूर्वधरादि पूर्णचार्यों ने आगमादि अनेक शास्त्रों में गर्भापहार' रूप दूसरे च्यवनको कल्याणकपने में गिन कर वीरप्रभुके छ कल्याणकोंको खुलासा व्याख्या करी है उससे ही उसमें नमोत्यु तथा तीन जगतमें उद्योत और संसारी सब जीव को सुखकी प्राप्ति वगैरह तो स्वयं सिद्ध ही है इस लिये इस बातमें शङ्का रखना अपने सभ्य कल्पको मलिनताका कारण है आत्मार्थियों को करना उचित नहीं है । और “जबलु एयंभूयं णभब्बं णभविस्सं जरायां अरिहन्ता वा चक्कवहीवा बलदेवा वा बासुदेवावा अंतकुले सुवा इत्यादि श्री कल्पसूत्र के मूल पाठके और उसको अनेक व्याख्यायोंके अनुसार भगवान् कुलमदके कारणसे ऋषभदत्त ब्राह्मण के घर में देवानन्दा ब्राह्मणिकी कूक्षिमें आकर उत्पन्न हुए उसको आश्चर्य कहा है सो उस आश्चर्यमें आप लोग नमोत्य णं वगैरह होने का मानते हो इसलिये आश्चर्यमें नमुत्थुण वगैरह होनेका कैसे सम्भवे ऐसी शङ्का करना व्यर्थ है कहना ही व्यर्थ है इस बासको विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८०१ ] और जिस समय तीर्थं कर महाराज देवलोक से व्यव करके मनुष्य क्ष ेत्र अपनी माताको कुक्षिमें आकर उत्पन होते हैं उस समय माता १४ स्वप्न देखे और तीन जगतमें उद्योत तथा सब संसारी जीवोंको क्षण भर सुखकी प्राप्ति होती है और उसी समय तीर्थ कर महाराजके अनन्त पुण्यराशी रूपी हलकारेकी ठोकर से सौधर्म देव लोकर्मे इन्द्रका आसन चडाय मान होता है तब अवधि ज्ञानसे भगवानका अवतरना जानकर हर्षयुक्त 915 पैर भगवान् संबंधि दिशा तरफ सामने जाके विधि पूर्वक नमस्कार याने नमोत्थुणं करे और अपने कुबेर भण्डारीको आदेश देकरके देवताओंके द्वारा तीर्थ कर भगवानके माता पिताके राज्यभुवन में स्वर्ण रत्नादि धनधान्य वगैरहको बृद्धि करावे कुछ राज्यको मागहारको वृद्धि वगैरह होवें पुत्रोत्पत्तिका महोत्सव होवे यह सब तीर्थंकरो संबंधी च्यवन कल्याणक का अनादि नियम है परन्तु जब वीर प्रभु भवान्तरका उपार्जीत मीच गोत्रके उदयसे ऋषभदत्त ब्राह्मण की देवानन्दा ब्राह्मणीकी कुक्षिमें आकर उत्पन्न हुए तब इन्द्रका आशन चलायमान नहीं हुआ क्योंकि जब भगवान देवानन्दाकी कुक्षिमें आकर उत्पन हुए तब देवा मन्दाने १४ स्वप्न देखे सो अपने पतिको कहै उसने उत्तम लक्षण वाला पुत्र होनेको कहा उसको सुनकर " ते सुमिणो सम्मं परिच्छई सम्मं पडिछि ता उसमदत्त माइलेणं सद्धि उरालाई माणुस्सगाई' भोग भोगाई भुंज माणा विहरई" कल्पसूत्र के इस मूल पाठानुसार तथा इसकी व्याख्याओं के और ४ वीर चरित्रोंके अनुसार ऋषभदत्त ब्राह्मणके मुखसे स्वप्नोंका अर्थ सुनकर ऋषभदत्त ब्राह्मण के साथ मनुष्य सम्बन्धी उत्तम प्रकारके संसारी भोग भोगती हुई विचरने लगी, ऐसा उपरोक्त सूत्र पाठ वगैरह १०१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८०२] शास्त्र प्रमाणोंसे सिद्ध होता है परन्तु जब भगवान देवानन्दाके गर्भ में आकर उत्पन हुए उस समय इन्द्रका आशन चलायमान हुआ और इन्द्रने उसी समय नमस्कार याने नमोत्युणं किया ऐसा तो किसी शास्त्र में देखने में आता नहीं है परन्तु “महापुरुष चरित्र" जोकि प्राचीन पूर्वधराचार्यों के समय श्रीमान देव मूरिजी के शिष्य श्रीशीलायग्यि (शीलाचार्य) जी कृत प्राकृत में है उसमें २४ तीर्थ कर १२ चक्रवर्ती वगैरह उत्तम पुरुषों के चरित्र हैं उसमें श्रीवीरप्रभु के चरित्रमें कलिकाल और इतिहास सर्वज्ञ विरुद धारक मोहेमचंद्राचार्यजी कृत "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र"के दशपर्वमें वीर चरित्राधिकार दूसरे सर्गमें वीर प्रभु भगवान ८२ दिन तक देवा नन्दाके गर्भ में रहे ८२ दिन व्यतीत हुए बाद इन्द्र महाराजका आशन चलायमान हुआ तब इन्द्रने भगवानको अवधि ज्ञानसे देखा और नमस्कार याने नमोत्थुण किया ऐसा खुलासा कथन किया है जिसका पाठ पाठक वर्गको विशेष निःसन्देह होनेके लिये नीचे दिखाता हूं सो प्रथम-श्री प्राचीन पूर्वधराचार्यों के समय श्री मानदेव सूरिजी के शिष्य श्रीशीलाचार्य जी कृत "महा पुरुष चरित्र" में वीर चरित्राधिकारे लथाहि अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे माहण कुंडग्गामा णाम गामो तत्थ कोडालसगोत्तो बंभणो तस्स देवाणंदा भारिया तीए सह जहा मुह वसंतस्स गच्छति दियहाइमोयतमओ पुप्फुत्तर विमाणाओ आसाढ सुद्ध छट्ठीए हत्युत्तराहिं चाऊण अणेय भवाई य मरीइ जीवमुरवरो अहोत्तमं महाकुलंतिदुरुत्तवायावइयं आवज्जियकम्म किंचावसेसत्तणामो समुप्परणेत्ती एवं भणीए उदरमि दिवा यणाए सुहपमुत्ताए त्तोऐचेव रयणीए पहाय समम्मिंगय वसहाइणो चोद्दसमहा सुमिणा पुणो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८०३ ] पडिमियत्तमाणा दगुण ससम्झसा वि उट्ठा साहियं. इन्दयस्स सो वि हु अंगणाइत्तणं ठिओ तुरिहको एवं च पवड्ढमामग गएसु बासीदिराइरासुताव चलियासणी हि पओएण सुराहिवइणो मुणिओ भयवओ गभ संभवो चिति च तपयो एवंविहा महागुहावा ण तुच्छकुलेसु जायन्ति चिंतिऊण अबहरिउ बंभणीओ गब्भाओ भयवं पक्खित्तो इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे उत्तुंग धवलपायारसिहरोवसोहिए तीए णगराहिहाणे पुरवरे जहिंच मलिणत्तणं महाणसधूमेसु ण सञ्चरी मुहराओ भवणकलहसेसु चंचलत्तणं कयलीदलेसु ण माणेसु चक्खुराओ परहुआसु णयरकलत्तेसु घणफंसो वेणुयासुण परमहिलासु पक्खवाओ तं च चुलेसु णिववासु मुहभंगो जराए ण धणा हिमाणेण जणस्सत्ति तत्थ दिन यरोब्ब पठममाणोदओ सुरकरिव्य अणवरयपयत्तदाणोल्लिय करोणियपयावावज्जिय णमंत सामंत मठलिमालच्चियचलणजुयलो इक्खायवंसपरुवोरायानामेण सिद्धत्यो त्ति जायआमओ गुणगा कुलभव कलाविसेसागा आसओ सब्बसत्यां उत्पत्ती सच्चरिया तस्स सब्बहरस्सेव रोहणी सयलंतेतरप्पहाया तिसलादेवी गान पाहणी अञ्च तदइयराराओ य जेमुजेसुजायकीलाविसेसु वञ्चर णराहिवोतहिं तंपीगोइत्ति अण्णाया य गामा गुग्गामं गच्छमाणो कीलानिमित्तमागओ भुतिपरिद्वियं कुडपुरवरं नाम नयरं जहाविहोवयारेण पविट्टोयियमंदिरं आगओ सयन्नोवि पुरजावओ दंसणा त्थं समातिय विसज्जियम्मि पठरलौए विसिद्धवियोग अइवाहिऊया दिवासेसं पसुतो वासभवाम्मि निवरणातयं तिए देवी समागया सुहेण निद्दा तओ पहायाए रयणीए चउद्द समहा सुविणाणुकूलवाभसंहओ समुत्पन्नो आसीयतेरसीए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०४] इत्युत्तराहि तिसिलादेवीएगठमम्मि पहायसमयम्मि परिबुद्धाए य साहिलो राइणो सिविणवश्यए तेषावि भणियं मुन्दरी सयलतेलोबलरकणसं भभूमो पुतो ते भविस्सहति ॥ बहुमचियं च तौए हमीएपहरिपसंततधुया गया णिययावासं एवं चपस्स इदि. संपज्जतस विसेननुहपरिभोयाए वढिठमाढलो । गम्भोकेरिसा यदेवी दोसि पयत्ता साहाणमा-या वहिपसरपडिम्फुजियदोउपन्भारो घषपडलंचद्विदिषयरोय परिहार दिणडली बहिषयरं परिठमडलायणा मडपसाहियावयवा आसरणोदयससि बिंबभूसिया उदयदभित्ति ठव पतप्पाइण वरिय विसायमा. वपणाए चिंतियं जणणीए गृणमेसो सहमंदभायाए उदरामो यणावि अवहरिओ अहवा विठीणो अपणा वह मणयं पिणपंदाण य परिबुढिं यावेइता जणणीमन्द भारतण ओम मविवत्तीसमुष्पाता अवस्स महमपणापाणेण धारमिति एत्पावसरम्मि य मुणिय चिंतियत्येग भयवया करुणापभारतण ओ चालिमो एकोणिययसरीरावयवोतभोघरह समामत्थोपित्तण भयवई ताव य चिंतियं मयवया अहो एरिसो वएपाणिधम्मोजेण पेच्छ एक्क मुहुत तरस्मि के यहरिसविसायाणपयरिसो ता अवस्संमए जीवमागाणं पि इमाई या माणाखंत्रणं ण कायव्वं वि सचित्तविरत्तचित्तणावि गिहेवासे चेयचिद्ध अव्वं दियलोयगएमु जगणिजणए निययाणद्वाणं कायव्वं ति एवंच संकप्पिए भयवया जहा अहेणंसमागमओ पसूसम ओ तो वासवदि सव्वससिमंडवं समुज्जोय सयल जियलोयं चेरास्स अघत्तेरसीए इत्युत्तराय पसूया भयवई जिणवरं ति गवरिय चलियासणतिय सणाहप मुहं सुरासुरगणेहि चलियं-इत्यादि इसके आगे जन्मोत्सवादि का वर्णन है दूसरा और भी कलि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८०५ काल सर्व विरुद धारक मीमान् हेमचन्द्राचार्यजी कृत "त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र' के दशवे पर्वमें पीवीर चरित्राधिकार दूसरे सर्गका पाठ नीचे मुजब है यथा इतश्च जम्बूद्वीपेस्मिन् क्षेत्रस्ति भरताभिधे । ब्राह्मणकुण्ड प्रामाख्य संनिवेशो द्विजात्मनाम् ॥१॥ तत्र वर्षभदत्तोऽभूत कौरालसकुलो द्विजः। देवानन्दा च तद्भार्या, जालन्धरकुलोदवा ॥ २ ॥ ज्युत्वा च नन्दनो हस्तोत्तरक्षस्थे निशाकरे। भाषाढस्य श्वेतषष्ठयां तस्याकुक्षा ववातरत् ॥३॥ देवानन्दा पुरस्वता महाखमा चतुर्हसा ददर्श प्रातराख्यच्च पत्येसोपि व्यचारयत् ॥४॥ चतुर्णा छंदसां पारदूश्वा परमनैष्ठिकः । सूनुभंवत्यविता स्वरेभिन संशयः ॥ ५॥ देवानन्दा गर्भगते प्रभी. तस्य द्विजन्मनः। बभूव मावी ऋडिः पल्पद्म इवागते॥६॥ तस्थागर्भस्पिते नाथे द्वयशीतिदिवसात्यये। सौधर्मकल्पाधिपतेः सिंहासनमकंपत ॥७॥ जात्वा चावधिना देवानन्दागर्मगत प्रभुम् । सिंहासनात्समुत्थाय एको नस्वेत्यचिन्तयत् ॥ ८॥ त्रिज. द्वगुरवोग्हन्तो नोत्पद्यन्ते कदाचन । तुच्छकुले रोरकुले भिक्षा तिकुलेऽपिवा ॥९॥ इक्ष्वाकुवंश प्रभृतिक्षत्र वंशेषु किं त्वमी। जायन्ते पुरुषसिंहा मुक्ता शुक्स्यादिग्विव ॥१०॥ तदसंगतमा पर्व जम्म नीचकुले प्रभो।प्राज्यं कर्मान्यथा कतुं यद्वाईन्तोऽपि नेशते ॥ १९ ॥ मरीचिजन्मनि कुलमदं माथेन कुर्वता। अर्जितं मीचकैर्गोत्र कर्माद्यापि झुपस्थितम् ॥ १२॥ कर्मवशाबीचकुले घूरपनामहंतोन्यतः। क्षप्त महाकुलेस्माकमधिकारोस्ति सर्वदा ॥ १३॥ कोरधुनास्ति महावंश्योराजा राजीच मारते। यत्र संचायते स्वामी कुन्दादंग इवाम्बुजे ॥१४॥ज्ञातमस्तीह भरते मही मण्डल मण्डनम्। सत्रियकुंडग्रामालयंपुरमरपुरसो-' दरम् ॥ १५॥ स्थानं विविध चैत्यानां धर्मस्यैकं निबम्धनम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०९] अन्यायैरपरिस्पष्टं पवित्र तच्च साधुभिः ॥१६॥ मृगया मद्यपानादि व्यसनास्पृष्टनागरम्। तदेव भरत क्षेत्र पावन तीर्थवद्धवः ॥ १७॥ तत्रैवाको ज्ञातवंश्यः सिद्धार्थोस्ति महीपतिः। धर्मेणैव हि सिद्धार्थ सदात्मानमर्मस्त यः ॥१८॥ जीवाणीवादितत्वज्ञो न्यायव+महाध्वगः। प्रजाः पथि स्थापयिता हितकामी पितेव सः ॥१९॥ दीनानाथादि लोकानां समुहरण वांधवः । शरण्यः शरणेच्छूनां स क्षत्रियशिरोमणिः ॥२०॥ तस्यास्ति त्रिशला नाम सतीजनमलिका। पुस्य भूरग्रमहिषी महनीय गुणाकृतिः ॥ २१ ॥ निसर्गतो निर्मलया तत्तद्गुणतरङ्गया । तया पवियते धात्री मन्दाकिन्येव संप्रति ॥ २२ ॥ मायया स्त्री जन्म सहचारिण्याप्य कलंकिता। सा निसर्गऋजुर्देवी सुगृहीताभिधामुवि ॥ २३ ॥ सा चास्तिसांप्रतं गुर्वाकार्यः संचारणाद् द्रुतम् । तस्यादेवानन्दायाश्चगर्भयोर्व्यत्ययो मया ॥२४॥ विमृश्य वंशतमखः समाहूय झटित्यपि। आदिदेश तथा कर्तुं सेनान्यं नेगमेषिणम् ॥ २५ ॥ विदधे नैगमेषी च तथैव स्वामिशासनम्। देवानन्दा त्रिशलयोर्गर्भव्यत्ययलक्षणाम् ॥२६॥ देवानन्दाब्राहामी सा शयिता पूर्ववीक्षितान्। मुखानिः सरतोन्द्रामीन्महास्वप्नांश्चतुर्दश ॥ २७।। उत्थाय वक्ष आनाना निः स्थामा ज्वरजर्जरा । केनापि जल मे गर्भ इति चुक्रोश सा चिरम् ॥२८॥ कृष्णाखिन त्रयोदश्यां चन्द्र हस्तोत्तरास्थिते । सदेव स्त्रिशलागर्भ स्वामिनं निभृतं न्यधात् ॥२९॥ गजो एषो हरिः साभिषेक मीः स्रक शशी रविः । महाध्वजः पूर्णकुम्भः पद्मसर सरित्पतिः॥३०॥ विमानं रत्नपुखश्च नि मोनिरितिक्रमात् । दर्दश स्वामिनी स्वप्नान्मुखे प्रविशतस्तदा ॥ ३१ ॥ इन्द्रः पत्याच तजश्च तीयकृज्जन्मलक्षणे। उदीरिते स्वप्नफले त्रिशला देव्यमोदत ॥३२॥ दधार त्रिशालादेवी मुदितागर्भ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८८७ ] मद्भ ुतम् । अप्रमत्तं विहरन्ती टोला सदम भूष्वपि ॥ ३३ ॥ गर्भस्थेऽथ प्रभो शक्राज्ञया 'भकनाकिनः भूयो भूयो निधानानि न्यधुः सिद्धार्थवेस्मनि ॥ ३४ ॥ सवं ज्ञातकुलं भूरि धनधान्यादि ऋद्धिभिः गर्भावतीर्ण भगवत्प्रभाबाद्वबुधेत राम्! ॥ ३५ ॥ सिद्धार्थं स्यापिनृपतेर्दर्पादिणताः पुरा । प्रणेमुभभुजोऽभ्येत्य स्वयं प्राभृत पाणयः ॥ ३६ ॥ मयिपस्पन्दमा नेत्र मातुर्मा वेदना स्मभूत । इत्यस्थान्निभूतः स्वामी गर्भवासेऽपि योगिवत् ३७ ॥ स्वामी संकृत सर्वाङ्ग व्यापारो स्थात्तथोदरे । नालक्ष्यत यथामात्राप्यन्त स्तिष्ठति वान वा ॥ ३८ ॥ तदाच त्रिशला दध्यौ किं गर्भो गलितोमम । केनाप्यहृतः किंवा विनष्ट स्तंभितोऽथवा ॥ ३९ ॥ यद्येतदपि सज्जातं तदलं जीवितेनमे । सह्य ं हि मृत्युजं दुःखं गर्भ भ्रंशभवंतु ॥ ४० ॥ इत्यार्त्तध्यान भाग्देवी रुदती लुलितालका । त्यक्ताङगरागा हस्ताव्जविन्यस्तमुखपंकजा ॥ ४१ ॥ त्यक्ता भरण संभारा निःश्वास विधुराधरा । सखीष्वपि हि तूsणीका माशीत वुभुजेन च ॥ ४२ ॥ तत्तु विज्ञाय सिद्धार्थमहीपतिरखिद्यत । तत्पुत्र भाडे च नन्दिवर्धनोऽथ सुदर्शना ॥ ४३ ॥ पित्रोर्विज्ञाय तद्दुःखं ज्ञानत्रयधरः प्रभुः । अङ्गुलिं चालयामास गर्भ ज्ञाफ्नहेतवे ॥ ४४ ॥ मद्गर्भोऽक्षतएवेति ज्ञात्वा स्वामिन्य मोदत । अमोदयच्च सिद्धार्थं गर्भ स्पन्दन शंसनात् ॥ ४५ ॥ अचिंतयच्च भगवान्मय्यदृष्टऽपिको प्यहो । मातापित्रोर्महान् स्नेहो जीवतोरनयोर्यदि ॥ ४६ ॥ प्रब्रजिष्याम्यह स्नेहमोहादे तौ तदाघ्र वम् । आर्शध्यान गतौ कर्माशुभ वहवर्जयिष्यत युग्मं ॥ ४७ ॥ अर्थ व सप्तमे मासि जग्राहा भिग्रहं प्रभुः । उपादास्ये परिव्रज्यां न पित्रोर्जीवतोरहम् ॥ ४८ ॥ अथ दिक्षु प्रसनासु स्वोच्चस्थेषु ग्रहेषुच । प्रदक्षिणेऽनुकूले च भूमि सर्पिणि मारुते ॥ ४९ ॥ प्रमोद पूर्णे जगति शकुनेषु जयिन्वलम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०९] मर्धाष्टमदिनाग्रेषु मासेषु नवसूच्चकैः ॥ ५०॥ शुक्लचैत्रत्रयोदश्यां चन्द्रहस्तोतरागते। सिंहाङ्क काचमरुचिं स्वामिनी सुषुबे सतं ॥५१॥ ॥ विभिविशेषकम बट्पञ्चायष्टिक मार्योग्भ्येत्य भोग करादयः । स्वामिनः स्वामि मातुश्च सूसकर्माणि चकिरे ॥५२॥ शक्रोप्यासनकंपेन तत्कालं सपरिच्छदः । विज्ञाय स्वामिनो जन्म सूतिका गृहमाययौ ॥ ५३॥ महंत महदम्बा च दूरतोपि प्रणम्य सः। उपसृत्यागतो देवा श्वावस्वापनिका ददौ ॥ ५४॥ देव्याःपाखेंच भगवत्प्रतिरूपं निधायसः। विचक पंचधारमान मतप्तो भक्तिकर्मणि ॥ ५५॥ एकः शक्रः स्वपाणिभ्यां भगवन्तमुपाददे। उपरि स्वामिनश्छ। द्वितीयोकस्त्व धारयत्॥ ५६ ॥ इत्यादि इसके आगे जन्म उत्सवादिका वर्णन है। देखिये अपरके दोनों पाठो में भगवान् जब देवानन्दाके गर्भन माकर उत्पन्न हुए तब देवानन्दाने १४ महा स्वप्न देखे सो अपने पतिको कहे पतिने उत्तम पुत्र प्राप्तिको कहा देवामन्दाके गर्भमें रहते हुए भगवानको ८२ दिन व्यतित हुए बाद इन्द्रका मासन चलायमान हुमा जब इन्द्रने अवधि जामसे भगवानको देखा तब हर्ष सहित सिंहासनसे उठकर विधिपूर्वक नमस्कार याने नमोत्थुगां किया और मीच गौत्रके उदयसे ब्राह्मण कुल आये इसलिये सिद्धार्थ राजाको त्रिशला रानीकी कुक्षि हरगमेवीदेवताको कहकर स्थापित कराये उस समय भासोबदौ १३ हस्तोतरा नक्षत्र में त्रिशला माताने १४ महा सन देखे पिहार्य राजाको को राजाने महान् गुणवान उत्तम उक्षण युक पुत्र होनेका कहा और मारु देवामाता गर्भ मादिनाप आकर उत्पन्न हुए थे तब मारु देवामाताने १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2 ] स्वान देखे उसका फल सासरन्द्रने भाकर तीर्थंकर पुत्र होने कहा था वैसे हो त्रिशला माताको भी तीर्थकर पुत्र होनेको इन्द्रने आकर कहा है और १४ स्वपनका फल इन्द्र की आशानुमार देवताओंने सिद्धार्थ राजाके राज्य भुवन भण्डारादिने निधानादिकों को स्थापन किये हैं। यह सब बातें मी हेमचन्द्राचार्यजीने खुलासा लिख दिया है। सो अपरके पाठ प्रत्यक्ष दिख रहा है और भी हरिभद्रसूरिजी कृत आवश्यक सहद् यत्ति २२ हजारी टीका भी भगवान्को देवानन्दाके गर्भमें ८२ दिन व्यतीत हुए बाद इन्द्रने जाना विचारा और उत्तम कुल में स्थापन करवाये खुलासा लिखा है और कल्पसूत्रके मूल पाठमें तथा कल्प सूत्रकी सब व्याख्याओंमें भी इन्द्रने भगवान्को देवानन्दाके गर्भ में देख सिंहासनसे उठ नमोत्थुणं रुप नमस्कार किया और पूर्व दिशाके सिंहासन पर बैठकर भगवान् के पूर्व भवोंका स्वरूप विचारकर देवनन्दा गर्भ में भगवान् के उत्पन्न होनेको आश्चर्य रूप समझ कर उत्तम कुलमें हरिणेगमेषी द्वारा उत्तम कुलमें पधराये और सिद्धार्थ राजाके घरमें देवता ओंको आज्ञा करके स्वर्ण रत्नादि निधानोंको स्थापन करवाये खुलासा लिखा है परन्तु नमोत्थुणं करनेके बाद कल्पांतर में उत्तमफुलमें भगवानको पधराये ऐसा नहीं लिखा है और जब भगवान् देवानन्दाके गर्भ में आये उसी समय इन्द्रका आसन चला यमान होनेसे इन्द्रने अवधिो देखके नमोत्युण किया ऐसा भी नहीं लिखा है। और उपरोक्त पाठोंमें ८२ दिन व्यतीत हुए बाद आशन चलायमान हुभा अवधिसे भगवान्को देख नमस्कार याने नमुत्युण किया खुलासा लिखा है इसलिये कल्प सूत्रका नमोत्थुणं संबंधी पाठ मी ८२ दिन बाद समझना चाहिये क्योंकि देवानन्दा अपने पतीके पाससे १४ स्वप्न देखनेसे उत्तम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८१० ] पुत्रकी प्राप्ति होनेका फल सुनकर मनुष्य संबंधी ऋषभ दत्त ब्राह्मणके साथ उत्तम प्रकार के भोग भोगवती हुई विचरने लगी ऐसा कथन करम सूत्रमें करने के बाद पीछे इन्द्रने नमोत्थु करके सिंहाशन पर बैठकर नीच गौत्रका विचार करके उत्तम कुल में पधराये यह बात नमोत्थुरा की और उत्तम कुलमें पथराने की एक ही साथ एक समय में लिखी है और ऊपर के पाठों में ८२ दिन गये का खुलासा लिखा है इसलिये कल्प सूत्रका नमोत्थुण संबंधी पाठ ८२ दिन गये बाद गर्भहरण समयका प्रत्यक्षपने सिद्ध होता है इसको विशेष विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं देवेन्द्र अनन्त शक्ति वाला होता है ममोत्थुर्ण करके सिंहासन पर बैठकर नीच गौत्रका बिचारके उत्तम कुलने पधरानेकी आज्ञा करने में कुछ भी देरी नहीं लग सकती इससे ८२ दिन इंद्र को विचार करते चले गये ऐसा नहीं समझना किन्तु ८२ दिन गये बाद गर्भहरणके दिन नमोत्थुणं किया ऐसा समझना चाहिये, - और त्रिशला माताने १४ स्वप्न मैने देवानन्दा के लेलिये हरण कर लिये ऐसा स्वप्न नहीं देखा किन्तु १४ स्वप्न आकाशसे उतरते अपने मुखमें प्रवेश करते देखे हैं इसलिये त्रिशला के गर्भ में भगवान् के आने से च्यवन कल्याणक मानने में किसी तरह की बाधा नहीं हो सकती और २४ वें तीर्थ कर उत्पन्न होनेका उस दिनसे प्रगट हुआ पुत्रोत्पत्तिका महोत्सव हुआ इत्यादि कारणोंसे तथा इस ग्र धर्मे लिखे हुए शास्त्र पाठों से और युक्ति प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे ८२ दिन गये बाद इन्द्रका आसन चलायमान होनेसे अवधि ज्ञानसे भगवानको देखके सिंहासन से उठकर नमस्कार याने ममोत्थुणं किया और आकर त्रिशला माताको १४ स्वप्नोंका फल तोर्थंकर पुत्र होने का कहा देवताओं द्वारा स्वर्ण रत्नादि निधान धन धान्यादिकी बृद्धि करो इस लिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] आश्विन वदी १३ को (गुजराती भाद्रव वदी १३ को ) वीर प्रभु त्रिशलाकी कुक्षिमें पधारे उसमें तीर्थंकर के च्यवन कल्याणक संबन्धी सब कर्त्तव्य प्रगटपने सिद्ध है इस बातको निष्पक्षपाती विवेकी आत्मार्थी सज्जन पाठकगण स्वयं विचार सकते हैं । और इस अवसर्पिणीनें कालानुभावसे भगवान् देवानन्दा ब्राह्मणीकी कुक्षिमें आये उसको कल्पसूत्र के मूल पाठ आश्चर्य कहा है और दश आश्चर्यो का वर्णनमें भी "गमहरण" याने देवानन्दा के गर्भ से भगवान्‌का हरण हुआ उसको आश्चर्य कहा है इसलिये कारणसे तो ब्राह्मण कुलमें भगवान् आये सो आश्चर्य माना तथा कार्यसे ब्राह्मण कुलमेंसे अपहरण हुआ उसको आश्चर्य माना है और आश्चर्यका प्रतिकार करने के लिये ही इन्द्र महाराजने उत्तम कुडमें भगवान्‌को पधराया हैं इस लिये भगवान्के उत्तम कुलमें आनेको श्री समवायांगजी सूत्र और लोक प्रकाशमें अलग भव गिना है इस लिये भगवान् त्रिशला के गर्भ में आये सो व्यवन कल्याणक सिद्ध हो चुका तो फिर उसमें उसके कर्त्तव्य माने जावे इसमें तो किसी तरह की शङ्का भी नहीं हो सकती । और जब भगवान् ब्राह्मण कुलमें आये उसको आश्चर्य मानते हो तथा उस आश्चर्य में ध्यवन कल्याणक. सब कर्त्तव्य मानते हो तो फिर आश्चर्यका प्रतिकारमें दूसरे च्यवन कल्याणकत्वपने के शास्त्रोंके और युक्तियों के प्रमाण मौजूद होने पर भी उसको दूसरा च्यवन कल्याणकपना और उसके सब कर्त्तव्य नहीं मानना यह तो गच्छ कदाग्रहको अज्ञानता या अभिनिवेशिक के सिवाय और क्या होगा सो तत्वच जन स्वयं विचार सकते हैं । और तीर्थंकर का जन्म जिस माता के उदरसे होवे उस माता . के गर्भ में तीर्थंकरके आनेको व्यवन कल्याणक कहते हैं यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१२] अनादि नियम है इसके अनुसार भी जब भगवानको त्रिशला माताके पुत्र कहते हो तो त्रिशला माताके गर्भ में आनेको च्यवन कल्याणक कहना और उसके कर्तव्य उस समय में मानने सो तो न्यायानुसार प्रत्यक्षपने सङ्गतिको प्राप्त होता है इसपर भी नहीं माननेवालोंको स्थानांग आधीरांग समचार्यागादि उपरोक्त शास्त्र पाठोंके उत्थापनका दूषण लगता है इसको भी पाठक गण स्वयं विचार लेवेगे। और जब समवायांगादि भगवानके देवलोकसे देवानन्दा के गर्भन मानेको पहिला च्यवन तथा देवानन्दाके गर्भ से निकलने रूप प्रथम जन्म मान कर त्रिशलाके गर्भ में जाने रूप दूसरा च्यवन और त्रिशलाके गर्भ से निकलने रूप दूसरा जन्म खुलासा शास्त्रों में लिखा है उससे दो भव दो माता दो च्यवन स्वयं सिद्ध है और शास्त्रकार महाराज जिस बातका वर्णन पहिले १ जगह कर देखें उसी बातका वर्णन आगे दूसरी वार पुनरुक्ति के कारणसे नहीं करते हैं और जिस बातका वर्णन आगे करनेका होवे उस बातका वर्णन पहिले मी पुनरुक्तिके कारणसे नहीं करते हैं और वीर प्रभुके तो दो च्यवन होने से दोनों माताओंने अलग अलग १४ महा स्वप्न दो बार देखा है इस लिये दो वार १४ महा स्वप्नोंका वर्णन करना चाहिये और दो वार वर्णन करें तो पुनरुक्ति आवे तथा विस्तार भी ज्यादा विशेष हो जावे इस लिये पहिले च्यवनमें देवानन्दा सम्बन्धी १४ स्थानोंका नाम मात्र ही बतलाया और दूसरे च्यव. म त्रिशला माता सम्बन्धी १४ स्वप्नोंका अच्छी तरहसे सूत्र कारने और उसकी व्याख्याकारोंने विस्तारसे वर्णन किया है और संग्रहणीमें तीर्थकरके च्यवन जन्मादि कल्याणकोंमें देवताओंका आगमन लिखा है सो भी वीर प्रभुके पहिले च्यवनमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] देवताओंभागमन सम्बन्धी लेख शास्त्रों में देखने नहीं पाता और दूसरा च्यवन तो खास इन्द्रने भाकर १४ महा स्वप्नोंका फल तीर्थ कर पुत्र होनेका कहा और देवताओंको आज्ञा करके सिद्धार्थ राजाके वहां धन धान्यादिफी सद्धि करवाया है इसी प्रकार पहिले च्यवनसे भी विशेष कार्य दूसरे च्यवन में होनेका शास्त्र प्रमाणों द्वारा प्रत्यक्षपने देखने आतापस लिये पहिले च्यवनसे भी दूसरा च्यवन विशेष अधिक माननीय ठहरता है तो फिर उसको माननेका निषेध करना या उसने व्यवनके कर्तव्य होनेको शङ्का करना सो सर्वथा अनुचित है क्योंकि दूसरे च्यवनमें भी च्यवन सम्बन्धी सब कर्तव्य हुए हैं सो तो ऊपरके लेखसे विवेकी पाठक जन स्वयं विचार लेवेगे और पाशवनाथजी नेमिनाथजी और आदीश्वर भगवान् के च्यवन सम्बन्धी कार्यों को त्रिशला माताकी तरह जान लेनेकी कल्प सूत्रको तप गच्छादि सब गच्छोंके व्याख्या कारोंने भलामण सूचना करी है परन्तु देवानन्दाकी नहीं करी इसलिये यदि त्रिशलाके गर्भन भगवान्के मानेको च्यवनके कर्तव्य न मानोगे तो पार्श्वनाथ नेमिनाथ आदीश्वरके च्यवन कर्तव्यमें नमोत्थणं वगैरह नहीं माननेकी भापत्ति आवेगी इस लिये त्रिशलाके गर्भ में आने सम्बन्धी च्यवनके नमोत्थुणं वगैरह कर्तव्य मानने ही न्यायानुसार उचित है और त्रिशलाको भगवानकी जन्म माता कहने पर भी त्रिशलाके गर्भ में आनेका च्यवनको नहीं मानने वालोंको त्रिशलासे जन्म भी नहीं मानना चाहिये क्योंकि च्यवनडे बिना जन्म नहीं हो सकता यह जगत प्रसिद्ध सर्वमान्य प्रत्यक्ष बात है और देवानन्दाके च्यवन मान कर त्रिशलाके नहीं माने तो नहीं बन सकता क्यों कि इन्द्रकी मानासे हरिणेगमेषी देवताने देवानन्दाकी कुक्षिसे लेकर विश. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४ डाकी कुक्षि पघराये हैं यह बात कल्प सूत्र में सपा उनकी र व्याख्याओं और आवश्यक नियुक्ति भाष्य चूर्णि लघु रत्ति बहरत्ति विशेषावश्यक वृत्ति त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र प्राकृत वीर चरित्र वगैरह अनेक शास्त्रों में खुलासा पूर्वक लिखा है सो सत्र पाठ यहां पर लिखनेसे बहुत विस्तार हो जावे इस लिये सिर्फ कल्प सूत्रका मूल पाठ दिखाता हूं तथा हि जेणेव जम्बूदीवे दीवे, जेणेव भारहेवासे, जेणेव माहणकुछग्गामे नयरे जेणेव उसमदत्तस्स गिहे, जेणेव देवाण दा माहणी, तेणेव उवागच्छइ, उवागविता आलोए समणस्स भगवओ महावीरस्स पणामं करेइ, देवाणदाए माहणीए सपरि जणाए मोसोवणि दल, ओसोवणि दलिता अमुभे पुग्गले अवहरइ सुमे पुग्गले परिकवड (२) ता, "अजाणउमे भयवं” तिकटु समण भगवं महावीरं अवाबाई अवाबाहेणं दिवण पहावेण करयल संपुडण गिगहहसमणं भयवं महावीरं (२) त्ता जेणेव खत्तिकएग्गामे नयरे जेणेव सिद्धत्थस्स खत्तियस्स गिहे जेणे व तिशला खत्तियाणी, तेणेव उबागच्या, तेणेव उवागच्छिता तिशलाए सत्तियाणीए सपरि जणाए मोसोअणि दखइ, मोसोमणि दलित्ता, अशुभे पुग्गले अवारक असुभे, त्ता मुभे पुग्गले पक्खि वेश, सुमत्ता समण भगवं महापौर अवाबाह अवाबाहेक तिसलाए खत्तियाणीए गठन तंपिअण देवाण'दाए माहणीए जालन्धरसगुत्ताए कुच्छिसि गब्भत्ताए साहरा, साहरिता जामेक दिसिं पाउम्भूए तामेव दिसिं पहिगए, उक्किठाए तुरिआए चवलाए चण्डाए जवणाए उद्धआए सिग्घाए दिवाए देवगईए तिरसमसंखिज्जाण दीवसमुहाण मझ मझेण जोअणसास्सिएहि विगहेहि उपयमावे (२), जेणामेव सोहम्मे कप्पे सोहम्म वडिसए विमासे सक्कंसि सीहास सि सक्के देविंदे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८१५ ] तेनामेव उवागच्छ, ( २ ) ता सक्केहस देविंदस्स देवरन्त्रो एम मानसिअं खिप्पामेव पञ्चविपण । तेण कालेन तेणं समएण समणे भगवं महावीरे तित्राणोवगए आवि हुत्था साहरिज्जिस्सामिति जाणइ, संहरियमाणे न जाण, साहरियमिति जाणइ ॥ तेण कालेन तेण समएणं समय भगवं महावीरे जैसे वासाणं तच्च मासे पचमेपकले आसोअबहुले, तहसणं मासोअवहुलस्त तेरसी पक्खेण वासीइ राईदिएहि विइक्कंतेहि' तेसी इमस्स राइदि त्रस्त अंतरा वहमाणे हि आणुकंप एण' देवेण हरिण गमेसिणा सक्कवयण संदिट्ठ ेण माहण कुडग्गामाओ मयराओ उसभदत्तस्स माहणस्त कोडालस गुतस्त भारियाए देवाण दाए माहणोए जालंधर सगुत्ताए कुच्छीओ खत्तियकुं डग्गामे मयरे मायाणं खत्तिमाणं सिद्धत्थस्स खशिअस्स कासवगुत्तस्स भारियाए तिसलाए खत्तिआणीए वासिसगुत्ताए पुवरता वरत्त काल समयंसि हत्युत्तराहि मरकोण जोगमुवागणं अव्वाबाहं अव्वाबाहेणं कुच्छिंसि गम्भत्ताए साहरिए । देखिये ऊपर के पाठ में देवताने ८२ दिन व्यतीत भये बाद ८३ वा दिनको रात्रि देवानन्दा के गर्भ से भगवान्को लेकर त्रिशला माताको गर्भ में आश्विन कृष्ण १३ को हस्तोत्तरा नक्षनमें पथराये सो भगवान् भो तीन ज्ञानसे मेरेको देवानन्दाके गर्भ से देवता हरण करेगा ऐसा जानते थे परन्तु देवता की दीव्य शक्तिको शीघ्रता से हरण करती समय नहीं जाना बाद मालूम पड़ा कि मेरा हरण हो गया परन्तु प्रोआचाराङ्गजी में तो वोर चरित्राधिकारे देवताकी देव शक्तिकी शीघ्रता होने पर भी उसमें असंख्याते समय चले जाते हैं इस लिये हरण करनेके समय भी भगवान् जानते थे ऐसा खुलासा लिखा है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१६] और ८२ दिन पर्यन्त ममवानके मीच यौत्र कर्मका उदय वा सो क्षय करना पड़ा तथा ८२ दिन मधे बाद उच्च मौत्रका उदय हुआ इस लिये देवानन्दा गर्भ से निकलना हुआ और त्रिशला के गर्भ जाना हुमा बीध अन्तर मुहुर्त असंख्याते समय व्यतीत हुए इस लिये श्रीसमवायांग सूत्र वृत्ति अलन भव गिना है जिसका पाठ इसी अन्य पृष्ठ ५२० में छप चुका है और इसी कारणसे त्रिशलाके गर्भ में आनेको च्यवन मान कर कल्याणकत्वपनमें आधारांग स्थानांगादि भागमोंमें तथा उनकी व्याख्या वगैर अनेक शास्त्रों में खुलासा पूर्वक लिखा है इस लिये देवानन्दाके च्यवन और त्रिशलाके जन्म माननेसे उपरोक्त अगमादि शास्त्र पाठोंके उत्थापनकी दूषणको प्राप्ति होवे तथा व्यवनके बिना जन्म नहीं हो सकता और च्यवन नहीं माननेसे जन्म मानने में भी बाधा पड़ती है इस लिये त्रिशलाके गर्भ में मानेको व्यवन अलग मानना ही आत्मार्थियों को परम उचित है उससे उपरोक्त आगमोक्त बातको प्रमाण करनेसे सम्यक्तको मलिमता दूर होवे और दोनों जगह च्यवन जन्म मानना आगमानुसार युक्ति पूर्वक है जब दोनों च्यवन ठहरे खो उसके कर्तव्य तो स्वयं पिद्धस बातको विबेको जन स्वयं विचार लेवेंगे। और भगवान् देवानन्दा नभने आये तथा पर्मनसे हरण दुमा यह बात माश्चर्य रूप होनेसे प्राण मोर पर्याप्ति शरीर बदले बिना भी अलग भव गिनने में किसी तरहको बाधा नहीं हो सकती ( नहीं बनने योग्य बात आश्चर्य ने बनती है) इस लिये समवायांगमें बलय भव मिना है और कोई साधु मादि इसी क्षेत्रने चातुर्मास रहे तो वे वहां रोग मारी स्वचक पर चक्र भव तथा भनीति वगैरह कारणोंने चौमासाने भी दूसरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८१७] स्थान जाना पड़े तो पहिले चौमासाके थोड़े दिनठहरे वो स्थान और कारण सिर दूसरी जगह गये सो स्थान साधुनीके निवास स्थान दो कहे जावेंगे परन्तु चौमासाका काल मान तो दोनों जगह का मिलाकर चारमास कहे जाते हैं (जैसे वीर प्रभुके दीक्षा अवस्थाका पहिला चौमासा १५ दिन तापसके भामममें और ३॥ महीने शूल पाणी यक्षके मन्दिर में हुए सो क्षेत्र स्थान दो परन्तु काल मान दोनों स्पानोंका मिलाकर ४ महीनेका गिनते हैं सो यह बात जैनमें प्रसिद्ध है इसी तरहसे वीरप्रभुके मवमहीनों की गर्भस्थितिरूप कालमान तो दोनों माताका मिलाकर है परन्तु कारण बससे आश्चर्यका प्रतिकार करने के लिये त्रिशलाके गर्भ में जाना पड़ा इसलिये च्यवन रूप स्थान दो माने जाते हैं इसीलिये स्थान कल्याणक प्रसंगानुसार एकार्थ वाले पर्यायवाची माने जाते हैं यह बात पहिले भी लिख चुके हैं तो शास्त्रानुसार युक्ति युक्त होनेसे सब आत्मार्थियों को मान्य करना चाहिये इस बातको भी विशेष रूपसे विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं। और त्रिशला माता संबंधी देवानन्दा भिका यवन जन्म प्रगट पने दिखानेके लिये ही तो शास्त्रकारोंने ८२ दिन गये बाद त्रिशलाके गर्भने जानेके दिन आश्विन बदी १३ को और जन्मके दिन चैत्रदी १३ को इन्द्रका आशम चलायमान होनेसे इन्द्रने अवधि ज्ञानसे भगवान्को देखकर सिंहासनसे उठकर नमस्कार नमोत्धुणं किया और चैत्र सुदि १३ को त्रिशलाको तीर्थकर पुत्र होनेका कहनेको आयो ऐसा खुलासा लिखा है परन्तु देवानन्दा. संबन्धी आषाढ़ सुदी ६ को बदी १३ जैसी बातें होनेका किसी जगह नहीं लिखा है जिसपर भी सुदी ६ को मानना और वदी १३ में च्यवनके सब कर्तव्य होने पर भी नहीं मानने के लिये कुयुक्तियोंके कुविकल्पों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] का सहारा लेना यह गच्छ कदाग्रहका हठवादके सिवाय और क्या होगा इसको पाठक गण स्वयं विचार सकते हैं। और भगवान्के च्यवन कल्याणकर्ने इन्द्रका आसन चलायमान होनेसे अवधिसे भगवान्को देखकर नमस्कार करें और आकर माताको १४ महास्वप्नोंका तीर्थंकर पुत्र होने रूप फल कह अपने स्थानपर पोछा देव लोकमें चला जावे ऐसा तो मावश्यक वृत्तिमें आदीश्वर भगवान्के चरित्रसे तथा त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र वगैरह शास्त्रोंसे सिद्ध होता है सो भी किसी तीर्थकरके च्यवनमें आवे किसीके नहीं भी भावे।। इस बातका मीयत नियम नहीं है और कल्पसूत्रने तथा उनकी सब व्याख्याओंमें तो भगवान्को नमस्कार याने नमोत्युणं, करके पूर्व दिशाका अपना सिंहासन पर बैठ गया ऐसा खुलासा लिखा है और भी जीवाभिगम सूत्रमें नन्दीश्वर द्वीपाघिकारे मीचे मुजब पाठ है यथा___ "तस्थणं वहवे भवणवह वाणमंतरा जोयसिय वेमाणिया देवा चउमासिय पडिवएसु संवछरिएसुय अण्णेसुय बहुसु जिण जम्म निरकमण णाणुवाय परिणिवाण माइसु देवकज्जे सुय देव समुदाये मुय देव समवाए सुय देव पवयणे सुय एगंत तोस हिया समुवमया समाणाय मुदित पकालिया अहाहियाओ महिमामो कारे माणा पाले माणे मुहं सुहेणं विहरन्ति" । - इस पाठके अनुसार भी तीर्थकर महाराजोंके जन्म दीक्षा ज्ञानोत्पत्ति निर्वाण इन कल्याणकों में नन्दीश्वर द्वीपर्ने शाश्वत चैत्यों में भगवान्की प्रतिमाके आगे देव देवी इन्द्रादि मिलकर मठाईउछवकरते हैं ऐसा खुलासा लिखा है परन्तु च्यवन कल्याणक, ६४ इन्द्रादि मिलकर नन्दीश्वर द्वीपमें अठाई उच्छव करते ऐसा नियत नियमका कोई भी शास्त्र प्रमाण मेरे देखने नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ भाया इसलिये च्यवन, ६५ इन्द्रादि मिलकर नन्दीश्वर उच्छवके लिये जावे अपवा नहीं भी जावे जैसा. भवसर परन्तु जन्मादिनें तो नियमसे जाकर उच्छव करते हैं उसको तो आवश्यकत्ति कल्पसूत्रकी व्याख्या त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित्र और उपरोक्त जीवाभिगमादि शास्त्रोंने देखा जाता है परन्तु क्यवन तो बिमानमें बैठे हुए ही नमोस्धुणं कर लेते है इसलिये भगवान् के त्रिशलाके गर्भ में आनेके दिन भी विमानमें बैठे हुए ही नमोरथ मां किया समझ लेना परन्तु आश्विन बदी १३ को ६४ इन्द्रादि मिलकर नन्दीश्वर उच्छव करने को जाने सम्बन्धी पाठ न देखनेसे उसको कल्याणकपने रहित नहीं कह सकते क्योंकि भाषाढ़ सुदी६ को भी नन्दीश्वर उच्छव करनेको इन्द्रादिकके जानेका पाठ देखने में नहीं आता इसलिये जैसे मुदी ६ मानोंगे वैसे बदी १३ भी मानमि पड़ेगी और किसी शास्त्रानुसार वीर्य करके च्यवन भी ६४ इन्द्रादिकके नन्दीश्वर महोत्सवके लिये जानेका नीयत नियम ठहरता होवे तो भी यह बात बदी १३ को भी मान लेनी चाहिये क्योंकि आशन प्रकंप नमोत्थुणं १४ महास्वप्न दर्शन इन्द्रका भागमन वगैरह च्यवन के सब कर्तव्य बदी १३ को बने हैं इसलिये मन्दीखरका महोत्सव भी उपरोक्त लिखे अनुसार समझ लेना चाहिये। और जिस समय तीर्थंकर माताके गर्भने आवे उसी समय तीन जगतमें उद्योत और सब संसारी जीवोंको मुख की प्राप्ति होनेका तो अनादि नियम है लिये किसी जगह नहीं लिखा होने तो भी उस बातको मान लेना चाहिये क्योंकि अनादि नियमको प्रसिद्ध बातको शास्त्रकार लिखे या न लिखे तो भी उसी मुजन माननेका जैन, प्रसिद्ध जैसे नवकार में मोमरिहताणं इत्यादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९ पाठ, कर्म रूपी भाव शत्रु का नाम नहीं लिखा और स्थानांग सूत्रके पांचवे स्थानमें बहुत तीर्थंकर महाराजों के च्यवन जन्म दीक्षा और केवल ज्ञान निर्माणके नक्षत्र गिमाये हैं परन्तु उसने कल्याणक शब्द नहीं लिखा तो भी अनादि नियमकी प्रसिद्ध बात होनेसे उन नक्षत्रोंने कल्याणक कहते हैं मानते हैं इसी तरह वीरप्रक्षुके आश्विन बदी १३. को च्यवनमें भी तीन जगतमें उद्योत और सब संसारी जीवोंको सुखकी प्राप्ति अनादि नियमके कारणसे उपरोक्त न्यायानुसार होना और मान लेना स्वयं सिद्ध है। इसलिये आत्मार्थियोंको प्रमाण करना चाहिये इस बातका विशेष निर्णय जपरमें लिखा गया है उससे मात्मा जिन स्वयं समझ लेवेगे भब सत्य ग्रहण करनेकी अभिलाषा वाले भारमार्थी सज्जन पाठकगणसे मेरा यही कहना है कि-मीतीयंकर गणधर पूर्व परादि पूर्वाचार्य तथा प्राचीन सब कुलगण शाखाके पूर्वाचार्योने और वडगच्छ कवलागच्छ तपगच्छादि गच्छोंके पूर्वाचार्योने मूलसूत्र नियुक्ति भाग्य धूर्णि इत्ति चरित्र प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंमें प्रगटपने श्रीबीरममुके छ कल्याणक खुलासा पूर्वक कथन किये हैं और युक्तियोंके अनुसार भी प्रत्यक्ष सिद्ध १सो इस ग्रंथमें शास्त्र प्रमाण यक्ति पूर्वक अपरमें अच्छी तरहसे लिखा गया है इसलिये मीजिनवल्लभरिणी ने छठे कल्याणककी नवीन प्ररुपमा नहीं करी किन्तु इन महाराजके पहिले तीर्थ करादि महाराणोंने खुलासा किया है सो भी ऊपर में लिख दिखाया है उससे मोजिमवल्लभसूरिजीको नवीन प्ररूपाका दुषमा लगाने वाले प्रत्यक्ष मिथ्यावादी ठहरते है मौर खरतर गच्छवाले छ कल्याणक मानते हैं परन्तु अन्यगच्छ काडेमहीं जानते ऐसा भी नहीं क्योंकि जिनाजा माराधक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] पंचांगी प्रमाण करने वाले बीरप्रभुकी भावपरम्परा चलने धाले प्राचीन गच्छोंके पूर्वाचार्य छ कल्याणक मानने वाले थे और वर्तमान में भी आत्मार्थी मानते हैं और मूल आगमादिमें इसका कथन होनेसे तपगरछके भी पूर्वाचार्य छ कल्याणक मानते थे और अपने बनाये कल्पांतरवाच्य, कल्पावरि और कल्पसूत्र केस टबार्थों में कुलमगडन मूरिजी वगैरह लिख गये है जिसका खुलासा भी पहिले इस ग्रन्थ में छप गया है और वर्तमानमें भी कितने ही तपगच्छके आत्मार्थी मुनिमण छ कल्याणक मानने वाले हैं इस लिये सिर्फ खरतर गण्ड वाले मानते हैं अन्य नहीं यह भी प्रत्यक्ष मिथ्या हे तपगच्छके पूर्वाचार्य तो छ कल्याणक मानने वाले थे परन्तु यह तो वर्तमानमें तपगच्छके खरतर गच्छ के मापसमे जो प्रति वर्ष ग्राम नगर शहरादि ने पर्युषण जैसे महा उत्तम पर्वमें आत्म कल्याण संप शांति सबसे क्षमत क्षामणा करने के बदले छ कल्याणकॉका निषेध करने सम्बन्धी खण्डन मण्डन से वाद विवादहोकर कुसंपसे निन्दा इर्षादि बन कर शासनोमति के और निज परके आत्मकल्याण जो विन हो रहा है और छ कल्याणकोंके निषेध रूप उत्सूत्र प्ररुपणासे निज परके संसार सृद्धिका कारण तथा भद्र जीवोंकी श्रद्धा व धर्म कार्योनहाणी का महान् अनर्थ हो रहा है जिसके मूल कारण भूत अधिष्टायक भागिवान् धर्मसागरजी हुए हैं क्योंकि धर्मसागरजीके पहिले तपगच्छमें भाचार्य उपाध्याय साधुजन हजारौं हो गये परन्तु किसीने भी शात्रोक्त छ कल्याणकोंका निषेध धर्मसागरजीकी तरह किसी ग्रन्थ में नहीं किया इसीलिये इस विषय में दोनों गच्छोंके आपसमें पहिले बहुत संप रहता था पर्युषण जैसे महा पर्व मापसमें किसी तरहका सराहन मण्डनका झगड़ा नहीं था परन्तु धर्मसागरजीने अपने मिथ्यात्वके उदयसे तीर्थंकर गण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] भरादिकोंके और अपने मच्छके पूर्वज पुरुषोंके कपन किये हुए छ कल्याणक सम्बन्धी सूत्रोंके मोर रत्तियोंके पाठॉका उत्थापन की उत्सूत्र प्ररूपणासे तीर्थकरादि महाराजोंकी आशातनासे अपने संसार बढ़नेके भयको छोड़ कर खरतरगच्छ के पूर्वाचार्यों से देष बुद्धि रखके महान् उपकारी पुरुषोंकी निन्दा करने लगे और कल्याणकोंका निषेध करने के लिये गणधर सार्द्धशतक वृत्ति जम्बूद्वीपपति पवाशकसूत्र सुत्ति पर्युषणाकल्पचूर्णि वगैरह शास्त्र पाठोंका अभिप्राय और उन शास्त्र पाठोंके कर्ताओंके भावार्थक ज्ञानावर्णीय कर्मके उदयसे समझे बिना बस्तु, स्थान, माञ्चयं नीचगौत्रका उदय वगैरह जूठे बहाने निकाटकर अपनी कल्पना मुजब शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में अनेक तरहको कुयुक्तियें लिखकर भद्र जीवीको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरनेके लिये 'कल्प किरणाबली' बगैरह लिखा तबसे इस झगड़े का मूल खड़ा हुणा और उसी मुजब अन्ध परम्परामें वर्तमानिक कितने ही कदाग्रही चल रहे है जिसमें भी विशेष खेदकी बात यह है कि बिनय विजयजी और आत्मारामजी कैसे सुप्रसिद्ध वि. द्वान् कहलाते हुए भी गच्छ कदाग्रहके पक्षपातसे धर्मसागरजीकी कुयुक्तियोंके मायाजालमें फंस गये और आगमोक्त सत्य बातको झूठ ठहराने के लिये उसी तरहकी कुयुक्तियें लिखके भोले जीवों को मिथ्यात्वके भ्रम, गेरनेके लिये धिनय विजयजीने कल्प सूत्र की व्याख्याका सुवोधिका नाम रखके और कुयुक्तियोंसे उत्सूत्रता से भोले जीवोंको दुर्लभ बोधिको प्राप्तिका कारण किया है और भास्मारामजीने 'जैन सिद्धान्त समाचारी नामक पुस्तकका नाम रसके उत्सूत्रोंके संग्रह माया जाल फैलाई है इसीलिये उन्हींका सब कुयुक्तियोंके विकल्पोंकी समीक्षा समाधान करके शास्त्र पाठों और युक्तियों के अनुसार सुदृढ़ प्रमाणों सहित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] इस ग्रन्थ मीवीर प्रभुके छ कल्याणकोंका निर्णय अच्छी तरहसे करने में भाया है जिसको बांधकर गच्छ पक्षपातका दृष्टिराग न रखकर जिनाजा आराधन करनेके लिये सत्य बातको ग्रहण करना और शास्त्रोक्त सत्य बातका उपदेश करके भव्य जीवोंको शुद्ध सम्यक्तकी प्राप्तिके लाभका कारण मारमार्थी परोपकारी सज्जनोंको करना चाहिये और भवभोरुओंको जिमातापूर्वक सत्य ग्रहण करके निजपरके आत्मकल्याण के काय्यको प्रति वर्ताव करना परम उचित इस संसार परिभूमणमें मनुष्य भव जैन धर्मके आराधनका योग मिलमा अब कठिन है जिस पर भी गच्छ के पक्षपातादि तुच्छ कारणोंसे जिनाजाकी विराधना करके खोटे उपदेशसे मिजपरके संसारका कारण करना सर्वथा अनुचित है इसलिये गझरीह प्रबाहकी तरह मन्धपरम्पराकी कल्पित सूढीको छोड़कर सत्य ग्रहण करने भारमार्थियोंको बिलम्ब नहीं करना चाहिये और सत्य बात जानने पर भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे यह लोककी पूजा मानताकै गमिमानसे वालजीवों के दृष्टिरागमें पड़कर भोले जीवोंको अपने पक्ष खीचनेके लिये जिनामा विरुद्ध होकर कुयुक्तियोंसे उत्सूत्र भाषण मी नहीं करना चाहिये मरिची जमालिके दष्टान्तोंको याद करके संसार भ्रमण गर्भावास नरकादि दुसरोंसे भयरखके अपने गुरुजनोंका भी पक्षपात छोड़कर इन्द्र भूविकी तरह और जमालिके शिष्यों की तरह सत्य अङ्गिकार करना चाहिये विवेकी आत्मार्थी सज्जनोंको विशेष लिखनेकी जरूरत नहीं है और विनय विनमजीने "लोक प्रकाश" नामा अन्य २६ वें सर्ग २४ तीर्थंकर महाराजांच्यवन जन्मादि पांच पांच कल्याणकोंके मास पक्ष दिन. नक्षत्र दिखाये उसने २४ वीर प्रभुके संबन्धने जो लिखा है .सो यहां पर दिखाताई छपा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] हुआ डोक प्रकाश पृष्ठ १४७३ २ १४७५ तक सर्ग २९ वेंका पाठ नीचे मूगब है यथा "भवे ततः सप्तविंशे प्रामे ब्राह्मण कुराहके। विमस्यर्षमा दत्तस्य देवानंदा हयस्त्रियां ॥ ५९ म मरीचिमव बन्धेन, समीचे गोत्रकर्मणा । कुक्षौ प्रभुक्त शेषेण विश्वेशोऽप्युत्पद्यत ॥ ६॥ तश्चक्रिणश्चैव सीरिणः गोठिणोपिच ॥ तुच्छान्वयेत्पद्यते कदाचिरकर्मदोषतः ॥६९ जायते तु कदाच्येते तादृयंशेषुनो. तमा ॥ इतिदत्तोपयोगस्या सुरेन्द्रस्यानुशासनात् ॥ ६२ ॥ पुरेक्षत्रियकुंडाख्ये सिध्यार्थस्य महीपतेः । त्रिशलाया महाराजा कुक्षावक्षीण संपदः ॥६॥ मुक्कोग्द्य शीत्यहोरात्रा तिकमे नेगमे पिणा। अजायतसुतत्वेन चतुर्विशो जिनेश्वरः ॥ ६॥ एवंच "उसहससि संति सुविषय नेमीसर पास वीर साणं ॥ तेर सग बार नव नव दस सगवीसाय तिलिभवा ॥६५॥ इति समर्थितं । श्रीसमवायर्यागे कोटिसमवाये 'तित्थकरमवगाहणा तो छठे पोट्टिलभवग्गहले इतिसूत्रे मी वीरस्य देवानंदा गर्भस्थिति स्त्रिशला कुष्यागतिश्चेति भवद्वयं विवक्षितमस्तीतियं ॥ भापाढ़ेघवष्ठाषष्टी चैत्रशुक्ला प्रयोदशी। मार्गस्य दशमी कृष्णा वैशाखे दशमीसिता॥ ६६ ॥ कार्तिकस्यामावसीति कल्याणक दिनाः प्रमो अभूत् गर्मापहारेतु प्रयोदश्याश्विनेसिति ॥६॥ फाल्गुन्य उत्तराधिययं कल्याणक चतुष्टयो तथा गर्भापहारेपि निर्वास स्वातिरिष्यते ॥६६॥" देखिये अपरके लेख में भगवान्के आश्विन वदी १३ को त्रिशला माताके गर्भ जानेको मीसमवायांग सूत्रके पाठानुसार २१ अलगमव गिन लिया है तथा ६४ वें श्लोक कथनसे त्रिशलाके गर्भने गये उसी दिनसे तीर्थंकर पने प्रगट होनेका सुखासा डिसाहस डिये देवानंदाका भाषाढ़ शुदी ६ का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) और त्रिशलाका माश्विन वदी १३ का यह दो व्यवन विनय विजयी उपरोक्त कथनसे सिद्ध होता है इस लिये विनय विजयजीके खोजसे ही दो च्यवनों की गिनतीसे मी वीरप्रभुके छ कल्याणक सिद्ध हो चुके जिस पर भी १ च्यवन मानने वाले को ६४ श्लोकका और उपरोक्त मीसमवायांग सूत्रका पाठ उत्थापनका दोषी ठहरना पड़ेगा यह बात प्रगट ही दिखती है और महापुरुष चरित्र त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र आवश्यक आचासंग स्थानांग कल्पसूत्रादि अनेक सुत्ति वगैरहने माश्विन वदी १३ को च्यवन रूपमें माना है जिसका खुलासा पहिले लिखा गया है इस लिये दो च्यवनका निषेध कोई भव भीरू नहीं कर सक्ता और "कल्याणक चतुष्टय तथा गर्भापहारोपि" इस वाक्यमें चार कल्याणक च्यवन जन्मादि कहके तथा और अयि शब्दसे गर्भापहार रूप त्रिशलाके गर्भमें जानेको पांचवा भी हस्तोतरा नक्षत्र साथ ले लिया और मोक्ष स्वाति नक्षत्रमें लिखा है ऐसा नहीं माननेसे तथा और मपि शब्द व्यर्थ हो जाते हैं और उपरोक्त शास्त्र पाठोंके उत्थापनका भी दूषणको प्राप्ति होवे और त्रिशलाके गर्भ जानेको कल्याणक नहीं मानना एसे प्रमाण किसी शास्त्र में नहीं देखे जाते हैं इस लिये उपरोक्त शास्त्रानुसार मानना ही उचित है विशेष पाठकगण स्वयं विचार लेखेंगे। और पम्यासजी आनंदसागरजीने सुघोधिकाकी और पंचाशकको प्रस्तावनाने छ कल्याणक निषेध करनेके लिये गणधर सार्धशतकके पाउका भावार्थ समझे बिना मीनिनवमम पूरिजी पर और खरतर गच्छ वालों पर उत्सूत्रताका हठवाद का आक्षेप किया और स्थानाङ्ग आचारांग कल्पसूत्रादि अनेक शास्त्रों के मीवीरप्रभु संबंधि विशेष अपेक्षाके छ कल्याणक १०४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंधी मूल पाठोंको छोड़कर पंचाशकके सब तीर्थंकरों संबंधी सामान्य पाठको भागे किया और उपरोक्त आगमोंके सूत्र पाठोंके अभिप्रायको समझे बिना "अगारामओ अणगारियं पाइए तथा अणंते अणुत्तरे निवाघाए निरावरणे कसिणे पहिपुग्ने कंवलवरणाणदंसणे समुपद इत्यादि विशेषण युक्त तीर्थकर महाराजोंको व्यवन जन्म दीक्षा ज्ञानोत्पत्ति कल्याणकों के पाठका बस्तु भर्थ करके कल्याणक पने रहित ठहरानेका आग्रह किया सो तो धर्मसागरजीका मायाजालमें पड़कर गायके पक्ष पातसे अपनी उत्सूत्रताको मायामे भोले जीवोंको फँसानेके लिये जिनाजानुसार सत्य बातका निषेध करने से आमन्द सागरजीने व्यर्थ ही अपने संसार रद्धिका कारण किया है इस बातका निर्णय तो इस ग्रम्पके पढ़ने वाले तत्वज्ञ जन स्वयं कर लेवेंगे विशेष लिखनेकी कोई जरूरत नहीं है। भब छ कल्याणको संबंधी समीक्षाके लेखके अन्तमें सत्य प्रहण करने वाले भारमार्थी सज्जनोंसे मेरा यही कहना। कि-शास्त्रोक्त प्रमाणोंसे मोवीरप्रभुके छ कल्याणक सिद्ध करके दिखाये और छ कल्याणक निषेध करने सम्बन्धी वर्तमानिक सब कुयुक्तियोंकी समीक्षा करके सब शंकाओंका समाधान भी कर दिया है इसलिये धर्मसागरजीकी अंध परम्परा वाले वर्तमानमें किसी तरहकी फुयुक्तियें करे तो वे सब शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये। इति-धर्म सागरोपाध्याय विरचित कल्पकिरणावल्यांषट् कल्याणक निषेध सम्बन्धी लेखस्य श्रीमान् मुमति सागरोपाध्याय स्य लघु शिष्य मणिसागराख्य मुनि कृता समीक्षासंपूर्ण जाता समाप्तति पर्युषण निर्णय ग्रन्थे षट् कल्याणक निर्णयः ॥ भोपयुपण निर्णय नामा ग्रन्थ समाप्तः ॥ मीर रक्त कल्याण मस्तु । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ प्रशस्ति । अनेक प्रकारके उपसर्गों को सहन करके केवलज्ञान रूपी सूर्यको प्रकाश किया और जगत जीवोंका कल्याण करके भष्ट कर्मोंका क्षय कर मोक्ष पधारे। ऐसे शासन नायक श्री वर्द्धमान् स्वामीको वारंबार नमस्कार करके पर्युषण निर्णय ग्रन्थके अन्त मङ्गल रूप मै अपने पूर्वाचार्यों को नमस्कार करता ॥ १ ॥ भब्य जीवोंके सब प्रकारके वांछीतार्थ को पूरण करनेमें कल्पवृक्ष के समान श्रीवीरप्रभुके प्रथम गणधर श्रीगौतम स्वामी जगतमें हमारा कल्याण करो ॥ २ ॥ श्री वर्द्धमान् स्वामी के पट्ट परम्पराने मीसुधर्मस्वामी जबूस्वामी केवली हमको शुद्ध रत्न प्रयोके देने वाले हो ॥ ३ ॥ और भव्य जीवोंके हृदयका अज्ञान रूपी अन्धकारको नाश करने में भास्कर के समान तथा मुक्तिमार्गको बतलाने में निरन्तर अप्रमादी प्रभवादि युग प्रधान आचार्य होते भये ॥ ४ ॥ इसी तरह अनुक्रमें कोटीगच्छ चन्द्रकुल और बयरी शाखा में श्रीतद्योतनसूरिजी के शिष्य श्रीवर्द्धमान • स्वामीके शासनको वृद्धि करने वाले और जिन्होंको घरणेन्द्र ने आकर महिमा गर्भित सूरिमन्त्रका सब भेद बतलाया ऐसे भी वर्द्धमान सूरिजी हुए ॥ ५ ॥ और चैत्य वासियोंकी कल्पित प्ररूपणारूप मायाजालको तोड़ने में तीक्ष्ण खड्गके समान तथा गुर्जर भूमि गुजरातमें जिनाशानुसार शुद्धसंयममार्गको प्रकाश करने में सूर्य्यचन्द्र समाम ऐसे भीवर्द्धमान्सूरिजी के दो शिष्य भोजिनेश्वरसूरिजी तथा बुद्धिसागरसूरिजी हुए ॥ ६ ॥ इन्ही श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराजने अणहलपुर पट्टणमें दुर्लभ 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२८ ) राजाकी सभानें चैत्यवासियोंको पराजय करके सुविहित ( खरतर विरुद प्राप्त किया ) जिन्होंके शिष्य संवेगरङ्गसे रङ्गित आत्मावाले तथा चन्द्र की तरह शीतलता युक्त १५०० प्रमाणे संवेगरङ्गशालाग्रन्थ के कर्ता भो जिनचन्द्रसूरिजी हुए ॥ ७ ॥ और जगत जीवोंको अभय दान देने में बड़े उत्साही तथा अल्पक्षोंके परम उपकारी नवांगी वृत्ति करने वाले और जयति शुअण स्त्रोत्रसे मीस्थंभन पार्श्वनाथजीकी प्राचीन प्रतिमा को प्रगट करके शरीरका रोग शान्त करने वाले श्री अभयदेव सूरिजी महाराज बड़े प्रभावक हुए ॥ ८ ॥ श्रीनवङ्गी वृत्ति कारक श्री अभयदेव सूरिजी के पट्ट पर भास्कर समान और गच्छकदाग्रहियों की अभिमान रूपी पर्वतको तोड़ने में बज्जके समान तथा सर्वशास्त्र विशारद संघ पट्टक धर्मशिक्षादि अनेक ग्रन्थ कर्त्ता और जिनको जिनाचा अतोब वल्लभ है ऐसे श्रीजिन वल्लभसूरिजी के पटपर जिन्होंके हजारों देव देवी तथा अनेक राजा सेवा करते हैं और एक लाख तीसहजार नवीन जैनो भावकों के कुल बनाकर ओसवाल वंशरूपी कल्पवृक्षको वृद्धिगत करने वाले और हजारों साधु साध्वियों के समुदाय के नायक, लाखों जीवोंके बोधि वीजको देने वाले महान् जैनशासन प्रभावक भोजिनदत्तसूरिजी महाराज हुए जिन्होंके चरण कमलोंकी पूजा सेवा सब देशों में होती है ॥ १० ॥ प्रीजिनदत्त सूरिजी महाराजके पह परम्परामें अनुक्रमें प्रोजिन चन्द्रसूरि जी जिनपति सूरिजी वगैरह यावत् श्रोजिनभक्ति सूरिजी पर्यंत वीर शासन प्रभावक अनेक आचार्य महाराज होते भये ॥ ११ ॥ श्रीजिन भक्ति सूरिजी महाराजके शिष्य परम्पराने अनुक्रमें अपने आत्मोद्धारकर्ते परमप्रीतिवाले मोमोतिसागरजी हुए तथा भव्य जीवोंको अमृत समान धर्मोपदेश देने में बड़े चतुर ऐसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२९ ) मी अमृत धर्मजी हुए और समादि दश प्रकारका यति धर्म माराधम करने में बड़े तत्पर प्रश्नोत्तर सार्द्धशतक आत्म प्रबोध चैत्य बन्दन साधु भावक विधि प्रकाश वगैरह अनेक ग्रन्थ करने वाले मोक्षमा कल्याणजी गणि हुए यह तीनों महाराज महोपा. ध्याय पद धारक थे ॥१२॥ मोक्षमाकल्याणजी गणि महाराजको परम्परामें सत्योपदेश करने में मानों मुमतिके सागर मेरे परमोपकारी धर्माचार्य श्रीमान्सुमतिसागरजी गणि उपाध्याय अभी वर्तमानमें विद्यमान हैं॥ १३ ॥ जिनके प्रथम बड़े शिष्य अपने आत्म कल्याण करने वाले क्षमा तपादि गुणों को कीर्तको जगतने फैलानेवाले भीकीर्तिसागरजी हुए थे सो सं० १९५१ में स्वर्गवास को शोभा करने को वहां चले गये ॥ १४ ॥ और दूसरा लघु शिष्य मै) मणि सागरने गुरु कृपासे श्रीपर्युषण निर्णय नाम: यह ग्रन्थ उ० मीजयचन्द्रजी गणिकी सहायतासे तथा कलकत्ता, मारवाड़, बम्बई बगैरह संघके आग्रहसे कलकत्ताने शुरू किया था सो भी बम्बई बार लालबाग, संबत् १९१४ के चौमासा आश्विन पुदी अष्टमी बुधवार को सम्पूर्ण किया है ॥१५॥ ौर मारवाइके तथा पूर्वके श्री संधने इस ग्रन्थको यन्त्र द्वारा मुद्रित करवाके वर्तमानिक गच्छ भेदोंकी भिन्न प्ररूपणासे भोले जीवोंके मिथ्यात्वक भ्रमको निवारण करके शुद्धद्धा रूपी सम्यक्त की भव्य जीवों को प्राप्ति होने के लिये और हठ बादियोंका झूठा भाग्रह दूर करके मोमिनाजानुसार सत्य बातोंका प्रकाश जगतने होनेके लिये प्रगट किया है ॥ १६ ॥ पंचांगीके प्रमाणों पूर्वक पूर्वाधार्योके कपनानुसार इस ग्रन्धकी रचना मैंने करी है जिसने कोई बात जिमाता विरुद्ध लिखी गई होवे तो उसका त्रिकरण शुद्धिसे तीन योग सहित भरिहंतादि छ शाक्षियोंसे मिच्छामि दुक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३० ) देता हूं ॥ १७ ॥ तथा इस ग्रन्थ संबन्धी भूलोंको जो पाठकगण मेरेको बतलायेंगे या पत्र द्वारा सूचना करेंगे तो उन्होंका उपकार पूर्वक उसका सुधार करने की (मैं) प्रतिज्ञा करता हूं ॥ १८ ॥ और जिनाचा विरुद्ध उत्सूत्र प्ररूपण करने वालोंको तथा गच्छो के पक्षपातसे विरुद्धाचरण करनेवालोंको झूठा आग्रह छोड़कर जिनाशानें प्रवृत्ति करानेके लिये यद्यपि उपकार बुद्धि से हित शिक्षा रूप लिखने में आया है तिसपर भी किसीको बुरा लगे तो उसकी क्षमा प्रार्थना करता हूं ॥ १६ ॥ श्री कलकत्ता नगर में श्रीशांतिनाथजी की शीतल छाया नीचे यह ग्रन्थ शुरु हुआ और बम्बई नगर में श्रीपार्श्वनाथजी के प्रसादसे परिपूर्ण हुआ है इस लिये जबतक वीरशासनप्रकृति रहे तबतक भव्यजीवोंको शुद्ध मार्गको प्रवृत्ति कराने वाला यह ग्रन्थ इस भरत क्ष ेत्रमें जयवंता वर्त्तो ॥ २०॥ जिनागमानुसार गुरु महाराज की और सरस्वती की कृपासे सत्य ग्रहणाभिलाषी जीवोंको जिनाजा की परीक्षा करने वाला वर्तमानिक भेदोकी भिन्न भिन्न प्ररूपणानें इस ग्रन्थके पूरण होनेमें मेरी आत्माका उद्धार हुआ मैं मानता हूं ॥ २१ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com