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कदापि नहीं हो सकता और खास न्यायांभोनिधिजीके भावार्थ में लिखे मुजब "नहीं जानते हैं सिद्धान्तके रहस्य एसे जितने हो गये आचार्य” इन अक्षरोंसे भी विवेक बुद्धिको स्थिर करके विचारा जावे तो सिद्धान्तके रहस्यको जानने वाले एसे जितने पूर्वाचार्य हो गये है वो सब तो कदापि ग्रहण नहीं होसकते हैं तिसपर भी संघ पूर्वाचार्यो का ग्रहण किया सोतो मम जननी वंध्या समान ठहरता है क्योंकि जब ऊपरके अक्षरोंसे भी अज्ञानी ग्रहण हुए तो जितने ज्ञानी पूर्वाचार्य होगये सोतो ग्रहण करना बनही नहीं सकता और 'शेष' शब्द तो कथन करने वालेके वर्त्तमान समयका अर्थ वाला है इसलिये 'जितने होगये, ऐसा लिखकर सब पूर्वाचार्यो का अर्थ ग्रहण करके भूतकाल ठहराया सो तो प्रत्यक्ष विरुद्धता है ।
और " अशेष" शब्द संपूर्ण सब पूर्वाचार्यों के अर्थ वाला है तथा 'शेष' शब्द उन पूर्वाचार्यों से बाकी के थोड़ेसे नाम धारक आचार्यों के अर्थ वाला है सो तो अल्पज्ञ भी समज सकता है तिस पर भी न्यायांभोनिधिजी इतने बड़े सुप्रसिद्ध विद्वान् हो करके भी 'शेष' शब्दके अर्थ में “अज्ञात सिद्धांत रहस्यानां" इस प्रकार उन चैत्य वासियोंका विशेषण टीकाकारने खुलासा लिखा होने पर भी बड़ा अनर्थ करके महान् उत्तम परम पूज्य सब पूर्वाचार्यों का तथा शुद्ध प्ररूपक तत्वज्ञ क्रियापात्र उस समयके वर्त्तमानिक विद्यमान es आचार्यों का ग्रहण कर लिया और इस प्रकार के बड़े अमर्थ कोही बिवेक शून्यतासे पूर्वापरका विश्वार किये बिना इस समय वर्तमान काल में उनके गच्छवाले अपनी विद्वताके
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