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“दुर्लभ राजाने ही आपले राज्य फार चांगल्या चालविलें होतें यानें देवलें वगैरह बांधवून आपल्या राज्यांत पुष्कल धार्मिकतामें केलीं होतीं अम्हिलवाड़ ये थें दुर्लभ सरोवर नावाचा एक मोठा तलाव आहे, तो याच राजाने बांधविला असल्याची साक्ष त्या सरोवराचें नांव देत आहे । दुर्लभ सेनाने थोडींची वर्षे राज्य केलें । त्यानें आपला गुरु श्रीजिनेश्वर सूरिजी म्हणून होता त्याचे उपदेशानें जैनधर्माची शिक्षा स्वीकारून त्या धर्मान्त तो मोठा प्रवीण जाला होता त्याने जीव दया उत्तम प्रकारें पालिली" इत्यादि ।
अब उन इतिहासिक लेख पर भी विवेक बुद्धिसे विचार करके देखा जावे तब तो श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजको दुर्लभ राजाने खरतर विरुद दिया जिसका निषेध करना कदाग्रहका सूचक व्यर्थ मालूम होता है क्योंकि जैनधर्मके इतिहा सिक ग्रन्थोंसे और श्रीजिनेश्वर सूरिजी के चरित्रोंसे यह तो खुलासा ही मालूम पड़ता है कि अणहिलपुर पट्टणमें चैत्यवासियोंने राजासे करार करवा लिया था कि हम लोगों के सिवाय अन्य जैन मुनि इस नगर में रहने न पावे, इसलिये उस नगर में शुद्ध संयमियोंका आना नहीं होता था, जब श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजने इस अनर्थको तोड़नेके लिये पाटण पधारे तब चैत्यवासियोंने अपने आदमियोंको भेजकर इन महाराजको नगर में से बाहिर चले जानेको कहलाया नगर में ठहरने भी नहीं देते थे जब महाराजने राज्य सभा में शास्त्रार्थमे चैत्यवासियों को पराजय किये उससे इन महाराजको खरतर विरुद राजाने दिया तबसे शुद्ध संयमियों का आना जाना बिहार होने लगा और इन महाराजका भी वहां ठहरना हुआ ।
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