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न्यायांभोनिधिजीने निषेध किये सो भी उत्सूत्र भाषण रूप है इसका विशेष खुलासा के साथ निर्णयका लेख तो पहिले हो न्यायरत्नजीके लेखकी समीक्षा में पृष्ठ ४१५ से ४८३ तक तथा विनयविजयजीके लेखकी समीक्षा में ५०२ पृष्ठसे ५१६ पृष्ठ तक इस ग्रन्थ में छप गया है उसके पढ़नेसे पाठकवर्ग स्वयं समझ सकेंगे, और फिर भी न्यायभोनिधिजीने जैन सिद्धान्त समाचारोके पृष्ठ १० की पंक्ति ११ से पृष्ठ १२ की पंक्ति तक मायाचारी पूर्वक प्रत्यक्ष मिथ्या और अन्न जीवोंको भ्रमचक्र में गेरनेके लिये ऐसे लिखा है कि, -
[ है मित्र ! पंच हत्युत्तरे होत्था । साक्षणा परिणिठए। यह छी वस्तु वांचके आपको भ्रांति हूइ है, परंतु ऐसा हो भ्रांतिवाला ऋषभदेव स्वामीजीके बिषय मेंभी पाठ है, तो फिर ऋषभदेव स्वामीजीके की कल्याणक न माने उसका क्या कारण है ? हम जानते है, कि वो पाठ आपके देखने में नहीं आया होगा इस हेतु एक श्रीवर्द्धमानस्वामीजीका भ्रांतिवाला पाठ देखके आग्रह के वस हुए होंगे, परन्तु अब आपकी भ्रांति और आग्रह दोनोंही दूर होनेके वास्ते पाठ दिखाते है, तथाच जंबुद्वीप प्रज्ञप्त्यां । यथा
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"उसभेणं अरहा कोसलीए पंच उत्तरासाढे अभीइ छठे होटथा । तंजहा । उत्तरा साढाहिं चुए चइता गर्भवक्कते | १ | उत्तरासादाहिं जाए |२| उत्तरासादाहिं रायाभिसे अ पत्ते । ३ । उत्तरासादाहिं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगा रिअं पठाइए। ४ उत्तरासादाहिं अनंते जाव समुप्यसे ॥ ५ ॥ अभोणा परिणिठवडे । ६ । उपाख्या ॥ उमभेण मित्यादि ऋषभोऽर्हन् पंचसु व्ययन १ जन्म २ राज्याभिषेक ३ दीक्षा ४ चाल ५ ललषु वस्तुषु उत्तराषाढा नक्षत्र चंद्रया भुज्यमानं
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