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( १६२ ) मादि छ वस्तु कहो अथवा छ कल्याणक कहो दोनों शब्दों का तात्पर्य एकही है उसका विशेष खुलासा श्रीविनय विजय जीके और न्यायाम्भोनिधिजीके लेखकी समीक्षा, विस्तारसे ऊपर ही छप चुका है इसलिये धर्मसागरजीने वस्तु शब्दके अर्थ में कल्याणकपनेका निषेध करने के लिये अज्ञानताके अन्धकार का साहससे पीवीरप्रभुके च्यवनादि छहोंको वस्तु ठहरा कर छहोंमें कल्याणकपनेका अभाव दिखाया सो कदापि नहीं हो सकता है। __ तथा और भी देखो खास धर्मसागरजीनेही अपनी बनाई श्रीकल्पसूत्रकी इसी कल्पकिरणावलीनामा टीकामें जहां स्थि विरावलीको व्याख्या करी है वहां खास आपनेही श्रीजम्बू स्वामीका मोक्षगमन हुए बाद-"मनः पर्यव ज्ञान १, परमावधि २, पुलाकलब्धी ३, आहारक शरीर लब्धी ४, क्षपक श्रेणी ५, उपशम भणी ६, जिनकल्प 9, परिहार विशुद्धि वगैरह तीन संयम ८, केवल ज्ञानको उत्पत्ति , और मोक्ष गमन १०"-यह दश वस्तुओंके विच्छेद होनेका लिखा है सो इसमें-परमावधिको मनः पर्यवको केवल ज्ञानोत्पत्तिको और मोक्षगमनको वस्तु कहा और-"कारणगुणाकार्य गुणा भवन्ति"-इस व्यवहारिक न्यायके अनुसार कारणके अनुसार कार्यकी उत्पत्ति मानना सो प्रसिद्ध बात है इसलिये भगवान्के केवल जानकी उत्पत्ति तथा मोक्षगमनको वस्तु कहने में क्या हरजा है अपितु कुछ भी नहीं और जब धर्मसागरजीके कथन करने लिखने मुजब भगवान्के केवल ज्ञान की प्राप्तिको तथा मोक्षमगमनको वस्तु कहना सिद्ध हुआ तथा इसी केवल ज्ञानकी प्राप्तिको और मोक्षगमनको सब कोई कल्याणक भी कहते हैं वैसेही धर्मसागरजी भी केवल जान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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