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विजयजीको किसी संयमी गुरुके पास क्रिया उद्धार करके पुनर्दीक्षा लेने सम्बन्धी 'भवभीरू' 'आत्महितार्थी वगैरह शब्दों पूर्वक उनको आगमकी आज्ञा भङ्ग रूप दूषणसे वचनेके लिये खूब सुस्पष्टतासे उपदेश दिया तथा जबतक श्रीराजेन्द्रसूरिजी क्रियाउद्धार करके दूसरे शुद्ध संयमी गुरुको धारण न करे तबतक उनको साधुमाननेकी मनाई करी जिसपर भी भोलेजीव उनको साधुमाने तो असाधुको साधु मानने रूप मिथ्यात्वी ठहराये और क्रिया उद्धार सम्बन्धी शास्त्र मर्यादाके पाठ भी दिखाये और उसके दृष्टान्तरूपमें श्रीदेवेन्द्रसूरिजी कृत पाट भी दिखाया तो फिर श्रीजगचन्द्रसूरिजी महाराजने क्रिया उद्धार करके दूसरेको गुरु माने थे तिसपर भी उन्होंकी गुरु परंपरामें लिखनेका छोडकर श्रीजिनाज्ञाभङ्गसे अपने संसार बढनेका भय न करके पहिलेकी परंपरा में लिखनेका ऐसा प्रत्यक्ष विरुद्ध आचरण न्यायांभोनिधिजीने तो अन्धपरंपरासे कर दिया परन्तु अब उन्होंकी समुदाय वालोंको अभिनिवेशिक मिथ्यात्व का हठवाद अन्धपरंपराको छोडकर श्रीजिना. जानुसार प्रोजगधन्द्रसूरिजीको वडगच्छमें लिखना मानना छोडकर श्रीचैत्रवालगच्छ, लिखना अवश्यही मान्य करना चाहिये परन्तु विद्वत्ताके अभिमानादि कारणोंसे विरुद्ध बातको ही अन्धपरंपरासे पुष्टकरके चलाते रहना उचित नहीं है।
अब पाठकगणसे मेरा (इस ग्रन्धकारका) इतनाही कहना है कि 'हीर सौभाग्य काव्य' तथा 'विजयप्रशस्ति महाकाव्य' और श्रीमुनि सुन्दरसूरिजी कृत 'त्रिदश तरंगिणी' और धर्मसागरजी कृत 'पहावली' वगैरह जोजो श्रीतपगच्छकी पहावलियों में और अन्य ग्रन्थों में जिस जिस जगह पर श्रीजगच्चन्द्रजीने अपने वह गच्चमेसे शिथिलाचारको छोड़करके श्रीचैत्रवाल गच्छमें दूसरीवार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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