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[ ७२९ ] गच्छके मामकी परंपरा शुरू हुई है सो तो श्री तपगच्छादिके सबी पूर्वाचार्यों को भी मान्य है। और दृढ़तर शास्त्र प्रमाणोंसे भी सिद्ध होता है इसलिये कोई निषेध भी नहीं कर सकता तथापि कोई कदाग्रहसे निषेध करने का आग्रह करे तो अन्धपरम्परा और शास्त्र प्रमाण शून्य होनेसे मान्य नहीं हो सकता, इस बातको निष्पक्षपाती विवेकी पाठकगण स्वयं विचार सकते हैं। ___ और कितनी ही जगह तो संवत् १०८० या १०८४ कुछ भी नहीं लिखा इसलिये दुर्लभ राजाने अपने राज्यासनके समय में किसी वर्ष श्रीजिनेश्वर सूरिजीको खरतर विरुद तो अवश्यमेव दिया होगा परन्तु संवत् नहीं लिखनेके कारण यदि श्रीजिनेखर सूरिजीने संवत् १००० में श्रीहरिभद्र सूरिजी कृत श्री अष्टकमी नामा ग्रन्थकी वृत्ति रची थी उससे भी १०८० का संवत् चल पड़ा होवे तो भी श्रीज्ञानीजी महाराज जाने। ___ अब विवेकी पाठक गणसे मेरा यही कहना कि उपरोक्त शास्त्र प्रमाणानुसार श्रीजिनेश्वरसूरिजीने राज्य सभामें शास्त्रार्थ करके चैत्यवासियोंको हराये और आप साधुके वर्तावने सच्चे रहे तबसे 'खरतर' 'सुविहित' वसति मार्ग प्रकाशक कहलाने लगे इसलिये श्रीतपगच्छवाले वगैरह सब कोई भीजिनेश्वरसूरिजी महाराजसे खरतरगच्छ और मीनवाङ्गीति कारक श्रीअभयदेव सूरिजी खरतरगच्छीय ऐसा मानते हैं और पहावली वगैरह अनेक प्रत्यक्ष प्रमाणभी इस बातमें मिलते हैं मौजूद है जिसपर भी न्यायांभोनिधिजीने 'जैन सिद्धान्त समाचारी' नामक पुस्तक में और धर्मसागरजीने प्रबचन परीक्षा वगैरहमें श्रीजिनेश्वरमूरिजीसे खरतर विरुदका निषेध करनेके लिये मायावृतिसे एकांत हठवाद करके कल्पित अवलम्बनोंसे जो परिमम किया है उससे
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