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[ ५६] उत्तर-भो देवानुप्रिय। तेरेको गुरु गम्यसे या अनुभवसे श्रीजैनशास्त्रोंका गम्भीराशय समझ में नहीं आया उसी ऐसा सन्देह उत्पन्न हुआ है इसलिये अब तेरा सन्देह दूर करनेके लिये इस अवसरपर तो मेरेको इतना ही कहना है। कि जैसे श्रीऐवन्ती पार्श्वनाथजीकी प्रतिमा पूर्वे थी जब अन्य मतियोंने लुप्तभावको प्राप्त करी तथा श्रीस्थम्भनापार्श्वनाथजीकी प्रतिमा भी पहिले थी जब कालयोग्यसे लुप्त भावको प्राप्त हुई तब उन महाराजोंने अवसर पाय करके प्रगट करी तैसेही श्रीमहावीरस्वामीका छठा कल्याणक भी (श्रीऋषभदेव स्वामी आदि तीर्थंकर महाराजोंका तथा महाविदेहक्षेत्रमें विद्यमान भगवान् श्रीसीमन्धरस्वामीका और श्रीवर्द्धमान स्वामीके गणधर तथा पूर्वधरादि महाराजोंका कथन किया हुआ) अनेक शास्त्रों में प्रगटपने था तथापि चैत्यवासियोंने अपने साधुपनेका व्यवहार छोड़कर दूष्टिराग गच्छ ममत्व तथा परिग्रहादिके लोभमें पड़गये और शास्त्रानुसारके शुद्ध व्यवहारकी कितनीही बातोंका लुप्तभाव करते हुए अपनी कल्पना मुजब अविधिमार्गकी कितनीही बातोंको जिस समय प्रवर्तमानकरी उसी समय श्रीमहावीरस्वामीका . छठा कल्याणक भी लुप्तभावको प्राप्त हो गया तब चीतोड़ नगरमें श्रीजिनबल्लभसूरिजीने अविधिमार्गकी कल्पित बातोंका निषेध पूर्बक शास्त्रानुसार विधिमार्गकी बातोंको प्रगट करने में श्रीमहावीरस्वामीका छठा कल्याणक भी प्रगट किया और जैसे . श्री ऐवन्तीपार्श्वनाथजीकी मूर्तिको व्राह्मणलोगोंने लुप्तकरी जिसका तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी महाराजने प्रगटकरी, जिसके बर्षों का नियमित समय तो श्रीज्ञानीजी महाराजके सिवाय दूसरे कोई कहने को समर्थ नहीं है.तैसेही
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